Category Archives: संघर्षरत जनता

फ़्रांस की सड़कों पर फूटा पूँजीवाद के ख़िलाफ़ जनता का गुस्सा

फ़्रांस के लगभग सभी बड़े शहरों में मज़दूर, छात्र-युवा और आम नागरिक राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की पूँजीपरस्त नीतियों के विरोध में सड़कों पर हैं और विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। यह लेख लिखे जाते समय ‘येलो वेस्ट मूवमेण्ट’ नाम से मशहूर इस स्वत:स्फूर्त जुझारू आन्दोलन को शुरू हुए एक महीने से भी अधिक का समय बीत चुका है। मैक्रों सरकार द्वारा ईंधन कर में बढ़ोतरी करने के फ़ैसले के विरोध से शुरू हुआ यह आन्दोलन देखते ही देखते संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा आम जनता की ज़िन्दगी की बढ़ती कठिनाइयों के ख़िलाफ़ एक व्यापक जनउभार का रूप धारण करने लगा और आन्दोलन द्वारा उठायी जा रही माँगों में न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने, करों का बोझ कम करने, अमीरों पर कर बढ़ाने और यहाँ तक कि राष्ट्रपति मैक्रों के इस्तीफ़े जैसी माँगें शामिल हो गयीं। आन्दोलन की शुरुआत में मैक्रों ने इस बहादुराना जनविद्रोह को नज़रअन्दाज़ किया और उसे सशस्त्र बलों द्वारा बर्बरतापूर्वक दमन के सहारे कुचलने की कोशिश की। कई जगहों पर प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों की झड़पें भी हुईं। इस आन्दोलन के दौरान अब तक क़रीब 2000 प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया जा चुका है। परन्तु जैसाकि अक्सर होता है पुलिसिया दमन की हर कार्रवाई से आन्दोलन बिखरने की बजाय और ज़्यादा फैलता गया और जल्द ही यह जनबग़ावत जंगल की आग की तरह फ़्रांस के कोने-कोने तक फैल गयी।

उत्तर प्रदेश में केन्द्र व राज्य कर्मचारियों ने पुरानी पेंशन बहाली के लिए संघर्ष तेज किया

कर्मचारी शिक्षक अधिकार ‘पुरानी पेंशन बहाली’ मंच की ओर से 9 अगस्त को पूरे प्रदेश-भर में जि़ला मुख्यालयों पर एक दिवसीय प्रदर्शन का आयोजन किया गया। उत्तर प्रदेश के विभिन्न जि़लों में बिगुल मज़दूर दस्ता और दिशा छात्र संगठन के कार्यकर्ताओं ने भी आन्दोलन के समर्थन में शिरकत की। इलाहाबाद में कचहरी पर आयोजित प्रदर्शन में दिशा छात्र संगठन की एक टोली रेल कर्मचारियों के जुलूस के साथ पहुँची।

गोबिन्द रबर लिमिटेड, लुधियाना के मज़दूर संघर्ष की राह पर

तीन यूनिटें बन्द करके न सिर्फ़ 1500 से अधिक मज़दूरों को बेरोज़गार कर दिया गया और उनका चार-चार महीने का वेतन रोककर रख लिया गया है, बल्कि अक्टूबर 2017 से कम्पनी मालिक मज़दूरों का ईपीएफ़़ और ईएसआई का पैसा भी खा गये हैं। करोड़ों के इस घोटाले की तरफ़ श्रम विभाग व पंजाब सरकार दोनों ही आँखें मूँदकर बैठे हैं। क्यों? इसके बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की सिर्फ़ बातें की जाती हैं, जबकि वास्तव में इसे बढ़ावा ही दिया जा रहा है और पंजाब सरकार व श्रम विभाग की इसमें भागीदारी है।

उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में शिक्षा-रोज़गार अधिकार अभियान ने गति पकड़ी

लाखों नौजवान नौकरी की तलाश में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र अपने जीवन के सबसे शानदार दिनों को मुर्गी के दरबे नुमा कमरों में किताबों का रट्टा मारते हुए बिता देने के बाद भी अधिकांश छात्रों को हताशा-निराशा ही हाथ लगती है। बहुत सारे छात्रों के परिजन अपनी बहुत सारी बुनियादी ज़रूरतों तक में कटौती कर के पाई-पाई जोड़ करके किसी तरह अपने बच्चों को एक नौकरी के लिए बेरोज़गारी के रेगिस्तान में उतार देते हैं। लेकिन अधिकांश युवा रोज़गार की इस मृग-मारीचिका में भटकते रहते हैं। रोज़गार की स्थिति यह है कि एक अनार तो सौ बीमार। कुछ सौ पदों के लिए लाखों-लाख छात्र फॉर्म भरते हैं। पद इतने कम हैं कि आने वाले पचास सालों में आज जितने बेरोज़गार युवा हैं उनको रोज़गार नहीं दिया जा सकता।

12 जुलाई को क्लस्टर बसों के संवाहकों ने की एक दिवसीय हड़ताल

आमतौर पर एक संवाहक की एक दिन में डबल ड्यूटी लगती है यानी कि आठ-आठ घण्टे की दो पारियाँ। संवाहकों से काम डेली बेसिस पर लिया जाता है यानी उन्हें हर रोज़ अपने लिए ड्यूटी लेनी होती है और उसी हिसाब से उनका मासिक वेतन तय किया जाता है। दिल्ली सरकार द्वारा तय किया गया न्यूनतम वेतन तक संवाहकों को नहीं दिया जाता है। किसी अन्य किस्म का बोनस, भत्ता तो दूर की बात है, न कोई रविवार की छुट्टी दी जाती है, न ही कोई अन्य सरकारी छुट्टी। जैसे लेबर चौक पर मज़दूर अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए आपस में होड़ करते हैं, वैसे ही संवाहकों के बीच होड़ पैदा की जाती है। संवाहकों की संख्या जानबूझकर ज़रूरत से ज़्यादा रखी जाती है, ताकि एक संवाहक के ऊपर डीआईएमटीएस जब चाहे तब दबाव बना सके। संवाहकों के ऊपर लगतार ‘नो ड्यूटी’ की एक तलवार लटकती रहती है। ‘नो ड्यूटी’ एक किस्म का निलम्बन है जिसके तहत किसी संवाहक को अनिश्चित सीमा तक ड्यूटी मुहैया नहीं करायी जाती है।

मनरेगा मज़दूरों ने चुना संघर्ष का रास्ता

 इस पूरे मामले से पता चलता है कि किस तरह मज़दूरों का शोषण किया जा रहा है। पहले तो उनसे हाड़तोड़ काम लिया जाता है तथा जब बात पूरी मज़दूरी देने की आती है, तो प्रशासन द्वारा पैर पीछे हटा लिये जाते हैं। कई मज़दूरों को एक साल 6 महीने हुए काम का वेतन भी नहीं मिला है। नीचे से लेकर ऊपर तक मनरेगा ऑफ़िस में भ्रष्टाचार है। यूँ तो मनरेगा क़ानून के तहत 100 दिन काम की योजना है, लेकिन असल में ना तो मज़दूरों को सौ दिन काम मिलता है और ना ही पूरी मेहनत का हि‍साब मि‍लता है। क़ानून की किताबों में नये-नये क़ानून तो बनते हैं, किन्तु व्यवहार में कोई भी लागू नहीं होता। मेहनतकश वर्ग हर जगह शोषण का शिकार है। साथ ही डिजिटल इण्डिया के नाम पर मज़दूरों की दिहाड़ी मोबाइलों में डाली जाती है। अब सवाल यह है कि‍ मज़दूर अपना काम करें या फिर सिम कार्ड से अपने पैसे निकलवाने इधर-उधर भटकेगा।

एनआरएचएम के निविदा कर्मियों का संघर्ष

एनएचएम के संविदाकर्मी पिछले लम्बे समय से अपने अधिकारों के लिए आन्दोलनरत हैं। कर्मचारियों की माँग रही है कि अगर उनको उस काम के लिए वही वेतन दिया जाना चाहिए, जो उस काम को करने वाले नियमित प्रकृति के कर्मचारियों को मिलता है। इसके साथ ही साथ कर्मचारियों को मिलने वाली अन्य सुविधाएँ भी संविदा पर काम करने वाले कर्मचारियों को मिलनी चाहिए। इसी दौरान पिछली 16 मई को उत्तर प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अनुबन्ध समाप्त होने की बात कहकर 18 लोगों को एक झटके में काम से बाहर कर दिया। 23 मई से प्रदेश-भर में एनएचएम के संविदाकर्मियों ने ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन संविदा कर्मचारी संघ’ के बैनर तले अपनी पुरानी माँगों और इन कर्मचारियों के समर्थन में आन्दोलन की शुरुआत करते हुए प्रदेश-भर में कार्य बहिष्कार कर दिया। एनआरएचएम की शुरुआत के बाद से ही उसमें अपनी सेवाएँ दे रहे थे।

हत्यारे वेदान्ता ग्रुप के अपराधों का कच्चा चिट्ठा

पिछली 22 मई को तमिलनाडु पुलिस ने एक रक्तपिपासु पूँजीपति के इशारे पर आज़ाद भारत के बर्बरतम सरकारी हत्याकाण्डों में से एक को अंजाम दिया। उस दिन तमिलनाडु के तूतुकोडि (या तूतीकोरिन) जिले में वेदान्ता ग्रुप की स्टरलाइट कम्पनी के दैत्याकार कॉपर प्लाण्ट के विरोध में 100 दिनों से धरने पर बैठे हज़ारों लोग सरकारी चुप्पी से आज़िज़ आकर ज़िला कलेक्ट्रेट और कॉपर प्लाण्ट की ओर मार्च निकाल रहे थे। पुलिस ने पहले जुलूस पर लाठी चार्ज किया और उसके बाद गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। सादी वर्दी में बसों के ऊपर तैनात पुलिस के निशानेबाज़ों ने एसॉल्ट राइफ़लों से निशाना साधकर प्रदर्शनकारियों को गोली मारी। आन्दोलन की अगुवाई कर रहे चार प्रमुख नेताओं को निशाना साधकर गोली से उड़ा दिया गया। सरकार के मुताबिक 13 प्रदर्शनकारी गोली से मारे गये और दर्जनों घायल हुए।

हरियाणा के नगर पालिका, नगर निगम और नगर परिषदों के कर्मचारी हड़ताल पर

ज्ञात हो कि केन्द्र की तरह राज्य स्तर पर भी भजपा ने जनता से लोकलुभावन वायदे किये थे। सरकार बनने के चार साल बाद चुनावी घोषणापत्र गपबाजियों से भरे हुए पुलिन्दे प्रतीत हो रहे हैं। अब जबकि हरियाणा में सरकार को बने हुए 4 साल होने को हैं, तो आम जनता का सरकार की नीतियों और कारगुजारियों पर सवाल खड़े करना लाज़िमी है। भाजपा ने कच्चे कर्मचारियों को पक्का करने, वेतन बढ़ाने, सुविधाएँ देने, हर साल लाखों नये रोज़गार सृजित करने जैसे सैकड़ों वायदे कर्मचारियों से किये थे। किन्तु अब भाजपा के नेता कान में रुई-तेल डालकर सो रहे हैं। किये गये वायदे पूरे करना तो दूर कर्मचारियों के आर्थिक हालात और भी खस्ता करने पर भाजपा सरकार कटिबद्ध दिखायी दे रही है। हर विभाग को धीरे-धीरे ठेकेदारों के हाथों में सौंपा जा रहा है। हरियाणा लोक सेवा चयन आयोग से लेकर तमाम विभागों में घपलों-घोटालों का बोलबाला है। हर जगह की तरह हरियाणा में नगर निगम, नगर पालिका और नगर परिषद के तहत आने वाले सफ़ाई कर्मचारियों के हालात सबसे खस्ता हैं।

आईएमटी रोहतक की आइसिन कम्पनी के मज़दूरों के संघर्ष की रिपोर्ट

स्थानीय प्रशासन, स्थानीय नेताओं, श्रम विभाग के छोटे से लेकर बड़े अधिकारियों यानी हर किसी के दरवाज़े पर मज़दूरों ने दस्तक दी, किन्तु न्याय मिलने की बजाय हर जगह से झूठे दिलासे ही मिले। अब मज़दूर आबादी को तो हर रोज़ कुआँ खोदकर पानी पीना पड़ता है, तो कब तक धरना जारी रहता! आख़िरकार क़रीब 3 महीने के धरने-प्रदर्शन के बाद आइसिन के मज़दूरों का आन्दोलन क़ानूनी रूप से केस-मुक़दमे जारी रखते हुए धरने के रूप में ख़त्म हो गया। ज़्यादातर ठेके, ट्रेनी और अन्य मज़दूर काम की तलाश में फिर से भागदौड़ के लिए मजबूर हो गये। कम्पनी में ठेके पर नयी भर्ती फिर से कर ली गयी और उत्पादन बदस्तूर जारी है। अब कोर्ट-कचहरी में मज़दूरों को कितना न्याय मिला है, सामने है ही; और आइसिन के श्रमिकों को कितना मिलेगा, यह भी सामने आ ही जायेगा। और देर-सवेर कोर्ट के माध्यम से कुछ होता है तो भी ‘देरी से मिलने वाला न्याय’; न्याय नहीं समझा जा सकता!