बंगलादेश का जनउभार और मेहनतकशों की एक क्रान्तिकारी पार्टी की ज़रूरत

प्रियम्वदा

बंगलादेश की जनता ने सड़कों पर उतरकर एक बार फिर से यह साबित कर दिया है कि ज़ुल्म और अन्याय की जड़ें चाहे जितनी गहरी हों, आवाम की एकता के सामने उसका टिक पाना असम्भव होता है। छात्रों-युवाओं और मज़दूरों के बढ़ते जनसैलाब से भयाक्रान्त बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को आख़िरकार बीते 5 अगस्त को देश छोड़कर भागना पड़ा। सेना, पुलिस से लेकर तमाम नियम-क़ानून, फ़ौज-फटाके और सुरक्षा के इन्तज़ामात धरे के धरे रह गये और बंगलादेश के अवाम ने प्रधानमंत्री आवास ‘गणभवन’ पर क़ब्ज़ा जमा लिया। इस जनउभार ने शेख हसीना के नेतृत्व वाले बंगलादेशी पूँजीपति वर्ग के 16 वर्षों के निरंकुश शासन को उखाड़ फेंका।

5 अगस्त को शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग सरकार के गिरने के बाद और किसी क्रान्तिकारी पार्टी की ग़ैर-मौजूदगी की वज़ह से 8 अगस्त को नोबेल विजेता मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अन्तरिम सरकार ने सत्ता सँभाली है। हालिया स्थिति यह है कि बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और जमात सहित बंगलादेश के सात राजनीतिक दलों ने अपनी सहमति देते हुए कहा कि प्रोफ़ेसर मुहम्मद युनुस के नेतृत्व वाली अन्तरिम सरकार स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए अनुकूल माहौल तैयार करे। हालाँकि इस दौरान बस यही होगा कि शासन की बागडोर पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से के हाथों से निकलकर पूँजीपति वर्ग के दूसरे हिस्से के हाथों में चली जायेगी!

छात्रों-युवाओं की अगुवाई में शुरू हुआ बंगलादेश का यह आन्दोलन नौकरियों में एक ख़ास तरह के राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था ख़त्म करने की माँग या यूँ कहें कि रोज़गार की माँग को लेकर उठ खड़ा हुआ था।

साल 2018 में आरक्षण के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों की वजह से हसीना सरकार को नौकरियों में आरक्षण का नियम वापस लेना पड़ा था लेकिन इस साल बंगलादेश के हाईकोर्ट ने सरकार के उस फ़ैसले को पलटते हुए नौकरियों में उस आरक्षण को फिर से लागू करने की बात कही जिसके बाद ही जुलाई महीने  की शुरुआत में बंगलादेश विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ। बंगलादेश में आज़ादी के बाद साल 1972 में नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था लागू की गयी थी , जिसके तहत विभिन्न श्रेणियों के लिए 56 प्रतिशत सरकारी नौकरियाँ आरक्षित थीं। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा  – 30 प्रतिशत – स्वतंत्रता सेनानियों के लिए आरक्षित किया गया था जिसे  बाद के वर्षों में स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों और फिर उनके पोते-पोतियों तक बढ़ाया जाने लगा। दूसरी तरफ़ सरकारी पदों पर भर्ती नहीं हो रही थी या फिर नौकरियों के अवसर ही नहीं निकाले जा रहे थे और रही-सही नौकरियाँ उन्हें ही मिल रहीं थी जो अवामी लीग के कार्यकर्ता या शेख हसीना के समर्थक थे क्योंकि कोई नहीं जानता कि बंगलादेश में स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या कितनी है – वास्तव में यह आबादी के 0.1% से भी कम है।

 आन्दोलन की शुरुआत में अवामी लीग की सरकार ने छात्रों की माँगों को सुनने के बजाय उनके लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया और आन्दोलन का दमन करने के लिए कई हथकण्डे अपनाये। 12 जुलाई को हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में शेख हसीना ने छात्रों को रज़ाकार (मुक्ति आन्दोलन के समय पाकिस्तान का साथ देने वाले देशद्रोही) और आतंकवादी करार दिया जिसके बाद आक्रोश बड़े पैमाने पर फैल गया। इंटरनेट, फ़ोन जैसी ज़रूरी सेवाओं को बन्द कर दिया गया, कर्फ़्यू, पुलिस और अवामी लीग के गुण्डों द्वारा प्रदर्शनकारियों पर हमले करवाने शुरू किये गये जिसमें 400 से अधिक लोगों के  मारे जाने की ख़बर है।

शेख हसीना की सरकार द्वारा भारी दमन के बाद भी जब छात्रों का संघर्ष थमने के बजाय बढ़ता गया तब 21 जुलाई को कोर्ट ने अपने फ़ैसले में आरक्षण को ख़त्म करने का ऐलान किया लेकिन तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी! इस आन्दोलन में अब सिर्फ छात्र नहीं रह गये थे, मज़दूरों-मेहनतकशों और समाज के अन्य तबकों से लोग शामिल हो चुके थे और आन्दोलन अधिक व्यापक रूप ग्रहण कर चुका था। अब माँग सिर्फ़ नौकरियों तक सीमित नहीं थी बल्कि शेख हसीना के इस्तीफ़े और उसके शासन के अन्त की माँग प्रमुख बन चुकी थी।

बंगलादेश की मौजूदा स्थिति और जनउभार के  कारण

दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक बंगलादेश है। 17 करोड़ की आबादी वाले इस देश में  7 करोड़ 30 लाख से अधिक आबादी वो है जो मेहनत-मज़दूरी करती है। 3 करोड़ 20 लाख युवा ऐसे हैं जिनकी पहुँच से शिक्षा और रोज़गार बाहर है। वहीं 2023 के जून में महँगाई दर 9.72% तक पहुँच चुकी थी। पिछले 10-12 सालों में बढ़ी  बेरोज़गारी और महँगाई ने आम जनता की एक बड़ी आबादी को त्रस्त कर दिया है और इसके ही नतीजे के तौर पर समाज का एक बड़ा हिस्सा ग़रीबी और मुफ़लिसी में जीने के लिए मजबूर है। लोगों के जीवन की बुनियादी ज़रूरतें भी बमुश्किल पूरी हो रही थीं।

मज़दूरों के भयंकर शोषण के दम पर बंगलादेश दुनियाभर में सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में जाना जाता है और विदेशी निवेशकों के लिए निवेश के प्रमुख विकल्पों में से एक रहा है। बंगलादेशी मज़दूर दुनिया के सबसे ज़्यादा शोषित मज़दूरों में से हैं।

यहाँ गारमेण्ट सेक्टर अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। बंगलादेश दुनिया में कपड़ों का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। ‘बंगलादेश गारमेण्ट मैन्युफ़ैक्चरर्स एण्ड एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन’ (बीजीएमईए) के अनुसार, देश में लगभग 3,500 कपड़ा कारख़ाने हैं। इस उद्योग से लगभग 40 लाख मज़दूर जुड़े हैं, जिनमें अधिकतर महिलाएँ हैं। यहाँ के कारख़ानों में स्थितियाँ नर्क से भी बदतर हैं जिनमें महिलाएँ 18-18 घण्टे बेहद ही मामूली वेतन पर खटने को मजबूर हैं।  श्रम क़ानूनों से लेकर सुरक्षा के बुनियादी इन्तज़ाम तक कारखानों में मौजूद नहीं होते  हैं। इसी कारण आये-दिन कारख़ानों में दुर्घटनाओं की ख़बर सामने आती हैं। इन्हीं अमानवीय परिस्थितियों के ख़िलाफ़ पिछले साल अक्टूबर में गारमेंट्स वर्कर्स की एक बड़ी हड़ताल ने बंगलादेश की सरकार को हिला कर रख दिया था जिसके बाद ही सरकार को मज़दूरों की माँग मानने का तत्काल आश्वासन देना पड़ा।

इस बार के जनउभार में मज़दूर बड़ी संख्या में शामिल रहे हैं। शेख़ हसीना को सत्ता से हटाने में कामयाबी के बाद अभी भी बड़ी संख्या में आन्दोलन में शामिल हो रहे हैं। इस साल जनवरी में हुए चुनाव में शेख़ हसीना फिर से चुनी गई थीं। 15 साल से जारी उनके  शासन को बनाये रखने के लिए इस चुनाव में भारी धाँधली की गयी थी। चुनाव के दौरान कई प्रमुख विपक्षी नेताओं को जेलों में डाल दिया गया था और इस चुनाव में मुश्किल से 40 प्रतिशत लोगों ने वोट दिया था। मुख्य विपक्षी दल बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने इस चुनाव का बहिष्कार भी किया था। पिछले कुछ सालों से लगातार ही लोगों का असन्तोष और ग़ुस्सा हसीना सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों के ख़िलाफ़ उबल रहा था। इस साल शुरू हुआ छात्रों का यह आन्दोलन भी किसी एक घटना का परिणाम नहीं था बल्कि लम्बे समय से सरकार की जनविरोधी नीतियों की वजह से पैदा हुआ था।

बंगलादेश का इतिहास छात्रों के जुझारू संघर्ष और कुर्बानियों का समृद्ध इतिहास रहा है चाहे वो 1952 का आन्दोलन रहा हो या फिर 1971 का स्वतंत्रता आन्दोलन।

तख़्तापलट, सेना के क़ब्ज़े, सरकारों का गिराया जाना, बलिदान और आत्मसमर्पण बंगलादेश के लिए नयी बात नहीं है। इस बार भी शुरू हुए आन्दोलन को तमाम दमन झेलने के बाद भी छात्रों ने जारी रखा और पूरी राज्य मशीनरी को ठप्प कर दिया।  इस क्रान्तिकारी परिस्थिति में मज़दूर वर्ग के किसी क्रान्तिकारी विकल्प की ग़ैर-मौजूदगी के कारण अभी स्थिति यही बनती हुई दिख रही है कि सत्ता एक बार फिर से बुर्जुआ वर्ग के ही प्रतिनिधियों के हाथ में सौंपी जायेगी। इस बात की पूरी सम्भावना है कि मुख्य विपक्षी पार्टी, बीएनपी इस परिस्थिति का फ़ायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। आने वाले दिनों में वास्तव में एक और भी प्रतिक्रियावादी, इस्लामी कट्टरपंथी सरकार के गठन की सम्भावना बन सकती है जो बंगलादेश की आम जनता  के लिए फिर से उतनी ही या उससे अधिक ही दमनकारी साबित होगी। क्रान्तिकारी विकल्प या मज़दूरों की देशव्यापी क्रान्तिकारी पार्टी की अनुपस्थिति में, दुनिया के कई हिस्सों में हम इस सम्भावना को साकार होते हुए देख चुके हैं। हालिया उदाहरण की ही बात करें तो श्रीलंका में किसी क्रान्तिकारी विकल्प की अनुपस्थिति में अवाम का बहादुराना संघर्ष पूँजीपति वर्ग के ही अन्य धड़ों के हाथों में सत्ता हस्तान्तरण तक सीमित रह गया।

बंगलादेश की तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि उनमें से अधिकांश या तो संशोधनवादी हो गयी हैं या फिर कुछ तो अवामी लीग के नेतृत्व वाली सरकार का हिस्सा भी रह चुकी हैं और तात्कालिक परिस्थितियों का विश्लेषण किये बिना पुराने कार्यक्रम पर ही अटकी हुई हैं।

राजनीतिक उथल-पुथल और विकल्पहीनता की इस स्थिति में धार्मिक कट्टरपंथी और साम्प्रदायिक ताक़तें बंगलादेश में मौजूद अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर अपनी नफ़रती राजनीति को हवा देने का काम कर रही हैं हालाँकि आन्दोलनकारी छात्रों-युवाओं-मज़दूरों ने इस साम्प्रदायिक राजनीति का सक्रिय प्रतिकार किया है। उन्होंने अल्पसंख्यक इलाक़ों में अपनी टोलियाँ बनाकर साम्प्रदायिक ताक़तों को खदेड़ने की मुहिम भी चलायी है। यहाँ इस बात को ध्यान में रखना भी ज़रूरी है कि भारत की मोदी सरकार और उसका भोंपू मीडिया यहाँ पर साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने के अपने घिनौने एजेंडे के तहत बंगलादेश में हिन्दुओं पर हमलों की घटनाओं को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है।

इस बात की भी सम्भावना और उम्मीद है कि बंगलादेश के क्रान्तिकारी छात्र, युवा, मज़दूर और आम मेहनतकश जनता दीर्घकालिक क्रान्तिकारी संघर्ष को जन्म देंगे और क्रान्तिकारी मज़दूरवर्गीय राजनीतिक विकल्प के गठन की ओर बढ़ेंगे। इसकी शुरुआत छात्रों और मज़दूरों ने अपनी कमिटियाँ बनाने से कर दी है ताकि उनकी माँगों को सामने लाया जा सके और आन्दोलन सही दिशा में आगे बढ़ सके।

इस जनउभार के बाद से बंगलादेश में मौजूद राजनीतिक उथल-पुथल का तात्कालिक पटाक्षेप भले ही पूँजीपति वर्ग के बीच सत्ता हस्तान्तरण के रूप में होकर रह जाये फिर भी जनता के संघर्ष में मौजूद क्रान्तिकारी ताक़तें निश्चय ही देशस्तर पर एक मज़दूरवर्गीय क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण की ओर कदम बढ़ायेंगी जो समाजवादी समाज क़ायम करने की दिशा में संघर्षरत होगी।

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2024


 

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