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बढ़ते जन असन्तोष से तिलमिलाये भगवाधारी :विकास का मुखौटा धूल में, नफ़रत से सराबोर ख़ूनी चेहरा सबके सामने

अच्छे दिन लाने और हर साल 2 करोड़ नौकरियाँ पैदा करने के जुमलेबाजी भरे वायदे करके प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर पहुँचे नरेन्द्र मोदी अब अपने फिसड्डीपन का ठीकरा कांग्रेस की पिछली सरकारों पर मढ़कर लोगों का गुस्सा कांग्रेस की ओर मोड़ने की हास्यास्पद कोशिशें कर रहे हैं। प्रति वर्ष 2 करोड़ नौकरियाँ तो दूर मोदी सरकार पिछले 5 सालों से ख़ाली पड़े लगभग 5 लाख पदों को ख़त्म करने की क़वायद में लगी है। वर्तमान सरकार के पौने चार साल के कार्यकाल में लगभग 5 लाख नयी नौकरियाँ ही जोड़ी गयी हैं। नयी नौकरियाँ पैदा करना तो दूर इस सरकार के कार्यकाल में रोज़गार सृजन की दर लगातार गिरती गयी है।

”रामराज्य” में गाय के लिए बढ़ि‍या एम्बुलेंस और जनता के लिए बुनियादी सुविधाओं तक का अकाल!

एक ओर लखनऊ में उपमुख्यमन्त्री केशव प्रसाद मौर्य ने गाय ”माता” के लिए सचल एम्बुलेंस का उद्घाटन किया तो दूसरी ओर राजस्थान सरकार ने अदालत में स्वीकार किया है कि साल 2017 में अक्टूबर तक 15 हज़ार से अधिक नवजात शिशुओं की मौत हो चुकी है। नवम्बर और दिसम्बर के आँकड़े इसमें शामिल नहीं हैं। उनको मिलाकर ये संख्या और बढ़ जायेगी। डेढ़ हज़ार से अधिक नवजात शिशु तो केवल अक्टूबर में मारे गये। सामाजिक कार्यकर्ता चेतन कोठारी को सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार भारत में नवजात बच्चों के मरने का आँकड़ा बड़ा ही भयावह है और इसमें मध्य प्रदेश और यूपी सबसे टॉप पर हैं।

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में अदालत का फ़ैसला संसाधनों की बेहिसाब पूँजीवादी लूट पर पर्दा नहीं डाल सकता

मज़दूर वर्ग के दृष्टिकोण से देखा जाये तो जिसे 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला कहा गया वो दरअसल इस मामले में हुई कुल लूट का एक बेहद छोटा-सा हिस्सा था। इस घोटाले पर मीडिया में ज़ोरशोर से लिखने वाले तमाम प्रगतिशील रुझान वाले पत्रकार और बुद्धिजीवी भी कभी यह सवाल नहीं उठाते कि आख़िर इलेक्ट्रोमैगनेटिक स्पेक्ट्रम जैसे प्राकृतिक संसाधन, जो जनता की सामूहिक सम्पदा है, को किसी भी क़ीमत पर पूँजीपतियों के हवाले क्यों किया जाना चाहिए!

यमन संकट और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया की साज़िशी चुप्पी

यमन में मौजूदा उथलपुथल की तार तो अरब बहार के समय से ही जोड़ी जा सकती है जब यमन में भी ट्यूनिशिया, मिस्र की तरह ही लोग तत्कालीन राष्ट्रपति अली अब्दुल्लाह सालेह के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए थे। यमन अरब के सबसे ग़रीब देशों में से है जहाँ तक़रीबन 40% आबादी ग़रीबी में रहती है। और इसी ग़रीबी, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों को लेकर जनता का गुस्सा लगातार सालेह के ख़िलाफ़ बढ़ रहा था जिसने यमन पर 33 सालों तक (पहले यमन अरब गणतन्त्र के राष्ट्रपति के तौर पर और 1990 में दक्षिणी यमन के साथ एकीकृत होने के बाद पूरे यमन में) बतौर राष्ट्रपति हुक़ूमत की।

नये साल का पहला ही दिन चढ़ा जातिगत तनाव की भेंट जाति-धर्म के नाम पर बँटने की बजाय हमें असली मुद्दे उठाने होंगे

हर जाति के ग़रीबों को ये समझाने की ज़रूरत है कि उनकी बदतर हालत के असल जि़म्मेदार दलित, मुस्लिम या आदिवासी नहीं बल्कि ख़ुद उनकी ही व अन्य जातियों के अमीर हैं। जब तक मेहनतकश अवाम ये नहीं समझेगा तब तक होगा यही कि एक जाति अपना कोई आन्दोलन खड़ा करेगी व उसके विपरीत शासक वर्ग दूसरी जातियों का आन्दोलन खड़ा करके जनता के बीच खाइयों को और मज़बूत करेगा। इस साज़िश को समझने की ज़रूरत है। इस साज़िश का जवाब अस्मितावादी राजनीति और जातिगत गोलबन्दी नहीं है। इसका जवाब वर्ग संघर्ष और वर्गीय गोलबन्दी है। इस साज़िश को बेनक़ाब करना होगा और सभी जातियों के बेरोज़गार, ग़रीब और मेहनतकश तबक़ों को गोलबन्द और संगठित करना होगा।

भीमा कोरेगाँव की लड़ाई के 200 साल का जश्न – जाति अन्त की परियोजना ऐसे अस्मितावाद से आगे नहीं बल्कि पीछे जायेगी!

भारत की जनता को बाँटने के लिए अंग्रेज़ों ने यहाँ की जाति व्यवस्था का भी इस्तेमाल किया था और धर्म का भी। अंग्रेज़ों ने जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए सचेतन तौर पर कुछ ख़ास नहीं किया। ऐसे में कोई अपने आप को जाति अन्त का आन्दोलन कहे (रिपब्लिकन पैन्थर अपने को जाति अन्त का आन्दोलन घोषित करता है) और भीमा कोरेगाँव युद्ध की बरसी मनाने को अपने सबसे बड़े आयोजन में रखे तो स्वाभाविक है कि वह यह मानता है कि अंग्रेज़ जाति अन्त के सिपाही थे! हक़ीक़त हमारे सामने है। ऐसे अस्मितावादी संगठन जाति अन्त की कोई सांगोपांग योजना ना तो दे सकते हैं और ना उस पर दृढ़ता से अमल कर सकते हैं। हताशा-निराशा में हाथ-पैर मारते ये कभी भीमा कोरेगाँव जयन्ती मनाते हैं तो कभी ‘संविधान बचाओ’ जैसे खोखले नारे देते हैं।

न्यायिक व्यवस्था का संकट और फ़ासिस्ट आतंक राज

इस समय जो संकट पैदा हुआ है उसके केन्द्र में जो मामला है वह सीधे अमित शाह और उनके ज़रिए उनके आक़ा नरेन्द्र मोदी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में सत्ता तंत्र एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देगा इसे निपटाने में। असन्तुष्ट जजों की कुछ बातें सुन ली जायेंगी, कुछ ऊपरी ‘’सुधार’’ कर दिये जायेंगे और धीरे-धीरे सब फिर पटरी पर आ जायेगा। कुछ लोग चार जजों को जबरन क्रान्तिकारी बनाये दे रहे हैं, या इस संकट को फ़ासिस्टों के अन्त की शुरुआत घोषित किये दे रहे हैं, उन्हें अन्त में निराशा ही हाथ लगेगी।

नये साल में मज़दूर वर्ग के सामने खड़ा चुनौतियों का पहाड़

अल्पसंख्यकों, मज़दूरों, छोटे-मझौले किसानों के हितों पर हमलों के साथ ही गुज़रे साल महिलाओं, दलितों और आदिवासियों पर होने वाली वहशियाना हिंसा का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। इसके अतिरिक्त मुनाफ़े की बेलगाम हवस में पूँजीवादी तन्त्र ने समाज की रगों के साथ ही साथ आबोहवा में भी ज़हर घोलने का काम तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ाया जिसका नतीजा पिछले साल जाड़े की शुरुआत में अभूतपूर्व सघनता वाले ‘स्मॉग’ के रूप में सामने आया। फ़ासीवाद के दमघोंटू माहौल में इस देश में हर संवेदनशील और न्यायशील इंसान का जीना पहले ही दूभर हो गया था; जाड़े के मौसम में राजधानी व आस-पास के इलाक़ों में रहने वाली आम मेहनतकश आबादी का साँस लेना भी दूभर होता जा रहा है।

कड़कड़ाती ठण्ड और ‘स्मॉग’ के बीच मज़दूर वर्ग का जीवन

नगर निगम मध्यम वर्गीय इलाक़ों का कूड़ा मज़दूर बस्तियों के पास कहीं पाट कर वहाँ की आबोहवा ज़हरीली बनाते हैं और पूँजीपति खुलेआम बिना फ़िल्टर वाली चिमनियों का प्रयोग करते हैं। यह भी इस पूरी व्यवस्था की वर्गीय पक्षधरता ही है कि परिवहन के क्षेत्र में भी हुई अभूतपूर्व तकनीकी प्रगति का इस्तेमाल सार्वजनिक यातायात को बेहतर बनाने की बजाय अमीरों के लिए लग्ज़री कारों को बनाने में किया जाता है।

एनडीए सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में मज़दूर-विरोधी संशोधन के खि़लाफ़ एक हों!

एनडीए सरकार द्वारा ‘मेक इन इण्डिया’, ‘स्किल इण्डिया’, ‘डिजिटल इण्डिया’ और ‘व्यापार की सहूलियत’ जैसे कार्यक्रमों का डंका बजाते हुए श्रम क़ानूनों में संशोधन किये जा रहे हैं। श्रम मन्त्रालय द्वारा 43 श्रम क़ानूनों को 4 बड़े क़ानूनों में समेकित किया जा रहा है। इसी कड़ी में 10 अगस्त 2017 को लोक सभा में ‘कोड ऑफ़ वेजिस बिल, 2017’ पेश किया गया। प्रत्यक्ष रूप से इस बिल का उद्देश्य वेतन सम्बन्धी निम्न चार केन्द्रीय श्रम क़ानूनों के प्रासंगिक प्रावधानों का एकीकरण व सरलीकरण करना है