केन्द्रीय बजट 2025-26
मज़दूरों, ग़रीब किसानों और निम्न-मध्यवर्ग की क़ीमत पर अमीरों को राहत और पूँजीपतियों और धन्नासेठों को लूटने की पूरी छूट का बेशर्म दस्तावेज़
सम्पादकीय अग्रलेख
पर्याप्त हो-हल्ले के साथ मोदी सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश किया। वित्तमन्त्री निर्मला सीतारमण ने बजट पेश करते हुए एलान किया कि मोदी सरकार आयकर की कवरेज व दरों में भारी बदलाव करते हुए देश के मध्यवर्ग को बड़ी राहत देने जा रही है। इस बदलाव के तहत अब रु. 12 लाख प्रति वर्ष, या रु. 1 लाख प्रति माह तक कमाने वालों पर वास्तव में कोई आयकर नहीं लगेगा। यानी उन्हें आयकर से पूरी तरह से छूट होगी। पहले यह सीमा रु. 7 लाख प्रति वर्ष थी। यह ख़बर आते ही देश के गोदी मीडिया पर जश्न का माहौल छा गया। ऐसा लग रहा था मानो मोदी सरकार ने देश की जनता के लिए कोई अभूतपूर्व कल्याणकारी नीति लागू कर दी हो। लेकिन जैसे ही आप आँकड़ों को देखते हैं, तो आप पाते हैं कि इसका फ़ायदा केवल 3 करोड़ लोगों को हासिल होगा, जो खाते-पीते मध्यवर्ग और उच्च वर्ग से आते हैं। वैसे भी देश की जनता की मुख्य समस्या है महँगाई और बेरोज़गारी। महँगाई का प्रमुख कारण है वसूली टैक्स, यानी जीएसटी और पेट्रोल व डीज़ल पर भारी लूटपाट टैक्स। इनके कारण ही देश की जनता को खाने-पीने की वस्तुओं, कपड़े, ईंधन, दवाओं, शिक्षा आदि की सेवाओं पर भारी महँगाई झेलनी पड़ रही है। क्या इन करों में कोई कटौती की गयी है? नहीं।
इसके अलावा, सरकार ने अपने सामाजिक ख़र्च में भी वास्तविक तौर पर कटौती की है। वजह यह कि खाते-पीते मध्यवर्ग और धनी वर्गों को आयकर में दी गयी छूट के कारण सरकारी खज़ाने को जो नुकसान उठाना पड़ेगा, उसकी भरपाई करनी होगी। उसकी भरपाई देश के पूँजीपति वर्ग, यानी कारखाना-मालिकों, कम्पनियों, धनी व्यापारियों, धनी पूँजीवादी फार्मरों व कुलकों पर समृद्धि टैक्स लगाकर तो की नहीं जा सकती है, क्योंकि भला मोदी सरकार उस पूँजीपति वर्ग पर टैक्स कैसे बढ़ा सकती है, जिसने हज़ारों करोड़ का चन्दा भाजपा को दिया और मोदी को तीन-तीन बार धनबल के बूते सत्ता में पहुँचाने का काम किया? नतीजतन, अप्रत्यक्ष करों को बार-बार बढ़ाकर और सामाजिक ख़र्च में कटौती करके ही देश की जनता से पूँजीपतियों और धनिक वर्गों को दी जाने वाली छूट से होने वाले नुकसान की भरपाई की जाती है और इस बार के बजट में भी यही किया गया है।
बढ़ती बेरोज़गारी से निपटने के लिए भी बजट में कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है। बेरोज़गारी की समस्या और व्यापक मेहनतकश आबादी की घटती वास्तविक आय की समस्या ही देश में कुल प्रभावी माँग की कमी की समस्या के मूल में है। बेरोज़गारी और घटती औसत आय का कारण प्रभावी माँग की कमी नहीं है, बल्कि यह बेरोज़गारी और घटती औसत आय की समस्या है, जो प्रभावी माँग में कमी को पैदा करती है। और बेरोज़गारी और घटती औसत आय की समस्या का कारण है मौजूदा आर्थिक मन्दी, जो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आवर्ती क्रम से आती ही है। हम आगे इस प्रश्न पर विस्तार से बात करेंगे।
इसी प्रकार, उस दूसरी समस्या के समाधान के बारे में भी बजट में कोई उपाय नहीं किये गये हैं, जिसका देश की आम जनता, विशेष तौर पर मज़दूर और ग़रीब किसान, सामना कर रहे हैं, यानी, महँगाई। इस समय महँगाई के मूल कारण क्या हैं? महँगाई के मूल कारण भी भारी जीएसटी करों का बोझ, पेट्रोल व डीज़ल पर भारी कर, खाद्यान्नों पर एमएसपी के कारण उनकी बढ़ी हुई क़ीमतें, व्यापारियों, आढ़तियों आदि द्वारा की जाने वाली जमाखोरी और दूसरी ओर जनता की घटती वास्तविक आय। क्या इस समस्या के इन दोनों पहलुओं के बारे में मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के पहले बजट में कोई भी क़दम उठाया गया है? हाँ, वे क़दम उठाये गये हैं जो इस समस्या को और भी ज़्यादा विकराल बना देंगे। इन पर भी आगे विस्तार से आँकड़ों समेत बात करेंगे।
फिलहाल, यह देख लेते हैं कि मौजूदा बजट में देश की जनता के लिए क्या है और पूँजीपतियों, यानी कारखाना-मालिकों, धन्नासेठों, धनी पूँजीवादी किसानों व कुलकों, ठेकेदारों, धनी व्यापारियों और तरह-तरह के दलालों और बिचौलियों के लिए क्या है।
जनता बेहाल, पूँजीपति मालामाल
सबसे पहले बजट के प्रमुख पहलुओं पर एक निगाह डाल लेते हैं। 2025-26 के बजट में सरकार द्वारा रु. 50,65,345 ख़र्च करने का अनुमान है। यह पिछली बार से 7.4 प्रतिशत ज़्यादा है। सरकार का अनुमान है कि उसकी आय का प्रमुख स्रोत, यानी टैक्सों, से होने वाली आमदनी पिछली बार से 11 प्रतिशत ज़्यादा होगी। ध्यान रखें कि इसी बजट में कारपोरेट टैक्स में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गयी है और मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में ही इसे पहले ही काफ़ी कम कर दिया था। साथ ही, आयकर के कवरेज को घटा दिया गया है और रु. 12 लाख तक की वार्षिक आय वाले को अब वास्तव में कोई आयकर नहीं देना होगा। अब तक रु. 7 लाख प्रति वर्ष की आय वाले को कोई आयकर नहीं देना पड़ता था। ज़ाहिर है, इस बदलाव का सबसे बड़ा फ़ायदा खाते-पीते मध्यवर्ग और उच्च वर्ग को मिलेगा। अर्थशास्त्रियों के अनुसार, इसका लाभ भारत की आबादी के ऊपर के 3 करोड़ लोगों को ही मिलेगा, जो कि देश की कुल आबादी का 2.1 प्रतिशत है। लेकिन इसके बावजूद सरकार का अनुमान है कि टैक्सों से उसे होने वाली आमदनी में 11 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी। यह बढ़ोत्तरी कहाँ से होगी? यह बढ़ोत्तरी होगी व्यापक मेहनतकश जनता, यानी मज़दूर, अर्द्धसर्वहारा, ग़रीब किसान व निम्न मध्यवर्ग पर अप्रत्यक्ष करों के बोझ को बढ़ाकर, जिसे मोदी सरकार ने पिछले 10 वर्षों में पहले ही काफ़ी बढ़ाया है। अप्रत्यक्ष करों का यह बढ़ता बोझ ही वास्तव में बढ़ती महँगाई का सबसे बड़ा कारण है। इसके अलावा, स्टार्ट अप, यानी नये उद्यम शुरू करने वाले पूँजीपतियों को भी तीन वर्षों तक करों से मुक्ति दे दी गयी है। 12 लाख प्रति वर्ष से ऊपर की आय वालों पर, यानी उच्च मध्य वर्ग के ऊपर हिस्सों और धनी वर्गों पर भी आयकर की दरों को घटा दिया गया है। नतीजतन, देश के सबसे अमीर 2 प्रतिशत लोगों को मोदी सरकार ने भरपूर फ़ायदा पहुँचाया है। सरकार को उम्मीद है कि इससे इन वर्गों के लोग ज़्यादा ख़रीदारी करेंगे और घरेलू प्रभावी माँग में वृद्धि होगी और साथ ही उन्हें निवेश करने का प्रोत्साहन मिलेगा।
बजट के पेश किये जाने के ठीक पहले घरेलू उपभोक्ता ख़र्च सर्वेक्षण के आँकड़े सामने आये हैं। ये आँकड़े जो तस्वीर पेश करते हैं वे स्पष्ट कर देते हैं कि कराधान प्रणाली में किये गये बदलावों का देश के ग़रीबों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। इसके अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में औसतन चार सदस्यों वाले परिवारों की औसत मासिक आय है रु. 8,316, यानी रु. 99,792 प्रतिशत वर्ष। वहीं शहरी क्षेत्रों में औसतन चार सदस्यों वाले परिवारों की औसत मासिक आय है रु. 14,528 यानी रु. 1,74,336 प्रति वर्ष। भला इस मेहनतकश आबादी को टैक्सों में दी गयी छूट से क्या लाभ मिलने वाला है? आयकर तो यह आबादी पहले भी नहीं देती थी। वह तो मुख्य तौर पर जीएसटी व पेट्रो उत्पादों पर लगने वाले भारी लूटपाट टैक्स के कारण बढ़ती महँगाई से पीड़ित है।
भारत सरकार की आय के हर 1 रुपये में से 66 पैसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर से आयेंगे। इसमें से प्रत्यक्ष करों में आयकर और कारपोरेट टैक्स शामिल हैं। कारपोरेट टैक्स से मात्र 17 पैसे आयेंगे जबकि आयकर से 22 पैसे आयेंगे। दूसरी ओर, अप्रत्यक्ष करों से कुल 27 पैसे आयेंगे, जिसमें से अकेले जीएसटी से 18 पैसे आयेंगे जबकि एक्साइज़ शुल्क से 5 पैसे और कस्टम शुल्क से 4 पैसे आयेंगे। मोदी सरकार के ही कार्यकाल में कारपोरेट टैक्स की दर को भारतीय कम्पनियों के लिए 30 प्रतिशत से घटाकर 30 से 25 प्रतिशत कर दिया गया, जो प्रभावी तौर पर घटते हुए अब 22 प्रतिशत तक पहुँच गया है, और आगे इसे और घटाने का प्रस्ताव है। विदेशी कम्पनियों के लिए कारपोरेट टैक्स को इसी दौर में 40 प्रतिशत से घटाकर 35 प्रतिशत कर दिया गया। कुल टैक्स राजस्व में मोदी सरकार के दौर में ही कारपोरेट टैक्स का हिस्सा लगातार घटते हुए लगभग 34-35 प्रतिशत से 25 प्रतिशत के करीब आ चुका है। दूसरी तरफ़, 2011 से ही अप्रत्यक्ष करों में लगातार वृद्धि हुई है। अगर राज्यों व केन्द्र दोनों के करों से होने वाले राजस्व की बात करें, तो उसमें 2011 से अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा 57-58 प्रतिशत से बढ़कर आज लगभग 66 प्रतिशत तक पहुँच चुका है।
इन आँकड़ों का हम मेहनतकश लोगों के लिए मतलब क्या है? मतलब यह है कि एक ओर हम अपनी मेहनत से देश के पूँजीपतियों और धन्नासेठों के लिए मुनाफ़ा पैदा करें और उनकी तिजोरियाँ भरें और उसके बाद हम पर ही टैक्सों का बोझ भी सबसे ज़्यादा लाद दिया जाय, जबकि परजीवी पूँजीपति वर्ग को टैक्सों से लगातार छूट दी जाय। मोदी सरकार ने मन्दी के दौर में ये क़दम पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की दर को बढ़ाने के लिए उठाये हैं, ताकि वह अपनी निवेश की दर को बढ़ाये। लेकिन यह हो ही नहीं पा रहा है क्योंकि मुनाफ़े की औसत दर के गिरने के संकट के कारण कहीं और हैं और पूँजीपतियों पर लगने वाले टैक्सों को घटाकर उसका समाधान नहीं किया जा सकता है। आगे हम समझेंगे कि ये संकट क्या है और किस प्रकार यह बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई के लिए ज़िम्मेदार है।
अप्रत्यक्ष करों में एक भारी हिस्सा पेट्रोल, डीज़ल आदि पेट्रो उत्पादों पर लगने वाले टैक्सों का है। मोदी सरकार के बनने के समय कच्चे तेल की अन्तरराष्ट्रीय कीमत थी 136 डॉलर प्रति बैरल। आज यह कीमत है 73.81 डॉलर प्रति बैरल। इसी बीच, मोदी सरकार के सत्ता में आने के समय भारत में पेट्रोल की कीमत थी रु. 71.41 प्रति लीटर, जबकि आज उसकी कीमत है रु. 95 से रु. 103 के बीच है। डीज़ल की कीमत मई 2014 में, यानी मोदी सरकार बनने के समय थी रु. 55.49 प्रति लीटर और आज यह कीमत है रु. 87.92 से रु. 90 के बीच। यानी दुनिया में तेल की कीमत घटती रही और मोदी सरकार के राज में तेल की कीमत बढ़ती रही। क्यों? क्योंकि मोदी सरकार के दौर में इस पर टैक्सों का भारी बोझ लाद दिया गया है। एक्साइज़, कस्टम, आईजीएसटी, सीजीएसटी, सेवा कर, सेस, रॉयल्टी, सरचार्ज, डिविडेण्ड आदि करों के नाम पर नये-नये करों को बढ़ा-चढ़ाकर पेट्रोल व डीज़ल पर थोपा जाता रहा है।
2015 से 2023 के बीच में मोदी सरकार ने तेल पर लगने वाले करों से रु. 31.6 लाख करोड़ बटोरे और राज्य सरकारों ने (जिसमें से अधिकांश भाजपा सरकारें ही थीं) ने रु. 19.9 लाख करोड़ बटोरे, यानी कुल 51.5 लाख करोड़ रुपये। तेल पर लगने वाले टैक्सों में मोदी सरकार के दौर में ही लगभग 250 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है, वह भी ठीक उस समय जब दुनिया में तेल की कीमत गिर रही थी और रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण 2021-22 में हुई बढ़ोत्तरी के बावजूद भारत को 110 डॉलर प्रति बैरल कच्चे तेल की अन्तरराष्ट्रीय कीमत के मुकाबले रूस से 60 डॉलर प्रति बैरल कच्चा तेल मिल रहा था! यह देश की जनता की नंगी लूट नहीं है तो और क्या है? लेकिन मोदी सरकार को पूँजीपतियों को दी जा रही भारी कर छूट से होने वाले नुकसान की भरपाई करनी थी और यह देश की मेहनतकश जनता पर करों का बोझ बढ़ाकर ही किया जा सकता था। मौजूदा बजट यानी 2025-26 के बजट में भी जनता को इस बोझ से कोई राहत नहीं दी गयी है।
अब जीएसटी की स्थिति पर भी एक निगाह डाल लेते हैं। 2018 से 2024 के बीच में मोदी सरकार ने जीएसटी में 116 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की। जुलाई 2022 में मोदी सरकार ने उन खाने-पीने की वस्तुओं पर भी 5 प्रतिशत जीएसटी लगा दिया जिनका आम तौर पर देश की मेहनतकश जनता उपभोग करती है, मसलन, गेहूँ, चावल, दही, चूड़ा, लस्सी, मीट और मछली आदि, चाहे ये वस्तुएँ ब्राण्डेड हों या न हों। यहाँ तक कि स्कूली बच्चों की कॉपियों-किताबों तक पर टैक्स लगाने का काम मोदी सरकार ने किया। इसके अलावा, अन्य लगभग सभी रोज़ाना के इस्तेमाल के सामानों पर भारी जीएसटी लगाया जा रहा है।
मुख्य तौर पर, इन दोनों करों, यानी पेट्रोल व डीज़ल पर लगने वाले करों तथा जीएसटी के कारण ही महँगाई आसमान छू रही है। पेट्रोल व डीज़ल पर कर बढ़ने का अर्थ होता है हर वस्तु का महँगा होना। वजह यह कि इनकी बढ़ती कीमतों का असर परिवहन, संसाधन, आदि के महँगा होने के कारण हर चीज़ को ही महँगा कर देता है।
मौजूदा बजट में भी पूँजीपतियों को छूट और जनता की लूट की नीतियों को मोदी सरकार ने बदस्तूर जारी रखा है। मीडिया में कहीं भी, ग़रीब आदमी के लिए इस बजट में क्या है, इसका कोई ज़िक्र नहीं है। समूचा गोदी मीडिया व अन्य पूँजीवादी मीडिया इस बात पर ताली पीट रहा है कि उच्च मध्यवर्ग के पहले से बड़े हिस्से को आयकर में छूट दे दी गयी है। वैसे भी अब पूँजीवादी मीडिया में विमर्श अब मध्यवर्ग से नीचे जाता ही नहीं है, हम मज़दूर-मेहनतकश दुनिया की सारी समृद्धि पैदा करने के बाद उनकी निगाह में अदृश्य ही रहते हैं। वास्तव में आयकर में दी गयी यह छूट कुल आबादी के मात्र 2 प्रतिशत को लाभ पहुँचाती है। इस पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है। वजह यह है कि इस मीडिया का भी एक वर्ग चरित्र है और वह उसी के अनुसार बर्ताव कर रहा है।
बजट के जिस दूसरे हिस्से से आम मेहनतकश जनता का विशेष सरोकार होता है वह होता है जनता को प्रत्यक्षत: या अप्रत्यक्षत: लाभ पहुँचाने वाली योजनाओं, उपक्रमों व नीतियों पर सरकारी ख़र्च का हिस्सा। अगर सकल घरेलू उत्पाद के एक हिस्से के रूप में सरकारी ख़र्च की बात करें तो वह मौजूदा बजट में 14.6 प्रतिशत से घटकर 14.2 प्रतिशत रह गया है। ऊपर से जारी वर्ष में सरकार ने अनुमानित सरकारी ख़र्च से 1 लाख करोड़ रुपये कम ख़र्च किया है।
अगर खाद्य सुरक्षा व भोजन पर ख़र्च की बात करें, तो पिछले बजट में इसके लिए 2.05 लाख करोड़ आबण्टित थे, लेकिन सरकार ने वास्तव में इससे 7830 करोड़ कम ख़र्च किये थे और इस साल इस आबण्टन को ही घटाकर रु. 2.03 लाख करोड़ कर दिया गया है। ऐसा उस समय किया गया है जब खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती महँगाई और ठहरावग्रस्त वेतन व मज़दूरी के कारण आम मेहनतकश जनता की खाद्य असुरक्षा अभूतपूर्व स्तर पर है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को नष्ट करने का काम मोदी सरकार निरन्तर कर ही रही है। इसी प्रकार, पिछले वर्ष के बजट में 1.26 लाख रुपये शिक्षा के लिए आबण्टित किये गये थे, लेकिन उससे भी रु. 11,584 करोड़ कम ख़र्च हुए। इस बार शिक्षा के लिए बजट आबण्टन में कहने को रु. 3012 करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है, यानी 2.3 प्रतिशत की। लेकिन अगर इसे मुद्रास्फीति से, यानी रुपये के घटते मूल्य से प्रति-सन्तुलित किया जाय तो बढ़ोत्तरी शून्य के क़रीब बैठेगी और यह राशि भी पहले की तरह अगर पूरी ख़र्च नहीं की गयी तो फिर इस आबण्टन का भी कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता है।
इसी प्रकार रसोई गैस के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को 14.7 हज़ार करोड़ रुपये से घटाकर 12 हज़ार करोड़ रुपये कर दिया गया है। यानी इस साल आप सब्सिडाइज़्ड रेट पर होने वाली रसोई गैस की आपूर्ति में कमी और उसकी क़ीमत में बढ़ोत्तरी की उम्मीद कर सकते हैं। इसी प्रकार, मनरेगा के लिए पिछले बजट में आबण्टित राशि में एक रुपया भी बढ़ोत्तरी नहीं की गयी है, यानी रु. 86,000 करोड़। इसे अगर रुपये के गिरते मूल्य के साथ देखें, तो हम पायेंगे कि मनरेगा की राशि में वास्तविक अर्थों में कमी आयी है। यहाँ भी सरकार की पक्षधरता साफ़ है। मनरेगा का जो थोड़ा-बहुत लाभ होता है, वह गाँव के ग़रीबों, यानी ग्रामीण मज़दूरों, ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा और छोटे व परिधिगत किसानों को होता है। लेकिन इसके कारण धनी किसानों व कुलकों के समक्ष उनकी ग़रज़मन्दी कम हो जाती है और उनकी मोलभाव की क्षमता बढ़ती है। यही कारण है कि एमएसपी के रूप में अपने लिए अतिरिक्त लाभ के अधिकार के लिए लड़ रहे धनी किसान व कुलक अपने आन्दोलन में भीड़ के तौर पर ग्रामीण मज़दूरों और ग़रीब किसानों की जुटान तो चाहते हैं, लेकिन स्वयं ग़रीब किसानों व ग्रामीण मज़दूरों के मसलों पर उनका साथ नहीं देते। मसलन, वे कभी यह माँग नहीं उठाते कि ग्रामीण मज़दूरों को श्रम कानूनों के मातहत लाया जाय और उनके श्रम अधिकार दिये जायें। माकपा व भाकपा जैसी संशोधनवादी पार्टियों से उनके रिश्ते हैं और उनकी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के समर्थन के लिए वे मोदी के चार लेबर कोड के विरोध का ज़ुबानी जमाख़र्च ज़रूर करते हैं क्योंकि औद्योगिक मज़दूरों पर ये लेबर कोड थोपे जाएँ या न थोपे जाएँ, इससे खेतिहर पूँजीपति वर्ग को कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ता है। लेकिन वे खेतिहर मज़दूरों के लिए श्रम कानूनों की सुरक्षा की माँग क्यों नहीं करते? वे ग़रीब किसानों को असंस्थागत अनौपचारिक ऋणों की माफ़ी की माँग क्यों नहीं करते, जो स्वयं उन्होंने ही बेहद ऊँची ब्याज दरों पर गाँव के ग़रीबों को दिये हैं? वे इन ग़रीब किसानों के लिए संस्थागत सरकारी ऋण के अधिकार की माँग क्यों नहीं करते? वे खेती के क्षेत्र में सरकारी अवरचना निर्माण, मसलन सिंचाई की सरकारी व्यवस्था, खेती के इनपुट्स को ग़रीब किसानों को सब्सिडी बढ़ाकर रियायती दरों पर देने, आदि की माँग क्यों नहीं करते? क्योंकि ग़रीब किसानों व ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा वर्ग को इन सारी सहूलियतों की कमी होने का फ़ायदा धनी किसान व भूस्वामी ख़ुद उठाते हैं और वाणिज्यिक मुनाफ़े, कमीशन, सूद, लगान आदि के ज़रिये गाँव के ग़रीबों को लूटते हैं। यही सच्चाई है, चाहे हमारे देश के कुलकवाद और नरोदवाद में अन्धे कुछ “कॉमरेड” इस बात को मानें या न मानें। कोई भी गाँव का ग़रीब उन्हें इस सच्चाई के बारे में बता देगा।
मोदी सरकार ने निश्चित ही एमएसपी की कानूनी गारण्टी धनी किसानों व कुलकों को नहीं दी है, हालाँकि एमएसपी खेतिहर बुर्जुआज़ी को आज भी मिल रहा है। मिसाल के तौर पर, 2024-25 के रबी सीज़न में 266 लाख मीट्रिक टन गेहूँ की ख़रीद एमएसपी पर हुई है, जबकि इसी सीज़न में कुल 61,000 करोड़ रुपये की ख़रीद एमएसपी पर हुई है। लेकिन यह भी सच है कि औद्योगिक व वित्तीय पूँजीपति वर्ग एमएसपी की व्यवस्था को जारी नहीं रखना चाहता है। यह खेतिहर पूँजीपति वर्ग और बाकी पूँजीपति वर्ग के बीच का अन्तरविरोध है। क्यों? इसलिए कि एमएसपी खाद्यान्नों की कीमतों को बढ़ाकर औसत मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा करता है, जो कि मुनाफ़े की औसत दर को गिराने की सम्भावनासम्पन्नता रखती है। यही वजह है कि खेतिहर पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से को छोड़कर बाकी पूँजीपति वर्ग एमएसपी की व्यवस्था का ख़ात्मा चाहता है। लेकिन सिर्फ़ इसलिए देश के मज़दूरों और मेहनतकशों को एमएसपी की व्यवस्था का समर्थन कतई नहीं करना चाहिए। क्योंकि एमएसपी की व्यवस्था उनके हितों के ख़िलाफ़ जाती है, क्योंकि यदि मज़दूर संगठित होकर अपनी मज़दूरी को बढ़वाने में असफल होते हैं, तो एमएसपी के कारण महँगे होने वाले भोजन का अर्थ होगा उनकी वास्तविक मज़दूरी में कमी क्योंकि उन्हें अपनी मज़दूरी का पहले से बड़ा हिस्सा भोजन पर ख़र्च करना पड़ता है। दूसरी बात, एमएसपी बढ़ने से निश्चित तौर पर देश के आम मेहनतकश अवाम को कोई लाभ नहीं होता है, बल्कि नुकसान ही होता है।
जहाँ तक देश की व्यापक मेहनतकश दलित व आदिवासी आबादी का सवाल है, तो मोदी सरकार ने पहले की ही तरह इस बार के बजट में भी उनकी अनदेखी जारी रखी है। पिछले बजट में ही दलितों के कल्याण हेतु आबण्टित मद में रु. 27,000 करोड़ की कटौती की गयी थी जबकि आदिवासी आबादी के कल्याण हेतु आबण्टित मद में रु. 17,000 करोड़ की कटौती की गयी थी। इस बार भी दलितों व आदिवासियों के कल्याण हेतु बजट का क्रमश: 3.4 प्रतिशत व 2.6 प्रतिशत हिस्सा ही रखा गया है।
प्रधानमन्त्री आवास योजना-शहरी के लिए 2024-25 में रु. 30,171 करोड़ आबण्टित किये गये थे। इस बार उसे घटाकर रु. 19,794 करोड़ कर दिया गया है। यह दीगर बात है कि पिछले साल भी आबण्टित राशि चाहे जो भी हो, सरकार ने इस योजना के तहत ख़र्च केवल रु. 13,670 करोड़ किये थे। अब तो आबण्टन ही घटा दिया गया है तो उम्मीद की जा सकती है कि इस पर ख़र्च और भी ज़्यादा कम होगा। इसी प्रकार पीने की पानी की गम्भीर समस्या झेलने वाले हमारे देश में जल जीवन मिशन भी एक भारी घपला साबित हुआ है। 2024-25 में इसके मद में कहने को रु. 70,163 करोड़ रखे गये थे, लेकिन उसमें से केवल 32 प्रतिशत, यानी रु. 22,694 करोड़ ही ख़र्च किये गये! इस साल आबण्टन को ही घटाकर रु. 67,000 करोड़ कर दिया गया है, तो ख़र्च क्या होगा इसका अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। इन सभी योजनाओं की ख़र्च न की जाने वाली राशि या तो पूँजीपतियों के हवाले कर दी जाती है, या उसे देश के नेताओं-नौकरशाहों की अय्याशियों पर उड़ा दिया जाता है, जबकि लोगों के पास पक्के घर, पीने का पानी, पर्याप्त व पोषणयुक्त भोजन तक नहीं होता है।
स्कूल में मिड-डे मील की योजना, जिसे पीएम-पोषण योजना कहा जाने लगा है, के लिए बजट आबण्टन को रु. 12,467 हज़ार से बढ़ाकर रु. 12,500 करोड़ कर दिया गया है, जो कि इतनी मामूली बढ़ोत्तरी है, जिसे मुद्रास्फीति के साथ तुलना करके देखें, तो हम पाते हैं कि वास्तव में इस योजना के तहत आबण्टन में वास्तविक कमी की गयी है। ऐसे में, दसवीं तक के बच्चों को इस योजना के तहत लाने और उनके आहार में अण्डा, दूध व फलों को जोड़ना सपने के समान है। यानी मोदी सरकार के दौर में धीरे-धीरे करके इस योजना का भी बण्टाधार किया जा रहा है। स्वास्थ्य व परिवार कल्याण विभाग के बजट में पिछले वर्ष की तुलना में 9.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है, लेकिन यह हर पैमाने पर अपर्याप्त है। पिछले वर्ष भी संशोधित अनुमान के तहत राशि को करीब रु. 1000 करोड़ घटा दिया गया था। स्वयं सरकारी व गैर-सरकारी कमेटियों ने बार-बार कहा है कि अगर देश में जनता के स्वास्थ्य के अधिकार को सुनिश्चित करना है, तो स्वास्थ्य के लिए बजट आबण्टन दोगुना करना होगा। यानी इस बार बजट में इसके लिए आबण्टित राशि (रु. 96,000 करोड़) को दोगुना कर करीब 2 लाख करोड़ रुपये तक पहुँचाना होगा। लेकिन मोदी सरकार इसका उल्टा कर रही है। या तो इसमें कोई बढ़ोत्तरी ही नहीं की जा रही है, या फिर वास्तविक मूल्य के रूप में उसमें कमी की जाती रही है। विशेष तौर पर, बुनियादी धरातल पर प्राथमिक स्वास्थ्य देखरेख का काम देखने वाली राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के मदों में कटौती की जा रही है। इस बार इसमें नॉमिनल तौर पर 3.4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है, जो कि वास्तव में कटौती है। इसे रु. 36,000 करोड़ से बढ़ाकर रु. 37,223 करोड़ कर दिया गया है। लेकिन रुपये की गिरावट से इसे प्रतिसन्तुलित करने पर सच्चाई का पता चलता है। जिस चीज़ के बजट में बढ़ोत्तरी की गयी है, वह एक ऐसी योजना है जिसका लाभ वास्तव में निजी बीमा क्षेत्र के पूँजीपतियों यानी कम्पनियों को मिलेगा, यानी, पीएम जन आरोग्य योजना। यह एक बीमा योजना है, न कि सरकारी स्वास्थ्य देखरेख योजना। इसके तहत, 29 प्रतिशत फण्ड की बढ़ोत्तरी कर उसे रु. 7,300 करोड़ से रु. 9,406 करोड़ कर दिया गया है। यहाँ निजी बीमा कम्पनियों को सरकार द्वारा धन दिया जाता है, जबकि यह धन सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मज़बूत बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता था।
कहने को सक्षम आँगनवाड़ी योजना व पोषण 2.0 के लिए आबण्टन में लगभग 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है। लेकिन यदि हम पोषण 2.0 के तहत आबण्टित फण्ड को देखते हैं, तो पाते हैं कि इसे रु. 21,200 करोड़ से बढ़ाकर 21,960 करोड़ किया गया है, जो मुद्रास्फीति को जोड़ने पर वास्तव में कटौती है। 2023-24 में तो यह फण्ड रु. 21,809 करोड़ था! यानी दो वर्ष पहले की तुलना में मात्र रु. 150 करोड़ की बढ़ोत्तरी जो कि वास्तविक मूल्य में कटौती है। जब सरकारी आँकड़ों के अनुसार ही 6 वर्ष तक के 37 प्रतिशत बच्चे यानी 6 करोड़ बच्चे अवरुद्ध विकास का शिकार हैं, और उनमें से 17 प्रतिशत यानी करीब 2.7 करोड़ बच्चे कम वज़न के शिकार हैं, तो ऐसी बढ़ोत्तरी क्या देश के मेहनतकश ग़रीब लोगों के साथ मोदी सरकार का एक भद्दा मज़ाक नहीं है? वास्तव में, पिछले 7 वर्षों में मोदी सरकार ने इस योजना के तहत आने वाले बच्चों के लिए प्रति बच्चा 5 पैसे की बढ़ोत्तरी की है! इस योजना के लाभार्थी करीब 8 करोड़ बच्चे और 2 करोड़ गर्भवती औरतें हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये आम मेहनतकश घरों के बच्चे और औरतें हैं। मोदी सरकार ने बजट में 2 लाख सक्षम आँगनवाड़ियाँ बनाने की बात की है, जबकि आज 3.38 लाख आँगनवाड़ियों में पीने योग्य पानी और 4.61 लाख आँगनवाड़ियों में शौचालय तक की व्यवस्था नहीं है। करीब 13 लाख आँगनवाड़ी वर्करों और करीब 11.64 लाख आँगनवाड़ी हेल्परों को स्थायी सरकारी कर्मचारी दर्जा देने के बारे में बजट में कोई ज़िक्र तक नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के आँगनवाड़ी कर्मचारियों को ग्रैच्युटी देने के आदेश और गुजरात हाई कोर्ट के इन कर्मचारियों को ग्रेड-3 व ग्रेड-4 के सरकारी कर्मचारियों के रूप में नियमित करने के आदेश की ख़ुद केन्द्र सरकार ही अवहेलना कर रही है। अन्य स्कीम वर्करों, मसलन आशा वर्करों को भी बजट ने इसी प्रकार नज़रन्दाज़ किया है। मोदी सरकार की प्राथमिकताएँ यहाँ भी स्पष्ट हैं।
एक बात स्पष्ट है : देश की जनता इस समय जिन दो सबसे बड़ी समस्याओं का सामना कर रही है, यानी बेरोज़गारी और महँगाई, उसके बारे में मोदी सरकार ने कोई भी क़दम नहीं उठाया है, या कहें, वे क़दम उठाये हैं जो इन समस्याओं को आने वाले समय में बढ़ाने वाले हैं।
इन दोनों समस्याओं पर अलग से कुछ विचार ज़रूरी है, क्योंकि इनके बारे में देश के सुधारवादी और संशोधनवादी मज़दूरों और मेहनतकशों के सामने काफ़ी धुंध फैलाते हैं।
बेरोज़गारी की समस्या का असली कारण, मौजूदा बजट और संसदीय वामपंथियों व सुधारवादियों के असुधारणीय विभ्रम
बेरोज़गारी की समस्या ढाँचागत तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा अपने नैसर्गिक गति से पैदा होती है। वजह यह कि पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी प्रकृति से ही हमेशा बेरोज़गारों की एक रिज़र्व फ़ौज़ की ज़रूरत होती है। न तो सरकार द्वारा अधिक सामाजिक ख़र्च करके इसे रोका जा सकता है, न ही बजट घाटे की नीति से। पूँजीवादी सरकारें तेज़ी के दौर में, यानी जब मुनाफ़े की औसत दर ऊँची होती है, तो कुछ तात्कालिक क़दमों के द्वारा बेरोज़गारी की दर में कुछ कमी ज़रूर ला सकती है और बेरोज़गारी को सामाजिक सुरक्षा के तहत बेरोज़गारी भत्ता वगैरह भी दे सकती है, क्योंकि उस समय पूँजीपति वर्ग भी वर्ग संघर्ष की धार को कुन्द करने और शान्ति बनाये रखने के लिए इतना ख़र्च और “कुर्बानी” करने को तैयार होता है। लेकिन आर्थिक संकट के दौर में, यानी जब मुनाफ़े की औसत दर कम हो या गिर रही हो, उस समय पूँजीपति वर्ग ऐसी कल्याणकारी नीतियों की हिमायत कतई नहीं करता है और आम तौर पर किसी ऐसी पूँजीवादी पार्टी की ही सरकार बनवाने का प्रयास करता है, जो हर प्रकार की कल्याणकारिता को तिलांजलि दे दे, यानी वेलफ़ेयर का फ़ेयरवेल कर दे। ऐसे मौक़ों पर देश के व्यापक मेहनतकश अवाम के सामने सर्वहारा वर्ग कहीं ज़्यादा स्पष्टता के साथ पूँजीवादी व्यवस्था की बुनियादी सच्चाई को उजागर कर सकता है और उसके ध्वंस और मज़दूर सत्ता व समाजवाद के निर्माण का एक व्यावहारिक कार्यक्रम और एजेण्डा रख सकता है। लेकिन संशोधनवादी और संसदीय वामपन्थी ठीक ऐसे ही समय में पूँजीवाद की अगली सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाते हुए उसके प्रति विभ्रमों को मेहनतकश अवाम के बीच बढ़ावा देने का काम करते हैं। आज माकपा, भाकपा व भाकपा (माले) भी ठीक यही कर रहे हैं।
देश के संसदीय वामपन्थी मोदी सरकार से माँग कर रहे हैं कि वह अपने सामाजिक ख़र्च में बढ़ोत्तरी करे, जिसके ज़रिये देश में पर्याप्त घरेलू माँग पैदा होगी और जब पर्याप्त माँग पैदा होगी तो मन्दी की समस्या हल होगी, पूँजीपति अधिक निवेश करेंगे और जब पूँजीपति अधिक निवेश करेंगे तो बेरोज़गारी भी कम होगी। कींस की इस सुधारवादी नीति को लागू करने की गुहार भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), यानी माकपा, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, यानी भाकपा और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लगातार लगाते रहते हैं। लेकिन वह असली सवाल ही नहीं पूछते : घरेलू माँग में कमी है ही क्यों? वह पैदा ही क्यों होती है? वह इसलिए पैदा होती है क्योंकि पहली बात, मुनाफ़े की औसत दर के संकट के कारण स्वयं पूँजीपति वर्ग पर्याप्त ख़रीदारी नहीं कर रहा है, न तो उत्पादन के साधनों की और न ही उपभोग और लक्ज़री के साधनों की; दूसरा कारण यह है कि देश में पर्याप्त रोज़गार नहीं है और लोगों की औसत आय कम है, जिसकी वजह स्वयं लाभप्रदता का संकट ही है, जिसके कारण देश में निवेश की दर बेहद कम है।
मुनाफ़े की औसत दर इसलिए गिर रही है क्योंकि देश की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में तकनोलॉजी के प्रयोग और मशीनीकरण के बढ़ने की दर, मज़दूरों के बेशी श्रम से पैदा होने वाले बेशी मूल्य की दर से ज़्यादा है। हम मज़दूर जानते हैं कि कि नया मूल्य केवल और केवल जीवित श्रम से पैदा होता है। मशीनें नया मूल्य नहीं पैदा करती हैं। इसे समझने के लिए पल भर के लिए कल्पना करें कि समूची दुनिया में सारा उत्पादन मशीनों द्वारा स्वचालित रूप में होता है और उसमें कोई श्रम नहीं लगता। यानी कोई रोज़गार भी नहीं है। नतीजतन, कोई आय भी नहीं होगी और पूर्ण मशीनीकरण की ऐसी स्थिति में कोई ख़रीदार भी नहीं होगा। क्यों? क्योंकि कोई मूल्य नहीं पैदा हो रहा होगा। उत्पादन में जीवित श्रम द्वारा पैदा होने वाला मूल्य ही अलग-अलग वर्गों की आय के रूप में विभाजित और वितरित होता है, यानी, मुनाफ़े, लगान, ब्याज़ व मज़दूरी के रूप में। ऐसी कोई स्थिति पूँजीवाद में कभी पैदा नहीं हो सकती है और हमने इस काल्पनिक उदाहरण का प्रयोग केवल यह दर्शाने के लिए किया कि नया मूल्य केवल और केवल जीवित श्रम से ही पैदा होता है, मशीनों के द्वारा नहीं। पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसा पूर्ण मशीनीकरण सम्भव इसलिए नहीं है क्योंकि पूँजीपति मुनाफ़े के लिए उत्पादन करता है, समाज की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नहीं। बहरहाल, मशीनें व अन्य कच्चे माल बस उत्पादित होने वाले माल के मूल्य अपने मूल्य को स्थानान्तरित कर जोड़ देते हैं। इसलिए अगर कुल निवेश में जीवित श्रम की मात्रा ही सापेक्षिक रूप से घटती जायेगी, तो मुनाफ़े की दर अन्तत: गिरेगी।
ऐसे में, मुनाफ़े की औसत दर को गिरने से तात्कालिक तौर पर रोकने और यहाँ तक कि बढ़ाने का प्रमुख रास्ता यह होता है कि मज़दूर के श्रम के शोषण की दर को बढ़ाया जाय और इस प्रकार अतिरिक्त मूल्य या बेशी मूल्य की दर को बढ़ाया जाय। जिस दर से श्रमशक्ति के मुकाबले मशीनों व तकनोलॉजी तथा कच्चे माल पर निवेश बढ़ रहा है, अगर बेशी मूल्य उससे ज़्यादा दर से बढ़ता है, तो मुनाफ़े की दर को तात्कालिक तौर पर गिरने से रोका जा सकता है और यहाँ तक कि तात्कालिक तौर पर उसे बढ़ाया भी जा सकता है।
इस बेशी मूल्य की दर को बढ़ाने का दो ही तरीक़ा है: पहला, मज़दूरों के काम घण्टों और उनके श्रम की सघनता को बढ़ाकर (यानी दिये हुए काम के घण्टे में श्रम की अधिक मात्रा को निचोड़कर), जो कि मोदी सरकार के नये लेबर कोड्स का लक्ष्य है और जो इच्छा देश के शीर्ष पूँजीपति हम मज़दूरों से सप्ताह में 90 घण्टे से ज़्यादा काम करवाने और साप्ताहिक छुट्टी ख़त्म करने की बात कहकर ज़ाहिर कर रहे हैं; दूसरा, तकनोलॉजी के ज़रिये श्रम की उत्पादकता में, विशेष तौर पर, उन उत्पादों के उत्पादन में श्रम की उत्पादकता में वृद्धि करना, जिनका उपभोग आम तौर पर व्यापक मेहनतकश आबादी करती है, यानी मज़दूरी-उत्पाद के उत्पादन में श्रम की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी करना, ताकि मज़दूर की श्रमशक्ति के मूल्य और इसके आधार पर उनकी मज़दूरी में कमी लायी जा सके। ऐसा करने पर मज़दूर अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य के मालों का उत्पादन पहले से कम समय में कर लेगा और मज़दूर का आवश्यक श्रमकाल घटेगा, और यदि कार्यदिवस की लम्बाई समान रहती है या बढ़ती है, तो जिस समय में वह पूँजीपति का मुनाफ़ा पैदा करता है, यानी अतिरिक्त श्रमकाल, वह बढ़ जायेगा। अगर यह बढ़ोत्तरी मज़दूरों के मुकाबले उत्पादन के साधनों पर होने वाले निवेश में हो रही बढ़ोत्तरी से ज़्यादा होगी, तो मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट को तात्कालिक तौर पर रोका जा सकता है और उसे बढ़ाया जा सकता है। लेकिन हमारे देश और पूरी दुनिया की ही उत्पादक अर्थव्यवस्था में श्रम की उत्पादकता में ऐसी कोई बड़ी छलाँग लगती नहीं दीख रही है, जो कि पूँजी-श्रम के बढ़ते अनुपात के कारण, यानी पूँजी के बढ़ते आवयविक संघटन के कारण मुनाफ़े की औसत दर में आने वाली गिरावट को रोक सके। नतीजतन, अलग-अलग रूप और परिमाण में दुनिया की अधिकांश पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाएँ पिछले पाँच दशकों से मन्दी से गुज़र रही हैं, जो बीच-बीच में गहरे संकट में भी परिणत होती रहती है। हमारा देश भी इसका अपवाद नहीं है।
आज हमारे देश में बेरोज़गारी की विकराल स्थिति का ढाँचागत कारण पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की यही मन्दी है, जिसका कारण पूँजी का बढ़ता आवयविक संघटन, यानी श्रम की तुलना में उत्पादक के साधनों पर बढ़ता निवेश है। भारत में ही 1994-2002 से 2003-2017 के बीच में पूँजी-श्रम का अनुपात 2.8 से दोगुना होकर 5.6 हो गया और उसके बाद भी वह बढ़ता रहा है। यानी, श्रम पर होने वाले ख़र्च की एक इकाई के मुकाबले उत्पादन के साधनों पर होने वाला ख़र्च 2.8 इकाई से बढ़कर इस दौर में 5.6 इकाई हो गया। ऐसा क्यों होता है? दो प्रतिस्पर्द्धाओं के कारण: पहला, पूँजीपतियों के बीच की आपसी प्रतिस्पर्द्धा; दूसरा, पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच का संघर्ष या प्रतिस्पर्द्धा। पूँजीपतियों के बीच की प्रतिस्पर्द्धा होती है बाज़ार में सस्ता से सस्ता बेचने की। जो सबसे सस्ता बेचने में सक्षम होगा, वही बाज़ार के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करने और अपने प्रतिस्पर्द्धियों को पीटने में कामयाब होगा। लेकिन सस्ते से सस्ता माल तभी बेचा जा सकता है, जब माल के उत्पादन की लागत को कम-से-कम किया जा सके। माल के उत्पादन की लागत को कम-से-कम तभी किया जा सकता है, जब श्रम की उत्पादकता को बढ़ाया जा सके, यानी दिये गये श्रमकाल में मज़दूर अधिक से अधिक मात्रा में माल का उत्पादन कर सके। ऐसे में, प्रति इकाई माल की लागत घटेगी और उसे सस्ते से सस्ता बेचने की क्षमता पूँजीपति अर्जित कर सकेगा। लेकिन ऐसा करने के लिए पूँजीपति को अधिक से अधिक पूँजी उन्नत तकनोलॉजी व मशीनों में लगानी होगी क्योंकि इसके ज़रिये ही श्रम की उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है, यानी श्रम की पहले से कम मात्रा के ख़र्च के ज़रिये अधिक से अधिक मात्रा में मालों का उत्पादन किया जा सकता है। लेकिन जैसे-जैसे उद्योगों की समूची शाखाओं और समूची अर्थव्यवस्था में श्रमशक्ति की मात्रा उत्पादन के साधनों की मात्रा के सापेक्ष घटती जाती है और श्रमशक्ति पर पूँजी निवेश उत्पादन के साधनों पर पूँजी निवेश के सापेक्ष घटता जाता है, वैसे-वैसे हर माल में ख़र्च होने वाले मशीनों व कच्चे माल के मूल्य की मात्रा सापेक्षिक तौर पर बढ़ती जाती है जबकि नये मूल्य की मात्रा यानी नये जीवित श्रम द्वारा पैदा मूल्य की मात्रा घटती जाती है। यही नया मूल्य पूँजीपति और मज़दूर के बीच मुनाफ़े और मज़दूरी के रूप में बँटता है। नतीजा यह होता है कि पूँजीपति के द्वारा लगायी गयी पूँजी के मुनाफ़े की औसत दर में घटने की प्रवृत्ति प्रकट होती है।
वहीं नये मूल्य के मुनाफ़े और मज़दूरी में बँटने के अनुपात को लेकर पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग में भी एक संघर्ष जारी रहता है जो मज़दूर वर्ग के मज़दूरी को बढ़ाने, कार्यदिवस को कम करने आदि के संघर्षों में प्रकट होता है। इसलिए भी पूँजीपति मज़दूर वर्ग की मोलभाव की क्षमता को कम करने के लिए अधिक से अधिक उन्नत तकनोलॉजी व मशीनों का इस्तेमाल कर मज़दूरों की उत्पादकता को बढ़ाने और उनकी संख्या को घटाने का प्रयास करते हैं।
नतीजतन, पूँजीवादी व्यवस्था की आन्तरिक गति के कारण ही पूँजी-सघनता में, यानी पूँजी के आवयविक संघटन में बढ़ोत्तरी होती है, यानी सापेक्षिक रूप से मशीनों व तकनोलॉजी पर निवेश श्रमशक्ति पर निवेश के मुकाबले बढ़ता जाता है और इसके बढ़ने की दर अन्तत: बेशी मूल्य की बढ़ोत्तरी की दर से आगे निकलती ही है क्योंकि बेशी मूल्य की दर को बढ़ाने की एक सीमा होती है; यानी मज़दूरी को शून्य के बराबर नहीं किया जा सकता है और इसलिए आवश्यक श्रमकाल को भी शून्य के बराबर नहीं किया जा सकता है। साथ ही, मज़दूर के कार्यदिवस की लम्बाई को बढ़ाने की भी एक भौतिक सीमा और एक सामाजिक सीमा होती है। ऐसे में, अन्तत: मुनाफ़े की औसत दर गिरती है और पूँजीवादी संकट को जन्म देती है। यही निवेश की दर में गिरावट लाता है और पूँजीवादी समाज में बेरोज़गारी को बढ़ाता है, और साथ ही व्यापक मेहनतकश आबादी की औसत आय में गिरावट लाता है और नतीजतन कुल प्रभावी माँग में भी कमी लाता है।
लेकिन अगर मेहनतकश वर्गों की प्रभावी माँग में बढ़ोत्तरी हो भी जाये, तो भी मज़दूर अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य के माल ही ख़रीद सकता है, उससे ज़्यादा नहीं, और उसकी मज़दूरी पूँजीपति द्वारा किये गये निवेश का ही एक हिस्सा व उसी का प्रकार्य है। पूँजीपति का मुनाफ़ा जिस शुद्ध उत्पाद के मूल्य में निहित होता है, यानी वह उत्पाद जो ख़र्च होने वाले उत्पादन के साधनों व ख़र्च होने वाले मज़दूरी-उत्पादों (जो श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन में लगते हैं) के ऊपर बचता है, उसके लिए प्रभावी माँग मज़दूर वर्ग के बीच से नहीं पैदा होती है। ऐसे में, असली प्रभावी माँग जो माल के मूल्य के वास्तवीकरण, यानी, बिककर फिर से उकसे मुद्रा-रूप में आने की समस्या का समाधान कर सकती है, वह पूँजीपति वर्ग के बीच से पैदा होती है, न कि मज़दूर वर्ग के बीच से। पूँजीपति दो प्रकार की ख़रीदारी करते हैं: उपभोग और ऐय्याशी के साधनों की और उत्पादन की साधनों की। यदि मुनाफ़े की औसत दर गिरती है, तो पूँजीपति इन दोनों की ख़रीदों को कम कर देते हैं और यही बाज़ार में प्रभावी माँग के वास्तविक संकट को पैदा करता है। दूसरे शब्दों में, संकट के दौर में उत्पादन के पैमाने का विस्तार नहीं होता और नतीजतन पूँजीपति वर्ग के बीच से वह प्रभावी माँग नहीं पैदा होती जो कि शुद्ध उत्पाद के मूल्य का वास्तवीकरण कर सके और लाभप्रदता के संकट की ही एक अभिव्यक्ति के रूप में हमारे सामने मालों के न बिकने यानी उनके वास्तवीकरण न होने की समस्या भी प्रकट होती है।
माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) आदि संशोधनवादी पार्टियों के सुधारवादी अर्थशास्त्री यह बुनियादी बात क्यों नहीं समझ पाते हैं? इसलिए क्योंकि वे नहीं समझ पाते कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति यानी जनता के उपभोग को बढ़ाने के लिए नहीं होता है, बल्कि मुनाफ़े के लिए होता है। अपने आप में, पूँजीवादी समाज में पहले से दी हुई कोई प्रभावी माँग नहीं होती है, बल्कि प्रभावी माँग स्वयं पूँजी के संचय और लाभप्रदता की गति पर निर्भर करती है। उनका शेखचिल्ली का सपना है कि सरकार घाटा ख़र्च कर, यानी नोट छापकर अगर जनता की जेबों में पहुँचा दे तो जनता की क्रय क्षमता बढ़ जायेगी, फिर उसकी प्रभावी माँग बढ़ जायेगी और फिर पूँजीपतियों की निवेश करने की इच्छा जाग जायेगी, मानो वे समाज के उपभोग की आवश्यकताओं को पूरा करने की समाज-सेवा करने को तत्पर बैठे थे! लेकिन अफ़सोस कि उनका सपना एक वहम पर टिका हुआ है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन उपभोग के लिए होता है, जबकि सच्चाई यह है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन मुनाफ़े के लिए होता है।
क्या इसका यह अर्थ है कि क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, सामाजिक सुरक्षा आदि पर ख़र्च बढ़ाने की माँग पूँजीपति वर्ग और उसकी सरकार से नहीं करता है? नहीं, ऐसा नहीं है। ज़ाहिर है कि क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग भी सरकार द्वारा सामाजिक ख़र्च में बढ़ोत्तरी, यानी सभी के लिए निशुल्क एवं समान शिक्षा व चिकित्सा, सरकारी आवास, सार्विक बीमा, बेरोज़गारी भत्ता, अधिक न्यूनतम मज़दूरी, आदि की माँग करता है। लेकिन उसे यह मुग़ालता नहीं होता है कि अगर सरकार वाकई यह करने लग जाय तो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को संकट से बचाया जा सकता है और फिर उसका अस्तित्व हमेशा के लिए बना रह सकता है। वह ये माँगें इसलिए उठाता है क्योंकि यह उसका हक़ है; सरकार की आमदनी भी मुनाफ़े या वेतन पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों से ही होती है और इस आमदनी के स्रोत में भी मेहनतकश वर्ग का श्रम ही होता है और इसलिए वह सरकार द्वारा इन सुविधाओं को हासिल करने का हक़दार होता है।
इसलिए हमें इन माँगों के लिए जुझारू तरीक़े से लड़ना ही होगा। लेकिन हम संशोधनवादियों व सुधारवादियों के समान इस भ्रम का शिकार नहीं होते और न ही यह भ्रम जनता के बीच फैलाते हैं कि यदि पूँजीवादी व्यवस्था के सरकार इन माँगों को पूरा कर दे तो एक ऐसा सुधरा हुआ मानवीय चेहरे वाला प्यारा-सा पूँजीवाद सम्भव है जो कभी संकट में नहीं फँसेगा और और श्रम और पूँजी के बीच पवित्र समझौते के ज़रिये हमेशा जीवित रहेगा। ऐसा समझौता पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता आम तौर पर केवल तेज़ी के दौर में करती है और वह भी कुछ समय के ही लिए और हमारे देश में और पूरी दुनिया में पूँजीवाद एक दीर्घकालिक मन्दी से गुज़र रहा है, जिसके दौरान ऐसे किसी पूँजी-श्रम समझौते की उम्मीद के भरोसे बैठे रहना मूर्खतापूर्ण ही नहीं बल्कि सर्वहारा वर्ग के लिए नुकसानदेह है। पूँजीवाद के कल्याण की ऐसी कामना करने का काम हमें माकपा, भाकपा व भाकपा (माले) जैसे संशोधनवादियों व कींसवादी नीम हक़ीमों पर छोड़ देना चाहिए।
साथ ही, संशोधनवादियों को यह भी नहीं समझ में आता है कि विशेष तौर पर आर्थिक संकट के दौर में पूँजीवादी सरकार इन कल्याणकारी नीतियों को लागू कर जनता की औसत आय को बढ़ाने का काम क्यों नहीं करती है। इसकी वजह साफ़ है: यदि मेहनतकश जनता की औसत आय बढ़ती है, यादि उसे सरकार द्वारा बेरोज़गारी भत्ता, सामाजिक सुरक्षा आदि के प्रावधान हासिल होते हैं, तो वह पूँजीपतियों के समक्ष कम गरज़मन्द होती है और वह अधिक मज़दूरी की माँग करती है। यह औसत मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा करता है और पहले से संकट से बिलबिलाये हुए पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की औसत दर को और भी ज़्यादा गिराता है। इसको एक उदाहरण से समझते हैं। मान लें, अगर किसी बेरोज़गार मज़दूर को 6-8 हज़ार रुपये महीने बेरोज़गारी भत्ता मिल रहा है, निशुल्क शिक्षा व चिकित्सा मिल रही है, सरकारी आवास की सुविधा मिल रही है, तो वह 10-11 हज़ार रुपये की मज़दूरी पर 10-12 घण्टे खटने का विकल्प नहीं चुनेगा। वह बेहतर रोज़गार के विकल्प का इन्तज़ार करेगा। ऐसे में, आम तौर पर सामाजिक पैमाने पर मज़दूरों-मेहनतकशों की मोलभाव की क्षमता बढ़ती है और पूँजीपतियों की मोलभाव की क्षमता घटती है।
यही वजह है कि विशेष तौर पर मन्दी के दौरों में दुनिया के हर देश में पूँजीपति वर्ग अपनी सरकारों पर दबाव बनाता है कि वह बची-खुची सामाजिक कल्याण की नीतियों को भी समाप्त कर दे। विशेष तौर पर आर्थिक संकट के दौर में तो पूँजीपति वर्ग मज़दूरों की औसत मज़दूरी को कम-से-कम रखने और उनके काम के घण्टों व श्रम की सघनता को अधिक से अधिक बढ़ाने का प्रयास करता है। ऐसे में, वह ऐसी किसी भी पूँजीवादी पार्टी को अपनी पूँजी की शक्ति का समर्थन नहीं देगा, जो सरकार में आने पर किसी किस्म का कल्याणवाद करना चाहती हो। यहाँ तक कि वह कल्याणवाद का दिखावा करने वाली किसी पार्टी को भी चन्दे नहीं देता है। यही वजह है कि 2010-11 में भारतीय अर्थव्यवस्था में मन्दी के गहराने के बाद से पूँजीपति वर्ग का समर्थन एकमुश्त फ़ासीवादी भाजपा और मोदी-शाह की ओर स्थानान्तरित हुआ है।
माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) के संशोधनवादियों और सुधारवादियों को यह बात इसलिए नहीं समझ आती है क्योंकि उनकी सोच एक सुधरे हुए पूँजीवाद से आगे नहीं जाती जो पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच के समझौते पर आधारित हो। वजह यह है कि उन्हें पूँजीवादी उत्पादन पद्धति और अर्थव्यवस्था की गतिकी के बारे में कोई समझ ही नहीं होती है। उनका लक्ष्य पूँजीवाद की हिफ़ाज़त होती है और उनका सपना सुधरे हुए पूँजीवाद का शेखचिल्ली का सपना होता है।
इसके विपरीत क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग अधिक मज़दूरी और सरकार द्वारा बढ़े हुए सामाजिक ख़र्च की माँग उठाते हुए यह मुग़ालता नहीं पालता है कि इसके ज़रिये पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही इन माँगों को स्थायी रूप में पूरा कर मज़दूर वर्ग पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही एक इज़्ज़त और आसूदगी की ज़िन्दगी, एक इन्सानी ज़िन्दगी हासिल कर लेगा। वजह यह कि संशोधनवादियों के विपरीत वह पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग के असली चरित्र को अपने जीवन के अनुभव से पहचानता है और उसके सुधर जाने या उसका हृदय-परिवर्तन हो जाने की मूर्खतापूर्ण उम्मीद नहीं पालता है। वह फिर भी इन माँगों के लिए लड़ता है क्योंकि ये उसका वाजिब हक़ है। वह कहता है : ‘हमें ये हक़ दो, वरना गद्दी छोड़ दो।‘ वह अपने संघर्षों के ज़रिये मौजूद पूँजीवादी व्यवस्था को उसके सीमान्तों तक पहुँचाता है, उस बिन्दु तक पहुँचाता है, जहाँ उसका अस्तित्व सुगम तौर पर बना रहना असम्भव हो जाता है। इसलिए ठीक इन्हीं माँगों पर क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग के संघर्ष का रवैया बिल्कुल अलग होता है, यानी क्रान्तिकारी होता है, सुधारवादी नहीं।
महँगाई के मूल कारण और 2025-26 बजट
महँगाई का सबसे प्रमुख कारण क्या है? हम ऊपर विस्तृत चर्चा कर चुके हैं कि इस समय हमारे देश में महँगाई का सबसे बड़ा तात्कालिक विशिष्ट कारण है मोदी सरकार द्वारा पिछले 10 वर्षों में आम मेहनतकश जनता पर बढ़ाया गया अप्रत्यक्ष करों का बोझ। हम ऊपर यह चर्चा भी कर चुके हैं कि किस प्रकार मोदी सरकार सरकारी खज़ाने में पूँजीपतियों को दी जाने वाली छूटों से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए करों का बोझ जनता पर बढ़ाती जा रही है। हमने इसके ठोस आँकड़े भी ऊपर पेश किये हैं।
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ने दुनिया भर में लम्बे समय से अप्रत्यक्ष करों को पूर्ण रूप से समाप्त करने और प्रगतिशील समृद्धि टैक्स लगाने की माँग को बार-बार रखा है। इन माँगों को लेकर सर्वहारा वर्ग द्वारा किये गये संघर्षों का ही नतीजा था कि दुनिया के अधिकांश उन्नत पूँजीवादी देशों में पूँजीपति वर्ग और उसकी सरकारों को अप्रत्यक्ष करों को कम करने और प्रत्यक्ष करों को अपेक्षाकृत बढ़ाने, यानी कारपोरेट टैक्स और प्रगतिशील आयकर को बढ़ाने, का काम करना पड़ा था। वैश्विक मन्दी के दौर में अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, जापान आदि में भी अप्रत्यक्ष करों को धीरे-धीरे बढ़ाया जा रहा है और प्रत्यक्ष करों को धीरे-धीरे घटाया जा रहा है। नये अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका के उच्च मध्यवर्ग और धनी वर्गों से वायदा किया है कि वह आयकर को धीरे-धीरे समाप्त कर देंगे। साथ ही, कारपोरेट टैक्स को भी नगण्य बना देंगे। लेकिन आज भी इन देशों में अप्रत्यक्ष करों से होने वाला सरकारी राजस्व इन देशों की सरकारों के कुल कर राजस्व का भारत की सरकार के कर राजस्व की तुलना में कहीं ज़्यादा बड़ा हिस्सा है।
इस तात्कालिक कारण के अलावा, एक पूँजीवादी व्यवस्था में महँगाई के स्तर में उतार-चढ़ाव और कभी भी भयंकर महँगाई का पैदा होना आम बात है। वजह यह है कि यह व्यवस्था योजनाबद्ध ढंग से सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन, विनिमय और वितरण नहीं करती है। यहाँ इन चीज़ों को नियन्त्रित और विनियमित करने वाला कारक होता है मुनाफ़े की औसत दर की गति, जिसमें आने वाला बदलाव समाज में श्रम के उत्पादन की विभिन्न शाखाओं में विभाजन को बदलता रहता है। पूँजीवाद हर माल के मूल्य को श्रम की उत्पादकता में वृद्धि करके घटाता है। लेकिन कीमतों का आम स्तर वास्तव में केवल इससे नहीं तय होता है। एक ओर तात्कालिक तौर पर माँग और आपूर्ति के कारक उसे निर्धारित करते हैं, जो कि स्वयं पूर्वप्रदत्त नहीं होते, बल्कि पूँजी संचय की गति और संरचना से निर्धारित होते हैं। वहीं दूसरी ओर, व्यापक मेहनतकश जनता की औसत आय का स्तर भी इसमें एक अहम भूमिका निभाता है। अगर नये पैदा होने वाले मूल्य में आम मेहनतकश आबादी, विशेष तौर पर, मज़दूर वर्ग का हिस्सा घटता है, तो मालों का मूल्य कम होने के बावजूद उसके लिए महँगाई बढ़ सकती है। कीमतों के आम स्तर का पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पूँजी संचय की गति के उतार-चढ़ाव के साथ अराजक तरीके से ऊपर-नीचे होने पूँजीवादी व्यवस्था की आम प्रवृत्ति का हिस्सा है और इससे निर्णायक तौर पर निजात समाजवादी व्यवस्था में ही मिल सकती है क्योंकि एक समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन, विनिमय और वितरण समाज की आवश्यकताओं के एक वैज्ञानिक आकलन के आधार पर योजनाबद्ध तरीक़े से होता है। वहाँ अनिश्चितता और अराजकता का तत्व प्रधान नहीं होता है, बल्कि योजना का तत्व प्रधान होता है। इसलिए समय-समय पर पैदा होने वाली महँगाई से स्थायी तौर पर मुक्ति एक मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था दे ही नहीं सकती है। यह केवल समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव होगा।
लेकिन पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता व सरकारें समय-समय पर महँगाई को अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाकर भी बढ़ाती हैं, जो कि पूँजीवादी व्यवस्था की ढाँचागत गति से इतर एक खुली और नंगी लूट होती है। मोदी सरकार के 10 वर्षों में तमाम अन्यायपूर्ण अप्रत्यक्ष करों द्वारा इस नंगी लूट में ऐसी बढ़ोत्तरी हुई है, जिसकी कोई मिसाल आज़ाद भारत के इतिहास में नहीं है। मौजूदा बजट 2025-26 इसी लूट को बढ़ाने और क़ायम रखने का काम करता है। इसके ख़िलाफ़ जनता के बीच प्रचार करना, उसे जागृत, गोलबन्द और एकजुट करना आज एक क्रान्तिकारी जनान्दोलन खड़ा करने का अहम मसला है। लेकिन सबसे पहले क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को इस सवाल को गहराई से समझना होगा कि यह लूट मोदी सरकार किस प्रकार कर रही है।
अन्त में…
अन्त में यह कहा जा सकता है कि मौजूदा बजट में मोदी सरकार ने पूँजी को लूट की खुली छूट देने, जनता के संसाधनों को निजी हाथों में सौंपने, आम मेहनतकश आबादी पर अप्रत्यक्ष करों के बोझ को बढ़ाने, धनी और उच्च मध्य वर्गों को करों से राहत देने की अपनी आक्रामक जनविरोधी और पूँजीपरस्त नीतियों को पहले की ही तरह जारी रखा है। जिस प्रकार कुछ समय पहले आन्ध्रप्रदेश को चन्द्रबाबू नायडू के समर्थन को बनाये रखने के लिए मोदी सरकार ने तमाम छूटें, रियायतें, सहूलियतें, अमरावती में राजधानी निर्माण के लिए विशेष पैकेज दिया था, उसी प्रकार इस बार नीतीश कुमार के समर्थन को जारी रखने के लिए बिहार को पश्चिमी कोशी कैनाल योजना, आईआईटी पटना के विकास व विस्तार, मखाना बोर्ड के निर्माण आदि के नाम पर विशेष पैकेज दिये गये हैं। नायडू और नीतीश ने पहले ही बता दिया था कि मोदी सरकार को समर्थन के पीछे उनका मकसद अपने-अपने राज्यों के लिए विशेष सहायता व पैकेज हासिल करना है। इतना करने में मोदी सरकार का कुछ जाता भी नहीं है। उल्टे इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में इसका भी ज़्यादा फ़ायदा इन राज्यों में मोदी और भाजपा उठायेगी। इसके अतिरिक्त, बजट 2025-26 आम मेहनतकश जनता की लूट को और भी अधिक तीव्र और सघन बनाने का दस्तावेज़ है, जो मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों और कारपोरेट घरानों की उसकी चाकरी को साफ़ कर देता है।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2025
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