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बिजली कनेक्शन की लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए ग्रेटर नोएडा में महापंचायत

लोगों की एकजुटता ने स्थानीय से लेकर उत्तर-प्रदेश सरकार तक में खलबली मची हुई है। लोगों को संगठित और एकजुट होता देखकर तुरन्त बिजली विभाग द्वारा सभी कॉलोनियों का ड्रोन द्वारा सर्वे शुरू कर दिया गया है। सरकार द्वारा इस क्षेत्र के लिए स्पेशल मीटिंगें बुलायी जा रही है। लोगों के हर ट्वीट पर सरकार का जवाब आ रहा है। ख़बर तो ये भी है कि उत्तर प्रदेश के शहरी विकास और अतिरिक्त ऊर्जा विभाग मन्त्री ए के शर्मा ने ग्रेटर नोएडा की बिजली की समस्या के लिए खास बैठक तक बुलायी है।

नोएडा में सैम्संग के नये कारख़ाने से मिलने वाले रोज़गार का सच

मोदी ने फैक्ट्री का उद्घाटन करते हुए बड़े ज़ोर-शोर से दावा किया कि यह कारख़ाना ‘मेक इन इंडिया’ की सफलता की मिसाल है और इससे हज़ारों लोगों को रोज़गार मिलेगा। नई फैक्ट्री से कितने लोगों को रोज़गार मिला यह तो अभी पता नहीं लेकिन सैम्संग कैसा रोज़गार दे रही है, यह जानना ज़रूरी है। नोएडा कारख़ाने में 1000 से अधिक ठेके के मज़दूर हैं जिन्हें 12-12 घण्टे काम करने के बाद न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं मिलती।

नोएडा की एक्सपोर्ट कम्पनियों में मज़दूरों की बदतर हालत

तमाम बुर्जुआ अर्थशास्त्री और सरकारी भोंपू जिन श्रम क़ानूनों को देश की आर्थिक प्रगति की राह का रोड़ा बताते रहते हैं उनकी असलियत जानने के लिए राजधानी से सटे औद्योगिक महानगर नोएडा में मज़दूरों की हालत को देखना ही काफ़ी है। राजधानी दिल्ली के बगल में स्थित नोएडा देश के सबसे बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में से एक है। यहाँ सैकड़ों अत्याधुनिक फ़ैक्टरियों में लाखों मज़दूर काम करते हैं। इन फ़ैक्टरियों में मज़दूरों का शोषण और उत्पीड़न कोई नयी बात नहीं है। मगर हाल के दिनों में विभिन्न एक्सपोर्ट कम्पनियों में मज़दूरों के साथ होने वाली बदसलूकी बढ़ती जा रही है जिसके कारण मज़दूरों में मालिकों के ख़िलाफ़ आक्रोश भी गहराता जा रहा है। इन कम्पनियों में काम कर रही महिलाओं की हालत तो और भी बदतर तथा असहनीय है।

मज़दूरों की ज़ि‍न्दगी

मैं काम से नहीं घबराता, लेकिन इतनी मेहनत से काम करने के बाद भी सुपरवाइजर मां-बहन की गाली देता रहता है, ज़रा सी गलती पर गाली-गलौज करने लगता है, और अक्सर हाथ भी उठा देता है। मज़दूर लोग दूर गांव से अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए आए हैं, इसलिए नौकरी से निकाले जाने के डर से वे लोग कुछ नहीं बोलते। शुरू-शुरू में मैंने पलटकर जवाब दिया तो मुझे काम से निकाल दिया गया। यहां मेरा कोई जानने वाला नहीं है, इसलिए मेरे लिए काम करना बहुत ही ज़रूरी है। इसी बात पर मैं भी अब कुछ नहीं बोलता। लेकिन बुरा बहुत लगता है कि सुपरवाइजर ही नहीं, मैनेजर, चौकीदार और खुद मालिक लोग भी हमें जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझते। कारखाने में घुसने के समय और काम खत्म करने के बाद बाहर लौटते समय गेट पर बैठे चौकीदार हम लोगों की तलाशी ऐसे लेते हैं, जैसे हम चोर हों। बस लंच में ही समय मिलता है। उसके अलावा यदि जरूरत हो तो सुपरवाइजर की नाक रगड़नी पड़ती है। स्त्री मज़दूरों के साथ तो और भी बुरा बर्ताव होता है। गाली-गलौज, छेड़छाड़ तो आम बात है, जैसे वे औरत नहीं, उस फैक्ट्री का प्रोडक्ट हों। एक दो औरत मजदूरों ने विरोध किया और पलट कर गाली भी दी, तो उन्हें काम से निकाल दिया गया और खूब बेइज्जती की।

नोएडा की मज़दूर बस्ती में शहीद मेले का आयोजन

वक्‍ताओं ने कहा कि आज भगतसिंह और उनके साथियों को याद करने का एक ही मतलब है कि अन्‍धाधुन्‍ध बढ़ती पूंजीवादी–साम्राज्‍यवादी लूट के खिलाफ़ लड़ाई के लिए उनके सन्‍देश को देश के मेहनतकशों के पास लेकर जाया और उन्‍हें संगठित किया जाये। धार्मिक कट्टरपंथ और संकीर्णता के विरुद्ध आवाज़ उठायी जाये और जनता को आपस में लड़ाने की हर साजिश का डटकर विरोध किया जाये

पूँजीवाद में मंदी और छँटनी मज़दूरों की नियति है!

पुराने अनुभवी मज़दूर जानते हैं कि समय-समय पर औद्योगिक इलाके इसी तरह मंदी के भँवर में डूबते-उतरते रहते हैं। लेकिन पढ़े-लिखे मज़दूर तक यह नहीं जानते कि उत्पादन की पूँजीवादी व्यवस्था स्वयं ही इन संकटों को जन्म देती है।
मंदी के संकट से उबरने के लिए पूँजीपति ओवरटाइम में कटौती करते हैं, मज़दूरियों पर खर्च कम करने के लिए या तो मज़दूरियाँ घटाते हैं या फिर मज़दूरों को काम से निकालकर बेरोज़गारों की कतार में में खड़ा होने पर मजबूर करते हैं। इस उठा-पटक का अनिवार्य परिणाम मज़दूरों की बदहाली के रूप में आता है। इसके कारण कई बार छोटे कारखानेदार भी तबाह होते हैं जिसका सीधा फायदा बड़े कारखानेदारों को होता है।

नोएडा में मज़दूरों का आक्रोश सड़कों पर फूटा

नोएडा का औद्योगिक इलाका गत 20-21 फरवरी को मीडिया में राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में था। वजह थी मज़दूरों के आक्रोश का सड़कों पर फूटना। पूँजीवादी ख़बरिया चैनल और अख़बार मज़दूरों को गुण्डा, अपराधी और बल्बाई घोषित कर रहे थे। मगर यही मीडिया मज़दूरों के ऊपर होने वाले रोज़-रोज़ के अन्याय और ज़ोर-ज़ुल्म पर चुप्पी साधे रहता है। देश के अन्य औद्योगिक इलाकों की तरह नोएडा के कम्पनी मालिक श्रम क़ानूनों का खुले आम उल्लंघन करते हैं, यह तो किसी से छुपा नहीं है, मगर अब तो पूरी की पूरी तनख़्वाह भी मार ली जा रही है। नोएडा में ऐसे हज़ारों मज़दूर मिल जायेंगे जिनकी एक-एक दो-दो महीने की तनख़्वाह कोई न कोई बहाना बनाकर मार ली गई है। इनमें से ज़्यादातर मामलों में मालिकों मैनेजरों और तथाकथित ठेकेदारों की मिलीभगत होती है। ऐसी ही एक घटना 20 वर्षीय मज़दूर विकास व उसके साथी मज़दूरों के साथ हुई। विकास के अनुसार वह डी – 125/63, नोएडा में हेल्पर के रूप में काम करता था।

आई.ई.डी. की फैक्ट्री में एक और मज़दूर का हाथ कटा

लालकुँआ स्थिति आई.ई.डी. के बारे में छपी रिपोर्टों से ‘बिगुल’ के पाठक परिचित ही हैं। यहाँ काम कर रहे मज़दूर आए दिन दुर्घटनाओं का शिकार होते रहते हैं। कभी उंगलियाँ कटती हैं, तो कभी हथेली। मालिक के मुनाफे की हवस के ताज़ा शिकार गुमान सिंह हुए हैं जिनकी उम्र महज 35 साल है। गुमान सिंह इण्टरनेशनल इलेक्ट्रो डिवाइसेज लि. के फ्रेमिंग डिपार्टमेण्ट — जिसमें पिक्चर टयूबों की फ्रेमें बनती हैं — में काम करते थे। घटना 24 जनवरी, 2011 की रात्रि पाली में हुई। कम्पनी की एम्बुलेंस नामधारी निजी कार से उन्हें डॉक्टरी इलाज के लिए ले जाया गया। शुरुआती कुछ ख़र्च देने के बाद प्रबन्‍धन चुप बैठा है। गुमान सिंह इस उम्मीद में हैं कि इस कम्पनी को मैंने जवानी के 15 बरस दिए हैं, वह हमारा ज़रूर ख्याल करेगी। गुमान सिंह गढ़वाल के रहने वाले हैं। 1995 में गाज़ियाबाद आये कि यहाँ मोटर मैकेनिक का काम सीखेंगे। कई-एक फैक्ट्रियों में काम किया, अन्तत: आई.ई.डी. में 1996 से काम करने लगे। 6 माह बाद 1997 में उन्हें कम्पनी ने स्थायी कर दिया। तब से वे इसी कम्पनी में काम करते रहे हैं। गाज़ियाबाद के ज़नता क्वार्टर में अपने तीन बच्चों व बुजुर्ग बाप के साथ रहने वाले गुमान सिंह के सामने भविष्य की ज़िम्मेदारी सामने खड़ी है। शरीर का सबसे कीमती अंग गँवाकर यह मज़दूर अपने बच्चों का पेट कैसे पालेगा, इसके बारे में मुनाफाख़ोर मालिकान के पास क्या कोई जबाव है?

सीटू की गद्दारी से आई.ई.डी. के मजदूरों की हड़ताल नाकामयाब

दुर्घटना के शिकार इन मजदूरों को कम्पनी के मालिकान मशीनमैन से हेल्पर बना देते हैं और उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया जाता है। बीती दीपावली के दौरान इस कारख़ाने के मजदूरों ने हड़ताल की थी और कारख़ाने पर कब्जा कर लिया था। सीटू के नेतृत्व ने इस आन्दोलन को अपनी ग़द्दारी के चलते असफल बना दिया था। सीटू के नेतृत्व ने मजदूरों को मुआवजे के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करने की बजाय उनके दिमाग़ में यह बात बिठा दी थी कि मालिक उँगलियाँ कटने के बाद भी काम से निकालने की बजाय हेल्पर बनाकर मजदूरों पर अहसान करता है। जब मजदूरों ने दीपावली के दौरान संघर्ष किया तो मालिकों ने छह मजदूरों के ऊपर कानूनी कार्रवाई का नाटक करते हुए उन्हें निलम्बित कर दिया। वास्तव में, इन मजदूरों पर कोई एफ.आई.आर. दर्ज नहीं की गयी थी। लेकिन सीटू के नेतृत्व ने इस बारे में मजदूरों को अंधेरे में रखा और उनको यह बताया कि फिलहाल कारख़ाने पर कब्जा छोड़ दिया जाये और हड़ताल वापस ले ली जाये, वरना उन मजदूरों पर कानूनी कार्रवाई भी हो सकती है। मजदूर हड़ताल वापस लेने को तैयार नहीं थे, लेकिन सीटू ने बन्द दरवाजे के पीछे मालिकों से समझौता करके हड़ताल को तोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि वे छह मजदूर भी काम पर वापस नहीं लिए गये और मजदूरों की वेतन बढ़ाने, बोनस देने आदि की माँगों को भी मालिकों ने नहीं माना।

जानवरों जैसा सलूक किया जाता है मज़दूरों के साथ

मुझे 2200 महीने की पगार मिलती है और 12-14 घण्टे तक काम करना पड़ता है। ओवरटाइम सिंगल रेट से देता है और एक भी छुट्टी नहीं मिलती। मैं काम से नहीं घबराता, लेकिन इतनी मेहनत से काम करने के बाद भी सुपरवाइजर माँ-बहन की गाली देता रहता है, ज़रा सी ग़लती पर गाली-गलौज करने लगता है, और अक्सर हाथ भी उठा देता है। मज़दूर लोग दूर गाँव से अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए आये हैं, इसलिए नौकरी से निकाले जाने के डर से वे लोग कुछ नहीं बोलते। शुरू-शुरू में एक-दो फैक्टरी में मैंने पलटकर जवाब दिया तो मुझे काम से निकाल दिया गया। यहाँ मेरा कोई जानने वाला नहीं है, इसलिए मेरे लिए काम करना बहुत ही ज़रूरी है। इसी बात पर मैं भी अब कुछ नहीं बोलता। लेकिन बुरा बहुत लगता है कि सुपरवाइज़र ही नहीं, मैनेजर, चौकीदार और ख़ुद मालिक लोग भी हमें जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझते। कारख़ाने में घुसने के समय और काम खत्म करने के बाद बाहर लौटते समय गेट पर बैठे चौकीदार हम लोगों की तलाशी ऐसे लेते हैं, जैसे हम चोर हों। यही नहीं, हम लोगों को चाय पीने, बीड़ी पीने और यहाँ तक कि पेशाब करने के लिए नहीं जाने दिया जाता। बस लंच में ही समय मिलता है। उसके अलावा यदि ज़रूरत हो तो सुपरवाइज़र के आगे नाक रगड़नी पड़ती है। औरत मज़दूरों के साथ तो और भी बुरा बर्ताव होता है। गाली-गलौज, छेड़छाड़ तो आम बात है, जैसे वे औरत नहीं, उस फैक्टरी का प्रोडक्ट हों। एक-दो औरत मज़दूरों ने विरोध किया और पलटकर गाली भी दी, तो उन्हें काम से निकाल दिया गया और बड़ा बेइज्ज़त किया।