भगाणा काण्ड: हरियाणा में बढ़ते दलित और स्त्री उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष की एक मिसाल
बेबी कुमारी
हरियाणा में पिछले एक दशक में दलित और स्त्री उत्पीड़न की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। गोहाना, मिर्चपुर, झज्जर की घटनाओं के बाद पिछले 25 मार्च को हिसार जिले के भगाणा गाँव की चार दलित लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार की दिल दहला देने वाली घटना घटी। इस घृणित कुकृत्य में गाँव के सरपंच के रिश्तेदार और दबंग जाट समुदाय के लोग शामिल हैं। यह घटना उन दलित परिवारों के साथ घटी है जिन्होंने इन दबंग जाटों द्वारा सामाजिक बहिष्कार की घोषणा किये जाने के बावजूद गाँव नहीं छोड़ा था, जबकि वहीं के अन्य दलित परिवार इस बहिष्कार की वजह से पिछले दो साल से गाँव के बाहर रहने पर मजबूर हैं।
इस घिनौने कर्म के बाद सरपंच ने पूरे परिवार को मार डालने की धमकी दी और पुलिस में रिपोर्ट करने से भी मना किया। लेकिन, लड़कियों के परिजन चुप नहीं बैठे। उन्होंने एफ.आई.आर. दर्ज करायी। ऐसे कई मामले हैं जिन्हें खाप पंचायतों और दबंग जाटों द्वारा डरा धमका कर दबा दिया जाता है। नम्बर वन हरियाणा का दावा करने वाली हरियाणा सरकार की असलियत उजागर हो चुकी है कि यह नम्बर वन सिर्फ धनी किसानों, कुलकों और नवधनाढ्य वर्ग के लोगों के लिए है। खेतिहर मज़दूरों और अपने श्रम को बेचकर जीनेवालों को वहाँ नर्क से भी बदतर हालात में रहने पर मजबूर किया जाता है। रिपोर्ट लिखे जाने तक दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर पिछले तीन सप्ताह से न्याय की आस में यह दलित परिवार धरने पर बैठा है। ख़ुद बलात्कार की शिकार बच्चियाँ धरने पर बैठी हैं लेकिन सरकार से लेकर न्यायपालिका और मीडिया तक किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगी।
विभिन्न संगठनों और न्यायप्रिय छात्रों-युवाओं और नागरिकों की पहल पर गठित ‘भगाणा काण्ड संघर्ष समिति’ के बैनर तले सत्ताईस अप्रैल को जन्तर-मन्तर पर विरोध प्रदर्शन किया गया और एक प्रतिनिधिमण्डल ने गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे से मिलकर ज्ञापन सौंपा जिसमें अपराधियों को फाँसी, लड़कियों को मुआवज़ा और सरकारी सुरक्षा के साथ दलित परिवारों के पुनर्वास जैसी माँगें शामिल हैं। लेकिन अभी तक सरकार और प्रशासन की ओर से इसका कोई संज्ञान नहीं लिया गया है जो साफ दिखाता है कि पुलिस और क़ानून धन्नासेठों और पूँजीपतियों की जेब में रहते हैं। दरअसल पूँजीवादी जनतंत्र जनता के लिये दमनतंत्र के अलावा कुछ नहीं है।
27 अप्रैल को जन्तर-मन्तर पर धरने पर बैठे भगाणा सामूहिक बलात्कार काण्ड पीड़ितों के समर्थन में वामधारा सहित कई अन्य संगठनों का संयुक्त विरोध-प्रदर्शन एक आगे का क़दम ज़रूर है, लेकिन इसने कुछ महत्वपूर्ण सवालों को भी सामने ला खड़ा किया है। यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि सत्ता प्रतिष्ठानों, मीडिया और चुनावी पार्टियों के जनविरोधी चरित्र को उजागर किया जाये। वे तो पहले से ही नंगे हैं। हमारे सामने सबसे महत्व का सवाल यह है कि इस आन्दोलन को व्यावहारिक कैसे बनाया जाये? इसे किस प्रकार व्यापक आधार पर संगठित किया जाये और आगे कैसे बढ़ाया जाये?
सबसे पहले तो हमें यह समझना और स्वीकार करना होगा कि आन्दोलन का सवाल किताबी या अकादमिक सवाल नहीं है। कुछ जुमले, कुछ गरमागरम हवाबाज़ी और सामान्य सूत्रीकरण आन्दोलन की ठोस समस्याओं का हल नहीं हुआ करते। इसे अकादमिक दृष्टिकोण से केवल वही लोग देख सकते हैं जो यदा-कदा किताबों के पन्नों से निकलकर आन्दोलनों में शिरकत किया करते हैं। हम पहले ही स्पष्ट कर दें कि हमारा मकसद उनकी नीयत या भावना पर सवाल उठाना नहीं वरन् उनकी पद्धति के दोष को इंगित करना है।
हमारा मानना है कि इस घटना के तीन पहलू हैं। सबसे पहले यह स्त्रियों के दमन और बर्बर उत्पीड़न से जुड़ी हुई है। दूसरे, इसका जातिगत पहलू है और चूँकि पीड़ित खेत मज़दूर हैं इसीलिए यह मज़दूर दमन-उत्पीड़न की भी घटना है। ऐसे में सबसे पहले इसे आधी आबादी के दमन-उत्पीड़न के तौर पर देखना-समझना होगा और मज़दूर संघर्षों के मुद्दों से जोड़ना होगा। जहाँ तक इसके जातिगत पहलू का प्रश्न है, निश्चय ही यह ‘समान नागरिक अधिकार’ का उल्लंघन है और उस हद तक इसका जनवादी अधिकार आन्दोलन का चरित्र भी बनता है, लेकिन इसे एक जाति-विशेष का मसला बना देना या फिर जाति के पहलू पर अतिशय ज़ोर देना एक संकीर्णतावादी दृष्टिकोण होगा। ऐसा दृष्टिकोण इस आन्दोलन की समस्त सम्भावनाओं को बेहद संकरे दायरे में क़ैद करेगा और अन्ततः घातक साबित होगा। दलित उत्पीड़न को केवल दलितों की लड़ाई या ब्राह्मणवादी वर्चस्व का नतीजा समझना और बताना एक अवैज्ञानिक और संकीर्णतावादी नज़रिया होगा। यह व्यापक जनवादी अधिकार आन्दोलन का मसला है। यह पूँजीवादी व्यवस्था विरोधी संघर्ष का मसला है। इसी के साथ अन्त में यह भी जोड़ना चाहेंगे कि अलग-अलग ग्रुपों, संगठनों की आपसी खींचातानी न सिर्फ़ अशोभन दृश्य पैदा करती है, बल्कि पूरे आन्दोलन को एक संयुक्त कमान में चलाने की पूरी प्रक्रिया को ही नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।
अब व्यावहारिक प्रश्न यह है कि इस आन्दोलन को आगे कैसे चलाया जाये और एक व्यापक आधार कैसे दिया जाये! महज़ जन्तर-मन्तर से संसद मार्ग तक प्रदर्शन की सीमाओं को हम सभी जानते हैं। हरियाणा और दिल्ली में लोकसभा चुनाव हो चुके हैं, इसलिए भी चुनावी पार्टियों को भगाणा काण्ड जैसी घटनाओं पर फ़िलहाल ध्यान देने की ज़रूरत नहीं महसूस हो रही है। इसलिए अब हरियाणा भवन पर एक और जुझारू प्रदर्शन के बाद आन्दोलन का दायरा हरियाणा में स्थानान्तरित कर देना चाहिए। हरियाणा के हर ज़िला मुख्यालय पर भगाणा के पीड़ितों और समर्थक साथियों की टीमें संगठित करके प्रदर्शन किये जाने चाहिए और पर्चे बाँटे जाने चाहिए। यह घटना दलित उत्पीड़न के नाते जनवादी अधिकार का प्रश्न है, साथ ही यह स्त्री उत्पीड़न और मज़दूर उत्पीड़न का भी प्रश्न है, अतः सभी इंसाफ़पसन्द और जनवादी चेतना वाले नागरिकों से साथ आने का आग्रह किया जाना चाहिए। हिसार ज़िला मुख्यालय पर जारी प्रदर्शन के अतिरिक्त रोहतक में मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा के निवास पर भी धरना-प्रदर्शन किया जाना चाहिए।
बिगुल मज़दूर दस्ता और नौजवान भारत सभा की ओर से दिल्ली के अलावा हरियाणा के जीन्द, कैथल, नरवाना जैसी जगहों पर इस मामले को लेकर नुक्कड़ सभाएँ करते हुए हज़ारों की संख्या में पर्चे बाँटे गये। दिल्ली के मज़दूर इलाक़ों में तो निश्चय ही इस मुद्दे पर आबादी का व्यापक समर्थन मिला, हरियाणा में भी उन्हें ज़्यादातर जगहों पर लोगों का समर्थन मिला। कई जगह समृद्ध जाटों और सवर्ण अभिमान में ऐंठे लोगों से उलझना भी पड़ा लेकिन आम तौर पर सभी समुदायों के युवाओं ने इंसाफ़ के लिए इस मुहिम का समर्थन किया।
बिगुल मज़दूर दस्ता ने आन्दोलन को इन ठोस माँगों पर केन्द्रित करने का सुझाव दिया है:
(1) भगाणा के सभी आरोपियों की अविलम्ब गिरफ़्तारी की जाये और फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में मुकदमा चलाकर त्वरित न्याय किया जाये। (2) इस पूरे मामले की उच्चतम न्यायालय द्वारा कमेटी गठित करके न्यायिक जाँच करायी जाये या केन्द्रीय एजेंसी द्वारा न्यायिक जाँच करायी जाये। (3) अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति आयोग तथा महिला आयोग भी इस मामले में अविलम्ब कार्रवाई करे। साथ ही, इन दोनों आयोगों के क़ानूनी अधिकारों को बढ़ाकर इन्हें प्रभावी बनाने की भी माँग उठायी जानी चाहिए। (4) हरियाणा में नवम्बर 2014 में विधानसभा चुनाव होने हैं। अतः सभी चुनावी पार्टियों को यह चेतावनी दी जानी चाहिए कि यदि इस मामले में यथाशीघ्र न्याय नहीं मिला तो पूरे हरियाणा के दलित मेहनतकश चुनाव का बहिष्कार करेंगे या ‘नोटा’ का बटन दबायेंगे और कोशिश की जायेगी कि अन्य मेहनतकश और इंसाफ़पसन्द नागरिक भी ऐसा ही करें। इस चेतावनी को अमल में लाने के लिए योजनाबद्ध व्यापक ‘मोबिलाइज़ेशन’ शुरू किया जाये।
मज़दूर बिगुल, मई 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन