Category Archives: श्रम क़ानून

कांग्रेस का मज़दूर-विरोधी चेहरा फ़िर हुआ बेनकाब, कर्नाटक में काम के घण्टे बेतरह बढ़ाने की तैयारी में सरकार!

काम के घण्टे बढ़ने से कम्पनियों में तीन शिफ्ट की जगह दो शिफ्ट में ही काम होगा जिससे कि अभी काम कर रहे कुल मज़दूरों के एक-तिहाई हिस्से को बाहर कर दिया जाएगा। बेरोज़गारों की ‘रिजर्व आर्मी’ में बढ़ोतरी होगी जिसका दूरगामी फ़ायदा भी इन्हीं कम्पनियों को होगा। इसके साथ ही कम्पनियाँ आईटी सेक्टर के मज़दूरों को बिना ओवर टाइम रेट दिए उनसे अतिरिक्त काम करवा सकती है। करीब 140 साल पहले दुनिया के लाखों मज़दूरों के संघर्ष व कुर्बानी के बाद 8 घण्टे काम का हक़ हासिल हुआ था। यह बुनियादी हक़ भी आज मज़दूर वर्ग से छीना जा रहा है।

बिगुल पॉडकास्ट – 6 – मोदी सरकार की फ़ासीवादी श्रम संहिताओं के विरुद्ध तत्काल लम्बे संघर्ष की तैयारी करनी होगी

छठे पॉडकास्ट में हम मज़दूर बिगुल के संपादकीय लेख को पेश कर रहे हैं। शीर्षक है – “मोदी सरकार की फ़ासीवादी श्रम संहिताओं के विरुद्ध तत्काल लम्बे संघर्ष की तैयारी करनी होगी”

क्रान्तिकारी मनरेगा यूनियन (हरियाणा) द्वारा सदस्यता कार्ड जारी किये गये और आगामी कार्य योजना बनायी गयी

कलायत, कैथल में मनरेगा के काम की जाँच-पड़ताल में पता चला है कि यहाँ किसी भी मज़दूर परिवार को पूरे 100 दिन का रोज़गार नहीं मिलता है, जैसा कि क़ानूनन उसे मनरेगा के तहत मिलना चाहिए। असल में सरकारी क़ानून के तहत 1 वर्ष में एक मज़दूर परिवार को 100 दिन के रोज़गार की गारण्टी मिलना चाहिए। साथ ही क़ानूनन रोज़गार के आवदेन के 15 दिन के भीतर काम देने या काम ना देने की सूरत में बेरोज़गारी भत्ता देने की बात कही गयी है।

गिग व प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था के मज़दूरों के श्रम अधिकारों को छीनने के लिए कर्नाटक की कांग्रेस सरकार लायी ख़तरनाक मसविदा क़ानून

इसका मुख्य लक्ष्य यह है कि इन गिग मज़दूरों और प्लेटफॉर्म कम्पनियों के बीच के रोज़गार सम्बन्ध को ही नकार देना, ताकि इन मज़दूरों की मज़दूर पहचान ही उनसे छीन ली जाय। इसका प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था के पूँजीपतियों को क्या फ़ायदा होगा? इसका यह फ़ायदा होगा कि औपचारिक तौर पर मज़दूरों को जो थोड़े-बहुत श्रम अधिकार प्राप्त हैं, उन पर इन गिग मजदूरों का कोई दावा नहीं होगा। यानी पुराने श्रम क़ानूनों के तहत और नये फ़ासीवादी लेबर कोड के तहत ये मज़दूर आयेंगे ही नहीं।

मोदी सरकार की फ़ासीवादी श्रम संहिताओं के विरुद्ध तत्काल लम्बे संघर्ष की तैयारी करनी होगी

अगर ये श्रम संहिताएँ लागू होती हैं तो मज़दूर वर्ग को गुलामी जैसे हालात में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। अभी भी 90 फ़ीसदी अनौपचारिक मज़दूरों के जीवन व काम के हालात नारकीय हैं। अभी भी मौजूद श्रम क़ानून लागू ही नहीं किये जाते, जिसके कारण इन मज़दूरों को जो मामूली क़ानूनी सुरक्षा मिल सकती थी, वह भी बिरले ही मिलती है। लेकिन अभी तक अगर कहीं पर अनौपचारिक व औपचारिक, संगठित व असंगठित दोनों ही प्रकार के मज़दूर, संगठित होते थे, तो वे लेबर कोर्ट का रुख़ करते थे और कुछ मसलों में आन्दोलन की शक्ति के आधार पर क़ानूनी लड़ाई जीत भी लेते थे। लेकिन अब वे क़ानून ही समाप्त हो जायेंगे और जो नयी श्रम संहिताएँ आ रही हैं उनमें वे अधिकार मज़दूरों को हासिल ही नहीं हैं, जो पहले औपचारिक तौर पर हासिल थे। इन चार श्रम संहिताओं का अर्थ है मालिकों और कारपोरेट घरानों, यानी बड़े पूँजीपति वर्ग, को जीवनयापन योग्य मज़दूरी, सामाजिक सुरक्षा और गरिमामय कार्यस्थितियाँ दिये बग़ैर ही उनका भयंकर शोषण करने की इजाज़त ओर मौक़ा देना।

दिल्ली में सीवर लाइन बनाने वाले मज़दूरों के हालात

सीवर लाइन बिछाने वाली कम्पनी और कॉण्ट्रेक्टर दोनों गुजरात के हैं और सभी मज़दूरों को भी ठेके पर गुजरात से ही लाया गया है। इन्हें 1 मीटर लम्बाई और 1 मीटर गहराई का गड्ढा खोदने के 120 रुपये मिलते हैं। एक मज़दूर अधिकतम दिनभर में 5-6 मीटर ही गड्ढा खोद पाता है जिसके लिए उन्हें सुबह 6 बजे से लगातार रात 8 बजे तक खुदाई करनी पड़ती है। यानी औसतन 5 मीटर गड्ढे खोदने पर उनकी 600 रुपये की दिहाड़ी बनती है जिसके लिए उन्हें 14 घण्टे काम करना पड़ता है। इन मज़दूरों लिए छुट्टी का कोई मतलब नहीं है, कई बार पूरी रात भी ओवरटाइम लगाना पड़ता है। बरसात होने या किसी भी अन्य स्थिति में काम न होने पर इन्हें कुछ नहीं मिलता है क्योंकि इनका ठेका तो 120 रुपये प्रति मीटर की खुदाई का है। इस 45-50 डिग्री सेल्सियस की गर्मी में कम्पनी, काण्ट्रेक्टर या ठेकेदार की तरफ़ से लोगों के लिए पीने के पानी तक का इन्तज़ाम भी नहीं किया जाता है। ये मज़दूर साधारण प्याऊ या जनता के बीच से ही पीने के पानी का इन्तज़ाम करते हैं।

खाड़ी देशों में प्रवासी मज़दूरों के नारकीय हालात से उपजा एक और हादसा

खाड़ी के देशों में प्रवासी मज़दूरों के लिये कफ़ाला प्रणाली मौजूद है। कफ़ाला प्रणाली क़ानूनों और नीतियों का एक समुच्चय है जो प्रवासी मज़दूरों पर नियन्त्रण रखने के लिये ही बनाया गया है। इसके तहत कोई भी प्रवासी मज़दूर ठेकेदारों या मालिकों के पूर्ण नियन्त्रण में होता है। इसके अन्तर्गत मज़दूरों को देश में प्रवेश करने, वहाँ रहने और काम करने तथा वहाँ से बाहर जाने के लिये पूरी तरह से ठेकेदारों और मालिकों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। आमतौर पर अपने अनुबन्ध के पूरा होने से पहले, एक निश्चित समयावधि से पहले या अपने नियोक्ता की अनुमति के बिना वे नौकरी नहीं छोड़ सकते या उसे बदल नहीं सकते। जो लोग किसी कारण से नौकरी छोड़ते हैं, उन्हें फ़रार होने के अपराध में गिरफ़्तार तक कर लिया जाता है और कई मामलों में निर्वासित भी कर दिया जाता है। सीधे शब्दों में कहें तो कफ़ाला प्रणाली ठेकेदारों और मालिकों को शोषण करने की क़ानूनी इजाज़त देती है और इसके तहत मज़दूर बेहद कम तनख्वाह पर और नारकीय कार्य स्थितियों व जीवन स्थितियों में ग़ुलामों की तरह काम करने को मजबूर होते हैं।

करावल नगर (दिल्ली) के बादाम मज़दूरों की हड़ताल को मिली जीत!

इस शानदार हड़ताल ने भाजपा-आरएसएस से जुड़े मालिकों और उनकी गुण्डा वाहिनियों का मुकाबला बख़ूबी किया। बादाम मज़दूरों के संघर्ष ने करावल नगर के मेहनतकशों के सामने तमाम पूँजीवादी पार्टियों और उनकी मालिकों के साथ गठजोड़ को सीधे तौर पर खोलकर रख दिया। भाजपा-आरएसएस की शह पर इस पूरे इलाके में चल रही गोदाम-मालिकों की गुण्डागर्दी को जहाँ एक तरफ़ मज़दूरों ने चुनौती दी वहीं दूसरी तरफ़ उनकी लूट को भी मानने से इन्कार कर दिया। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के इस क्षेत्र में निगम पार्षद से लेकर विधायक,सांसद तक सभी भाजपा के हैं और इस पूरे मसले में मालिकों के साथ इनकी साँठ-गाँठ बिल्कुल साफ़ हो गयी।

देश के निर्माण मज़दूरों की भयावह हालत, एक क्रान्तिकारी बैनर तले संगठित एकजुटता ही इसका इलाज

निर्माण कार्य में लगे मज़दूर असंगठित मज़दूर होते हैं। आज देश में लगभग 45 करोड़ संख्या इन्हीं असंगठित मज़दूरों की है, जो कुल मज़दूरों की आबादी का 90% के क़रीब है। लेकिन देश में बैठी मोदी सरकार ने आज पूरा इन्तज़ाम कर लिया है कि मज़दूरों का खून चूसने में कोई असर न छोड़ा जाये। आपको पता हो कि अभी पहले से मौजूद श्रम क़ानून इतने काफ़ी नहीं थे जो पूर्ण रूप से मज़दूरों के हकों और अधिकारों की बात कर सके, और किसी भी तरह की दुर्घटना होने पर उनके लिए किसी भी तरह की त्वरित कार्रवाई करे। अभी कहने को सही, कागज़ पर कुछ श्रम क़ानून मौजूद होते हैं। थोड़ा हाथ-पैर मारने पर और श्रम विभाग के कुछ चक्कर काटने पर गाहे-बगाहे कुछ लड़ाइयाँ मज़दूर जीत जाते हैं। साल में एक या दो बार श्रम विभाग के अधिकारी भी सुरक्षा जाँच के लिए (जो बस रस्मअदायगी ही होती है) निकल जाते हैं। लेकिन अम्बानी-अडानी जैसे पूँजीपतियों के मुनाफ़े को और बढ़ाने के लिए सरकार पुराने सारे श्रम क़ानूनों को खत्म करके चार लेबर कोड लाने की तैयारी में है।

नगर निगम गुड़गाँव के ठेका ड्राइवरों को हड़ताल की बदौलत आंशिक जीत हासिल हुई

वेतन और पी.एफ. के भुगतान न होने के चलते न सिर्फ़ ठेका ड्राइवर बल्कि ठेके पर काम करने वाले सफ़ाई, सिक्योरिटी गार्ड, मैकेनिक सभी हड़ताल में शामिल हुए थे। वैसे तो इस इकोग्रीन कम्पनी द्वारा ठेके पर कार्यरत मज़दूरों के श्रम कानूनों के सभी अधिकारों की जिस तरह से खुलेआम धज्जियाँ नगर निगम गुड़गाव की नाक के नीचे उड़ाई जा रहीं है। ज़ाहिर है, यह बिना प्रशासन, सरकार और ठेकेदार की मिलीभगत के सम्भव नहीं है। इसके लिए ठेका ड्राइवरों को इस सच्चाई को समझना होगा और आने वाले दिनों में इसके लिए कमर कसनी होगी। साथ ही विभिन्न सेक्टर के मज़दूरों के साथ इस मुद्दे पर एकता बढ़ाकर आगे बढ़ना होगा।