Category Archives: श्रम क़ानून

केजरीवाल सरकार के मज़दूर और ग़रीब विरोधी रवैये के ख़िलाफ़ आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों ने उठायी आवाज़!

 इस योजना में सबसे निचले पायदान पर कार्यरत कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं को बलि का बकरा बनाकर केजरीवाल सरकार इस स्कीम में अपने द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार पर पर्दा डालते हुए महिलाकर्मियों के कन्धों पर रख कर बन्दूक चला रही है। ये कोई छिपी हुई बात नहीं है कि इस योजना में लगे एनजीओ का, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, आम आदमी पार्टी से सम्बन्ध है। खुद को आम आदमी का हिमायती कहने वाले केजरीवाल ने यह साबित कर दिया है कि उसकी सरकार के  ख़िलाफ़ अगर आवाज़ उठाई जायेगी तो उस आवाज़ को दबाने के लिए वो किसी भी हद तक जा सकते हैं।

एनडीए सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में मज़दूर-विरोधी संशोधन के खि़लाफ़ एक हों!

एनडीए सरकार द्वारा ‘मेक इन इण्डिया’, ‘स्किल इण्डिया’, ‘डिजिटल इण्डिया’ और ‘व्यापार की सहूलियत’ जैसे कार्यक्रमों का डंका बजाते हुए श्रम क़ानूनों में संशोधन किये जा रहे हैं। श्रम मन्त्रालय द्वारा 43 श्रम क़ानूनों को 4 बड़े क़ानूनों में समेकित किया जा रहा है। इसी कड़ी में 10 अगस्त 2017 को लोक सभा में ‘कोड ऑफ़ वेजिस बिल, 2017’ पेश किया गया। प्रत्यक्ष रूप से इस बिल का उद्देश्य वेतन सम्बन्धी निम्न चार केन्द्रीय श्रम क़ानूनों के प्रासंगिक प्रावधानों का एकीकरण व सरलीकरण करना है

दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन के नेतृत्व में दिल्ली की आँगनवाड़ी महिलाओं की शानदार जीत!

सरकार ने हड़ताल को कमजोर करने के लिए सुपरवाइज़र और सीडीपीओ पर दबाव डालकर महिलाओं को डरा-धमकाकर आँगनवाड़ी खुलवाने की कोशिशें कीं। कुछेक महिलाओं ने इनके डर से आँगनवाड़ी खोली भी। इससे निपटने के लिए यूनियन ने भी अपनी कार्रवाई की। महिलाओं की पिकेटिंग टीम बनायी गयी और जगह-जगह सेण्टरों पर जाकर डरी हुई अपनी बहनों को हौसला दिया गया और समझाया गया कि सुपरवाइ़जर और सीडीपीओ की गीदड़ भभकियों से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है, वे आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं, आपके साथ आपकी यूनियन है। इस पिकेटिंग का ज़बरदस्त असर हुआ और जो भी महिलाएँ डर रही थी, उनमें साहस और हिम्मत आयी और वे भी हड़ताल में शामिल हो गयीं।

दिल्ली आँगनवाड़ी महिलाओं का लम्बा और जुझारू संघर्ष!

अरविन्द केजरीवाल सरकार की इस लगातार जारी वायदा-खि़लाफ़ी को देखते हुए हड़ताल की लीडिंग कमिटी ने 4 अगस्त को फिर एक ज़बरदस्त कार्यक्रम की योजना बनायी। ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ के नेतृत्व में हज़ारों आँगनवाड़ी वर्कर्स व हेल्पर्स ने राजघाट से दिल्ली सचिवालय तक ‘आँगनवाड़ी आक्रोश रैली’ का आयोजन किया। 15 अगस्त के मद्देनज़र दिल्ली पुलिस कार्यक्रम को लेकर आना-कानी कर रही थी, लेकिन महिलाओं की ताक़त के आगे आखि़र उसे भी झुकना पड़ा। दिल्ली सचिवालय पहुँचकर महिलाओं ने ज़बरदस्त नारेबाज़ी की और अपनी सभा को चलाया। लेकिन केजरीवाल महाशय उस दिन भी नदारद थे।

विश्व स्तर पर मज़दूरों की हालत और गिरी – भारत निचले 10 देशों में शामिल

पिछली सदी के आखि़री दशक की शुरुआत में कांग्रेस पार्टी की सरकार ने भारत में उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की शुरुआत की। पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़ों के रास्तों में से हर रुकावट हटाने के लिए मज़दूरों के जनवादी श्रम अधिकारों पर ज़ोरदार हमला बोला गया। केन्द्र और राज्यों में भले ही किसी भी पार्टी की सरकार हो हर सरकार ने यही नीतियाँ लागू कीं। परिणामस्वरूप, आज हालत यह हो चुकी है कि मज़दूरों को न्यूनतम वेतन, हादसों और बीमारियों से सुरक्षा के प्रबन्ध, मुआवज़ा, ईएसआई., ईपीएफ़, बोनस, छुि‍ट्टयों, ओवरटाइम, यूनियन बनाने आदि सारे क़ानूनी अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। 5-6 फ़ीसदी मज़दूरों को ही इन श्रम अधिकारों के तहत कोई हक़ हासिल होते हैं।

बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र, गोरखपुर के अंकुर उद्योग कारख़ाने के मज़दूर आन्दोलन की राह पर

फ़ैक्टरी प्रबन्धन द्वारा मज़दूरों के साथ गाली-गलौच,धक्का-मुक्की आम बात है। पीने के साफ़ पानी का कोई इन्तज़ाम नहीं है। शौचालय गन्दगी और बदबू से भरा रहता है, कभी उसकी सफ़ाई नहीं करायी जाती है। इतनी भीषण गर्मी में बिजली का ख़र्च बचाने के लिए सभी एग्झास्ट बन्द रहते हैं, जिससे असह्य तापमान पर काम करने के लिए मज़दूर बाध्य हैं। लगभग 100 मज़दूर जो नियमित साफ़-सफ़ाई का काम करते हैं और इनमें से कई मज़दूर 1998 से ही काम कर रहे हैं, लेकिन इनको केवल 5900 रुपये ही दिया जाता है, जबकि अकुशल मज़दूर की मज़दूरी 7400 रुपये है। पहचान पत्र, ईएसआई, ईपीएफ़ जैसी कोई सुविधाएँ नहीं मिलतीं।

हरियाणा में यूनियन बनाने की सज़ा – मुक़द्दमा और जेल!

31 मई को सुबह से ही मज़दूर अपने परिवारजनों के साथ अपनी अनसुनी माँगों को उठाने के लिए फ़ैक्टरी के बाहर धरने पर बैठे थे। मैनेजमेण्ट की शिकायत पर हरियाणा पुलिस वहाँ एकत्रित हो गयी, प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया, उन्हें हिरासत में ले लिया और उन पर साँपला थाने में मुक़द्दमा दर्ज कर दिया। एफ़आईआर के अनुसार मज़दूरों पर आरोप है कि वे ग़ैर-क़ानूनी रूप से ख़तरनाक हथियार (यानी झण्डे!) लेकर एकत्रित हुए, रास्ता रोका, कम्पनी के गेट को जाम कर दिया, कम्पनी के स्टाफ़ को धमकी दी और आम चोट पहुँचाई।

श्रम क़ानूनों में ”सुधार” के नाम पर सौ साल के संघर्षों से हासिल अधिकार छीनने की तैयारी में है सरकार

सुधार से उनका सबसे पहला मतलब होता है कि मज़दूरों को और अच्छी तरह निचोड़ने के रास्ते में बची-खुशी बन्दिशों को भी हटा दिया जाये। मोदी सरकार इस माँग को पूरा करने में जी-जान से जुटी हुई है।
श्रम मंत्रालय संसद में छह विधेयक पारित कराने की को‍शिश में है। इनमें चार विधेयक हैं – बाल मज़दूरी (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक, बोनस भुगतान (संशोधन) विधेयक, छोटे कारखाने (रोज़गार के विनियमन एवं सेवा शर्तें) विधेयक और कर्मचारी भविष्यनिधि एवं विविध प्रावधान विधेयक। इसके अलावा, 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनाने का काम जारी है, जिनमें से दो – मज़दूरी पर श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता – पहले पेश की जा चुकी हैं और तीसरी – सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता – का मसौदा पिछले मार्च में जारी किया गया। कहने के लिए श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मकसद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।

मज़दूर विरोधी आर्थिक सुधारों के खि़लाफ़ ब्राज़ील के करोड़ों मज़दूर सड़कों पर उतरे

28 अप्रैल 2017 को ब्राज़ील में इस देश की अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल हुई है। सभी 26 राज्यों और फे़डर्ल जि़ले में हुई हड़ताल में साढ़े तीन करोड़ मज़दूरों ने हिस्सा लिया है। अगले दिनों में भी ज़ोरदार प्रदर्शन हुए हैं। मई दिवस पर बड़े आयोजन किये गये हैं। इन प्रदर्शनों में अनेकों जगहों पर पुलिस और प्रदर्शनकारियों में तीखी झड़पें हुई हैं। पुलिस ने जगह-जगह प्रदर्शनों को रोकने के लिए पूरा ज़ोर लगाया, लेकिन अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरे मज़दूरों के सामने पुलिस की एक न चली। गोलीबारी, आँसू गैस, गिरफ़्तारियाँ, बैरीकेड – पुलिस ने मज़दूरों को रोकने के लिए बहुत कुछ अाज़माया, लेकिन मज़दूरों का सैलाब रोके कहाँ रुकता था। सड़कें जाम कर दी गयीं। पुलिस के बैरीकेड तोड़ फेंके गये। गाँवों में ट्रैक्टरों से गलियाँ बन्द कर दी गयीं। ‘‘भूतों’’ से पीछा छुड़ाते हुए टेमेर जिस नये घर में आया है, वहाँ ज़ोरदार प्रदर्शन हुआ। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को रोकने की कोशिश की तो ज़बरदस्त पथराव के ज़रिये जवाब दिया गया।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का फ़ैसला लेकिन देश की बहुसंख्यक मज़दूर आबादी को इससे हासिल होगा क्या?

एक अन्य महत्वपूर्ण मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने ‘समान काम के लिए समान वेतन’ के सिद्धान्त को नज़रअन्दाज़ किया है। 2007 में ‘कर्नाटक राज्य बनाम अमीरबी’ मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कोर्ट ने आँगनवाड़ी में काम करनेवाली महिलाओं को राज्य सरकार के कर्मचारी होने का दर्जा और इसके परिणामस्वरूप मिलनेवाली सुविधाएँ देने से साफ़ इन्कार कर दिया। इस फ़ैसले में समेकित बाल विकास योजना के तहत काम करनेवाली इन आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के काम की प्रकृति को स्वैच्छिक बताया गया जिन्हें वेतन की जगह मानदेय मिलता है। और इसलिए ये सब सरकार की नियमित कर्मचारी नहीं बन सकतीं। इस फ़ैसले के पीछे काम करनेवाला तर्क यह है कि ये स्त्री कामगार महज़ ‘‘नागरिक पद’’ पर कार्यरत हैं क्योकि अदालत के अनुसार तो बच्चों के पालन-पोषण का काम रोज़गार होता ही नहीं। और वैसे भी यह काम सिर्फ़़ महिलाओं द्वारा ही किया जा रहा है इसलिए पुरुषों द्वारा किये जानेवाले पूर्णकालिक नियमित रोज़गार से इसकी तुलना नहीं की जा सकती! स्त्रियों के काम के प्रति यह नज़रिया कितना भ्रामक और गहराई से जड़ें जमाये हुए है, यह इस फ़ैसले से साफ़ हो जाता है।