लार्सन एण्ड टूब्रो कम्पनी के चेयरमैन की इच्छा : “राष्ट्र के विकास” के लिए हफ़्ते में 90 घण्टे काम करें मज़दूर व कर्मचारी!
केशव
लार्सन एण्ड टूब्रो कम्पनी के चेयरमैन एस. एन. सुब्रमण्यन ने अपने हालिया बयान में यह कहा है कि उनके कर्मचारियों को हफ़्ते में 90 घण्टे काम करना चाहिए। आम मेहनतकश आबादी की मेहनत की लूट पर अय्याशी करने वाले इस शख़्स ने यह भी कहा कि उसके कर्मचारियों को इतवार के दिन भी काम करना चाहिए। आगे उसने कहा, “अपनी पत्नी को कितनी देर निहारोगे? ऑफ़िस आकर काम करो।” साथ ही उसने यह भी कहा कि अगर उसका बस चले तो वह लोगों से इतवार को भी काम कराये। जी हाँ दोस्तों! इन धनपशुओं का बस चले तो ये हमारे ख़ून का आख़िरी कतरा भी निचोड़कर अपनी अय्याशी और मुनाफ़े की मीनारें खड़ी करें। इन रक्तपिपासु धनपशुओं के लिए मज़दूरों-मेहनतकशों के जीवन का कोई मोल नहीं है। अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है जब इंफोसिस के डायरेक्टर महोदय ने नौजवानों को हर हफ़्ते 70 घण्टे काम करने की राय दी थी। इस बार लार्सन एण्ड टूब्रो के चेयरमैन ने उन्हें चुनौती देते हुए 20 घण्टे अतिरिक्त अपनी ओर से जोड़े हैं। आने वाले वक्त में अगर कोई पूँजीपति यह कह दे कि हफ़्ते के सातों दिन, चौबीसों घण्टे काम करने की ज़रूरत है, तो भी आपको अचम्भित होने की ज़रूरत नहीं है। मुनाफ़े की हवस ने इन पूँजीपतियों के भीतर से इंसान होने की पूर्वशर्तें निकाल फेंकी हैं, और बची-खुची कसर आर्थिक संकट ने पूरी कर दी है।
हम मज़दूरों को समझ लेना चाहिए कि पूँजीपति वर्ग के लिए हमारा अस्तित्व उनके मुनाफ़े की तिजोरी भरने से अधिक कुछ भी नहीं है। कारख़ानों, ऑफिसों और वर्कशॉपों में हमारी हड्डी गलाकर वे अपना मुनाफ़ा पीटते हैं, और इसलिए हमसे अधिकतम श्रम निचोड़कर वे मुनाफ़े के संकट से उबरने की कोशिशें कर रहे हैं। पूँजीपति वर्ग कैसे हमारी मेहनत को लूटकर अपनी तिजोरियाँ भरता है, इसके लिए हम राजनीतिक अर्थशास्त्र के कुछ नुक्तों से समझेंगे। हम सब जानते हैं कि पूँजीवाद के दौर में माल उत्पादन (अर्थात् विनिमय के लिए किया गया उत्पादन) उत्पादन का प्रमुख तरीक़ा बन जाता है। हमारी श्रमशक्ति भी एक माल में तब्दील हो जाती है, जिसे हम पूँजीपतियों को बेचने को बाध्य होते हैं क्योंकि उत्पादन के सभी साधनों का मालिकाना उन्हीं के पास होता है। ऊपर से यह दिखता है कि हमारे और मालिकों के बीच बराबरी का विनिमय हो रहा है, हम उसे अपना “श्रम” बेच रहे हैं, बदले में हमें उसके बराबर मज़दूरी मिल रही है। हमें यह बताया जाता है कि कारख़ानों में मालिकों के लिए 12-12 घण्टे खटने के बाद हमें जो उजरत मिलती है, वह हमारी मेहनत के बराबर है। लेकिन अगर ऐसा होता कि पूँजीपति हमसे जितना लेता है, उतना ही हमें वापस कर देता है, तो उसका मुनाफ़ा कहाँ से आता?
सच्चाई यह है कि हमें जो उजरत मिलती है, वह हमारे द्वारा किये गये श्रम के बदले नहीं, बल्कि श्रमशक्ति के बदले मिलती है, यानी एक दिन हमारे काम करने की क्षमता के बदले में। यानी हमारे (यानी मज़दूर वर्ग के) जीविकोपार्जन के लिए हमारे द्वारा किये गये श्रम का जितना न्यूनतम हिस्सा ज़रूरी होता है, उतना पूँजीपति वर्ग हमें देता है, बाक़ी का वह मुनाफ़े के रूप में अपनी तिजोरी में डाल लेता है।
‘क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला 13: पूँजीवादी उत्पादन: श्रम प्रक्रिया के रूप में और मूल्य-संवर्धन प्रक्रिया के रूप में’ में साथी अभिनव इसे ही समझाते हुए लिखते हैं:
“माल के मूल्य और पूँजीपति द्वारा निवेश की गयी कुल पूँजी, यानी श्रमशक्ति के मूल्य और उत्पादन के साधनों के मूल्य के योग, के बीच का अन्तर ही बेशी मूल्य या अतिरिक्त मूल्य (surplus value) होता है। मिसाल के तौर पर, मान लें कि एक मज़दूर को अपनी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन, यानी अपने व अपने परिवार के जीविकोपार्जन के लिए रु. 40 प्रति घण्टा की आवश्यकता होती है। यदि कार्यदिवस की लम्बाई 8 घण्टे है तो उसे एक दिन में रु. 320 की दिहाड़ी के रूप में आवश्यकता होती है, ताकि वह अगले दिन फिर आकर कारखाने में खट सके। लेकिन वह 8 घण्टे के कार्यदिवस के आधे हिस्से यानी 4 घण्टे में ही रु. 320 के बराबर मूल्य, यानी अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य के बराबर माल पैदा कर देता है। इसके बाद के 4 घण्टे में उसी उत्पादकता व श्रम सघनता के साथ काम करते हुए वह रु. 320 के बराबर मूल्य बेशी पैदा करता है। यह रु. 320 अतिरिक्त मूल्य या बेशी मूल्य या surplus value है। यह पूँजीपति की जेब में मुफ़्त में जाता है, जिसके बदले में वह मज़दूर को कुछ भी नहीं देता। ऐसा क्यों सम्भव होता है?
“इसलिए क्योंकि पूँजीपति ने मज़दूर से उसका श्रम नहीं ख़रीदा है, बल्कि श्रमशक्ति ख़रीदी है। अगर उसने मज़दूर से श्रम ख़रीदा होता, यानी, जितना श्रम मज़दूर से लिया होता, मूल्य के रूप में उतना ही श्रम मज़दूर को मेहनताने के तौर पर दिया होता, तो पूँजीपति के पास कोई मुनाफ़ा नहीं बचता। लेकिन चूँकि वह मज़दूर की श्रमशक्ति, यानी एक कार्यदिवस भर काम करने की क्षमता को ख़रीदता है और चूँकि यह क्षमता एक कार्यदिवस से कम समय में पुनरुत्पादित हो जाती है, इसलिए पूँजीपति कार्यदिवस के बाकी बचे समय यानी बेशी श्रमकाल में पैदा होने वाले मूल्य को बेशी मूल्य के रूप में हड़प लेता है। लेकिन औपचारिक तौर पर पूँजीपति और मज़दूर के बीच कोई असमान विनिमय नहीं हुआ होता। यहाँ मूल बात यह समझना है कि पूँजीपति मज़दूर से क्या ख़रीदता है: श्रम या श्रमशक्ति। श्रम को नहीं ख़रीदा जा सकता क्योंकि श्रम का कोई मूल्य नहीं होता; वजह यह कि श्रम स्वयं मूल्य का सारतत्व है, वही मूल्य है।
“इस प्रकार मज़दूर पहले अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य को पैदा करता है और फिर उसके ऊपर बेशी मूल्य भी पैदा करता है। यह प्रक्रिया एक ही कार्यदिवस में सम्पन्न होती है और ऊपर से देखने पर इन दोनों के बीच का अन्तर फ़ौरन समझ नहीं आता है। मूल्य संवर्धन की प्रक्रिया एक एकल सजातीय कार्यदिवस में लगातार जारी रहती है और पहले उसमें श्रमशक्ति के बराबर मूल्य का उत्पादन होता है और फिर बेशी मूल्य का। कहने का अर्थ है कि मज़दूर जिस श्रमकाल में अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करता है, यानी आवश्यक श्रमकाल (क्योंकि वह श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए अनिवार्य है) और बेशी या अतिरिक्त श्रमकाल (जिसमें वह पूँजीपति के लिए बिना किसी मेहनताने मुफ्त में बेशी मूल्य पैदा करता है) के बीच कोई भौतिक तौर पर दिखायी देने वाला अन्तर नहीं होता। वह दिक् और काल में निरन्तरतापूर्ण है, अलग-अलग नहीं। यह पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था की विशिष्टता होती है।”
आर्थिक संकट के दौर में पूँजीपति वर्ग अपना मुनाफ़ा बचाने की कोशिश में मज़दूरों के काम के घण्टे को सापेक्षिक रूप से बढ़ाने की कोशिश करता है, ताकि अधिक से अधिक अतिरिक्त श्रमकाल के ज़रिये वह अधिक से अधिक मुनाफ़ा निचोड़ सके और मुनाफ़े की दर को बढ़ा सके। इसके लिए वह मज़दूरों से अधिक से अधिक अतिरिक्त श्रम की माँग करता है। श्रम की उत्पादकता में कोई ख़ास वृद्धि न होने पर कार्यदिवस की लम्बाई को बढ़ाकर अतिरिक्त श्रमकाल और बेशी मूल्य को निरपेक्ष रूप से बढ़ाने के तरीक़े का पूँजीपति वर्ग विशेष तौर पर मन्दी के समय और भी ज़्यादा इस्तेमाल करता है। साथ ही, जब भी सम्भव हो तो वह मज़दूर वर्ग के ही सामूहिक श्रम से पैदा होने वाली उन्नत तकनोलॉजी और मशीनों का इस्तेमाल कर श्रम की उत्पादकता को भी बढ़ाकर अतिरिक्त श्रमकाल को सापेक्षिक रूप से बढ़ाता है। मोदी सरकार द्वारा लाये गये नये लेबर कोड के तमाम मक़सदों में से एक मक़सद यह है कि मज़दूर 12-12 घण्टे बिना किसी कानूनी रोक-टोक के काम करने को मजबूर किये जा सकें। आर्थिक संकट के दौर में मोदी सरकार को अरबों रुपये ख़र्च कर तमाम पूँजीपतियों ने इसीलिए तो सत्ता में पहुँचाया था। अपने पहले कार्यकाल से ही मोदी और उसके पीछे खड़े सारे पूँजीपति तरह-तरह के बयानों से इस बात का माहौल बनाते रहे हैं मज़दूर सप्ताह में सारे दिन 12-12 घण्टे काम करने को “राष्ट्र की प्रगति” के नाम पर स्वीकार कर लें! ख़ुद प्रधानमन्त्री मोदी दिन में 18-18 घण्टे काम करने के बयान देते रहे हैं। इससे पहले इन्फ़ोसिस के नारायण मूर्ति ने हफ्ते में 70 घण्टे काम करवाने की इच्छा जतायी थी और अब लार्सन एण्ड टूब्रो के चेयरमैन ने हमसे हफ्ते में 90 घण्टे काम करवाने की चाहत अभिव्यक्त की है। और मोदी ने इन्हीं इच्छाओं को पूरा करने के लिए “देश के विकास” के नाम पर हमसे सप्ताह में 90-90 घण्टे काम करवाने का इन्तज़ाम लेबर कोड के ज़रिये कर दिया है! जिस दिन देश में मेहनतकशों की सत्ता क़ायम होगी, जिस दिन उत्पादन के समस्त साधनों और ज़मीन पर देश के मेहनतकश वर्गों का साझा मालिकाना होगा, जिस दिन फ़ैसला लेने की ताक़त हमारे हाथों में होगी, उस दिन अपने देश के विकास के लिए हफ्ते में 100 घण्टे काम की ज़रूरत होगी, वह भी इस देश की जनता कर लेगी! लेकिन देश के धन्नासेठों, धनपशुओं और धनपिपासुओं की तिजोरियाँ भरने का “देश के विकास” से क्या लेना-देना है? वास्तव में, इसका “राष्ट्र” या देश के विकास से कोई लेना-देना नहीं है। इसका रिश्ता है मन्दी के बिलबिलाये हुए पूँजीपतियों को मुनाफ़े के संकट से राहत दिलवाने से और इसीलिए मोदी को सत्ता में पहुँचाने का ख़र्चा पूँजीपतियों ने किया था क्योंकि आर्थिक संकट के दौर में एक फ़ासीवादी राज्यसत्ता पूँजीपतियों के लिए इस काम को और भी “सुचारू रूप” से करती है।
लार्सन एण्ड टूब्रो और इंफोसिस जैसी कम्पनियों के चेयरमैन द्वारा कही जाने वाली इस प्रकार की बातें असल में मज़दूर वर्ग की मेहनत को निचोड़ लेने की उनकी इच्छा को ही दर्शाती है और आज पूँजीपति वर्ग की इस इच्छा को आज मोदी सरकार बहुत सफ़ाई से पूरा कर रही है। श्रम क़ानूनों को हटाकर लेबर कोड को लाने से लेकर उनके मुद्दों को भटकाकर साम्प्रदायिक रंग देने तक का काम अन्ततः पूँजीपति वर्ग के हित में ही जाता है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि आपसी गलाकटू प्रतिस्पर्धा के बावजूद मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ पूँजीपति वर्ग एकजुट हैं, उनकी इस एकजुटता का जवाब मज़दूरों-मेहनतकशों को अपनी बुनियादी माँगों पर अपनी एकजुटता स्थापित कर देना होगा। देश के पूँजीपति हमारे ख़ून के आख़िरी क़तरे को भी निचोड़कर तिजोरियाँ भरने और हमारे आँसुओं के समन्दर में अपनी ऐयाशी की मीनारें खड़ी करने को तैयार हैं। हमें एक इंसानी ज़िन्दगी के अपने हक़ के लिए लड़ने के लिए कमर कसनी होगी। वरना वह समय दूर नहीं जब कारखानों, वर्कशॉपों, ऑफिसों में हमारी ग़ुलामी को देखकर प्राचीन काल के ग़ुलाम भी शर्मिन्दा हो जायेंगे।
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