मोदी सरकार की फ़ासीवादी श्रम संहिताओं के विरुद्ध तत्काल लम्बे संघर्ष की तैयारी करनी होगी
सम्पादकीय अग्रलेख
मोदी-नीत भाजपा के नेतृत्व में गठबन्धन सरकार बनने के बाद आने वाले ‘मज़दूर बिगुल’ के पहले अंक यानी पिछले अंक के सम्पादकीय में हमने कहा था कि भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिलने और नायडू-नीतीश की बैसाखी पर गठबन्धन सरकार बनने से निश्चय ही संघ परिवार के फ़ासीवादी एजेण्डा के कुछ प्रतीकात्मक व कोर साम्प्रदायिक तत्वों को लागू करने में, मसलन, समान नागरिक संहिता और नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने में कुछ दिक्कतें पेश आ सकती हैं। मोदी सरकार द्वारा इन मुद्दों पर समझौते से मोदी की फ़ासीवादी फ्यूहरर छवि को भी कुछ नुकसान पहुँच सकता है। लेकिन हमने कहा था कि उसकी मज़दूर-विरोधी नवउदारवादी नीतियों को कोई फ़र्क पड़ेगा इसकी गुंजाइश नहीं के बराबर है। वजह यह कि इन नवउदारवादी नीतियों को भारत के पूँजीपति वर्ग की सभी चुनावी पार्टियों की ओर से कही-अनकही सहमति है। हमने लिखा था: “विशेष तौर पर, सरकार की मज़दूरों–मेहनतकशों के शोषण की दर को बढ़ाने व उनके दमन–उत्पीड़न को बढ़ाने के लिए बनाये जाने वाली नीतियों में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं आयेगा। अभी से ही मज़दूर–विरोधी लेबर कोड्स को लागू करने की बातें ज़ोर पकड़ने लगी हैं।” (सम्पादकीय, मज़दूर बिगुल, जून, 2024)
हमारा यह पूर्वानुमान पूरी तरह से सही साबित हुआ है। यह सम्पादकीय लेख लिखे जाने के 3 दिन पहले ही यह ख़बर आयी कि नये केन्द्रीय श्रम मन्त्री मनसुख मण्डाविया ने सेवा नामक यूनियन और संघ परिवार की जेबी यूनियन भारतीय मज़दूर संघ के प्रतिनिधियों से मुलाकात कर श्रम संहिताओं को लागू करने के मसले पर समर्थन माँगा है। इसी बाबत, मण्डाविया ने 25-26 जुलाई को केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बैठक बुलायी है। संशोधनवादी पार्टियों की ट्रेड यूनियनें, मसलन, सीटू, एटक, ऐक्टू, आदि और अन्य सुधारवादी व पूँजीवादी पार्टियों की दलाली करने वाली केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें इस सवाल पर विरोध का ज़ुबानी जमाख़र्च तो कर रही हैं, लेकिन इस पर ऐसा कोई वास्तविक कदम नहीं उठा रही हैं, जिससे मोदी सरकार पर इन मज़दूर-विरोधी श्रम संहिताओं को रद्द करने का दबाव बनाया जा सके।
ज़रा सोचिये – जिन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की सदस्यता का बड़ा हिस्सा उन सेक्टरों में है जो सरकार और व्यवस्था के लिए कुंजीभूत और रणनीतिक महत्व रखते हैं, मसलन, रेलवे, पोस्ट व टेलीग्राफ़, बैंक, बीमा, खनन-उत्खनन, भारी इंजीनियरिंग उद्योग, रासायनिक उद्योग, इस्पात उद्योग व संगठित ऑटोमोबाइल उद्योग, टेक्सटाइल उद्योग, आदि, वे इस मसले पर आम हड़ताल का आह्वान क्यों नहीं कर रही हैं? यदि ये सेक्टर कुछ दिन भी ठप्प पड़ गये, तो सरकार के लिए भारी मुश्किल खड़ी हो जायेगी। लेकिन यह वास्तविक ठोस कदम उठाने के बजाय और मज़दूर वर्ग के संघर्ष के सबसे अहम हथियारों में से एक, यानी आम हड़ताल, को उठाने के बजाय, ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें बस खोखली गर्म जुमलेबाज़ी कर रही हैं। वे मौखिक आपत्तियाँ उठा रही हैं लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठा रहीं। वैसे तो इन यूनियनों की पहुँच 93 प्रतिशत अनौपचारिक व असंगठित मज़दूरों के बीच बेहद मामूली है, लेकिन अगर उपरोक्त ढाँचागत सेक्टरों की संगठित व औपचारिक मज़दूर आबादी भी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चली गयी तो शासक वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के लिए एक ऐसी स्थिति पैदा हो जायेगी, जिसे सँभालना उसके लिए मुश्किल हो जायेगा।
एक वजह है जिसके कारण केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें जुमलेबाज़ी व ज़ुबानी जमाख़र्च की नौटंकी से आगे नहीं जा रही हैं। कुछ मिसालों से इस वजह को समझ सकते हैं। केरल में वाम मोर्चे की सरकार है। वहाँ के मुख्यमन्त्री पिनरायी विजयन केरल में पूँजीपतियों को निवेश के लिए हर सम्भव मौका और रियायत देने की पेशकश कर रहे हैं। केरल के बड़े पूँजीपतियों से उनके बड़े सौहार्द्रपूर्ण और सहयोगपूर्ण रिश्ते हैं, मसलन, लूलू ग्रुप इण्टरनेशनल के मालिक एम. ए. युसुफ़ अली से। वहाँ का पूँजीपति वर्ग भी चाहता है कि नयी श्रम संहिताएँ लागू हो जाएँ जिससे कि मज़दूरों के काम के घण्टे क़ानूनी तौर पर 8 घण्टे से ज़्यादा किये जा सकें, फ्लोर लेवल मज़दूरी के नाम पर उनसे न्यूनतम मज़दूरी का हक़ ही छीन लिया जाये, किशोर व बाल श्रम के शोषण की किसी न किसी पर्दे के पीछे से इजाज़त दे दी जाय, पूँजीपतियों के लिए मज़दूरों को ‘हायर एण्ड फ़ायर’ की नीतियों के आधार पर फिक्स्ड टर्म कॉण्ट्रैक्ट के आधार पर रखना सम्भव हो जाये, इत्यादि। तमिलनाडु की डीएमके सरकार ने तो मज़दूरों के कार्यदिवस को 12 घण्टे तक बढ़ाने की पहले ही कोशिश कर दी थी। कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार ने प्लेटफॉर्म व गिग अर्थव्यवस्था के ऊपर एक ख़तरनाक क़ानून की घोषणा की है, जो स्विगी, ओला, ऊबर, इंस्टामार्ट आदि के मज़दूरों को मज़दूर नहीं बल्कि “स्वरोज़गारप्राप्त उद्यमी” बताता है और इन अरबपति कम्पनियों को नियोक्ता की सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर देता है और औद्योगिक सम्बन्धों के दायरे से इन अतिशोषित मज़दूरों को बाहर कर देता है। चन्द्रबाबू नायडू तो हमेशा से नवउदारवादी नीतियों के ज़रिये श्रम अधिकारों को समाप्त करने वाली नीतियों के हामी रहे हैं। नीतीश से लेकर पासवान तक की राजग गठबन्धन की पार्टियाँ इन श्रम संहिताओं के मसले पर चुप्पी साधे हुए हैं। ये उनके लिए मसला ही नहीं है। उनकी राजनीति जातिवादी व क्षेत्रवादी अस्मितावाद का इस्तेमाल कर अपने-अपने राज्य की क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी के लिए मज़दूर वर्ग की लूट के आधार पर निचोड़े गये बेशी मूल्य में हिस्सा बढ़ाने की माँगों से आगे नहीं जाती। ये नेता इन माँगों को “प्रदेश की जनता की माँग” बताते हैं, जबकि ये इन प्रदेशों के सरमायेदारों, भूस्वामियों, बड़े व्यापारियों आदि की, यानी पूँजीपति वर्ग की माँगें हैं।
मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में, 2019 और सितम्बर 2020 में, इन क़ानूनों को पारित करवाया था, जब जनता कोरोना की मार और उसके बाद मोदी सरकार द्वारा अनियोजित रूप से थोपे गये लॉकडाउन की मार झेल रही थी। इन चार लेबर कोड्स के लागू होने के साथ मज़दूर वर्ग के कई ऐसे अधिकारों को छीन लिया जायेगा, जिन्हें दशकों के संघर्ष के बाद उसने हासिल किया था। ये चार लेबर कोड हैं औद्योगिक सम्बन्ध संहिता, सामाजिक सुरक्षा व पेशागत सुरक्षा संहिता, स्वास्थ्य व कार्यस्थिति संहिता और मज़दूरी संहिता (जिसे 2019 में ही पारित करवा लिया गया था)। मोदी सरकार का दावा थ कि 44 मौजूदा श्रम क़ानूनों के कारण एक जटिलता पैदा होती है, जिससे “धन्धा करने की आसानी” प्रभावित होती है और उसका दावा यह भी था कि मज़दूरों को भी इससे नुकसान होता है क्योंकि उन्हें “काम करने की आज़ादी” नहीं मिलती! इस बाद वाली बकवास को हर मज़दूर समझता है। ज़ाहिर है, इनका असल मक़सद है मुनाफ़े की गिरती औसत दर के संकट से पूँजीपति वर्ग को निजात दिलाना। वास्तव में, यही करने के लिए देश के अडानी, अम्बानी, टाटा, बिड़ला की जमात मोदी को सत्ता में लाने के लिए 2014 के पहले से ही चुकचुकायी हुई थी। 2024 के चुनावों में थोड़ा झटका खाने और नीतीश-नायडू की बैसाखी का सहारा लेने को मजबूर होने के बावजूद इस मज़दूर-मेहनतकश विरोधी एजेण्डा को लागू करने में मोदी सरकार को कोई ज़्यादा दिक्कत अपने गठबन्धन के पार्टनरों से नहीं होने वाली है, जिसके कारण हम ऊपर बता चुके हैं। मोदी सरकार अपने पूँजीपति आकाओं के लिए यह काम पूरा करने को इस कदर बेताब है कि 4 जून को 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजे आने के ठीक एक माह के भीतर ही नयी श्रम संहिताओं को लागू करने का उपक्रम शुरू कर दिया है। मोदी-शाह की चिन्ता यह भी है कि किसी अन्य अन्तरविरोध के कारण गठबन्धन सरकार के सिर पर पतन की तलवार मण्डराये, इससे पहले ही धन्नासेठों का यह काम कर दिया जाना चाहिए। अगर ऐसा न हो पाया तो पूँजीपति वर्ग से मिलने वाला भारी आर्थिक समर्थन भी उनके हाथ से जा सकता है।
पहली श्रम संहिता, यानी मज़दूरी संहिता 2019 में ही पारित करवा ली गयी थी। इसके अनुसार, मालिक को मज़दूर को न्यूनतम मज़दूरी देने से बचने के तमाम रास्ते दिये गये हैं। न्यूनतम मज़दूरी के स्थान पर फ्लोर लेवल मज़दूरी की अवधारणा पेश की गयी है जो कि न्यूनतम मज़दूरी से बेहद कम है। साथ ही, न्यूनतम मज़दूरी को लागू करने के सवाल को भी यह संहिता गोलमोल करती है और इस नियम को कमज़ोर बनाती है। यह 8 घण्टे से ज़्यादा काम करवाने के क़ानूनी रास्ते खोलती है और वह भी ओवरटाइम मज़दूरी के भुगतान के बिना।
इसी प्रकार औद्योगिक सम्बन्ध संहिता को इसलिए तैयार किया गया है कि मालिकों को बिना किसी नोटिस या जवाबदेही के मज़दूरों को काम से निकालने का रास्ता साफ़ हो जाये। यानी रोज़गार की सुरक्षा के प्रति मालिक की सारी क़ानूनी ज़िम्मेदारी को ख़त्म करने का रास्ता खोल दिया गया है; जब चाहे मज़दूरों को काम पर रखो और जब चाहे उन्हें निकाल बाहर करो! पूँजीपति वर्ग बहुत समय से यह “आज़ादी” माँग रहा था। यह संहिता लागू होने का मतलब यह होगा कि किसी भी मज़दूर के लिए स्थायी नौकरी का सपना देखना भी असम्भव हो जायेगा। इसके अलावा, यह संहिता यूनियन बनाने के अधिकार को और यूनियनों के द्वारा मालिकों से सामूहिक मोलभाव कर अपने अधिकारों को हासिल करने के काम को भी व्यावहारिक तौर पर असम्भव बना देता है। मज़दूरों के अधिकारों का हनन होने पर मज़दूर द्वारा नियमत: उठाये जा सकने वाले कदमों के प्रावधानों को भी इसके तहत बेहद कमज़ोर बना दिया गया है। लेबर कोर्ट समाप्त हो जायेंगे और उसकी जगह औद्योगिक ट्राइब्यूनल होंगे और उनके निर्णयों को पलट देने या न मानने की अच्छी-ख़ासी शक्ति सरकार को दी गयी है। औद्योगिक सम्बन्ध संहिता मालिक और मज़दूर के बीच रोज़गार के क़रार सम्बन्धी नियमों, यूनियन बनाने सम्बन्धी नियमों व विवादों के निपटारे सम्बन्धी नियमों को इस रूप में बदल रहा है कि भारत के मरे-गिरे श्रम क़ानूनों में जो थोड़ा-बहुत मज़दूरों को हासिल होता था, अब वह भी हासिल नहीं रह जायेगा। संकट से बिलबिलाया पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े के बुलडोज़र के रास्ते में कोई छोटा-मोटा स्पीडब्रेकर भी अब बर्दाश्त नहीं करना चाहता है।
इसी प्रकार सामाजिक सुरक्षा व पेशागत सुरक्षा संहिता मज़दूरों को मिलने वाले सभी सामाजिक सुरक्षा लाभों को केन्द्रीय व राज्य सरकारों की अधिसूचनाओं पर निर्भर बना देता है। मतलब कि ईएसआई, पीएफ़, ग्रैच्युटी, पेंशन, मातृत्व लाभ व अन्य सभी लाभ मज़दूरों को बाध्यताकारी तौर पर देना सरकार व मालिकों की ज़िम्मेदारी नहीं होगी, बल्कि यह केन्द्रीय सरकार व राज्य सरकारों द्वारा जारी किये जाने वाले नोटिफिकेशनों पर निर्भर करेगा। साथ ही, यह इन सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों के दायरे को भी बेहद सीमित कर दिया गया। इनके तहत अब अधिकांश मज़दूर क़ानूनी तौर पर आयेंगे ही नहीं। इसी प्रकार पेशागत सुरक्षा, स्वास्थ्य व कार्यस्थितियों सम्बन्धी संहिताओं ने जोखिम भरे कामों की परिभाषा को ही बदल डाला और 80 प्रतिशत मज़दूरों को इस क़ानून के लागू होने के दायरे से बाहर कर दिया है। ये संहिताएँ मालिकों को इस बात का मौका देती हैं कि वह अपने मज़दूरों को मानवीय कार्यस्थितियाँ मुहैया न कराये। महिला मज़दूरों को पालनाघर देने की बाध्यता से भी मालिकों को मुक्त कर दिया गया है। चारों नये लेबर कोड के विषय में विस्तार से जानने के लिए पाठक फरवरी 2021 के ‘मज़दूर बिगुल’ का सम्पादकीय (https://www.mazdoorbigul.net/archives/14249) पढ़ सकते हैं।
कुल मिलाकर कहें, तो अगर ये श्रम संहिताएँ लागू होती हैं तो मज़दूर वर्ग को गुलामी जैसे हालात में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। अभी भी 90 फ़ीसदी अनौपचारिक मज़दूरों के जीवन व काम के हालात नारकीय हैं। अभी भी मौजूद श्रम क़ानून लागू ही नहीं किये जाते, जिसके कारण इन मज़दूरों को जो मामूली क़ानूनी सुरक्षा मिल सकती थी, वह भी बिरले ही मिलती है। लेकिन अभी तक अगर कहीं पर अनौपचारिक व औपचारिक, संगठित व असंगठित दोनों ही प्रकार के मज़दूर, संगठित होते थे, तो वे लेबर कोर्ट का रुख़ करते थे और कुछ मसलों में आन्दोलन की शक्ति के आधार पर क़ानूनी लड़ाई जीत भी लेते थे। लेकिन अब वे क़ानून ही समाप्त हो जायेंगे और जो नयी श्रम संहिताएँ आ रही हैं उनमें वे अधिकार मज़दूरों को हासिल ही नहीं हैं, जो पहले औपचारिक तौर पर हासिल थे। इन चार श्रम संहिताओं का अर्थ है मालिकों और कारपोरेट घरानों, यानी बड़े पूँजीपति वर्ग, को जीवनयापन योग्य मज़दूरी, सामाजिक सुरक्षा और गरिमामय कार्यस्थितियाँ दिये बग़ैर ही उनका भयंकर शोषण करने की इजाज़त ओर मौक़ा देना। यह हमसे मानवीयता की बाक़ी शर्तों को भी छीन लेगा। यह हमें पाशविकता की ओर धकेल देगा। अगर हम इन श्रम संहिताओं के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए एकजुट नहीं होते, अगर हम अनिश्चितकालीन हड़ताल का रास्ता अपनाकर मोदी सरकार को इन श्रम संहिताओं को वापस लेने के लिए बाध्य करने के वास्ते एक लम्बे संघर्ष की आज ही शुरुआत नहीं करते हैं, तो कल बहुत देर हो जायेगी।
नकली कम्युनिस्ट पार्टियों और अन्य पूँजीवादी पार्टियों से जुड़ी ट्रेड यूनियनों से कोई उम्मीद करना बेकार है। उनके पास तो यह मौक़ा और ताक़त दोनों ही थे कि वे आम अनिश्चितकालीन हड़ताल का आह्वान करते और मोदी सरकार को इन श्रम संहिताओं को वापस लेने के लिए मजबूर करते। अगर वे ऐसा करते, तो सभी वास्तव में क्रान्तिकारी यूनियनों को भी इसमें साथ देना चाहिए था। लेकिन वे ऐसा नहीं कर रही हैं। तो क्या बाक़ी मज़दूर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और इन्तज़ार करें कि मालिकों की यह तानाशाही हम पर थोप दी जाये? नहीं। हमें अभी से संगठित होना चाहिए। ये सवाल हमें एक मौका दे रहे हैं कि हम अपनी स्वतन्त्र क्रान्तिकारी यूनियनें बनाएँ। जहाँ कहीं ऐसी यूनियनें हैं, उन्हें तत्काल इसके ख़िलाफ़ देशव्यापी अभियान शुरू करना चाहिए। लाखों-करोड़ों मज़दूरों के हस्ताक्षर करवाये जाने चाहिए। उन्हें पहले स्थानीय तौर पर गोलबन्द और संगठित कर जुलूस व प्रदर्शन आदि का आयोजन करना चाहिए और आपसी तालमेल कर इस अभियान के तहत देश की राजधानी में मज़दूर महाजुटान करना चाहिए। केवल इसके आधार पर ही मोदी सरकार को चेताया जा सकता है कि इन मज़दूर-विरोधी श्रम संहिताओं को थोपने की हिमाक़त न करे।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2024
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