Category Archives: श्रम क़ानून

नगर निगम गुड़गाँव के ठेका ड्राइवरों को हड़ताल की बदौलत आंशिक जीत हासिल हुई

वेतन और पी.एफ. के भुगतान न होने के चलते न सिर्फ़ ठेका ड्राइवर बल्कि ठेके पर काम करने वाले सफ़ाई, सिक्योरिटी गार्ड, मैकेनिक सभी हड़ताल में शामिल हुए थे। वैसे तो इस इकोग्रीन कम्पनी द्वारा ठेके पर कार्यरत मज़दूरों के श्रम कानूनों के सभी अधिकारों की जिस तरह से खुलेआम धज्जियाँ नगर निगम गुड़गाव की नाक के नीचे उड़ाई जा रहीं है। ज़ाहिर है, यह बिना प्रशासन, सरकार और ठेकेदार की मिलीभगत के सम्भव नहीं है। इसके लिए ठेका ड्राइवरों को इस सच्चाई को समझना होगा और आने वाले दिनों में इसके लिए कमर कसनी होगी। साथ ही विभिन्न सेक्टर के मज़दूरों के साथ इस मुद्दे पर एकता बढ़ाकर आगे बढ़ना होगा।

राष्ट्रीय पेंशन योजना : कर्मचारियों के हक़ों पर मोदी सरकार का एक और हमला

सरकारी कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा के नाम पर जो कुछ भी मिलता था, उसको भी ख़त्म कर देने की योजना है। 2014 में “अच्छे दिन” का सपना दिखाकर सत्ता में पहुँची फ़ासीवादी मोदी सरकार ने अपने 10 सालों के शासनकाल में आम मेहनतकश आबादी पर कहर ही बरपाया है। पिछले 5 सालों में मोदी सरकार पूँजीपतियों के 10.6 लाख करोड़ का कर्ज़ माफ़ कर चुकी है। जिसकी भरपाई आम जनता के जेब से कर रही है। लगतार अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाकर महँगाई बढ़ाई जा रही है। विभागों के निजीकरण से रोज़गार का संकट और भी विकराल होता जा रहा है। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक संकट के लाइलाज़ भँवरजाल में फँस चुकी है। 1990–91 में आर्थिक उदारीकरण–निजीकरण की नीतियाँ इसी भँवरजाल से निकल पाने की कवायद थीं। इन नीतियों के तहत सार्वजनिक उपक्रमों का तेजी से निजीकरण किया गया जिसका परिणाम है कि रोज़गार के अवसर तेजी से कम हुए और आज बेरोज़गारी विकराल रूप ले चुकी है।

गुड़गाँव नगर निगम के ठेका ड्राइवर व अन्य मज़दूर अपनी माँगों के लेकर संघर्ष की राह पर!

गुड़गाँव नगर निगम के ड्राइवर ठेका कम्पनी इकोग्रीन एनर्जी गुड़गाँव-फ़रीदाबाद प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी के तहत कई सालों से कार्यरत हैं, जिन्हें पिछले चार महीने से वेतन न मिलने की वजह से हड़ताल पर जाने के लिए मज़बूर होना पड़ा। लम्बे समय बर्दाश्त करने के बाद, कमरे का किराया, राशन का ख़र्चा, उनके बच्चों स्कूल की फ़ीस न दे पाने व दवा-इलाज की समस्याएँ बहुत बढ़ जाने के बाद मज़दूरों को हड़ताल का रास्ता चुनना पड़ा।

बंगलादेश में हज़ारों कपड़ा मज़दूरों की जुझारू हड़ताल

दुनिया की सारी बड़ी गारमेण्ट कम्पनियों का अधिकतम माल यहाँ तैयार होता है, जिसके लिए मज़दूर 18-18 घण्टे तक खटते हैं। इन कारखानों में साधारण दस्तानों और जूते तक नहीं दिये जाते और केमिकल वाले काम भी मज़दूर नंगे हाथों से ही करते हैं। फैक्टरियों में हवा की निकासी तक के लिए कोई उपकरण नहीं लगाये जाते, जिस वजह से हमेशा धूल-मिट्टी और उत्पादों की तेज़ गन्ध के बीच मज़दूर काम करते हैं। जवानी में ही मज़दूरों को बूढ़ा बना दिया जाता है और दस-बीस साल काम करने के बाद ज़्यादातर मज़दूर ऐसे मिलेंगे जिन्हें फेफड़ों से लेकर चमड़े की कोई न कोई बीमारी होती है। आज बंगलादेश के जिस तेज़ विकास की चर्चा होती है, वह इन्हीं मज़दूरों के बर्बर और नंगे शोषण पर टिका हुआ है। बंगलादेशी सरकार और उनकी प्रधानमन्त्री शेख हसीना ने भी इस हड़ताल पर सीधा दमन का रुख अपनाया है। आख़िर उसे भी अपने पूँजीपति आक़ाओं की सेवा करनी है।

नारायणमूर्ति का एक और नारायणी प्रवचन : हफ़्ते में 70 घण्टे काम करो!

जहाँ तक काम के घण्टे निर्धारित करने का मामला है, 1921 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के समझौते के मुताबिक हफ्ते में 48 घण्टे काम करने का मानक निर्धारित किया गया था। 1935 आते-आते पश्चिमी देशों ने इसे घटाकर 40 घण्टे कर दिया! कुछ पश्चिमी देश तो हर 10 साल में काम के घण्टों को कम करते रहते हैं। लेकिन भारत में इसके 100 साल बाद भी 48 घण्टे का ही कानून लागू है। जबकि 8 घण्टे का काम, 8 घण्टे आराम, 8 घण्टे मनोरंजन का नारा दुनिया के मजदूर वर्ग ने 1880 के दशक में ही दिया था! तब से लेकर अब तक पूरी दुनिया में तकनीक, कौशल और उत्पादकता में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है! आज प्रौद्योगिकी के जिस स्तर पर दुनिया खड़ी है वहाँ दो से चार घण्टे काम करके ही उत्पादन की ज़रूरत को आसानी से पूरा किया जा सकता है! इसके साथ ही सभी का जीवन स्तर कई गुना बढ़ाया जा सकता है!

मालिकों की मुनाफ़े की हवस ले रही मज़दूरों की जान!

यह सब महज़ दुर्घटनाएँ नहीं मालिकों व इस पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा की जाने वाली निर्मम हत्याएँ हैं। आये-दिन कीड़े-मकौड़ों की तरह कारख़ानों में मज़दूरों को मरने के लिए पूँजीपति मज़बूर करते हैं। श्रम मन्त्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि बीते पाँच वर्षो में 6500 मज़दूर फैक्ट्री, खदानों, निर्माण कार्य में हुए हादसों में अपनी जान गवाँ चुके हैं। इसमें से 80 प्रतिशत हादसे कारखानों में हुए। 2017-2018 कारखाने में होने वाली मौतों में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। साल 2017 और 2020 के बीच, भारत के पंजीकृत कारखानों में दुर्घटनाओं के कारण हर दिन औसतन तीन मज़दूरों की मौत हुई और 11 घायल हुए। 2018 और 2020 के बीच कम से कम 3,331 मौतें दर्ज़ की गयी। आँकड़ों के मुताबिक, फैक्ट्री अधिनियम, 1948 की धारा 92 (अपराधों के लिए सामान्य दण्ड) और 96ए (ख़तरनाक प्रक्रिया से सम्बन्धित प्रावधानों के उल्लंघन के लिए दण्ड) के तहत 14,710 लोगों को दोषी ठहराया गया, लेकिन आँकड़ों से पता चलता है कि 2018 और 2020 के बीच सिर्फ़ 14 लोगों को फैक्ट्री अधिनियम, 1948 के तहत अपराधों के लिए सज़ा दी गयी। यह आँकड़े सिर्फ़ पंजीकृत फैक्ट्रियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि दिल्ली और पूरे देश में लगभग 90 फ़ीसदी श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े हैं और अनौपचारिक क्षेत्र में होने वाले हादसों के बारे में कोई पुख़्ता आँकड़े नहीं हैं।

प्रोटेरियल के पुराने ठेका मज़दूरों की हड़ताल की आंशिक जीत और आगे की चुनौतियाँ!

मज़दूरों की यह आंशिक जीत यह दिखाती है कि अपनी वर्गीय एकजुटता और संघर्ष के ज़रिए अपनी माँगों को एक हद तक पूरा करवाया जा सकता है। ऑटोमोबाइल सेक्टर में यही एकजुटता अगर सेक्टर के आधार पर बनायी जाये तो इस सेक्टर में मज़दूर वर्ग अपने तमाम हक़ और अधिकार हासिल कर सकता है। और आज उत्पादन के विकेन्द्रीकरण के साथ मज़दूर वर्ग के संघर्ष के लिए सेक्टरगत यूनियन ही मुख्य रास्ता हैं। साथ ही, हमें यह समझना होगा कि आज ठेका मज़दूरों को अपना स्वतन्त्र संगठन खड़ा करना होगा और अपने माँगों के लिए सेक्टरगत आधार पर संघर्ष करना होगा। ऐसे में ही स्थायी मज़दूरों का संघर्ष भी पुनर्जीवित किया जा सकता है, दलाल यूनियनों को किनारे लगाया जा सकता है और ऑटोमोबाइल मज़दूरों का एक जुझारू आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है।

दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का संघर्ष बुर्जुआ न्यायतन्त्र के चेहरे को भी कर रहा बेनक़ाब!

क़ानून की आँखों पर निष्पक्षता की नहीं बल्कि पूँजीपतियों-मालिकों के हितों की पट्टी बँधी हुई है। इस वर्ग-विभाजित समाज में क़ानून और न्यायपालिका का चरित्र और उसकी वचनबद्धता मज़दूरों-मेहनतकशों के पक्ष में हो भी नहीं सकती हैं। हमें इस गफ़लत से बाहर आ जाना चाहिए कि अदालतों में अन्ततोगत्वा न्याय मिलता ही है। न्याय व्यवस्था की आँख मज़दूरों के पक्ष में तभी थोड़ी खुलती है जब सड़कों पर कोई जुझारू संघर्ष लड़ा जा रहा हो। आँगनवाड़ी स्त्री-कामगारों ने अपने आन्दोलन से इस बात को चरितार्थ किया है। आँगनवाड़ीकर्मियों ने व अन्य कामगारों ने जो भी थोड़े-बहुत हक़-अधिकार हासिल किये हैं वो अपने संघर्ष के दम पर ही हासिल किये हैं। बहाली की माँग को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में चल रहे संघर्ष को भी गति देने के लिए अपने आन्दोलन को तेज़ करना ही आज एकमात्र रास्ता है।

आँगनवाड़ी कर्मियों को ग़ैरक़ानूनी रूप से टर्मिनेट करने वाले केजरीवाल के लाभार्थियों के लिए दावे झूठे हैं!!!

पहले से ही काम के बोझ तले दबी हुई आँगनवाड़ीकर्मियों से अब शिक्षक का काम भी लेकर उन्हें “स्वयंसेविकाओं” के अनुरूप मानदेय थमाया जायेगा। यही आँगनवाड़ीकर्मी जब अपने केन्द्रों पर बँटने वाले खाने की गुणवत्ता पर सवाल उठा देंगी तो इन्हें बर्ख़ास्त कर दिया जाएगा, वाजिब मेहनताना पाने का संघर्ष करेंगी तो उसे “हिंसक” घोषित कर दिया जाएगा। ज़ाहिरा तौर पर, समेकित बाल विकास परियोजना के लाभार्थियों को लेकर केजरीवाल की चिन्ता महज़ दिखावा है।

सड़क पर तो हम जीते ही थे, अब न्यायालय में भी जीत के क़रीब है दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का संघर्ष!

दिल्ली सरकार, महिला एवं बाल विकास विभाग और उसके दलालों की बेचैनी इस बात का सबब है कि दिल्ली सरकार के सामने अब कोई रास्ता नहीं बचा है। कुछ वक़्त पहले तक इन्हीं बर्ख़ास्तगियों को सही ठहराने वाला महिला एवं बाल विकास विभाग ऑर्डर जारी कर पुनः बहाली की नौटंकी करने को मजबूर हुआ। लेकिन अनर्गल शर्तों से भरे इस ऑर्डर को महिलाकर्मियों ने नामंज़ूर कर अपने संघर्ष को तब तक जारी रखने का ऐलान किया है जब तक सभी 884 ग़ैर-क़ानूनी टर्मिनेशन रद्द नहीं कर दिये जाते हैं। दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का संघर्ष न केवल टर्मिनेशन के ख़िलाफ़ है बल्कि न्यूनतम मज़दूरी, कर्मचारी का दर्जा, एरियर का भुगतान व ग्रैच्युटी समेत अन्य कई वाजिब माँगों के लिए भी है। महिलाकर्मियों के संघर्ष के दमन के ज़िम्मेदार आम आदमी पार्टी व भाजपा के ख़िलाफ़ दिल्ली निगम चुनाव में चला व्यापक बहिष्कार आन्दोलन भी आगे जारी रहेगा। न्यायालय में हमारा पक्ष इसीलिए मज़बूत है क्योंकि हमारी एकजुटता ठोस है और हम सड़क पर मज़बूत हैं।