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पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी – विषयः समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ

आलेख एवं बहस के केन्द्रीय बिन्दुः

  • समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर चिन्तन की ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया – मार्क्स-एंगेल्स से माओ त्से-तुङ तक।
  • महान बहस और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का महत्व।
  • बीसवीं सदी के महान समाजवादी प्रयोगों की सफ़लताओं और असफलताओं का नये सिरे से आलोचनात्मक मूल्यांकन।
  • सोवियत संघ और चीन में समाजवादी संक्रमण के प्रयोग और उनकी समस्याएँ।
  • पूँजीवादी पुर्नस्थापनाः विविध अवस्थितियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन।
  • स्तालिन और उनके दौर के पुनर्मूल्यांकन का प्रश्न।

चाय बेचने की दुहाई देकर देश बेचने के मंसूबे

केवल किसी की व्यक्तिगत पृष्ठभूमि ग़रीब या मेहनतकश का होने से कुछ नहीं होता। बाबरी मस्जिद ध्वंस करने वाली उन्मादी भीड़ में और गुजरात के दंगाइयों में बहुत सारी लम्पट और धर्मान्ध सर्वहारा-अर्धसर्वहारा आबादी भी शामिल थी। दिल्ली गैंगरेप के सभी आरोपी मेहनतकश पृष्ठभूमि के थे। भारत की और दुनिया की बुर्जुआ राजनीति में पहले भी बहुतेरे नेता एकदम सड़क से उठकर आगे बढ़े थे, पर घोर घाघ बुर्जुआ थे। कई कांग्रेसी नेता भी ऐसे थे। चाय बेचने वाला यदि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी है और इतिहास-भूगोल-दर्शन-सामान्य ज्ञान – सबकी टाँग तोड़ता है तो एक बुर्जुआ नागरिक समाज का सदस्य भी उसका मज़ाक उड़ाते हुए कह सकता है कि वह चाय ही बेचे, राजनीति न करे। चाय बेचने वाला यदि एक फासिस्ट राजनीति का अगुआ है तो कम्युनिस्ट तो और अधिक घृणा से उसका मज़ाक उड़ायेगा। यह सभी चाय बेचने वालों का मज़ाक नहीं है, बल्कि उनके हितों से विश्वासघात करने वाले लोकरंजक नौटंकीबाज़ का मज़ाक है।

‘‘किस्सा-ए-आज़ादी उर्फ 67 साला बर्बादी’’

15 अगस्त, 1947 को भारत आज़ाद तो हुआ लेकिन ये आज़ादी देश के चन्द अमीरज़ादों की तिजोरियों में कैद होकर रह गयी है। वास्तविक आज़ादी का अर्थ यह कत्तई नहीं है कि एक तरफ तो भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में अनाज सड़ जाता है वहीं दूसरी तरफ रोज़ाना 9000 बच्चे भूख व कुपोषण से दम तोड़ देते हैं। भगतसिंह के शब्दो में आज़ादी का अर्थ यह कत्तई नहीं था कि गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज आकर देश पर काबिज़ हो जायें। अजय ने आगे अपनी बात रखते हुए कहा कि देश की जनता पिछले 66 सालों के सफ़रनामे से समझ चुकी है कि ये आज़ादी भगतसिंह व उनके साथियों के सपनों की आज़ादी नहीं है जहाँ पर 84 करोड़ आबादी 20 रु. प्रतिदिन पर गुज़ारा करती हो तथा पिछले 15 वर्षों में ढ़ाई लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हों, वहीं संसद-विधानसभाओं में बैठने वाले नेताओं मंत्रियों को ऊँचे वेतन के साथ सारे ऐशो-आराम मिल रहे हों।

इलाहाबाद में फासिस्टों की गुण्डागर्दी के ख़िलाफ़ छात्र सड़कों पर

फासिस्ट ताकतें अपने खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनना चाहती। और भारत में इनके हौसले लगातार बढ़ ही रहे हैं। पिछले दिनों, अंधविश्वास और जादू-टोने के खिलाफ लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ता नरेंद्र डाभोलकर की हत्या कर दी गयी, फिर पुणे में उनकी श्रद्धांजलि सभा पर एबीवीपी और बजरंग दल के गुंडों ने हमला करके आयोजक छात्रों को घायल कर दिया। इसी तरह, इलाहाबाद में लगायी जाने वाली दो प्रगतिशील दीवार पत्रिकाओं ‘प्रतिरोध’ और ‘संवेग’ को फाड़ने और उन्हें लगाने वाले छात्रों से फोन पर गाली गलौज करने और गुजरात के मुसलमानों की तरह काटकर फेंक देने की धमकी देने का मामला सामने आया है।

दिल्ली की शाहाबाद डेयरी बस्ती में एक और बच्ची की निर्मम हत्या

लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसे अपराध समाज में हो ही क्यों रहे हैं। इस समाज में स्त्रियां और बच्चियां महफ़ूज क्यों नहीं हैं। दरअसल, 1990 के बाद से देश में उदारीकरण की जो हवा बह रही है, उसमें बीमार होती मनुष्यता की बदबू भी समायी हुई है। पूँजीवादी लोभ-लालच की संस्कृति ने स्त्रियों को एक ‘माल’ बना डाला है और इस व्यवस्था की कचरा संस्कृति से पैदा होने वाले जानवरों में इस ‘माल’ के उपभोग की हवस भर दी है। सदियों से हमारे समाज के पोर-पोर में समायी पितृसत्तात्मक मानसिकता इसे हवा दे रही है, जो औरतों को उपभोग का सामान और बच्चा पैदा करने की मशीन मानती है, और पल-पल औरत विरोधी सोच को जन्म देती है। और ’90 के बाद लागू हुई आर्थिक नीतियों ने देश में अमीरी-ग़रीबी के बीच की खाई को अधिक चौड़ा किया है, जिससे पैसे वालों पर पैसे का नशा और ग़रीबों में हताशा-निराशा, अपराध हावी हो रहा है।

मई दिवस पर मज़दूरों ने अपने शहीदों को याद किया

1 मई को 128वें ‘अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस’ के अवसर पर करावल नगर में मज़दूरों की एक विशाल रैली का आयोजन किया गया। करावलनगर मज़दूर यूनियन और स्त्री मज़दूर संगठन के संयुक्त बैनर तले बुधवार को हुई इस ‘मज़दूर अधिकार रैली’ में इस इलाके के अलग-अलग पेशे से जुड़े सैकड़ों मज़दूर शामिल हुए। करावलनगर के लेबर चौक से शुरू हुई मज़दूर अधिकार रैली इलाके की मुख्य सड़क से होती हुई विधायक के कार्यालय पहुँची। विधायक के कार्यालय के बाहर ही सभी बैठ गये और वहाँ मज़दूरों के प्रतिनिधियों द्वारा मज़दूरों का माँगपत्रक पढ़ा गया और फिर इन मज़दूर प्रतिनिधियों ने विधायक को मज़दूरों द्वारा हस्ताक्षरित बुनियादी हक़-अधिकारों का एक माँगपत्रक सौंपा।

‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ पर चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (12-16 मार्च, 2013), चण्डीगढ़ की रिपोर्ट

जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक मूल से लेकर उसकी गतिकी तक के बारे में अम्बेडकर की समझदारी बेहद उथली थी। नतीजतन, जाति उन्मूलन को कोई वैज्ञानिक रास्ता वह कभी नहीं सुझा सके। इसका एक कारण यह भी था कि अम्बेडकर की पूरी विचारधारा अमेरिकी व्यवहारवाद के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थी। लिहाज़ा, उनका आर्थिक कार्यक्रम अधिक से अधिक पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद तक जाता था, सामाजिक कार्यक्रम अधिक से अधिक धर्मान्तरण तक और राजनीतिक कार्यक्रम कभी भी संविधानवाद के दायरे से बाहर नहीं गया। कुल मिलाकर, यह एक सुधारवादी कार्यक्रम था और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ही कुछ सहूलियतें और सुधार माँगने से आगे कभी नहीं जाता था।

करावल नगर मज़दूर यूनियन ने मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के दूसरे चरण की शुरुआत की

यहाँ सैकड़ों क़िस्म की छोटी फ़ैक्टरियाँ, वर्कशाप और बादाम के गोदाम हैं जहाँ लाखों मज़दूर आधुनिक गुलामों की तरह काम करते हैं। इनमें बादाम प्रसंस्करण, कुकर, गत्ता, गारमेण्ट, प्लास्टिक दाना, तार, खिलौना प्रमुख हैं। इनमें से ज़्यादातर में 10 से 20 मज़दूर काम करते हैं। कुछ एक फ़ैक्टरियों में मज़दूरों की संख्या 50 से अधिक है। इसके अलावा भवन निर्माण के मज़दूरों से लेकर रिक्शा-ठेला मज़दूरों की संख्या हज़ारों में हैं। ऐसे में, करावल नगर मज़दूर यूनियन किसी एक पेशे या फ़ैक्टरी की यूनियन नहीं है, बल्कि यह इलाक़ाई यूनियन के तौर पर मज़दूरों की बीच काम कर रही हैं जो एक तरफ मज़दूरों की संकुचित पेशागत प्रवृत्ति को तोड़ती है और साथ ही मज़दूरों के आर्थिक संघर्षों के साथ उनके बुनियादी नागरिक अधिकारों के संघर्ष का नेतृत्व भी करती है। वैसे भी, असंगठित मज़दूरों को संगठित करने की चुनौती में इलाक़ाई मज़दूर यूनियन मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में एक जबरदस्त अस्त्र सिद्ध हो सकता है। इसके मद्देनजर, करावल नगर मज़दूर इलाक़े में एक परचा वितरित किया गया है, जिसे लेकर यूनियन का प्रचार दस्ते मज़दूरों की लॉजों, फ़ैक्टरी गेट से लेकर लेबर चौक तक नुक्कड़ सभाएँ करके एक संघर्ष की शुरुआत कर रहे हैं।

मई दिवस पर विभिन्न आयोजन

दिल्ली में करावलनगर मज़दूर यूनियन, दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन, बिगुल मज़दूर दस्ता और स्त्री मज़दूर संगठन के नेतृत्व में 1 मई की सुबह 8 बजे से मज़दूर अधिकार रैली निकाली गयी। करावलनगर के लेबर चौक से शुरू होकर यह रैली इलाक़े की अनेक मज़दूर बस्तियों और कारख़ानों तथा गोदामों के इलाक़ों से गुज़रती रही जिसके बाद यह एक जनसभा में बदल गयी। सभा में वक्ताओं ने कहा आठ घण्टे के कार्यदिवस की माँग वेतन बढ़ाने जैसी आर्थिक माँगों से बढ़कर है। यह एक मज़दूर के लिए इंसानों जैसी ज़िन्दगी जीने की माँग है! अगर हम पशुओं की तरह नहीं जीना चाहते, अगर हम अपने बच्चों को यह नर्क जैसा जीवन नहीं देना चाहते तो हमें अपनी मानवीय गरिमा और सम्मान के लिए फिर से जंग छेड़नी होगी! हमें मई दिवस को इंसान की तरह जीने के हक़ के संघर्ष का दिन बना देना होगा।

भूख से दम तोड़ते असम के चाय बागान मज़दूर

दुनियाभर में मशहूर असम की चाय तैयार करने वाले असम के चाय बागान मज़दूरों के भयंकर शोषण और संघर्ष की ख़बरें बीच-बीच में आती रही हैं, लेकिन पिछले छह महीने से वहाँ के एक चाय बागान में मज़दूरों के साथ जो हो रहा है वह असम राज्य और देश की शासन-व्यवस्था के लिए बेहद शर्मनाक है। असम के 3000 चाय मज़दूर और उनके परिवार, बागान प्रबन्धन के भयंकर शोषण-उत्पीड़न और सरकारी तन्त्र की घनघोर उपेक्षा की वजह से लगातार भुखमरी की हालत में जी रहे हैं। अभी तक कम से कम 14 मज़दूरों की मौत भूख, कुपोषण और ज़रूरी दवा-इलाज के अभाव में हो चुकी है। यह बागान असम के कछार ज़िले में भुवन वैली चाय बागान नाम से जाना जाता है जिस पर कोलकाता की एक निजी कम्पनी का मालिकाना है।