फ़ासिस्ट दमन के गहराते अँधेरे में चंद बातें जो शायद आपको भी ज़रूरी लगें
कात्यायनी (3 मार्च 2024)
गोदी मीडिया तो अंबानी के बेटे की शादी का जलसा, धर्म के ठेकेदारों के प्रवचन और मोदी की “अभूतपूर्व उपलब्धियों” के ही गुणगान में मगन रहेगा लेकिन सोशल मीडिया (उसपर भी तमाम बंदिशें हैं और हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के आईटी सेल के भाड़े के टट्टू जमे हुए हैं) के माध्यम से देश की जनता के एक बड़े हिस्से ने देखा कि आज दिल्ली में ‘भगतसिंह जन अधिकार यात्रा’ के प्रदर्शनकारियों पर फ़ासिस्ट दमन का कैसा बेशर्म और बर्बर नंगनाच हुआ है!
‘भगतसिंह जन अधिकार यात्रा’ के दूसरे चरण में तीन महीनों के दौरान तेरह राज्यों की साढ़े आठ हज़ार किलोमीटर से भी कुछ अधिक दूरी तय करके यात्री टोली दिल्ली पहुँची थी और आज दिल्ली में जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन और जनसभा का शान्तिपूर्ण कार्यक्रम था जिसमें दिल्ली के मज़दूरों और छात्रों-युवाओं के साथ बाहर से आये हज़ारों लोग भी हिस्सा लेने वाले थे।। लेकिन कार्यक्रम शुरू होने के पहले ही अमित शाह के निर्देश पर दिल्ली पुलिस ने बर्बरता का तांडव शुरू कर दिया। घटनास्थल पर मौजूद साथियों पर बेरहमी से लाठियाँ बरसाई गईं, महिलाओं के कपड़े फाड़े गये और सभी को घसीटकर बसों में भरकर मंदिर मार्ग और नज़फगढ़ थानों में बंद कर दिया गया। कुछ प्रदर्शनकारियों को लेकर दिल्ली पुलिस की बसें सड़कों पर इधर -उधर चक्कर लगाती रहीं। प्रदर्शन में भाग लेने आने वाले नरेला, बवाना के औद्योगिक इलाके के मज़दूरों को वहीं पर गिरफ़्तार करके नरेला इंडस्ट्रियल एरिया पुलिस स्टेशन में बंद कर दिया गया। हज़ारों की तादाद में आ रहे औद्योगिक मज़दूरों, घरेलू कामगारों, आँगनबाड़ी कर्मियों और छात्रों एवं आम नागरिकों को रास्ते में ही रोक कर गिरफ़्तार कर लिया गया या जंतर-मंतर की ओर जाने नहीं दिया गया। जंतर-मंतर पर सुप्रीम कोर्ट के वकील महमूद प्राचा और कोलिन गोंजालेज, शायर और वैज्ञानिक गौहर रज़ा और नागरिक अधिकार कर्मी हिमांशु कुमार जैसे गणमान्य लोग भी मौजूद थे। उन सभी ने इस दमन चक्र की कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हुए बयान जारी किये।
‘भगतसिंह जन अधिकार यात्रा’ हिंदुत्ववादी फ़ासिस्ट हुकूमत के ख़िलाफ़ व्यापक जुझारू जन एकजुटता पैदा करने की एक दीर्घकालिक और देशव्यापी मुहिम है जिसके दूसरे चरण का आज समापन होना था। हमारा यह दृढ़ मत है कि फ़ासिस्टों को जुझारू जन संघर्षों के द्वारा सड़कों पर ही शिकस्त दी जा सकती है और देश को महाविनाश के गर्त में गिरने से बचाया जा सकता है। इसके लिए व्यापक जनसमुदाय के सभी हिस्सों को शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, रोज़गार, जीवनयापन योग्य न्यूनतम मज़दूरी जैसे बुनियादी मुद्दों पर संघर्ष के लिए लामबंद और संगठित करना होगा। यह तभी संभव है जब तृणमूल स्तर से व्यापक अभियान चलाकर धार्मिक उन्माद और जातिगत आधार पर जनता को बाँटने की साज़िश के ख़िलाफ़, धार्मिक अल्पसंख्यक, विशेषकर मुस्लिम आबादी को आतंक, दंगों और फर्जी मुकदमों में फँसाने के फ़ासिस्ट तिकड़मों के ख़िलाफ़, बहुसंख्यावादी धर्मोन्माद और अंधराष्ट्रवादी उन्माद की राजनीति के ख़िलाफ़ लगातार, सघन प्रचार किया जाये। सच यह है कि गोदी मीडिया और भाजपाई आईटी सेल की तमाम कोशिशों के बावजूद ज़िन्दगी की बढ़ती बदहाली ख़ुद ही भारी आबादी के सामने मोदी की राजनीति का ख़ूनी और लुटेरा चेहरा बेनकाब करती जा रही है।
बदहवास संघियों को अगर भरोसा है तो बस इस बात का कि अंबानी,अदानी, टाटा, जिंदल, मित्तल आदि बड़े पूँजीपतियों की अकूत पूँजी की ताक़त उनके पीछे खड़ी है। छोटे पूँजीपतियों, बड़े व्यापारियों, धनी किसानों और उच्च मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा भी मोदी की सत्ता के साथ है। अकूत धन के बूते भाजपा किसी भी चुनावी बुर्जुआ पार्टी के सांसद -विधायक तोड़ लेती है। ब्लैकमेल करने के लिए वह ईडी, सीबीआई, इनकमटैक्स विभाग आदि का खुलकर इस्तेमाल करती है। न्यायपालिका नीचे से ऊपर तक फ़ासिस्टों की हुकूमत की सेवा में मुस्तैद खड़ी है। बाबरी मस्जिद से लेकर गुजरात जनसंहार तक, और तमाम दूसरे मुकदमों में मोदी, शाह और दूसरे भाजपाई नेताओं को बेदाग़ बरी करने वाले सभी जजों को रिटायरमेंट के बाद कोई न कोई पद देकर पुरस्कृत किया जाता रहा है, यह अपने आप में बताता है कि आज अदालतें किस तरह फ़ासिस्ट मशीनरी का कल-पुर्जा बन चुकी हैं।
और फिर मोदी-शाह गैंग जिसको अपना ब्रह्मास्त्र समझता है, वह है ईवीएम। कई-कई बार कई लोगों ने चुनाव आयोग को खुली चुनौती दी कि वे सार्वजनिक तौर पर ईवीएम हैक करके दिखा सकते हैं और वीवीपैट में घपले की संभावना को भी साबित कर सकते हैं। लेकिन चुनाव आयोग के कानों पर जूं न रेंगी। विकसित देशों सहित अधिकांश देश आज ईवीएम से बैलट पेपर पर वापस जा चुके हैं। कई देशों की न्यायपालिकाएँ इसे अविश्वसनीय बता चुकी हैं। फिर भी आखिर क्यों सरकार और चुनाव आयोग ईवीएम से ही चुनाव कराने पर अड़े हुए हैं। बात साफ़ है। दाल में काला नहीं है बल्कि पूरी दाल ही काली है। चुनावी पार्टियाँ इसपर कोई आन्दोलन नहीं करतीं क्योंकि उनके पास सभाओं और जुलूसों में जुटाई जाने वाली भीड़ तो हो सकती है लेकिन सड़कों पर जुझारू और लंबा संघर्ष चलाने वाले कैडर नहीं हैं। उन्हें डर रहता है कि ऐसे किसी आंदोलन में उनके कितने कार्यकर्ता आयेंगे और यह भी डर रहता है कि ऐसे में उनके कितने नेता उछलकर भाजपा की गोद में जा बैठेंगे। उन्हें यह भी डर रहता है कि ईवीएम विरोधी आन्दोलन के मज़बूत हो जाने पर मोदी अगर संविधान और संसद आदि को ताक पर रखकर खुली फ़ासिस्ट तानाशाही लागू कर दे तो फिर उनकी अपनी राजनीतिक धंधेबाजी का क्या होगा! इसीलिए सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ बीच-बीच में दबी ज़बान से ईवीएम से घपले की बात तो करती हैं लेकिन इसे अधिक तूल नहीं देखतीं। अभी सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील भानुप्रताप सिंह, महमूद प्राचा, प्रशांत भूषण और कई अन्य वकीलों एवं रिटायर्ड जजों ने ईवीएम के विरुद्ध जोर-शोर से आवाज़ उठाई है। वे इसे एक व्यापक जनान्दोलन की शक़्ल देना चाहते हैं और इस दिशा में लगातार काम कर रहे हैं।’भगतसिंह जन अधिकार यात्रा’ इस पहलकदमी का पूरा समर्थन करती है। यात्रा के इस दूसरे चरण के दौरान ईवीएम के सवाल को जनता के बीच लगातार उठाया गया और अन्य मुद्दों के साथ ही इस मुद्दे पर भी हमें व्यापक जन-समर्थन मिला।
बहरहाल, आज के अनुभव ने सिद्ध कर दिया है कि मोदी-शाह की फ़ासिस्ट सत्ता किसी भी जुझारू जन-उभार की संभावना से थरथर काँप रही है। इसीलिए, देश के किसी भी कोने में होने वाले किसी जनांदोलन को कुचलने के लिए वह पुलिस और अर्धसैनिक बलों की पूरी ताक़त झोंक दे रही है, जेनुइन जनांदोलनों के नेताओं पर आतंकवाद और देशद्रोह आदि की धाराएँ लगाकर फर्जी मुकदमे ठोंक रही है और उनके ज़मानत तक नहीं होने दे रही है। लेकिन जैसाकि हमेशा होता है, किसी भी सत्ता का जनता से भय जितना अधिक बढ़ता जाता है, वह उतना ही नग्न-निरंकुश दमनकारी होती जाती है। जनता को डराने की एक हद जब पार हो जाती है तो फिर जनता धीरे-धीरे डरना बंद कर देती है। इतिहास के अध्येता जानते हैं कि जीना मुहाल होने पर और अपने सारे अधिकारों के छिनते जाने पर जनता सड़कों पर उतरती ही है। शुरूआती दौरों में सत्ता के दमन और आतंक के प्रभाव से वह दब और बिखर जाती है। लेकिन शोषण, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार के विरुद्ध वह फिर -फिर सड़कों पर उतरती है। फिर सत्ता तंत्र का दमन भी बढ़ता जाता है और फिर ऐसा दौर आता है कि जनता डरना बंद कर देती है। सभी आततायी शासक उसी दिन के बारे में सोचकर भयाक्रांत हो जाते हैं। वे जानते हैं कि सारी जनता को तो छोड़ दें, उसके दस प्रतिशत या बीस प्रतिशत हिस्से को भी जेलों में नहीं ठूँसा जा सकता, न ही उनका फर्ज़ी एनकाउंटर किया जा सकता है। जनता का एक बड़ा हिस्सा अगर उठ खड़ा हो तो फ़ासिस्ट या कोई भी आततायी सत्ता हवा में तिनके की तरह उड़ जाती है। असली बात यही है कि जनता उठ खड़ी हो। निश्चित ही यह एक लम्बी, कठिन और चढ़ावों-उतारों से भरी प्रक्रिया है।
सबसे पहले तो ज़रूरी यह है कि आम मेहनतकश जनसमुदाय को उसकी ज़िन्दगी के बुनियादी मुद्दों पर जागृत और गोलबंद करने के लिए उन्नत चेतना के परिवर्तनकामी लोग (जिन्हें हम मज़दूरों का ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी कह सकते हैं) उनके बीच जायें। पहले उन्नत चेतना के मेहनतकश उनकी बातें समझेंगे और फिर अमल और सैद्धांतिक शिक्षा की प्रक्रिया में आम मेहनतकश जनसमुदाय भी साथ जुड़ेगा। सिस्टम का संकट जब बढ़ता जाता है और दमन जब गहराता जाता है तो उपरोक्त प्रक्रिया की गति भी तेज़ होती जाती है।
हमारे देश में आमूलगामी बदलाव की कोई प्रक्रिया संगठित करने और आगे बढ़ाने की एक समस्या यह भी है कि, दोमुँहे और अवसरवादी “प्रगतिशीलों-जनवादियों” को छोड़ भी दें तो, अधिकांश ईमानदार जनपक्षधर बौद्धिकों (इनमें कवि-लेखक भी शामिल हैं) की भी स्थिति ऐसी है कि वे सड़कों पर, आन्दोलनरत जनसमुदाय के बीच जाने की जो थोड़ी-बहुत आदत पहले थी, उसे भी छोड़ चुके हैं। वे अपनी क्षुद्र कुलीनता और सुविधाओं और द्वीपीय जीवनशैली के ग़ुलाम बनकर रह गये हैं। बातें तो वे नेरूदा, मारखेज, रोखे दाल्तोन, कार्देनाल, नाज़िम हिकमत, अचेबे , न्गूगी और जनसंघर्षों के बीच जीते हुए जेल, यंत्रणा और मौत तक का सामना करने वाले अफ्रीकी, फिलिस्तीनी, सीरियाई, इराकी, ईरानी आदि कवियों-लेखकों की करते हैं लेकिन जीवन में उसका शतांश भी मेहनत करने और जोखिम मोल लेने को तैयार नहीं हैं। ऐसे साथियों को मैं बस पास्टर निमोलर की मशहूर कविता की याद दिलाना चाहूँगी। आप अगर तर्क और विज्ञान की, प्रगति और परिवर्तन की, न्याय और अधिकार की सामान्य बातें भी करेंगे, और कविता-कहानी की भाषा में भी करेंगे, तो एक दिन फ़ासिस्ट हत्यारों के निशाने पर आयेंगे ही आयेंगे। इस ऐतिहासिक दुष्काल में, प्रगतिशीलता की बातों के साथ सुविधा और सुरक्षा का आपका क्षुद्र घोंघे का खोल कुचले जाने से बचा नहीं रह पायेगा। आपको सिर्फ़ ईमान की बात करनी ही नहीं होगी, उसके अमल के लिए जोखिम भी मोल लेना होगा। बौद्धिकता और साहित्य का एक चिकना चमकता रास्ता फ़ासिस्टों के संस्थानों और महोत्सवों तक जाता है और दूसरा एक बीहड़ ऊबड़-खाबड़ सा रास्ता है जो जनता के जीवन और संघर्षों में भागीदारी की ओर जाता है। रास्ते तो ये दो ही हैं। बीच का कोई और रास्ता नहीं है। बीच का कोई रास्ता होता ही नहीं।
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