मारुति के मज़दूर एक बार फिर संघर्ष की राह पर!
गुड़गाँव संवाददाता
18 सितम्बर (2024) से मारुति मानेसर प्लाण्ट के वर्ष 2012 से बर्ख़ास्त मज़दूर अपनी कार्यबहाली, झूठे मुक़दमों की वापसी और18 जुलाई की घटना की स्वतन्त्र जाँच की माँग के लिए मानेसर तहसील (आईएमटी मानेसर चौक के पास) पर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए हैं। लेकिन प्रबन्धन द्वारा त्रिपक्षीय बैठक में अड़ियल रवैये को देखते हुए मज़दूरों ने बीते 10 अक्तूबर से क्रमिक अनशन शुरू कर दिया है। संघर्ष में बर्ख़ास्त मज़दूरों के परिवार, विभिन्न मज़दूर यूनियनों व संगठनों के लोग शामिल हो रहें हैं।
इस वर्ष 18 जुलाई (2024) को मज़दूरों ने गुड़गाँव में जुलूस व प्रदर्शन के ज़रिये आगामी दिनों में अपनी न्यायपूर्ण माँगों के लिए संघर्ष को दोबारा तेज़ करने का ऐलान किया। इसके बाद 8 सितम्बर को हरियाणा के मौजूदा मुख्यमन्त्री नायाब सिंह सैनी द्वारा मज़दूरों को न्याय का भरोसा दिलाया गया और हरियाणा श्रम विभाग ने मारुति प्रबन्धन को न्यायपूर्ण समझौते का आदेश दिया। हालाँकि यह सब भी किसी नौटंकी से कम कुछ नहीं था। हरियाणा की भाजपा सरकार ऐसा दिखला रही थी कि मानो वह कल ही पैदा हुई हो और उसे मारुति मज़दूरों की माँगों और आन्दोलन के बारे में कुछ पता ही न हो! 2014 से हरियाणा में भाजपा की ही सरकार है। बहरहाल, नायब सिंह सैनी द्वारा भरोसा दिलाने की इस नौटंकी के बावजूद प्रबन्धन अपने अड़ियल रुख़ पर क़ायम रहा। नतीजतन मज़दूरों ने 18 सितम्बर से कम्पनी गेट पर धरने का ऐलान कर किया। इस पर प्रबन्धन तुरन्त कोर्ट में चला गया। इसके बावजूद मज़दूरों को गेट से 500 मीटर दूरी पर शान्तिपूर्ण धरने की अनुमति मिल गयी, लेकिन मानेसर पुलिस ने चुनाव आचार संहिता का हवाला देकर कोर्ट के आदेश की अवहेलना कर मज़दूरों को तहसील पर ही रोक दिया।
इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि मुनाफ़े की हवस पर उतारू जापानी मारुति सुज़ुकी कम्पनी, भ्रष्ट श्रम विभाग-पुलिस-प्रशासन व न्यायालय तथा पहले हुडा की कांग्रेस सरकार और अब सैनी की भाजपा सरकार का मज़दूर विरोधी चरित्र दिन के उजाले की तरह साफ़ हो चुका है। लेकिन दूसरी तरफ़ सिर्फ़ इलाक़े की नहीं बल्कि विभिन्न राज्यों की कई यूनियनों, मज़दूर संगठनों के अलावा विभिन्न जनसंगठनों व इन्साफ़पसन्द नागरिकों का भी समर्थन संघर्ष को मिल रहा है जिसके दम पर मज़दूर अपना दिन-रात का पक्का धरना जारी रखे हुए हैं।
आन्दोलन की शुरुआत कब और कैसी हुई?
मारुति के आन्दोलन की शुरूआत साल 2011 से हुई थी जब मारुति मज़दूर सभी के लिए उचित मज़दूरी व ठेका मज़दूरों के स्थायीकरण की माँग कर रहे थे। इस प्रक्रिया में वे यूनियन बनाने में भी क़ामयाब हुए। लेकिन जैसे ही स्थायी मज़दूरों ने कम्पनी में स्थायीकरण की माँग को आगे बढ़ाया प्रबन्धन ने यूनियन तोड़ने और पदाधिकारियों समेत मज़दूरों को तंग करना शुरू कर दिया था जिसका मौक़ा प्रबन्धन को 2012 में मज़दूरों और कम्पनी के भाड़े के गुण्डों में टकराव के वक़्त मिला गया था। कम्पनी में आग लगने की घटना में मैनेज़र की मौत का दोष मज़दूरों पर मढ़ कर मज़दूरों को एकतरफ़ा तरीक़े से अपराधी घोषित कर दिया गया था। 18 जुलाई, 2012 को मानेसर प्लाण्ट में जो कुछ हुआ, वह न तो सुनियोजित था और न ही यह संघर्ष का कोई तरीक़ा ही हो सकता है। वास्तव में ऐसी घटनाएँ प्रबन्धन की हरक़तों द्वारा भड़कायी जाती हैं। मीडिया से लेकर सरकार तक किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि मज़दूरों का आक्रोश इस क़दर क्यों फूट पड़ा था? अक्टूबर 2011 में प्रबन्धन ने जिस तरह से पैसे, सरकारी दबाव और झूठे वायदों के मेल से समझौता करवाया था और मारुति सुज़ुकी एम्प्लाइज़ यूनियन के नेतृत्व को ख़रीदकर यूनियन को ख़त्म कर दिया था, उसी से स्पष्ट हो गया था कि उसके इरादे नेक नहीं हैं। किसी तरह से हड़ताल को ख़त्म करने के लिए सारा षड्यन्त्र रचा गया था। इस घटना का फ़ायदा उठाकर प्रबन्धन ने नयी यूनियन की मान्यता रद्द करने की मंशा ज़ाहिर करके अपने इरादों का पता दे दिया था।
ग़ौरतलब बात यह है कि कम्पनी प्रबन्धन आजतक सीसीटीवी फुटेज न्यायालय के समक्ष पेश नहीं कर सका है। वहीं सरकार द्वारा गठित एसआईटी (स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम) ने मज़दूरों को निर्दोष क़रार दिया। 18 जुलाई 2012 को प्रबन्धन के अधिकारी की मौत के बाद यूनियन को ख़त्म करने के लिए मैनेजमेण्ट ने षड्यन्त्रकारी तरीक़े से 546 स्थायी व 1800 ठेका मज़दूरों को निकाल दिया था और 148 मज़दूरों को जेल भेज दिया गया था। फिर सबूतों के अभाव में 5 साल जेल में बिताने के बाद 117 मज़दूरों को बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया। लेकिन यूनियन के 12 पदाधिकारियों और एक मज़दूर जिया लाल समेत 13 मज़दूरों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनायी गयी। फिर 10 साल जेल में बिताने के बाद ज़मानत हासिल हुई। इस तरह 10 साल लम्बे क़ानूनी संघर्ष के बाद 2022 में बर्ख़ास्त मज़दूरों ने ज़मानत के बाद एक बार फिर से कार्यबहाली, केस वापसी और घटना की निष्पक्ष जाँच की माँग को लेकर 18 जुलाई घटना की बरसी के मौक़ों पर धरना-प्रदर्शन के ज़रिये प्रमुखता से उठाना शुरू कर दिया।
हालाँकि यह संघर्ष भी ग़द्दार केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों और कुछ अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी संगठनों के हस्तक्षेप के कारण अपने तमाम जुझारूपन के बावजूद, तमाम सम्भावनाओं के बावजूद, घुमावदार रास्तों से गुज़रता हुआ विघटित हो गया। कभी हरियाणा के उस वक़्त के मुख्यमन्त्री हुड्डा के आवास पर तो कभी कैथल के मन्त्री सुरजेवाला के आवास पर धरना प्रदर्शन आयोजित किया गया और फिर कैथल के ज़िला सचिवालय पर खूँटा डाल कर बैठा गया। तो कभी खाप पंचायत से मदद की गुहार लगायी गयी। आन्दोलन में मौजूद उक्त संगठनों ने कभी भी सुसंगतता का परिचय नहीं दिया और संघर्ष को अराजक तरीक़े से दिशा देते गये। आन्दोलन को अपनी ही वास्तविक उर्जा शक्ति यानी कि पूरे सेक्टर में फैली मज़दूर आबादी से, जिसकी काम और जीवन की स्थितियाँ मारुति के मज़दूरों से भिन्न नहीं हैं, ही काट कर रखा गया। यह आन्दोलन कारख़ाना केन्द्रित ही रह गया और मारुति मज़दूरों की चौहादी से बाहर नहीं निकल पाया। आलम यह है कि भूख हड़ताल शुरू होने के बावजूद धरने में शामिल मज़दूरों की संख्या अधिकतम 50 तक ही पहुँच पाती है।
‘स्थायी-ठेका-अप्रेण्टिस-ट्रेनी मज़दूरों की एकता ज़िन्दाबाद’ के मायने
मानेसर के इलाक़े में चल रहा संघर्ष न सिर्फ़ महज़ मारुति फैक्ट्री के बर्ख़ास्त मज़दूरों का संघर्ष है बल्कि पूरे सेक्टर और इलाक़े के सभी मज़दूरों का संघर्ष है। जिन माँगों के लिए 2011 में संघर्ष की शुरुआत हुई थी वे ऑटोसेक्टर समेत इलाक़े की विभिन्न औद्योगिक मज़दूरों की माँगे है। यानी अमानवीय कार्य परिस्थितियाँ, ठेका प्रथा, यूनियन अधिकार पर हमला तथा उचित वेतन बढ़ोतरी व सुरक्षित कार्य स्थितियों जैसी माँगों के लिए इस संघर्ष की शुरुआत की गयी थी, जो आज भी जारी है। लेकिन आज पहले से बरक़रार पुरानी समस्याओं के साथ-साथ नयी चुनौतियों का भी सामना करना होगा।
आज प्रबन्धन फैक्ट्री फ्लोर पर काम की तरह-तरह की श्रेणियाँ बनाकर मज़दूरों को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटता जा रहा है। व्यवस्था ने स्थायी और ठेका व अस्थायी मज़दूरों में बाँटकर हमारी ताक़त को कमज़ोर किया है। मौजूदा यूनियन नेतृत्व भी कम्पनी प्रबन्धन पर बर्ख़ास्त मज़दूरों के लिए दबाव बनाने में अभी तक क़ामयाब नहीं हो पाया। उल्टा, मारुति के तीनों प्लाण्टों में स्थायी मज़दूरों के मारुति प्रबन्धन के साथ हुए समझौतों में सभी अस्थायी मज़दूरों की माँगे और भागीदारी ग़ायब रहीं। एक तरफ़ 30,500 की बढ़ोतरी हासिल करने वालों की डेढ़ लाख का मासिक वेतन और दूसरी तरफ़ 15-20 हज़ार पाने वाले मज़दूरों को ठेंगा। मंचों पर व रैलियों में एकता के नारे लगाने वाले समझौता टेबलों पर सब भूल जाते हैं। इसलिए संकीर्ण ट्रेड यूनियन नीति और महज़ अपने आर्थिक लाभ को केन्द्र में रखते हुए वर्तमान और भविष्य के संघर्ष नहीं जीते जा सकते हैं। स्थायी मज़दूर तो वैसे भी अब गिनती के रह गये हैं। अगर समय रहते व्यवस्था और प्रबन्धन की इन साज़िशों को समझकर उनका माकूल जवाब नहीं दिया गया और सिर्फ़ नारों में ही नहीं बल्कि असलियत में भी स्थायी और अस्थायी मज़दूरों की एकता क़ायम नहीं की गयी तो आने वाले दिन और अधिक चुनौतीपूर्ण होंगे, इतना तय है। आज बेलसोनिका, प्रोटेरियल, जेएनएस समेत कई कारख़ानों में प्रबन्धन द्वारा जिस तरह स्थायी मज़दूरों को विभिन्न तरीक़ों से प्रताड़ित करना और अनेक बहानों से उनकी छँटनी करना या जबरन वीआरएस थोपना शुरू कर दिया गया है, स्थायी मज़दूरों और उसके नेतृत्व को समय रहते चेत जाना होगा वरना बाद में बहुत देर हो चुकी होगी!
इसके अलावा मज़दूरों को यह बात भी समझनी होगी कि फ़ासीवादी मोदी-सैनी की डबल इंजन की सरकार मज़दूरों को धर्म-जाति में बाँटने से नहीं चूकती है और ऐसा करके वह हमारे ही कम्पनी प्रबन्धन समेत समूचे पूँजीपति वर्ग की सेवा करती है। दंगों की आँच पर रोटियाँ सेंकने वाली सरकार मज़दूरों को ग़ुलामों की तरह निचोड़ने के लिए ही नयी श्रम संहिताएँ लेकर आयी है। अपनी न्यायपूर्ण माँगों के लिए संगठित होने और यूनियन बनाने, मोलभाव करने, प्रदर्शन-हड़ताल करने, महँगाई के हिसाब से उचित मज़दूरी हासिल करने के लिए संघर्षों को लगभग नामुमकिन बना दिया गया है। ऊपर से 3 नयी आपराधिक संहिताओं के ज़रिये हर जनवादी अधिकार के लिए उठने वाली आवाज़ पर भी क़ानूनी शिकंजा कसने की तैयारी की जा रही है।
मारुति के मज़दूरों के संघर्ष के अनुभव ने भी हमें यही सिखाया है कि जब तक इलाक़े के तमाम मज़दूर एक-दूसरे का साथ नहीं देंगे तबतक एक-एक कारख़ाने के मज़दूर अकेले-अकेले लड़कर आम तौर पर नहीं जीत सकते। सभी ठेका-कैजुअल-अप्रेण्टिस-ट्रेनी मज़दूरों की माँगों को उठाकर हमें व्यापक एकता बनानी होगी। इसी तर्ज़ पर आने वाले दिनों में ऑटो सेक्टर की इलाक़ाई व सेक्टरगत यूनियन और एकता का निर्माण करना होगा। तभी हम मौजूदा हालात को देखते हुए उपरोक्त चुनौतीपूर्ण स्थिति का मुक़ाबला कर पायेंगे। मज़दूर चाहे बर्ख़ास्त हों या प्लाण्ट में कार्यरत, सबको तत्काल एक मंच पर आना ही होगा। वरना ग़ुलामों की तरह काम करने और जानवरों की तरह मरने के लिए तैयार रहना होगा! आज मारुति के बर्ख़ास्त मज़दूर पूँजी, प्रबन्धन, पुलिस-प्रशासन और सरकार की मिली-जुली ताक़त का अकेले मुक़ाबला नहीं कर पायेंगे। हम मिलकर लड़ेंगे, तभी जीतेंगे!
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2024
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