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व्हाट्सअप पर बँटती अफ़ीम

हर बुराई का कारण मुस्लिम हैं, देश में महँगाई , बेरोज़गारी, ग़रीबी का कारण सरकार और कॉर्पोरेट की लूट नहीं बल्कि मुस्लिम हैं, किसान आत्महत्या मुस्लिमों की वजह से कर रहे हैं, भले ही मुस्लिम ख़ुद ही ज़्यादा ग़रीब हैं। एक बार मुस्लिम पाकिस्तान चले जाय तब देखो कैसे देश फिर सोने की चिड़िया बनता है।

अधिक अनाज वाले देश में बच्चे भूख से क्यों मर रहे हैं?

भारत में रोज़ाना 5000 बच्चे भूख और कुपोषण के कारण मर जाते हैं। इसका कारण पूछने पर हुक्मरान इसे ग़रीबों की आबादी या भगवान की करनी पर छोड़ने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनके ये झूठ तर्क के दरबार में एक पल भी नहीं खड़े हो पाते। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़़ भारत में कुल आबादी की ज़रूरतों से ज़्यादा अनाज पैदा हो रहा है और ये अनाज गोदामों में पड़ा-पड़ा सड़ रहा है, तो भुखमरी, कुपोषण जैसी भयानक बीमारियों का कारण भगवान की मर्ज़ी या आबादी नहीं हो सकता। इसके कारण दस्त जैसी बीमारियाँ, जिनके कारण और इलाज कई दशक पहले ही ढूँढ़े जा चुके हैं, वो भी नहीं हैं। इसका कारण यह है कि आज का समाज भी एक वर्गीय समाज है। मतलब कुछ लोग उत्पादन के साधनों पर क़ब्ज़ा किये हुए हैं। बहुसंख्यक आबादी इन साधनों की मुहताज़ है।

भारतीय अर्थव्यवस्था का गहराता संकट और झूठे मुद्दों का बढ़ता शोर

भविष्य के ‘‘अनिष्ट संकेतों’’ को भाँपकर मोदी सरकार अभी से पुलिस तंत्र, अर्द्धसैनिक बलों और गुप्तचर तंत्र को चाक-चौबन्द बनाने पर सबसे अधिक बल दे रही है। मोदी के अच्छे दिनों के वायदे का बैलून जैसे-जैसे पिचककर नीचे उतरता जा रहा है, वैसे-वैसे हिन्दुत्व की राजनीति और साम्प्रदायिक तनाव एवं दंगों का उन्मादी खेल जोर पकड़ता जा रहा है ताकि जन एकजुटता तोड़ी जा सके। अन्‍धराष्ट्रवादी जुनून पैदा करने पर भी पूरा जोर है। पाकिस्तान के साथ सीमित या व्यापक सीमा संघर्ष भी हो सकता है क्योंकि जनाक्रोश से आतंकित दोनों ही देशों के संकटग्रस्त शासक वर्गों को इससे राहत मिलेगी।

बेहिसाब बढ़ती छँटनी और बेरोज़गारी

छँटनी और बेरोज़गारी इस वक़्त पूरे देश की आम मेहनतकश जनता के लिए एक भारी चिन्ता का विषय है। 2014 के चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता नरेन्द्र मोदी ने पिछली सरकार की रोज़गार सृजन न कर पाने के लिए तीव्र आलोचना की थी और इसे अपना मुख्य लक्ष्य बताते हुए प्रति वर्ष करोड़ों नयी नौकरियाँ देने का वादा किया था। लेकिन वस्तुस्थिति इसके ठीक उलट है। 2015-16 के आर्थिक सर्वे में कहा गया कि 2011-12 में बेरोज़गारी 3.8% थी, जो 2015-16 में बढ़कर 5% हो गयी। वैसे यह संख्या और भी ज़्यादा है क्योंकि किसी भी काम में साल के कुछ भी दिन लगे व्यक्तियों को इसमें बेरोज़गार नहीं गिना जाता।

ख़ूबसूरत चमड़ी का बदसूरत धन्धा

औरतों के साथ होते इस अमानवीय व्यवहार की अनेकों घटनाएँ हमारे सामने होती रहती हैं। अब ये तथ्य सामने आये हैं कि अमीरों की सुन्दरता बढ़ाने के लिए नेपाल के गाँवों में से ग़रीब परिवारों की लड़कियों को एजेण्ट ख़रीदकर भारत ले आते हैं, जहाँ उनको बेहोश करके उनके शरीर के कुछ हिस्सों की चमड़ी उतार ली जाती है। इसके बदले उन्हें महज़ दस से पन्द्रह हज़ार रुपये दिये जाते हैं और आगे यह चमड़ी बहुत ऊँची क़ीमतों पर बेची जाती है। चमड़ी उतारने के बाद इन लड़कियों को मुम्बई, कलकत्ता और दिल्ली जैसे महानगरों में देह-व्यापार के धन्धे में धकेल दिया जाता है। जहाँ सोलह-सोलह, सत्रह-सत्रह वर्ष की इन नन्हीं कलियों के सारे अरमान एक-एक करके टूट जाते हैं। जब उन्हें कागज़ के टुकड़े के बदले वहशी दरिन्दों के आगे फेंक दिया जाता है, जिनका कसूर सिर्फ़ इतना ही होता है कि उनके ग़रीब माँ-बाप ने उन्हें इस धरती पर जन्म दिया।

‘पूँजी’ के साहित्यिक मूल्य के बारे में

‘पूँजी’ में मार्क्स अपने को ललित साहित्य का श्रेष्ठ सर्जक सिद्ध करते हैं। रचना, संतुलन और प्रतिपादन के यथातथ्य तर्क की दृष्टि से यह एक “कलात्मक समष्टि” है। शैली और साहित्यिक मूल्य की दृष्टि से भी यह एक श्रेष्ठ कृति है जो गहन सौंदर्यबोधी आनंद की अनुभूति देती है। व्यंग्य और परिहास की जो विरल प्रतिभा मार्क्स के ‘पोलेमिकल’ और अखबारी लेखों में अपनी छटा बिखेरती थी, वह ‘पूँजी’ में और उभरकर सामने आई। मूल्य के रूपों, माल-अंधपूजा और पूंजीवादी संचय के सार्विक नियम को स्पृहणीय स्पष्टता और जीवन्तता के साथ विश्लेषित और प्रतिपादित करते हुए मार्क्स ने अपने अनूठे व्यंग्य और परिहास से विषय को बेहद मज़ेदार बना दिया।

बैंक कानून में संशोधन अध्यादेश : हज़ारों करोड़ कर्ज़ लेकर डकार जाने वालों की भरपाई का बोझ उठाने के लिए जनता तैयार रहे

2001-02 के समय में जो आर्थिक संकट का दौर था उसमें पूँजीवादी देशों के केन्द्रीय बैंकों द्वारा ब्याज़ दरों को कम कर पूँजीपतियों को राहत देने की नीति अपनायी गयी थी जिसे सस्ती मुद्रा नीति भी कहा जाता है। इससे जो सस्ता धन क़र्ज़ के रूप में उपलब्ध हुआ उससे ज़मीन-मकान और शेयर-बाण्ड्स जैसी वित्तीय सम्पत्तियों के दामों में भारी वृद्धि द्वारा एक नक़ली सम्पन्नता का माहौल बनाया गया जिससे कुछ समय तक बाज़ार में माँग बढ़ी ख़ास तौर पर किश्तों पर ख़रीदारी द्वारा। पूँजीपतियों को भी ख़ूब सस्ता क़र्ज़ निवेश के लिए मिला और उन्होंने उत्पादक क्षमता में निवेश भी किया। लेकिन कुछ साल बाद ही इससे पैदा हुए तीव्र आर्थिक संकट ने इस माँग को चौपट कर दिया। अभी रिज़र्व बैंक के अनुसार भारतीय उद्योग स्थापित क्षमता के 68-70% पर ही काम कर पा रहे हैं। इसलिए कुछ उद्योगों का दिवालिया होना इसका स्वाभाविक नतीजा है। यही बैंकों के क़र्ज़ों को संकट में डाल रहा है।

श्रम क़ानूनों में ”सुधार” के नाम पर सौ साल के संघर्षों से हासिल अधिकार छीनने की तैयारी में है सरकार

सुधार से उनका सबसे पहला मतलब होता है कि मज़दूरों को और अच्छी तरह निचोड़ने के रास्ते में बची-खुशी बन्दिशों को भी हटा दिया जाये। मोदी सरकार इस माँग को पूरा करने में जी-जान से जुटी हुई है।
श्रम मंत्रालय संसद में छह विधेयक पारित कराने की को‍शिश में है। इनमें चार विधेयक हैं – बाल मज़दूरी (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक, बोनस भुगतान (संशोधन) विधेयक, छोटे कारखाने (रोज़गार के विनियमन एवं सेवा शर्तें) विधेयक और कर्मचारी भविष्यनिधि एवं विविध प्रावधान विधेयक। इसके अलावा, 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनाने का काम जारी है, जिनमें से दो – मज़दूरी पर श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता – पहले पेश की जा चुकी हैं और तीसरी – सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता – का मसौदा पिछले मार्च में जारी किया गया। कहने के लिए श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मकसद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।

क्या छँटनी/बेरोज़गारी की वज़ह ऑटोमेशन है?

19वीं सदी से शुरू हुए श्रमिक संघर्षों ने 8 घंटे काम, 8 घंटे आराम, 8 घंटे मनोरंजन के सिद्धांत को स्थापित किया था। लेकिन आज भी स्थिति है कि अधिकांश कामगार इससे बहुत ज़्यादा, 12-14 घंटे तक भी काम करने के लिए मजबूर हैं; खुद को मज़दूर न मानने वाले सफ़ेद कॉलर वाले बैंक, आईटी, प्रबंधन, आदि वाले तो सबसे ज्यादा! फिर श्रमिक फालतू कैसे हो गए, जैसा कि कहा जा रहा है कि आगे काम ही नहीं रहेगा?

इलाज कराने वाली कम्पनियों का कौन करेगा इलाज?

कुछ दिन पहले जब भारत सरकार ने दवाओं की क़ीमतों पर नियन्त्रण लागू करने वाला बयान जारी किया तो आम जन में ऐसी धारणा पैदा हुई है कि शायद अबकी बार सचमुच में दवाओं के दाम कम हो जायेंगे। ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि सरकार की बनायी हुई एक प्रमुख संस्था ‘नीति आयोग’ और कई दूसरे सरकारी मन्त्रालय और विभाग दवा कम्पनियों के साथ मिलकर दवाओं के दामों को नियन्त्रण मुक्त रखने की ज़ोरदार मुहिम चला रहे हैं। इस मुहिम में परिवार एवं कल्याण मन्त्रालय, खाद एवं रसायन मन्त्रालय, व्यापार एवं उद्योग मन्त्रालय तथा डिपार्टमेण्ट ऑफ़ फ़ार्मास्यूटिकल आदि सक्रिय हैं। ऐसे हालात में यह आसानी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि सरकार की दवाओं की क़ीमतों के नियन्त्रण सम्बन्धी घोषणा का क्या होने वाला है।