कुवैत में 49 प्रवासी मज़दूरों की जलकर मौत
खाड़ी देशों में प्रवासी मज़दूरों के नारकीय हालात से उपजा एक और हादसा
आदित्य
पूरी दुनिया को चलाने और चमकाने का काम मेहनतकश मज़दूर आबादी ही करती है, लेकिन सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मज़दूरों के हालात इस पूँजीवादी व्यवस्था में बेहद नारकीय है। मुनाफ़े की अन्धी हवस के कारण एक तरफ़ हर रोज़ मज़दूरों-मेहनतकशों का शोषण बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ़ सुविधाओं की भारी कमी तथा बेहद कम तनख्वाह होने के कारण आये दिन इनके साथ कोई न कोई घटना घटती रहती है, जिसके बाद घटनाओं को महज़ कोई दुर्घटना बता दिया जाता है, या फ़िर सारी ग़लती उनके ही मत्थे चढ़ा दी जाती है।
बीते 12 जून को कुवैत के अल अहमदी नगर पालिका के मंगफ़ क्षेत्र में भी ऐसी ही एक घटना घटी जब वहाँ के लेबर कैम्प में, जो कि एक सात मज़िला इमारत थी, आग लगने से 45 भारतीय मज़दूरों समेत 49 मज़दूरों की मौत हो गयी। यह सारे प्रवासी मज़दूर थे जो कई सालों से वहाँ काम कर रहे थे। समस्त पूँजीवादी मीडिया तन्त्र द्वारा इसे एक दुर्भाग्यपूर्ण हादसा करार दिया जा रहा है और तमाम नेता-मन्त्रियों द्वारा शोक जताने का ढोंग किया जा रहा है। जबकि हक़ीक़त यह है कि यह हादसा इन प्रवासी मज़दूरों की बेहद निम्नस्तरीय जीवन स्थितियों और स्तरीय सुवधाओं के अभाव के कारण हुआ है। इसी बिल्डिंग में लगभग 200 लोग रहते थे, जो कि इसकी क्षमता से कहीं ज़्यादा था। इन प्रवासी मज़दूरों को कई बंकर बिस्तरों वाले कमरों में रखा जाता है, जिसमें निजी स्थान बेहद ही कम होता है। ठेकेदारों और मालिकों द्वारा आवास के ऊपर लागत कम करने के लिये बेहद कम जगह में इन मज़दूरों को ठूँस कर भेड़-बकरियों के तरह रखा जाता है। ऐसे में मंगफ़ जैसी घटना कोई आश्चर्यजनक या अभूतपूर्व घटना नहीं है। ऐसी घटनाओं के होने और उनके सुर्खियाँ बटोर लेने के बाद तमाम मालिक व सरकारी दलाल घड़ियाली आँसू बहाने आ जाते हैं, पर असल में इनका मक़सद बस इन घटनाओं के कारणों पर पर्दा डालना होता है।
इस घटना के बाद कुवैत के आन्तरिक मन्त्री फ़हाद अल-यूसुफ़ अल-सबाह ने कहा कि इन मौतों का कारण मुख्यतः एनबीटीसी (जिस कम्पनी के लिये मज़दूर काम करते थे और वे जिनके कैम्प का हिस्सा थे) है। उन्होंने घोषणा की कि कम्पनी के अधिकारियों को आपराधिक रूप से दोषी ठहराया जायेगा और नगरपालिका के अधिकारियों को भवन संहिता बनाये रखने में उनकी विफलता के लिए निलम्बित किया जायेगा। लेकिन यह बस तात्कालिक घटना के सामने आने पर दिखावा करने भर है।
खाड़ी देशों में प्रवासी मज़दूरों के हालात
खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) देशों – बाहरीन, कुवैत, ओमान, क़तर, सऊदी अरब तथा सयुंक्त अरब अमीरात आदि में- एक बड़ी संख्या प्रवासी लोगों की है। पूरी दुनिया की 10 प्रतिशत प्रवासी आबादी इन देशों में रहती है। सिर्फ़ कुवैत की बात करें तो लगभग 70 प्रतिशत आबादी प्रवासी है और इनमें भी सबसे ज़्यादा 21 प्रतिशत भारतीय प्रवासियों की है। अगर देश के कुल कार्यशक्ति की बात की जाये तो देश की कुल कार्यशक्ति में प्रवासी लोगों की हिस्सेदारी 78.7 प्रतिशत है। ये मज़दूर मुख्य रूप से दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका से आते हैं। ये मज़दूर निर्माण, घरेलू काम और अन्य कम वेतन वाले क्षेत्रों में कार्यरत हैं जो इस क्षेत्र की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के लिए महत्वपूर्ण हैं।
यहाँ प्रवासी मज़दूरों के लिये लेबर कैम्प बनाये जाते हैं जहाँ इनकी ज़िन्दगी बेहद ही दयनीय होती है और उनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इसमें ही जाता है। इन लेबर शिविरों में भयंकर भीड़ होती है और मज़दूर तंग परिस्थितियों में रहने को मजबूर होते हैं। ख़राब रखरखाव और ग़ैर-मान्यता वाले विद्युत उपकरणों के उपयोग के कारण इन शिविरों में दोषपूर्ण वायरिंग और विद्युत प्रणालियाँ आम हैं। कई मज़दूरों के एक साथ विद्युत उपकरणों का उपयोग करने के कारण ओवरलोड की समस्या आमतौर पर रहती है जिसकी वजह से शॉर्ट सर्किट होने और आग लगने की सम्भावना बनी रहती है। इतना ही नहीं दोषपूर्ण वायरिंग और विद्युत प्रणालियों के अलावा, कई मज़दूर शिविरों में उचित खाना पकाने की सुविधा नहीं होती है, जिसके कारण मज़दूर खाना बनाने के लिये अस्थायी व्यवस्था जैसे पोर्टेबल गैस स्टोव का उपयोग करते हैं जो असुरक्षित हैं और इनका अनुचित संचालन आग का कारण बनते हैं। अग्नि सुरक्षा प्रशिक्षण और उपकरणों की कमी, जैसे कि अग्निशामक यन्त्र और स्मोक डिटेक्टर आदि जोखिम को और बढ़ा देते हैं। मज़दूरों में अक्सर बुनियादी अग्नि सुरक्षा ज्ञान की कमी होती है, जो प्रभावी आपातकालीन प्रतिक्रियाओं में बाधा डालती है। भीड़भाड़ के कारण आग लगने की स्थिति में जल्दी से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। खराब वेंटिलेशन और निर्माण में ज्वलनशील पदार्थों के इस्तेमाल से आग के तेज़ी से फैलने का जोखिम भी बहुत ज़्यादा होता है। ज़्यादातर मज़दूरों की मौत का कारण भी आमतौर पर धुएँ के वजह दम घुटना होता है।
यही स्थितियाँ मज़दूरों के कार्यस्थल पर भी मौजूद हैं जहाँ बेहद अमानवीय तरीक़े से उनसे काम लिया जाता है। खाड़ी देशों में प्रवासी कामगारों ने कई तरह की ख़राब कार्य स्थितियों की शिक़ायत दर्ज करायी है। ये शिक़ायतें आम तौर पर ख़राब कार्यस्थितियों, वेतन में कटौती, उत्पीड़न आदि को लेकर की गयीं थीं।
मंगफ़ में हुई घटना कोई पहली घटना नही है जो खाड़ी के देशों में हुई है। 2018 में कुवैत के ही अल अहमदी में एक मज़दूर शिविर में आग लगने से पाँच मज़दूरों की मौत हो गयी थी। इस घटना में भीड़भाड़ और अग्नि सुरक्षा उपायों की कमी को प्राथमिक कारण बताया गया था। 2012 में क़तर के दोहा औद्योगिक क्षेत्र में एक मज़दूर शिविर में आग लगने से 11 मज़दूरों की मौत हो गयी थी और कई अन्य घायल हो गये थे। आग लगने का कारण बिजली का शॉर्ट सर्किट बताया गया था। 2020 में दोहा में एक अन्य मज़दूर शिविर में आग लगने से कई मज़दूरों की मौत हो गयी थी। 2015 में सऊदी अरब के रियाद में एक मज़दूर शिविर में आग लगी थी, जिसमें 10 मज़दूरों की मौत हो गयो थी और दर्जनों अन्य घायल हो गये थे। जाँच में पता चला कि आग रसोई क्षेत्र में असुरक्षित खाना पकाने के तरीक़ों के कारण लगी थी। 2016 में, संयुक्त अरब अमीरात के आबू धाबी में एक मज़दूर शिविर में आग लगने से दो श्रमिकों की मौत हो गयी और कई अन्य घायल हो गये थे। आग ख़राब एयर कण्डीशनिंग यूनिट के कारण लगी थी। संयुक्त अरब अमीरात के दुबई में भी मज़दूर शिविरों में आग लगने की कई घटनाएँ सामने आयी हैं, जो अक्सर बिजली की ख़राबी और साथ ही दयनीय रिहाइशी स्थितियों की वजह से हुई हैं। ये तो महज़ कुछ प्रातिनिधिक घटनाएँ हैं, ऐसी दर्जनों और घटनाएँ हैं जो यहाँ हुई हैं या अक्सर होती रहतीं हैं।
घोर मज़दूर-विरोधी कफ़ाला प्रणाली
खाड़ी के देशों में प्रवासी मज़दूरों के लिये कफ़ाला प्रणाली मौजूद है। कफ़ाला प्रणाली क़ानूनों और नीतियों का एक समुच्चय है जो प्रवासी मज़दूरों पर नियन्त्रण रखने के लिये ही बनाया गया है। इसके तहत कोई भी प्रवासी मज़दूर ठेकेदारों या मालिकों के पूर्ण नियन्त्रण में होता है। इसके अन्तर्गत मज़दूरों को देश में प्रवेश करने, वहाँ रहने और काम करने तथा वहाँ से बाहर जाने के लिये पूरी तरह से ठेकेदारों और मालिकों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। आमतौर पर अपने अनुबन्ध के पूरा होने से पहले, एक निश्चित समयावधि से पहले या अपने नियोक्ता की अनुमति के बिना वे नौकरी नहीं छोड़ सकते या उसे बदल नहीं सकते। जो लोग किसी कारण से नौकरी छोड़ते हैं, उन्हें फ़रार होने के अपराध में गिरफ़्तार तक कर लिया जाता है और कई मामलों में निर्वासित भी कर दिया जाता है। सीधे शब्दों में कहें तो कफ़ाला प्रणाली ठेकेदारों और मालिकों को शोषण करने की क़ानूनी इजाज़त देती है और इसके तहत मज़दूर बेहद कम तनख्वाह पर और नारकीय कार्य स्थितियों व जीवन स्थितियों में ग़ुलामों की तरह काम करने को मजबूर होते हैं।
हालाँकि असल मायनों में मज़दूरों के हालात इससे भी बदतर होते हैं और उन्हें भयंकर शोषण व अत्याचार का सामना करना पड़ता है। पहले तो मज़दूरों के तमाम ज़रूरी कागज़ात ठेकेदारों-मालिकों-नियोक्ताओं द्वारा ज़ब्त कर लिये जाते हैं, जिससे वे किसी भी तरह उनके क़ाबू में बने रहें और उनसे मनमाना काम लिया जा सके। इसके बावजूद अगर कोई मज़दूर इस शोषण से परेशान होकर अपनी नौकरी छोड़ता है या देश से बाहर जाने की कोशिश करता है तो उन्हें न केवल अपनी आय अर्जित करने के साधन खोने का जोखिम उठाना पड़ता है, बल्कि अवैध प्रवासी बनने का और जेल में सज़ा काटने का जोखिम भी उठाना पड़ता है। इतना ही नहीं, मज़दूरों को “सबक सिखाने” के लिये कई दफ़ा उनपर चोरी या अन्य झूठे आरोप भी लगा दिये जाते हैं।
मोदी सरकार का रवैया
सत्ता में बैठी मोदी सरकार वैसे तो देश में ज़ोरों-शोरों से प्रचार करती है कि उसने देश का नाम विदेशों में चमका दिया है और वह पूरी दुनिया में देशवासियों की सेवा में लगी हुई है; लेकिन हक़ीक़त यह है कि यह सरकार देश और विदेश, हर जगह, बस अम्बानी-अडानी जैसे पूँजिपतियों की सेवा में लगी है तथा दुनिया के हर हिस्से में मज़दूरों के शोषकों को इसका पूर्ण समर्थन है। कहने को तो जुमलों के ढेर पर खड़ी इस सरकार ने यह भी प्रचार किया था कि इसने “वॉर भी रुकवा दी”, और देशवासियों को “सही सलामत वापस ले आये”, परन्तु इसकी सच्चाई आज सबके सामने है। ज्ञात हो कि यूक्रेन में फँसे कई छात्रों व आम लोगों ने भारत सरकार पर सुचारू बचाव कार्यवाई न करने व उन्हें मुसीबत में अरक्षित छोड़ने का आरोप लगाया था।
बहरहाल खाड़ी देशों में प्रवासी मज़दूरों की बात करें तो इनमें सबसे बड़ी संख्या भारत से गये मज़दूरों की है। सबसे पहले तो भारत से मज़दूरों की इतनी बड़ी संख्या इसलिए ही पलायन करके वहाँ जाने को मजबूर होती है क्योंकि अपने देश में ही उन्हें अच्छा रोज़गार नहीं मिल पाता। एक अच्छी ज़िन्दगी का सपना दिखाकर उन्हें क़ानूनी व ग़ैर-क़ानूनी (वैसे इन ग़ैर-क़ानूनी तरीक़ों को भी अप्रत्यक्ष रूप से सरकार द्वारा शह प्राप्त होती है) तरीक़े से विदेशों में भेजा जाता है जहाँ उनके पासपोर्ट और वीज़ा ज़ब्त कर लिये जाते हैं और वहाँ उन्हें बन्धुआ मज़दूर की तरह खटाया जाता है। कुवैत जैसी किसी घटना के बड़े स्तर पर सामने आ जाने पर तुरन्त ही सरकार दिखावटी शोक ज़ाहिर करने लगती है, लेकिन वहाँ के मज़दूरों के हालात पर चूँ तक नहीं करती। वैसे इनसे यह उम्मीद करना ख़याली पुलाव पकाने जैसा ही होगा क्योंकि जो सरकार अपने ही देश में मज़दूरों के शोषण की दर को बढ़ाने के लिये क़ानून लेकर आती हो वह भला दूसरे देशों में हो रहे शोषण पर क्या ही बोलेगी! हाँ, लेकिन इनका एक प्रतिनिधि मण्डल शोक व्यक्त करने फ़ौरन कुवैत ज़रूर पहुँच जाता है जब वहाँ के पूर्व अमीर शेख नवाफ अल-अहमद अल-जबर अल-सबा की मृत्यु होती है। भारत और तमाम खाड़ी देशों की सरकारों का रवैया तो कोविड-19 के समय भी देखने को मिला था जब लाखों प्रवासी मज़दूरों को वहाँ उनके हालात पर छोड़ कर उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया था।
ऐसा कत्तई नहीं है कि भारत सरकार को खाड़ी देशों में मज़दूरों की अमानवीय स्थिति के बारे में पता न हो। 2019 से लेकर 30 जून 2023 तक बाहरीन, ओमान, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, क़तर और सऊदी अरब में भारतीय दूतावासों को भारतीय प्रवासी मज़दूरों से कुल मिलाकर 48,095 शिक़ायतें मिलीं हैं। 23,020 शिक़ायतों के साथ कुवैत शीर्ष पर है, जबकि 9,346 शिक़ायतों के साथ सऊदी अरब दूसरे स्थान पर है। इतनी शिक़ायतों के बावजूद इनपर भारत सरकार द्वारा कोई क़दम नहीं उठाया गया। इन आँकड़ों से यह साफ़ हो जाता है कि खाड़ी देशों में हो रहे मज़दूरों के शोषण में भारत सरकार का भी पूर्ण सहयोग है।
खाड़ी व अरब देशों में मज़दूर यूनियनों की हालत
खाड़ी व अरब देशों में मज़दूर यूनियनें न के बराबर मौजूद हैं। इसका सबसे बड़ा कारण ऐसे तमाम क़ानूनों का होना है जिनके तहत मज़दूरों को किसी भी तरह से संगठित होने पर रोक है। कफ़ाला प्रणाली के इस्तेमाल पर हम पहले ही बात कर चुके हैं कि कैसे यह मज़दूरों को नियन्त्रण में रखने का काम करती है। ऐसे में किसी मज़दूर का विरोध करना या किसी भी तरह का संगठन बनाना बेहद ही मुश्किल हो जाता है। यह प्रणाली 20वीं सदी की शुरुआत में मोती उद्योग व अन्य वाणिज्यिक व्यापारों के लिए सस्ते श्रम उपलब्ध कराने के लिए बनायी गयी थी। खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) क्षेत्र में प्रवासी मज़दूरों को इसलिए ही संगठित करना बेहद कठिन है और अपने अधिकारों के बारे में बोलने पर उन्हें सज़ा भी भुगतनी पड़ती है।
हालाँकि कुछ देशों जैसे बाहरीन और ओमान में कुछ हद तक यूनियनें मौजूद हैं पर वे बस नाम मात्र की ही हैं। सीरिया, यमन, और कुवैत में कहने को तो सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के कर्मचारी संगठित हो सकते हैं, लेकिन निजी क्षेत्र में प्रभावी मज़दूर संगठनों के साक्ष्य बहुत कम हैं। जो हैं उनमें भी प्रवासी मज़दूरों के लिये कोई जगह नहीं होती। कुल मिलाकर खाड़ी के तमाम देशों में मज़दूरों की हालत बहुत ही ख़राब है जिसकी जानकारी तमाम सरकारों व अन्तरराष्ट्रीय संगठनों को भी है, बावजूद इसके इसपर कोई कार्रवाही नहीं होती और तमाम प्रवासी मज़दूर चन्द मुट्ठीभर लोगों के मुनाफ़े की हवस का शिकार होने को मजबूर होते हैं।
रास्ता क्या है?
सार यह है कि दुनिया के तमाम शोषक शोषितों का शोषण करने के लिये एकजुट हैं। पूरी दुनिया को अपनी मेहनत से जगमगा देने वाले मज़दूर ख़ुद अँधेरे में जीने को मजबूर हैं। इनकी मुक्ति का रास्ता सिर्फ़ ऐसी एक व्यवस्था ही हो सकती है जिसमें सत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथ में हो, जैसे पेरिस कम्यून, रूस और चीन के मज़दूरों ने करके दिखाया था। अत: आज यह बेहद ज़रूरी है कि दुनिया के हर कोने में एक सही दिशा में, सही विचारधारा के साथ मज़दूरों को संगठित व एकजुट किया जाये। यह काम मुश्किल ज़रूर हैं, लेकिन इसके अलावा कोई और रास्ता है भी नहीं। असल मायने में पूरी दुनिया के स्तर पर जब तक मज़दूरों का राज नही क़ायम हो जाता, यह शोषण ख़त्म नही हो सकता। ऐसे में अनायास ही मार्क्स और एंगेल्स का वह नारा याद आ जाता है – “दुनिया के मज़दूरों एक हो!”
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन