Category Archives: गतिविधि रिपोर्ट

दिल्ली की शाहाबाद डेयरी बस्ती में एक और बच्ची की निर्मम हत्या

लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसे अपराध समाज में हो ही क्यों रहे हैं। इस समाज में स्त्रियां और बच्चियां महफ़ूज क्यों नहीं हैं। दरअसल, 1990 के बाद से देश में उदारीकरण की जो हवा बह रही है, उसमें बीमार होती मनुष्यता की बदबू भी समायी हुई है। पूँजीवादी लोभ-लालच की संस्कृति ने स्त्रियों को एक ‘माल’ बना डाला है और इस व्यवस्था की कचरा संस्कृति से पैदा होने वाले जानवरों में इस ‘माल’ के उपभोग की हवस भर दी है। सदियों से हमारे समाज के पोर-पोर में समायी पितृसत्तात्मक मानसिकता इसे हवा दे रही है, जो औरतों को उपभोग का सामान और बच्चा पैदा करने की मशीन मानती है, और पल-पल औरत विरोधी सोच को जन्म देती है। और ’90 के बाद लागू हुई आर्थिक नीतियों ने देश में अमीरी-ग़रीबी के बीच की खाई को अधिक चौड़ा किया है, जिससे पैसे वालों पर पैसे का नशा और ग़रीबों में हताशा-निराशा, अपराध हावी हो रहा है।

मई दिवस पर मज़दूरों ने अपने शहीदों को याद किया

1 मई को 128वें ‘अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस’ के अवसर पर करावल नगर में मज़दूरों की एक विशाल रैली का आयोजन किया गया। करावलनगर मज़दूर यूनियन और स्त्री मज़दूर संगठन के संयुक्त बैनर तले बुधवार को हुई इस ‘मज़दूर अधिकार रैली’ में इस इलाके के अलग-अलग पेशे से जुड़े सैकड़ों मज़दूर शामिल हुए। करावलनगर के लेबर चौक से शुरू हुई मज़दूर अधिकार रैली इलाके की मुख्य सड़क से होती हुई विधायक के कार्यालय पहुँची। विधायक के कार्यालय के बाहर ही सभी बैठ गये और वहाँ मज़दूरों के प्रतिनिधियों द्वारा मज़दूरों का माँगपत्रक पढ़ा गया और फिर इन मज़दूर प्रतिनिधियों ने विधायक को मज़दूरों द्वारा हस्ताक्षरित बुनियादी हक़-अधिकारों का एक माँगपत्रक सौंपा।

‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ पर चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (12-16 मार्च, 2013), चण्डीगढ़ की रिपोर्ट

जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक मूल से लेकर उसकी गतिकी तक के बारे में अम्बेडकर की समझदारी बेहद उथली थी। नतीजतन, जाति उन्मूलन को कोई वैज्ञानिक रास्ता वह कभी नहीं सुझा सके। इसका एक कारण यह भी था कि अम्बेडकर की पूरी विचारधारा अमेरिकी व्यवहारवाद के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थी। लिहाज़ा, उनका आर्थिक कार्यक्रम अधिक से अधिक पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद तक जाता था, सामाजिक कार्यक्रम अधिक से अधिक धर्मान्तरण तक और राजनीतिक कार्यक्रम कभी भी संविधानवाद के दायरे से बाहर नहीं गया। कुल मिलाकर, यह एक सुधारवादी कार्यक्रम था और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ही कुछ सहूलियतें और सुधार माँगने से आगे कभी नहीं जाता था।

करावल नगर मज़दूर यूनियन ने मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के दूसरे चरण की शुरुआत की

यहाँ सैकड़ों क़िस्म की छोटी फ़ैक्टरियाँ, वर्कशाप और बादाम के गोदाम हैं जहाँ लाखों मज़दूर आधुनिक गुलामों की तरह काम करते हैं। इनमें बादाम प्रसंस्करण, कुकर, गत्ता, गारमेण्ट, प्लास्टिक दाना, तार, खिलौना प्रमुख हैं। इनमें से ज़्यादातर में 10 से 20 मज़दूर काम करते हैं। कुछ एक फ़ैक्टरियों में मज़दूरों की संख्या 50 से अधिक है। इसके अलावा भवन निर्माण के मज़दूरों से लेकर रिक्शा-ठेला मज़दूरों की संख्या हज़ारों में हैं। ऐसे में, करावल नगर मज़दूर यूनियन किसी एक पेशे या फ़ैक्टरी की यूनियन नहीं है, बल्कि यह इलाक़ाई यूनियन के तौर पर मज़दूरों की बीच काम कर रही हैं जो एक तरफ मज़दूरों की संकुचित पेशागत प्रवृत्ति को तोड़ती है और साथ ही मज़दूरों के आर्थिक संघर्षों के साथ उनके बुनियादी नागरिक अधिकारों के संघर्ष का नेतृत्व भी करती है। वैसे भी, असंगठित मज़दूरों को संगठित करने की चुनौती में इलाक़ाई मज़दूर यूनियन मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में एक जबरदस्त अस्त्र सिद्ध हो सकता है। इसके मद्देनजर, करावल नगर मज़दूर इलाक़े में एक परचा वितरित किया गया है, जिसे लेकर यूनियन का प्रचार दस्ते मज़दूरों की लॉजों, फ़ैक्टरी गेट से लेकर लेबर चौक तक नुक्कड़ सभाएँ करके एक संघर्ष की शुरुआत कर रहे हैं।

मई दिवस पर विभिन्न आयोजन

दिल्ली में करावलनगर मज़दूर यूनियन, दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन, बिगुल मज़दूर दस्ता और स्त्री मज़दूर संगठन के नेतृत्व में 1 मई की सुबह 8 बजे से मज़दूर अधिकार रैली निकाली गयी। करावलनगर के लेबर चौक से शुरू होकर यह रैली इलाक़े की अनेक मज़दूर बस्तियों और कारख़ानों तथा गोदामों के इलाक़ों से गुज़रती रही जिसके बाद यह एक जनसभा में बदल गयी। सभा में वक्ताओं ने कहा आठ घण्टे के कार्यदिवस की माँग वेतन बढ़ाने जैसी आर्थिक माँगों से बढ़कर है। यह एक मज़दूर के लिए इंसानों जैसी ज़िन्दगी जीने की माँग है! अगर हम पशुओं की तरह नहीं जीना चाहते, अगर हम अपने बच्चों को यह नर्क जैसा जीवन नहीं देना चाहते तो हमें अपनी मानवीय गरिमा और सम्मान के लिए फिर से जंग छेड़नी होगी! हमें मई दिवस को इंसान की तरह जीने के हक़ के संघर्ष का दिन बना देना होगा।

भूख से दम तोड़ते असम के चाय बागान मज़दूर

दुनियाभर में मशहूर असम की चाय तैयार करने वाले असम के चाय बागान मज़दूरों के भयंकर शोषण और संघर्ष की ख़बरें बीच-बीच में आती रही हैं, लेकिन पिछले छह महीने से वहाँ के एक चाय बागान में मज़दूरों के साथ जो हो रहा है वह असम राज्य और देश की शासन-व्यवस्था के लिए बेहद शर्मनाक है। असम के 3000 चाय मज़दूर और उनके परिवार, बागान प्रबन्धन के भयंकर शोषण-उत्पीड़न और सरकारी तन्त्र की घनघोर उपेक्षा की वजह से लगातार भुखमरी की हालत में जी रहे हैं। अभी तक कम से कम 14 मज़दूरों की मौत भूख, कुपोषण और ज़रूरी दवा-इलाज के अभाव में हो चुकी है। यह बागान असम के कछार ज़िले में भुवन वैली चाय बागान नाम से जाना जाता है जिस पर कोलकाता की एक निजी कम्पनी का मालिकाना है।

28 फ़रवरी की हड़ताल: एक और ”देशव्यापी” तमाशा

सवाल उठता है कि लाखों-लाख सदस्य होने का दावा करने वाली ये बड़ी-बड़ी यूनियनें करोड़ों मज़दूरों की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी सवालों पर भी कोई जुझारू आन्दोलन क्यों नहीं कर पातीं? अगर इनके नेताओं से पूछा जाये तो ये बड़ी बेशर्मी से इसका दोष भी मज़दूरों पर ही मढ़ देते हैं। दरअसल, ट्रेड यूनियनों के इन मौक़ापरस्त, दलाल, धन्धेबाज़ नेताओं का चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को अब ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। एक जुझारू, ताक़तवर संघर्ष के लिए व्यापक मज़दूर आबादी को संगठित करने के लिए ज़रूरी है कि उनके बीच इन नक़ली मज़दूर नेताओं का, लाल झण्डे के इन सौदागरों का पूरी तरह पर्दाफ़ाश किया जाये। मगर ख़ुद को ‘इंक़लाबी’ कहने वाले कुछ संगठन ऐसा करने के बजाय हड़ताल वाले दिन भी कहीं-कहीं इन दलालों के पीछे-पीछे घूमते नज़र आये।

तृतीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

पिछली 22 से 24 जुलाई तक लखनऊ में भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन: दिशा, समस्याएँ और चुनौतियाँ विषय पर तीसरी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन किया गया। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के हॉल में अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा आयोजित संगोष्ठी में तीन दिनों तक हुई गहन चर्चा के दौरान देशभर से आये प्रमुख जनवादी अधिकार संगठनों के प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं, न्यायविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि सत्ता के बढ़ते दमन-उत्पीड़न और जनता के मूलभूत अधिकारों के हनन की बढ़ती घटनाओं के विरुद्ध एक व्यापक तथा एकजुट जनवादी अधिकार आन्दोलन खड़ा करना आज समय की माँग है। आज देश में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के तहत हो रहे विकास का रथ आम जनता के मूलभूत अधिकारों को रौंदता हुआ बढ़ रहा है। आतंक के विरुद्ध युद्ध के नाम पर देश के कई क्षेत्रों में जनता के विरुद्ध सरकार का आतंकवादी युद्ध जारी है। सामाजिक-राजनीतिक जीवन में जनवाद का स्पेस कम होता जा रहा है। दूसरी ओर, जनवादी अधिकार संगठनों की संख्या बढ़ने के बावजूद इन हमलों का प्रभावी प्रतिरोध नहीं हो पा रहा है। ऐसे में, एक व्यापक आधार वाले तथा एकजुट जनवादी अधिकार आन्दोलन के लिए मिलकर प्रयास करने की ज़रूरत है।

करावल नगर के मज़दूरों ने बनायी इलाक़ाई यूनियन

7 जुलाई को करावल नगर मज़दूर यूनियन के गठन के लिए अगुआ टीम की बैठक हुई जिसमें मज़दूर साथियों की समन्यवय समिति बनायी गयी जिसने इलाक़े में यूनियन के प्रचार और इसके महत्व को बताते हुए सभी पेशों के मज़दूरों को सदस्य बनाने की योजना बनायी। सदस्यता का प्रमुख पैमाना सक्रियता को रखा गया। साथ ही यूनियन के संयोजक नवीन ने बताया कि जब यूनियन की सदस्यता 100 हो जायेगी तो इसके सभी सदस्यों को बुलाकर इसके पदाधिकारी, कार्यकारणी व अन्य पदों के लिए चुनाव कराया जाएगा।

गोरखपुर मज़दूर आन्दोलन के पक्ष में अभियान का समर्थन देने वाले कुछ प्रमुख व्यक्तियों के सन्देश।

यह वाक़ई बहुत बड़ी जीत है। आज तक आन्तरिक जाँच को मालिक का सर्वाधिकार माना जाता रहा है। मज़दूरों ने लड़कर यह हक़ हासिल किया है कि जाँच में स्टाफ़ और मज़दूरों के प्रतिनिधि होंगे। यह मज़दूर संघर्षों के इतिहास में नया मील का पत्थर है। इसका प्रचार किया जाना चाहिए और इसे सिद्धान्त के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए कि हर आन्तरिक जाँच में इसी तरह के जाँचकर्ता हों।