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दिल्ली आँगनवाड़ी की महिलाओं की हड़ताल जारी है !

केन्द्र में भाजपा की फासीवादी मोदी सरकार तो खुल्ले तौर पर मज़दूरों की विरोधी है ही लेकिन दिल्ली का ये नटवरलाल जो कि छोटे बनिये-व्यापारी का प्रतिनिधित्व करता है किसी भी मायने में मोदी से कम नहीं है! जिन तथाकथित ‘लिबरल जन’ का भरोसा इस नटवरलाल पर है और जो इसे मोदी का विकल्प समझ रहे हैं, उन्हें भी अब अपनी आँखे खोल लेनी चाहिए। सरकार और दलाल यूनियनों की सारी कोशिशों के बावजूद आँगनवाड़ी की महिलाएँ अपनी यूनियन ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ के नेतृत्व में शानदार तरीक़े से अपनी हड़ताल को चला रही हैं और अपनी एकता के दम पर ज़रूर दिल्ली सरकार को झुकायेंगी!

नोएडा में ज़ोहरा के साथ हुई घटना : घरेलू कामगारों के साथ बर्बरता की एक बानगी

यह सब कुछ बताता है कि आज ग़रीब बिखरी हुई आबादी के लिए अपने हक़ों के लिए आवाज़ उठाना कितना मुश्किल हो गया है और जब तक कि वे संगठित नहीं हो जाते हैं, तब तक उनके सामने ये मुश्किलें बनी रहेंगी। साथ ही साथ यह घटना बताती है कि आम मेहनतकशों की एकता को तोड़ने और उनके खि़लाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए फासीवादी ताक़तें बेशर्मी के साथ धर्म का इस्तेमाल करती हैं ताकि असली मुद्दे पर पर्दा डाला जा सके।

गाय के नाम पर ”गौ-रक्षक” गुण्डों के पिछले दो वर्षों के क़ारनामों पर एक नज़र

इन गौ-गुण्डों को सरकारी शह हासिल है। लगभग सारी ही घटनाओं में पुलिस की भूमिका मूकदर्शक वाली बनी हुई है, कहीं-कहीं पुलिस ख़ुद “दोषियों” को गौ-गुण्डों के हवाले कर रही है। यह पूरा काम पुलिस और तथाकथित गौरक्षा  दलों की मिलीभगत से चल रहा है। कई ऐसे वीडियो भी सामने आये हैं, जहाँ पुलिस वाले इन घटनाओं पर हँसते हुए पाये गये हैं। गौ-रक्षकों के लिए यह एक मुनाफ़े वाला धन्धा भी बन रहा है। अख़बारों में छपे लोगों के विभिन्न बयानों से पता चलता है कि कई स्थानों पर गौ-रक्षकों ने पैसे लेकर “दोषियों” को बरी किया है और अगर आप पैसे नहीं दे सकते तो सज़ा के हक़दार तो हो ही। कई जगह ये तथाकथित गौरक्षक ख़ुद ही गाय बेचते पकड़े गये हैं। इसके साथ ही मुसलमानों पर झूठे मुक़द्दमों का दौर भी शुरू हुआ है। गोवंश हत्या और अस्थायी प्रवास अथवा निर्यात नियमन क़ाूनन, 1995 के तहत सिर्फ़ राजस्थान में 73 मुक़द्दमे दर्ज हुए जो बाद में झूठे साबित हुए।

बेहिसाब बढ़ती महँगाई यानी ग़रीबों के ख़िलाफ सरकार का लुटेरा युद्ध

मेहनतकश जनता की मज़दूरी में लगातार आ रही गिरावट के कारण उसकी खरीदने की शक्ति कम होती जा रही है। दिहाड़ी पर काम करने वाली लगभग 50 करोड़ आबादी आज से 10 साल पहले जितना कमाती थी आज भी बमुश्किल उतना ही कमा पाती है जबकि कीमतें दोगुनी-तीन गुनी हो चुकी हैं। इससे ज़्यादा मानवद्रोही बात और क्या हो सकती है कि जिस देश में आज भी करोड़ों बच्चे रोज़ रात को भूखे सोते हैं वहाँ 35 से 40 प्रतिशत अनाज गोदामों और रखरखाव की कमी के कारण सड़ जाता है। एक्सप्रेस-वे, अत्याधुनिक हवाईअड्डों, स्टेडियमों आदि पर लाखों करोड़ रुपये खर्च करने वाली सरकारें आज तक इतने गोदाम नहीं बनवा सकीं कि लोगों का पेट भरने के लिए अनाज को सड़ने से बचाया जा सके।

आधार पर सरकारी ज़बर्दस्ती की वजह क्या है?

भ्रष्टाचार व चोरी को रोकने के नाम पर लाये गये आधार का अपना पूरा ढाँचा ही भ्रष्टाचार पर टिका है। 12 जुलाई के हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार अब तक आधार बनाने वाली साढ़े 6 लाख एजेंसियों में से 34 हज़ार से अधिक को भ्रष्ट और जालसाजीपूर्ण गतिविधियों में लिप्त पाया गया है। इसमें फ़र्ज़ी दस्तावेज़ पर आधार बनाना, पैसा लेकर पता बदलना, आदि शामिल हैं। आधार बनवाने के लिए दिये गये दस्तावेज़ इनके पास ही छोड़ दिये गये हैं, जिनका दुरुपयोग करने में इनके ऊपर कोई रोकथाम नहीं है। इससे भी बढ़कर जो हाथ और आँखों की जैविक जानकारी आधार बनवाने के इन्होंने एकत्र की थी, प्रतिलिपि भी इनके पास ही छोड़ दी गयी है, जिसका इस्तेमाल ये दूसरों के नाम पर कर सकते हैं।

उड़ती हुई अफ़वाहें, सोती हुई जनता!

सरकार और उसके तमाम प्रकार के पिट्ठू जनता को अन्धविश्वासी और कूपमण्डूक बनाये रखना चाहते हैं। लोगों की चेतना हर सम्भव तरीक़े से कुन्द कर देना चाहते हैं। ताकि वे भयंकर रूप से फैलती ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई, बदहाली जैसी ज्वलन्त समस्याओं को भूलकर तमाम प्रकार की बेसिर-पैर की ऊल-जलूल बातों में उलझे रहें।

मुस्लिम आबादी बढ़ने का मिथक

संघ और उसके तमाम अनुषंगी संगठन ऐसे झूठ फैलाकर हिन्दू जनता में मुस्लिमों के प्रति विद्वेष पैदा करने की कोशिश करते हैं। इसके अलावा ऐसे हज़ारों झूठ होते हैं जो रोज़ सोशल मीडिया पर फैलाये जाते हैं। इतने कि सबका जवाब देना सम्भव भी नहीं है। उनकी एक नीति यही है कि हम झूठ बोलते जायेंगे, तुम कितनों का पर्दाफ़ाश करोगे। तुम जब तक एक का पर्दाफ़ाश करोगे, हम 256 और झूठ बोल चुके होंगे। और हमारा झूठ करोड़ों लोगों तक पहुँच चुका होगा।

किसान आंदोलन : कारण और भविष्य की दिशा

सबसे पहले तो हमें इस ग़लत समझ से छुटकारा पाना होगा कि किसान नाम का कोई एकरूप समरस वर्ग है, जिसमें सब किसानों के एक समान आर्थिक हित हैं। 2011 के सामाजिक-आर्थिक सर्वे तथा 2011-12 की कृषि जनगणना के अनुसार गाँवों के कुल 18 करोड़ परिवारों में से 30% खेती, 14% सरकारी/निजी नौकरी व 1.6% ग़ैर कृषि कारोबार पर निर्भर हैं; जबकि बाक़ी 54% श्रमिक हैं। खेती आश्रित 30% (5.41 करोड़) का आगे विश्लेषण करें तो इनमें से 85% छोटे (1 से 2 हेक्टेयर) या सीमान्त (1 हेक्टेयर से कम) वाले किसान हैं। बाक़ी 15% बड़े-मध्यम किसानों के पास कुल ज़मीन का 56% हिस्सा है। ये 85% छोटे-सीमान्त किसान खेती के सहारे कभी भी पर्याप्त जीवन निर्वाह योग्य आमदनी नहीं प्राप्त कर सकते और अर्ध-श्रमिक बन चुके हैं। किसानों के सैम्पल सर्वे 2013 का आँकड़ा भी इसी की पुष्टि करता है कि सिर्फ़ 13% किसान (अर्थात बड़े-मध्यम) ही न्यूनतम समर्थन मूल्य से फ़ायदा उठा पाते हैं।

विश्व स्तर पर सुरक्षा ख़र्च और हथियारों के व्यापार में हैरतअंगेज़ बढ़ोत्तरी

अमेरिका “शान्ति” का दूत बनकर कभी इराक़ के परमाणु हथियारों से विश्व के ख़तरे की बात करता है और कभी सीरिया से, कभी इज़राइल द्वारा फि़लिस्तीन पर हमले करवाता है, कभी अलक़ायदा, फि़दाइन आदि की हिमायत करता है कभी विरोध, विश्व स्तर पर आतंकवाद का हौवा खड़ा करके छोटे-छोटे युद्धों को अंजाम देता है, ड्रोन हमलों के साथ पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, यमन, लीबिया, इराक़, सुमालिया आदि मुल्क़ों में मासूमों का क़त्ल करता है और किसी को भी मार कर आतंकवादी कहकर बात ख़त्म कर देता है। दो मुल्क़ों में आपसी टकरावों या किसी देश के अन्दरूनी टकरावों का फ़ायदा अपने हथियार बेचने के लिए उठाता है जैसे — र्इरान और इराक़, इज़राइल और फि़लिस्तीन, भारत और पाकिस्तान, उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के झगड़े आदि। इसके बिना देशों के अन्दरूनी निजी झगड़ों जैसे – मिस्त्र, यूक्रेन, सीरीया आदि से भी फ़ायदा उठाता है। ये सारी करतूतें अमेरिका अपने हथियार बेचने के लिए अंजाम देता है।

अफ्रीका में ‘आतंकवाद के ख़ि‍लाफ़ युद्ध’ की आड़ में प्राकृतिक ख़ज़ानों को हड़पने की साम्राज्यवादी मुहिम

पूँजीवाद के उभार के दौर में इस महाद्वीप की भोली-भाली मेहनतकश जनता को ग़ुलाम बना कर पशुओं की तरह समुद्री जहाज़ों में लाद कर यूरोप और अमेरिका की मण्डियों में बेचा जाता था। अमेरिकी इतिहासकार एस.के. पैडोवर लिखते हैं कि मशीनरी और क्रेडिट आदि की तरह ही सीधी ग़ुलामी हमारे औद्योगीकरण की धुरी है। ग़ुलामी के बिना आपके पास कपास और कपास के बिना आपका आधुनिक उद्योग नहीं खड़ा हो सकता। ग़ुलामी व्‍यवस्‍था ने ही उपनिवेशों को सम्‍भव बनाया, और उपनिवेशों ने जिन्होंने विश्व व्यापार को जन्म दिया। विश्व व्यापार बड़े स्तर के मशीनी उद्योग की ज़रूरत है। मज़दूर वर्ग के शिक्षक कार्ल मार्क्स ने भी, अफ्रीका की मेहनतकश जनता को ग़ुलाम बनाकर, पूँजीवादी उद्योग में, स्थिर मानवीय पूँजी के तौर पर उपयोग करने का अमानवीय कारनामों का ज़िक्र किया है।