भीषण आर्थिक व राजनीतिक संकट से जूझता बंगलादेश
लेकिन क्रान्तिकारी विकल्प की ग़ैर-मौजूदगी में शासक वर्ग का दबदबा क़ायम
आनन्द
हाल के कुछ वर्षों तक बंगलादेश की गिनती दुनिया की सबसे तेज़ी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में होती थी। साम्राज्यवादी मीडिया उसे नये एशियाई टाइगर के खिताब से नवाज़ा करता था। ज़ारा, एच एण्ड एम, टॉमी हिलफ़ाइगर, कैल्विन क्लेन, गैप और प्यूमा जैसी दैत्याकार बहुराष्ट्रीय रेडीमेड कपड़ा कम्पनियाँ बेहद कम मज़दूरी पर और अमानवीय परिस्थितियों में मज़दूरों से काम करवाने वाली बंगलादेश की कपड़ा फ़ैक्टरियों में कपड़े बनवाकर दुनियाभर के बाज़ारों में बेचकर अकूत मुनाफ़ा कूटती आयी हैं। लेकिन पिछले 2-3 सालों से बंगलादेश की अर्थव्यवस्था की हालत डावाँडोल नज़र आ रही है। वहाँ लगातार बढ़ती महँगाई और घटती आमदनी की वजह से आम लोगों की ज़िन्दगी के हालात इतने ख़राब हो चुके हैं कि उनके पास अब सड़कों पर उतरने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा है। गुज़रे साल के आख़िरी महीनों में वहाँ प्रचण्ड विरोध-प्रदर्शनों का सिलसिला जारी रहा।
इस आर्थिक संकट के साथ ही साथ बंगलादेश में एक राजनीतिक संकट भी जारी है क्योंकि वहाँ पिछले 15 सालों से सत्तासीन अवामी लीग की शेख़ हसीना सरकार ने सत्ता में बने रखने के लिए विपक्ष व जनान्दोलनों पर दमन का चाबुक चला दिया है और उसपर तमाम क़िस्म की पाबन्दियाँ लगा दी हैं। विपक्ष द्वारा गत 7 जनवरी को सम्पन्न हुए बंगलादेश के आम चुनावों का बहिष्कार करने की वजह से वहाँ बुर्जुआ जनवाद की विश्वसनीयता पर एक बहुत बड़ा सवालिया निशान खड़ा हो गया है। दूसरी ओर, इस आर्थिक व राजनीतिक संकट की परिस्थिति में उस देश पर अपनी-अपनी पैठ बनाने के लिए वहाँ अमेरिकी व चीनी साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच होड़ भी तेज़ होती दिख रही है।
लगातार गहराता आर्थिक संकट
कोरोना महामारी और यूक्रेन युद्ध की वजह से आपूर्ति श्रृंखलाओं के बाधित होने के चलते दुनिया के तमाम देशों की ही तरह बंगलादेश में भी लगातार बढ़ती महँगाई और घटती आमदनी की वजह से आम लोगों की आर्थिक बदहाली बढ़ती गयी है। पिछले कई महीनों से महँगाई की दर दो अंकों में, यानी 10 प्रतिशत से ऊपर रही है। ये हालात वहाँ व्यापक पैमाने पर भुखमरी जैसी स्थिति पैदा कर रहे हैं।
लेकिन कोरोना और यूक्रेन युद्ध बंगलादेश की आर्थिक बदहाली के महज़ तात्कालिक कारक हैं, जबकि वास्तविक दीर्घकालिक कारण बंगलादेश के समाज के राजनीतिक अर्थशास्त्र में निहित हैं। बंगलादेश की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की रीढ़ वहाँ का कपड़ा उद्योग है जिसमें तकरीबन 40 लाख लोग काम करते हैं। बेहद कम मज़दूरी की वजह से मज़दूरों का ख़ून चूसने वाली बंगलादेश की ये कपड़ा फ़ैक्टरियाँ रेडीमेड कपड़ों के उद्योग में विश्व की दिग्गज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पसन्दीदा सूची में आती हैं। यह इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि रेडीमेड कपड़ों के निर्यात के मामले में बंगलादेश चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। वहाँ निर्यात से होने वाली कुल आय का 85 प्रतिशत कपड़ों के निर्यात से आता है। रेडीमेड कपड़ों के निर्यात पर टिकी होने के कारण बंगलादेश की अर्थव्यवस्था विश्व बाज़ार में रेडीमेड कपड़ों की माँग में होने वाले उतार-चढ़ाव पर बुरी तरह निर्भर रहती है। पिछले कुछ वर्षों में रेडीमेड कपड़ों के निर्यात में कमी आने की वजह से जहाँ एक ओर मज़दूरों की छँटनी हो रही और उनकी मज़दूरी में कटौती की जा रही है वहीं दूसरी ओर अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा भण्डार भी तेज़ी से सिकुड़ रहा है। इस वजह से वहाँ आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं बची है। पिछले दो साल के दौरान बंगलादेश की मुद्रा टका का भी अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले 40 प्रतिशत अवमूल्यन हो गया है।
बंगलादेश में पूँजीवादी विकास के मद्देनज़र बुनियादी अधिरचना में बेहतरी लाने के लिए सड़कों, पुलों, बन्दरगाहों और हवाई अड्डों के निर्माण के नाम पर प्रोजेक्ट पूरे करने के लिए बैंकों से जो क़र्ज़ लिये गये हैं उनकी अदायगी न होने की वजह से वहाँ का बैंकिंग क्षेत्र भी संकट से गुज़र रहा है। ग़ौरतलब है कि बैंकों से लिए जाने वाले इन क़र्ज़ों को लेने वालों में बड़ी संख्या सत्ताधारी अवामी लीग के क़रीबी पूँजीपतियों और बिल्डरों की है जो सत्ता से क़रीबी का फ़ायदा उठाकर क़र्ज़ की अदायगी नहीं कर रहे हैं जिसकी वजह से बैंकों के नॉन परफ़ॉर्मिंग एसेट्स में बढ़ोतरी हो रही है। इस प्रकार आर्थिक संकट की स्थिति भ्रष्टाचार की वजह से बद से बदतर हो रही है।
मज़दूरों की बग़ावत, राज्यसत्ता का दमन और राजनीतिक संकट
इस बदहाली के आलम में बंगलादेश के पूँजीवादी सत्ताधारियों ने मज़दूरों के सामने सड़कों पर उतरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ा था। पिछले साल अक्टूबर के महीने से ही वहाँ लाखों की संख्या में मज़दूर सड़क पर उतरने लगे थे। उसकी वजह से वहाँ की 4 हज़ार फ़ैक्ट्रियों में क़रीब 500 बन्द हो गयीं। मज़दूरों की मुख्य माँग थी कि उनकी मज़दूरी 8.3 हज़ार टका (क़रीब 6200 रुपये) से बढ़ाकर 23 हज़ार टका (17.5 हज़ार रुपये) की जाये क्योंकि लगातार बढ़ती महँगाई की वजह से उनका जीना दुश्वार हो गया है। आन्दोलन के दबाव में सरकार ने मज़दूरी बढ़ाकर 12.5 हज़ार टका करने का प्रस्ताव रखा, परन्तु मज़दूरों ने उसे ठुकरा दिया। उसके बाद सरकार ने अपने अपने पूँजीपरस्त और मज़दूर-विरोधी चरित्र के मुताबिक़ आन्दोलन को कुचलने के लिए भीषण दमन का सहारा लेना शुरू कर दिया। मज़दूरों के आन्दोलन को पुलिस के सहारे हिंसक तरीक़े से कुचलने के अलावा हज़ारों लोगों को गिरफ़्तार किया गया और विपक्ष के नेताओं को भी नहीं बख़्शा गया। सत्ताधारी अवामी लीग ने मज़दूरों की हड़ताल के लिए बेगम ख़ालिदा ज़िया के नेतृत्व वाले विपक्षी दल बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) को ज़िम्मेदार ठहराया। जबकि सच्चाई यह है कि बीएनपी एक दक्षिणपन्थी बुर्जुआ पार्टी है और वह भी मज़दूरों की कट्टर दुश्मन है। शेख़ हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग की सरकार के जनविरोधी व तानाशाहाना रवैये के ख़िलाफ़ लोगों को लामबन्द करने के लिए वह इस्लामिक कट्टरपन्थ का सहारा ले रही है। ग़ौरतलब है कि बीएनपी का ज़मात-ए-इस्लामी के साथ गहरा ताल्लुक है जो एक इस्लामी कट्टरपन्थी संगठन है।
सरकार के दमन और तानाशहाना रवैये के मद्देनज़र बीएनपी ने गत 7 जनवरी को हुए आम चुनावों का बहिष्कार कर दिया। इस प्रकार सबसे बड़े विपक्षी दल द्वारा बहिष्कार किये जाने के बाद वहाँ चुनाव शेख़ हसीना को सत्ता में लाने की महज़ रस्म अदायगी बनकर रह गये। इन चुनावों में केवल 28 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान किया जो दिखाता है कि लोगों के बीच शेख़ हसीना सरकार की लोकप्रियता बेहद कम है। ग़ौरतलब है कि शेख़ हसीना पिछले 15 वर्षों से बंगलादेश की सत्ता पर क़ाबिज़ हैं और पिछले दो चुनावों में भी अवामी लीग पर आरोप लगते रहे हैं कि वह धाँधली के ज़रिये चुनाव जीतती है। अपनी घटती लोकप्रियता के आलम में भी सत्ता में बने रहने के लिए शेख़ हसीना ने इस बार विपक्षी दलों पर दमन का चाबुक चलाने का फैसला किया। चुनावों से ऐन पहले विपक्ष पर शान्ति भंग करने का आरोप लगाते हुए लाखों विपक्षी नेताओं और एक्टिविस्टों को जेल में ठूँस दिया गया। हालात ये हो गये कि बंगलादेश की जेलों में अब कोई जगह ही नहीं बची है। जेल में हुई प्रताड़ना की वजह से कई विपक्षी नेताओं की जान भी जा चुकी है।
बंगलादेश में जारी आर्थिक व राजनीतिक संकट के मद्देनज़र अपनी साम्राज्यवादी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अमेरिकी व चीनी साम्राज्यवादी ताक़तों ने भी वहाँ अपनी दख़ल बढ़ायी है। ग़ौरतलब है कि शेख़ हसीना की अवामी लीग के चीन के साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं। पिछले एक दशकों के दौरान अवामी लीग के शासन के दौरान चीन ने वहाँ के बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने के लिए निवेश किया है और क़र्ज़ भी दिया है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस मदद का लाभ बंगलादेश की आम मेहनतकश जनता को नहीं बल्कि वहाँ के पूँजीपति वर्ग को ही मिल रहा है। अर्थव्यवस्था में मन्दी की स्थिति में चीन द्वारा उच्च ब्याज दर पर दिये गये क़र्ज़ अर्थव्यवस्था का संकट और बढ़ा सकते हैं। उधर अमेरिकी साम्राज्यवाद की क़रीबी बेगम ख़ालिदा ज़िया की बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी से है। यही वजह है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी बंगलादेश में विपक्ष के दमन और मानवाधिकारों के हनन पर बहुत चिल्ल-पों मचा रहे हैं। अमेरिका ने हाल में सम्पन्न हुए चुनावों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाये हैं। कहने की ज़रूरत नहीं है कि दुनियाभर में तानाशाहों व निरंकुश सत्ताओं को शह देने वाले अमेरिकी साम्राज्यवादियों को आज अचानक बंगलादेश में लोकतंत्र के प्रति जो प्यार उमड़ रहा है उसका रिश्ता लोकतंत्र के प्रति उसकी प्रतिबद्धता से नहीं बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मुनाफ़े के खेल में अग्रणी बने रहने की महत्वाकांक्षा से है।
आने वाले दिनों में बंगलादेश में आर्थिक संकट और गहराने ही वाला है क्योंकि चालू खाते का घाटा बढ़ता जा रहा है और भुगतान सन्तुलन की हालत खस्ता है। पूँजीपतियों द्वारा क़र्ज़ों की अदायगी न करने की सूरत में बैंकिंग क्षेत्र का संकट भी और बढ़ने वाला ही है। विश्व बाज़ार में उछाल की सम्भावना कम होने की वजह से निर्यात पर टिकी अर्थव्यवस्था के सामने संकट से उबरने की वस्तुगत सीमाएँ हैं। ऐसे में लोगों के जीवन में बेहतरी और उनकी आमदनी बढ़ने की कोई सम्भावना नहीं दिखती है। इस गहराते आर्थिक संकट की अभिव्यक्ति राजनीतिक संकट के गहराने के रूप में सामने आयेगी क्योंकि सत्ता में बने रहने के लिए और जन आक्रोश को कुचलने के लिए शेख़ हसीना की अवामी लीग सरकार का दमनतंत्र ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश होता जायेगा।
ऐसे में अगर इस समय बंगलादेश में कोई क्रान्तिकारी पार्टी होती तो इस चौतरफ़ा संकट के क्रान्तिकारी संकट बनने की दिशा में विकसित होने की सम्भावना का लाभ उठाकर क्रान्ति की दिशा में क़दम बढ़ाती। परन्तु दुनिया के तमाम देशों की ही तरह बंगलादेश में भी क्रान्ति की मनोगत ताक़त यानी क्रान्तिकारी पार्टी की ग़ैर-मौजूदगी की वजह से सम्भावित क्रान्तिकारी परिस्थिति का लाभ उठाया जा सकेगा, इसकी गुंजाइश फिलहाल काफ़ी कम नज़र आती है। बंगलादेश की स्थिति एक बार फिर दिखा रही है कि आज तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’, यानी एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरिका के कम विकसित उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी देश क्रान्तियों के हॉटस्पॉट बने हुए हैं; इन देशों में पूँजीवाद का संकट क्रान्ति की वस्तुगत परिस्थितियाँ तैयार कर रहा है, परन्तु इनको क्रान्ति में तब्दील करने के लिए ज़रूरी मनोगत ताक़तों को तैयार करना आज के दौर के सबसे बड़ी चुनौती और कार्यभार है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024
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