Category Archives: संघर्षरत जनता

गाज़ा पर इज़रायली सेटलर औपनिवेशिक घेरेबन्दी मुर्दाबाद! गाज़ा पर इज़रायली कब्ज़ा मुर्दाबाद! फ़िलिस्तीनी जनता का मुक्ति संघर्ष ज़िन्दाबाद!

कोई भी व्यक्ति जिसमें न्याय, बराबरी और निष्पक्षता की थोड़ी भी भावना है, वह स्वस्थ मन से इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी राज्य का समर्थन नहीं कर सकता! हम सभी जानते हैं कि इस मसले का केवल एक ही समाधान है- फ़िलिस्तीन का एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्थापित होना जहाँ मुस्लिम, यहूदी और ईसाई एक साथ रह सकें। हमास का उद्देश्य ऐसे किसी धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना है या नहीं, यह इज़रायली सेटलर्स द्वारा औपनिवेशिक गु़लामी और नस्लवादी रंगभेद का विरोध करने के फिलिस्तीनियों के अधिकार का आधार नहीं बन सकता है; अपने नेतृत्व का चुनाव करने का अधिकार फिलिस्तीनियों का अपना अधिकार है और सच तो यह है कि हमास इज़रायल के खा़त्मे या यहूदियों के क़त्लेआम की बात नहीं कर रहा, आप ख़ुद इसे देख सकते हैं! वो 1967 के दौर में मौजूद सीमाओं को वापस बहाल करने की माँग कर रहा है, द्वि-राज्य समाधान की बात कर रहा है और नये सेटलर उपनिवेश पर रोक और 100000 गाज़ाई बन्दियों के रिहाई की माँग कर रहा है।

प्रोटेरियल के पुराने ठेका मज़दूरों की हड़ताल की आंशिक जीत और आगे की चुनौतियाँ!

मज़दूरों की यह आंशिक जीत यह दिखाती है कि अपनी वर्गीय एकजुटता और संघर्ष के ज़रिए अपनी माँगों को एक हद तक पूरा करवाया जा सकता है। ऑटोमोबाइल सेक्टर में यही एकजुटता अगर सेक्टर के आधार पर बनायी जाये तो इस सेक्टर में मज़दूर वर्ग अपने तमाम हक़ और अधिकार हासिल कर सकता है। और आज उत्पादन के विकेन्द्रीकरण के साथ मज़दूर वर्ग के संघर्ष के लिए सेक्टरगत यूनियन ही मुख्य रास्ता हैं। साथ ही, हमें यह समझना होगा कि आज ठेका मज़दूरों को अपना स्वतन्त्र संगठन खड़ा करना होगा और अपने माँगों के लिए सेक्टरगत आधार पर संघर्ष करना होगा। ऐसे में ही स्थायी मज़दूरों का संघर्ष भी पुनर्जीवित किया जा सकता है, दलाल यूनियनों को किनारे लगाया जा सकता है और ऑटोमोबाइल मज़दूरों का एक जुझारू आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है।

साक्षी की हत्या को ‘लव जिहाद’ बनाने के संघ की कोशिश को ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ के नेतृत्व में शाहबाद डेरी की जनता ने नाकाम किया

शाहाबाद डेरी में संघ के ‘लव जिहाद’ के प्रयोग को असफल कर दिया गया। पहले तो इलाक़े में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के कार्यकर्ताओं और लोगो ने एकजुट होकर संघियों को इलाक़े से खदेड़ दिया। इसके बाद इलाक़े में संघियों को चेतावनी देते हुए और हत्यारे साहिल को कठोर सज़ा देने की माँग करते हुए रैली निकाली गयी। इलाक़े से खदेड़े जाने के बाद से और ‘लव जिहाद’ का मसला न बन पाने के कारण संघी बौखलाये हुए थे। संघ के अनुषांगिक संगठनों द्वारा इलाक़े का माहौल ख़राब करने के मक़सद से सभा भी बुलायी गयी और मुस्लिमों के ख़िलाफ़ खुलकर ज़हर उगला गया, पर इनकी यह कोशिश भी नाक़ाम रही।

उत्तराखण्ड में रोज़गार का हक माँगने पर मिलीं लाठियाँ और जेल

देश के बाकी राज्यों की तरह उत्तराखण्ड में भी बेरोज़गारी के भयंकर हालात हैं। पहाड़ में रोज़गार और बुनियादी सुविधाओं की कमी की वजह से एक बड़ी आबादी पलायन करके मैदानी इलाक़ों में आ रही है। कोरोना काल के बाद से यहाँ हालात और भी बदतर हुए हैं। सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकॉनमी (सीएमआईई) के अनुसार साल 2021-22 में भले ही उत्तराखण्ड में बेरोज़गारी दर राष्ट्रीय औसत से कम रही हो लेकिन यहाँ 20 से 29 वर्ष आयु वर्ग में बेरोज़गारी की दर 56.41% देखी गयी है जो देश के 20 से 29 वर्ष के आयु वर्ग में 27.63% बेरोज़गारी से दोगुनी से भी ज़्यादा है।

सड़क पर तो हम जीते ही थे, अब न्यायालय में भी जीत के क़रीब है दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का संघर्ष!

दिल्ली सरकार, महिला एवं बाल विकास विभाग और उसके दलालों की बेचैनी इस बात का सबब है कि दिल्ली सरकार के सामने अब कोई रास्ता नहीं बचा है। कुछ वक़्त पहले तक इन्हीं बर्ख़ास्तगियों को सही ठहराने वाला महिला एवं बाल विकास विभाग ऑर्डर जारी कर पुनः बहाली की नौटंकी करने को मजबूर हुआ। लेकिन अनर्गल शर्तों से भरे इस ऑर्डर को महिलाकर्मियों ने नामंज़ूर कर अपने संघर्ष को तब तक जारी रखने का ऐलान किया है जब तक सभी 884 ग़ैर-क़ानूनी टर्मिनेशन रद्द नहीं कर दिये जाते हैं। दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का संघर्ष न केवल टर्मिनेशन के ख़िलाफ़ है बल्कि न्यूनतम मज़दूरी, कर्मचारी का दर्जा, एरियर का भुगतान व ग्रैच्युटी समेत अन्य कई वाजिब माँगों के लिए भी है। महिलाकर्मियों के संघर्ष के दमन के ज़िम्मेदार आम आदमी पार्टी व भाजपा के ख़िलाफ़ दिल्ली निगम चुनाव में चला व्यापक बहिष्कार आन्दोलन भी आगे जारी रहेगा। न्यायालय में हमारा पक्ष इसीलिए मज़बूत है क्योंकि हमारी एकजुटता ठोस है और हम सड़क पर मज़बूत हैं।

‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों से एक अपील

देश में आम मेहनतकश जनता की ऐसी बेहाली कभी नहीं हुई थी। आज साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता में हमें बहाकर वास्तव में मौजूदा निज़ाम अडानियों-अम्बानियों की पायबोसी और सिजदे में लगा है। ऐसे में, देश में संघ परिवार व मोदी-शाह निज़ाम के ख़िलाफ़ देश के दस राज्यों में भगतसिंह जनअधिकार यात्रा को भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी व कई जनसंगठन आयोजित कर रहे हैं। उद्देश्य है पूँजीपरस्त साम्प्रदायिक फ़ासीवादी मोदी सरकार के ख़िलाफ़ और समूची पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़, जिसने अपने संकटकालीन दौर में पूँजीपति वर्ग की इस बर्बर व नग्न तानाशाही को पैदा किया है, जनता में एक जागृति, गोलबन्दी और संगठन पैदा करना; शहीदे-आज़म भगतसिंह और उनके साथियों के वैज्ञानिक सिद्धान्तों और उसूलों से जनता को परिचित कराना।

आँगनवाड़ी स्त्री कामगारों के संघर्ष ने तमाम पूँजीवादी पार्टियों के मज़दूर-मेहनतकश विरोधी चेहरे को बेपर्द किया!

दिल्ली में 31 जनवरी 2022 से शुरू हुआ आँगनवाड़ी स्त्री कामगारों का संघर्ष दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश के मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में एक आगे बढ़ा हुआ क़दम है। दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन की रहनुमाई में 38 दिनों तक चली ये हड़ताल हर आने वाले दिन के साथ नया इतिहास रचते हुए और अधिक मज़बूत होती रही। अपनी हड़ताल और रैलियों के माध्यम से सड़कों पर उतरे महिलाओं के सैलाब ने न सिर्फ़ दिल्ली में और केन्द्र में बैठे हुक्मरानों की कुर्सियाँ हिला दी थीं, उन्हें भयाक्रान्त कर दिया था और उनकी असलियत को उजागर किया बल्कि इस समूची पूँजीवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था को भी चुनौती दी।

एक बार फिर कश्मीरी क़ौम निर्णय में भागीदारी से वंचित

आपको याद होगा कि 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 और 35ए हटाये जाने के बाद मुख्यधारा का मीडिया और सोशल मीडिया पर मनोरोगी क़िस्म के विकृत मानसिकता वाले भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ता अर्धपागलों की तरह कश्मीर में प्लॉट ख़रीदने का जश्न मना रहे थे और कश्मीर की औरतों के बारे में अपनी कुत्सित मानसिकता का कुरूप प्रदर्शन कर रहे थे क्योंकि मोदी मीडिया ने इसे कुछ इस प्रकार ही प्रस्तुत किया था। लेकिन इस निर्णय से मोदी सरकार को जितनी उम्मीदें थीं उनमें से कुछ भी कारगर होती नज़र नहीं आ रहीं।

फ़िलिस्तीनी जनता के बहादुराना संघर्ष ने एक बार फिर इज़रायली हमलावरों को पीछे हटने पर मजबूर किया

पिछले मई में 11 दिनों तक गाज़ा शहर पर भयानक बमबारी के बाद 21 मई को इज़रायल और फ़िलिस्तीनी संगठन हमास के बीच संघर्ष विराम हुआ। इज़रायल तो फ़िलिस्तीनी लोगों के जनसंहार की अपनी मुहिम को जारी रखना चाहता था लेकिन हमेशा की तरह फ़िलिस्तीनियों के ज़बर्दस्त बहादुराना संघर्ष और उनके समर्थन में पूरी दुनिया में सड़कों पर उमड़े जन सैलाब ने, और मुख्यत: इसी के कारण अमेरिका के दबाव ने इज़रायल को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।

इन्साफ़पसन्द लोगों को इज़रायल का विरोध और फ़िलिस्तीन का समर्थन क्‍यों करना चाहिए

हम इन्साफ़पसन्द लोगों से मुख़ातिब हैं। जो लोग न्याय और अन्याय के बीच की लड़ाई में ताक़त के हिसाब से या समाज और मीडिया में प्रचलित धारणाओं के अुनसार अपना पक्ष चुनते हैं वे इसे न पढ़ें। आज जब दुनियाभर में लोग कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं और हमारे देश में हुक्‍मरानों के निकम्मेपन की वजह से हम अपने देश के भीतर एक नरसंहार के गवाह बन रहे हैं, वहीं इस महामारी के बीच हज़ारों मील दूर ग़ाज़ा में ज़ायनवादी इज़रायल एक बार फिर मानवता के इतिहास के सबसे बर्बर क़िस्‍म के नरसंहार को अंजाम दे रहा है। इस वीभत्स नरसंहार पर ख़ामोश रहकर या दोनो पक्षों को बराबर का ज़िम्मेदार ठहराकर हम इसे बढ़ावा देने का काम करेंगे।