Category Archives: श्रम क़ानून

जानलेवा शोषण के ख़िलाफ़ लड़ते बंगलादेश के चाय बाग़ान मज़दूर

“हमारे एक दिन की तनख़्वाह में एक लीटर खाने का तेल भी नहीं आ सकता, तो हम पौष्टिक खाना, दवाइयाँ और बच्चों की पढ़ाई के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं?” बंगलादेश के चाय के बाग़ान में काम करने वाले एक मज़दूर का यह कहना है जिसे एक दिन काम करने के महज़ 120 टका मिलते हैं। अगस्त महीने की शुरुआत से बंगलादेश के चाय बाग़ानों में काम करने वाले क़रीब डेढ़ लाख मज़दूर अपनी जायज़ माँगों को लेकर सड़कों पर हैं। इन मज़दूरों की माँग यह है कि उन्हें गुज़ारे के लिए कम से कम 300 टका दिन का भुगतान किया जाये, तभी वे चाय के बाग़ानों में काम करेंगे।

उत्तर-पश्चिम दिल्ली के छोटे कारख़ानों में बेहद बुरी स्थितियों में खटती स्त्री मज़दूर

उत्तर-पश्चिमी दिल्ली में छोटे कारख़ानों का जालनुमा फैलाव देखने को मिलता है। ख़ासकर ये कारख़ाने मज़दूर बस्तियों के इर्द-गिर्द बसाये गये हैं ताकि सस्ते श्रम का दोहन किया जा सके। ऐसा ही एक जाल शाहबाद-डेरी से बवाना के आसपास के क्षेत्र में भी देखने को मिलता है। इन कारख़ानों में मुख्यतः धातु छँटाई ,पैकिंग इत्यादि का काम होता है। जिसमें तांबा, पीतल, चाँदी इत्यादि की छँटाई का काम किया जाता है।

सिडकुल, हरिद्वार में मज़दूरों की हड्डियाँ कैसे निचोड़ी जाती हैं (एक फ़ैक्टरी से रिपोर्ट)

हरिद्वार स्थित सिडकुल में पंखे बनाने वाली एक कम्पनी है, के.के.जी. इण्डस्ट्रीज लिमिटेड! पंखे बनाने वाली इस कम्पनी के मज़दूर ख़ुद गर्मी और घुटन-भरे माहौल में 12 घण्टे से लेकर 15-16 घण्टे तक काम करते हैं। यहाँ काम की स्थितियाँ बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण हैं। ये कम्पनी हैवेल्स, ओरिएण्ट, पोलर, लूमिनस, गोदरेज, सूर्या, एंकर (पैनासोनिक) आदि कम्पनियों की वेण्डर कम्पनी है। इन सभी के पंखे के.के.जी. में बनते हैं। यह सिडकुल की उन कम्पनियों में शामिल है जहाँ न्यूनतम मज़दूरी बहुत ही कम है और काम के न्यूनतम घण्टे 12 हैं।

अघोषित छँटनी : नपीनो में स्थायी मज़दूरों की छँटनी की तरफ़ बढ़ते क़दम!

मानेसर (हरियाणा) के सेक्टर 3 के प्लाट नम्बर 7 में स्थित ‘नपीनो ऑटो एण्ड इलैक्ट्रॉनिक लिमिटेड’ (एटक से सम्बद्ध) के 271 महिला व पुरूष मज़दूर 14 जुलाई से कम्पनी कार्यस्थल पर ही मशीनों पर काम रोककर 24 घण्टे दिन-रात धरने पर बैठे थे। पिछले 4 सालों से लम्बित अपने सामूहिक माँगपत्रक को लागू करवाना और निलम्बित 6 साथियों की कार्यबहाली इनकी मुख्य माँगें हैं।

बेलसोनिका में मज़दूरों की छँटनी व ठेका प्रथा के ख़िलाफ़ संघर्ष जारी है!

पिछली 3 अगस्त को आई.एम.टी. मानेसर (गुड़गाँव) में स्थित बेलसोनिका ऑटो कम्पोनेण्ट इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड के मज़दूरों द्वारा प्रबन्धन की मज़दूर विरोधी नीतियों के चलते दो बार दो घण्टे का टूल डाउन करने पर प्रबन्धन ने मज़दूरों को आठ दिन की वेतन कटौती का नोटिस जारी कर दिया था। बेलसोनिका मारुति के लिए कलपुर्ज़े बनाती है।

ऑटो सेक्टर के मज़दूरों की एक रिपोर्ट

पिछले कुछ दिनों से गुड़गाँव पट्टी के ऑटो सेक्टर में एक हलचल पैदा हो गयी है। लगातार कम्पनियों में छँटनी, पैसे न दिये जाने, मज़दूरो की माँगें न माने जाने आदि के मामले सामने आ रहे हैं, जिसके विरोध में कई प्रदर्शन और हड़ताल भी हो रहे हैं। पिछले 3 महीने में धारूहेड़ा में हुण्डई मोबीस के मज़दूरों का धरना, जेएनएस के मज़दूरों की हड़ताल तथा पिछले महीने नपीनों के मज़दूरों की हड़ताल इसके उदाहरण हैं। अभी-अभी बेलसोनिका के मज़दूरों के साथ भी कई सारी घटनाएँ सामने आ रही हैं।

दिल्ली मेट्रो में काम कर रहे सफ़ाई कर्मचारियों के बदतर हालात

देश की राजधानी दिल्ली दुनियाभर में अपनी मेट्रो सेवा के लिए मशहूर है। चमचमाती मेट्रो की चमक के पीछे दरअसल उन श्रमिकों के ख़ून पसीने की मेहनत है जिनका कहीं ज़िक्र तक नहीं किया जाता। केन्द्र राज्य के स्वामित्व वाली दिल्ली मेट्रो में भारत सरकार (50 प्रतिशत) तथा दिल्ली सरकार (50 प्रतिशत) का बराबरी का मालिकाना है। जब भी मेट्रो से होने वाले अकूत मुनाफ़े पर गाल बजाना हो तो दोनों ही सरकारें अपनी दावेदारी पेश करने लगती है। लेकिन वहीं जब यहाँ काम करने वाले श्रमिक अपने हक़ अधिकार की माँग करते हैं तो दोनों ही सरकारें कन्नी काटती रहती हैं।

ऑटो सेक्टर के मज़दूरों के लिए कुछ ज़रूरी सबक़ और भविष्य के लिए एक प्रस्ताव

कोविड काल के बाद शुरू हुए कई आन्दोलनों में से एक आन्दोलन धारूहेडा में शुरू हुआ। 6 से लेकर 22 साल की अवधि से काम कर रहे 105 ठेका मज़दूरों को बीती 28 फ़रवरी 2022 को हुन्दई मोबिस इण्डिया लिमिटेड कम्पनी ने बिना किसी पूर्वसूचना के काम से निकाल दिया। प्रबन्धन के साथ मज़दूरों का संघर्ष पिछले साल से ही चल रहा था। लेकिन प्रबन्धन ने 28 फ़रवरी को सभी पुराने मज़दूरों का ठेका ख़त्म होने का बहाना बनाकर छँटनी कर दी।

मई दिवस 1886 से मई दिवस 2022 : कितने बदले हैं मज़दूरों के हालात?

इस वर्ष पूरी दुनिया में 136वाँ मई दिवस मनाया गया। 1886 में शिकागो के मज़दूरों ने अपने संघर्ष और क़ुर्बानियों से जिस मशाल को ऊँचा उठाया था, उसे मज़दूरों की अगली पीढ़ियों ने अपना ख़ून देकर जलाये रखा और दुनियाभर के मज़दूरों के अथक संघर्षों के दम पर ही 8 घण्टे काम के दिन के क़ानून बने। लेकिन आज की सच्चाई यह है कि 2022 में कई मायनों में मज़दूरों के हालात 1886 से भी बदतर हो गये हैं। मज़दूरों की ज़िन्दगी आज भयावह होती जा रही है। दो वक़्त की रोटी कमाने के लिए 12-12 घण्टे खटना पड़ता है।

भारत में ट्रेड यूनियन अधिकार सम्बन्धी क़ानून: एक मज़दूर वर्गीय समीक्षा

हमारे देश में कहने के लिए तो मज़दूरों के लिए दर्जनों केन्द्रीय और सैकड़ों राज्य श्रम क़ानून काग़ज़ों पर मौजूद हैं पर तमाम कारख़ानों-खेतों खलिहानों में काम करने वाले करोड़ों श्रमिक अपनी जीवन स्थितियों से जानते और समझते हैं कि इन क़ानूनों की वास्तविकता क्या है और हक़ीक़त में ये कितना लागू होते हैं। देश के असंगठित-अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत मज़दूर आबादी तो वैसे भी इन तमाम क़ानूनों के दायरे में बिरले ही आती है। वहीं औपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठित कामगारों-कर्मचारियों के तबक़े को भी इस क़ानूनी संरक्षण के दायरे से बाहर करने की क़वायदें तेज़ हो रही हैं। बावजूद इसके इन श्रम क़ानूनों के वास्तविक चरित्र की चर्चा कम ही होती है।