मोदी सरकार के चार साल : अच्छे दिनों का सपना दिखाकर लूट-खसोट के नये कीर्तिमान
नफ़रत की ख़ूनी चादर से नाकामियों को ढँकने की नाकाम कोशिश
संपादक मंडल
चार साल पहले 16 मई को लम्बे-चौड़े वादों के साथ भारी बहुमत से चुनकर आयी मोदी सरकार अपने किसी भी चुनावी वायदे को पूरा करने में नाकाम हो चुकी है। बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई, अपराध और असुरक्षा से बदहाल जनता का असन्तोष बढ़ता जा रहा है। केन्द्र और राज्यों की भाजपा सरकारें मज़दूरों के रहे-सहे क़ानूनी अधिकार भी ख़त्म करने के लिए तेज़ी से क़दम बढ़ा रही हैं। मन्दी और महँगाई की मार झेल रहे मज़दूरों में ग़ुस्सा उबल रहा है, बेरोज़गारी से तबाह नौजवान आये दिन सड़कों पर सत्ता से टकरा रहे हैं, ग़रीब किसान मर रहे हैं और दलितों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों पर बर्बर अत्याचारों ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। ज़्यादातर इलेक्ट्रॉनिक चैनलों और अख़बारों पर चन्द बड़े पूँजीपति घरानों का क़ब्ज़ा है और इस बिके हुए मीडिया द्वारा ढँकने-छुपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद हर दिन नये-नये घपले-घोटाले सामने आने से भाजपा के फ़र्ज़ी सदाचार की धोती और भी नीचे खिसकती जा रही है। नैतिकता और शुचिता की दुहाई देने वाले इन फ़ासिस्टों की असलियत तब और भी नंगी हो गयी, जब पूरे देश ने देखा कि उन्नाव से लेकर जम्मू तक ये निहायत बेशर्मी के साथ बलात्कारियों के पक्ष में खड़े नज़र आये। और तो और, इन फ़र्ज़ी देशभक्तों को मासूम बच्ची के हत्यारों-बलात्कारियों को बचाने के लिए तिरंगा लेकर जुलूस निकालने में भी शर्म नहीं आयी।
मोदी सरकार के चार साल के कार्यकाल की उपलब्धि यही रही है कि एक ओर तो देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियों को इस देश की दौलत को दोनों हाथों से लूटने की छूट दी गयी है, दूसरी ओर मज़दूरों-कर्मचारियों के बचे-खुचे अधिकारों को भी छीनकर उन्हें पूरी तरह से थैलीशाहों के ख़ूनी पंजों के हवाले कर देने के इन्तज़ाम किये जा रहे हैं। ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंकों में हम आपको ऐसे तमाम मज़दूर-विरोधी क़दमों के बारे में बताते रहे हैं। चुनाव में मोदी ने हर साल दो करोड़ युवाओं को रोज़गार देने का वादा किया था, लेकिन चार साल बीतने के बाद सरकारी आँकड़ों से अनुसार रोज़गार बढ़ने की बजाय और कम हो गये हैं। हर खाते में 15 लाख देश का सबसे लोकप्रिय चुटकुला बन चुका है। ‘न खाऊँगा न खाने दूँगा’ के दावे करने वाले चौकीदार की नाक के नीचे से सरकारी बैंकों के लाखों करोड़ रुपये गबन करके कई बड़े उद्योगपति फ़रार हो गये और चौकीदार लोगों को भरमाने के लिए ज़मीन पर लट्ठ पटक रहा है। वित्त मन्त्रालय और प्रधानमन्त्री कार्यालय में अनेक शिकायतों के बावजूद बैंक घोटाले होते रहे।
अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की हाल की रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में रोज़गार के अवसर लगातार घटे हैं और जो अस्थायी रोजगार हैं, वहाँ कामगारों की स्थिति दयनीय है और अगले एक वर्ष तक भी यही स्थिति बनी रहेगी। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के कामगार अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं और वे बड़ी मुश्किल से इतनी कमाई कर पा रहे हैं कि परिवार का ख़र्चा चला सकें। रोज़गार छूटने की हालत में उन्हें तमाम तरह के दबावों और अभावों का सामना करना पड़ रहा है। यह पहली सरकार है जिसने अपने सभी लक्ष्य 2022 के लिए निर्धारित किये हैं, ताकि 2019 के लोकसभा चुनावों में उनके पूरे न होने पर कोई सवाल ही नहीं उठाये। पेट्रोल और डीजल की क़ीमतें अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में जब लगातार कम हो रही थीं तो मोदी सरकार सेण्ट्रल एक्साइज़ ड्यूटी लगातार बढ़ाकर सरकारी ख़ज़ाना भरने में जुटी हुई थी। अब जब कच्चे तेल की क़ीमतें बढ़ रही हैं और पेट्रोल-डीज़ल के दाम आसमान छू रहे हैं, तब उस पर क़रीब 8 रुपये प्रति लीटर रोड एण्ड इन्फ्रास्ट्रक्चर सेस और ठोक दिया गया है।
मोदी सरकार और उसका मालिक संघ परिवार अब पूरी नंगई और बेशर्मी के साथ फिर अपने असली खेल, यानी नफ़रत की खेती करने में जुट गये हैं ताकि आने वाले चुनावों में वोटों की फ़सल काटी जा सके। इस खेती को जनता के ख़ून से सींचने में कोई कमी न रह जाये इसलिए जगह-जगह संघी संगठनों के प्रशिक्षण शिविर लगाकर हिन्दू युवकों और बच्चों को मारकाट मचाने की ट्रेनिंग भी दी जा रही है। रोज़गार देने, महँगाई कम करने, अपराध रोकने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने जैसे सारे दावों के हवा हो जाने के बाद उनके पास अब कोई चारा भी नहीं है कि समय से पहले ही अपना नक़ली सदाचारी दुपट्टा उतार फेंकें और सीधे-सीधे हिंसा और घृणा का घिनौना खेल शुरू कर दें। कर्नाटक चुनाव के पहले इसके कई उदाहरण हम देख चुके हैं। मध्यप्रदेश में होने वाले चुनाव के पहले वहाँ फैलायी जा रही नफ़रत की आग एक निर्दोष मुसलमान को निगल चुकी है, जिसे गोकशी की अफ़वाह उड़ाकर मार दिया गया।
वैसे तो 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही समाज को बाँटने और इतिहास के पहिये को उल्टा घुमाने का चक्कर शुरू हो गया था। लेकिन इन चार सालों में मोदी के मुखौटे के एकदम नंगा हो जाने और सरकार के विरुद्ध चौतरफ़ा असन्तोष बढ़ते जाने के कारण अब ये काम बिल्कुल नंगई से किया जा रहा है। अगर ये अपने इरादे में कामयाब रहे, तो 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले इसी मॉडल को चारों तरफ़ लागू करके पूरे देश को ख़ून के दलदल में तब्दील करने की पूरी कोशिश करेंगे। इसलिए सावधान रहने, एकजुट रहने और लोगों के बीच इनके गन्दे इरादों का पर्दाफ़ाश करने की ज़रूरत है।
फासीवाद वास्तव में सड़ता हुआ पूँजीवाद होता है। पूँजीवाद के आर्थिक संकट के गहराने के साथ ही पूरी दुनिया में फासिस्ट ताक़तें सर उठा रही हैं। क्योंकि संकट में फँसे पूँजीवाद के लिए अपने को बचाने का एक ही तरीक़ा होता है, और वह है जनता को और भी कसकर निचोड़कर अपने मुनाफ़े को बनाये रखना। इसके लिए उसे ऐसे आन्दोलन की ज़रूरत होती है जो सत्ता में बैठकर डण्डे के ज़ोर पर मेहनतकशों की हड्डियाँ पूरी ताक़त से निचोड़े और दूसरी तरफ़ समाज में आपसी नफ़रत फैलाकर लोगों को इस क़दर बाँट दे कि वे अपनी तबाही-बर्बादी के बारे में न सोच पायें और न ही इसके विरुद्ध लड़ पायें। भारत में भी यही हो रहा है। मोदी की स्टार्टअप, स्टैण्डअप, मेक इन इण्डिया जैसी तमाम योजनाओं और सैकड़ों करोड़ रुपये उड़ाकर विदेशों के अन्धाधुन्ध दौरों के बावजूद अर्थव्यवस्था बिल्कुल ठप है। रोज़गार पैदा नहीं हो रहा है क्योंकि पहले से लगे हुए कारख़ाने ही पूरी क्षमता पर नहीं चल रहे हैं, नये लगने का सवाल ही नहीं। सरकारी नौकरियों में कि़स्तों में और गुपचुप कटौती तो लगातार जारी थी, अब यह ऐलान हो गया है कि एक झटके में केन्द्र सरकार के साढ़े चार लाख पद ख़त्म कर दिये जायेंगे। मज़दूरी बढ़ नहीं रही, पर महँगाई बेहिसाब बढ़ती जा रही है। मनरेगा से लेकर तमाम कल्याणकारी योजनाओं में कटौती करके पूँजीपतियों को भारी छूटें और तोहफ़े दिये जा रहे हैं; शिक्षा, स्वास्थ्य, मकान सब आम लोगों की पहुँच से दूर होते जा रहे हैं। मज़दूर, किसान, कर्मचारी, छात्र, नौजवान, दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, महिलाएँ – सब तंगहाल हैं और आवाज़ उठाने पर पीटे जा रहे हैं, दमन के शिकार बनाये जा रहे हैं।
मौजूदा हालात पहले से बहुत बदल गये हैं। आज हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थियों की ताक़त बहुत अधिक बढ़ चुकी है। इन्होंने बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यकों के खि़लाफ़ नफ़रत का वातावरण बना दिया है। गौहत्या, धर्म परिवर्तन, लव जिहाद, हिन्दू धर्म की रक्षा आदि तमाम तरह के झूठे नारे उछालकर अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुसलमानों और ईसाइयों को निशाना बनाया जा रहा है। दलितों पर दमन बहुत बढ़ गया है। साम्प्रदायिक फासीवाद के खि़लाफ़ आवाज़ उठाने वालों साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को जान से मारने की धमकियाँ दी जा रही हैं, कई की हत्याएँ हो चुकी हैं।
लुटेरे पूँजीपति वर्ग की सेवा में हिटलर-मुसोिलनी की तर्ज़ पर भारत में फासीवादी सत्ता क़ायम करके जनता के सारे जनवादी अधिकार छीनने का सपना देखने वाली आरएसएस की सदस्यता पिछले पाँच सालों में तेज़ी से बढ़ी है। अगस्त 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले पाँच सालों में इसकी देश के कोने-कोने में लगने वाली शाखाओं की संख्या में 61 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। देश में रोज़ाना इसकी 51335 शाखाएँ लगती हैं। आरएसएस से सम्बन्धित क़रीब 40 संगठनों का आधार तेज़ी से बढ़ा है। मोदी सरकार बनने के बाद संघ परिवार के फैलाव में और भी तेज़ी आयी है और सेना, पुलिस, नौकरशाही से लेकर न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी राज्य तन्त्र की संस्थाओं में, शिक्षण संस्थाओं आदि में इनकी घुसपैठ बहुत बढ़ गयी है।
संघ परिवार की इस बढ़ी ताक़त के साथ ही साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में भी तेज़ वृद्धि हुई है। संघ परिवार ही नहीं बल्कि इसे सीधे या परोक्ष ढंग से जुड़े अनेक हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थी संगठन साम्प्रदायिक नफ़रत फैला रहे हैं और हिंसा की घटनाओं को अंजाम दे रहै हैं। विभिन्न पार्टियों की सरकारें व पुलिस प्रशासन भी इनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की बजाय इनका साथ देते हैं। भाजपा की केन्द्र व राज्य सरकारें हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थियों को हवा दे रही हैं। पिछले चार वर्ष में बर्बर साम्प्रदायिक हिंसा के ज़्यादातर मामले में दोषियों को सज़ा नहीं हुई, उल्टे उन्हें बचाने की कोशिश की गयी। विभिन्न केन्द्रीय मन्त्रियों, मुख्यमन्त्रियों, सांसदों, विधायकों व अन्य नेताओं द्वारा मुसलमानों के ख़िलाफ़ भड़काऊ बयान लगातार आते रहे, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। ऐसी घटनाओं पर नरेन्द्र मोदी की चुप्पी और कभी-कभी दिये जाने वाले गोल-मोल बयानों से हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थियों को स्पष्ट सन्देश जाता है कि वे अपने काले कारनामों में ज़ोर-शोर से लगे रहें, उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का सरकार का कोई इरादा नहीं है।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि देश में इस समय जो लोग देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति के ठेकेदार बने हुए हैं, ये वही लोग हैं जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में कोई हिस्सा नहीं लिया था! ये वही लोग हैं जिन्होंने अमर शहीद भगतसिंह और उन जैसे तमाम अनेक आज़ादी के मतवालों के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों के लिए मुख़बिरी की थी! सत्ताधारी पार्टी और संघ परिवार के ये लोग आज देश को धर्म और जाति के नाम पर तोड़ रहे हैं और साम्प्रदायिकता की लहर पर सवार होकर सत्ता में पहुँच गये हैं। इन्होंने देशभक्ति को सरकार-भक्ति से जोड़ दिया है। जो भी सरकार से अलग सोचता है, उसकी नीति की आलोचना करता है, हक़ के लिए आवाज़ उठाता है उसे तुरन्त देशद्रोही और राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाता है। अम्बानी और अदानी के टुकड़ों पर पलने वाला कारपोरेट मीडिया भी इन तथाकथित देशभक्तों के सुर में सुर मिलाता है और अपने स्टूडियो में ही मुकदमा चलाकर फै़सला सुना डालता है!
नक़ली देशभक्ति के इस गुबार में आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी के ज़रूरी मुद्दों को ढँक देने की कोशिश की जा रही है। दाल, सब्ज़ी, दवाएँ, शिक्षा, तेल, गैस, किराया-भाड़ा, हर चीज़ की क़ीमतें आसमान छू रही हैं और ग़रीबों तथा निम्न मध्यवर्ग के लोगों का जीना मुहाल हो गया है। ‘विकास’ के लम्बे-चौड़े दावों में से कोई भी पूरा होना तो दूर की बात है, पिछले चार साल में खाने-पीने, दवा-इलाज और शिक्षा जैसी बुनियादी चीज़ों में बेतहाशा महँगाई, मनरेगा और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में भारी कटौती से आम लोग बुरी तरह तंग हैं। दूसरी ओर, अम्बानी, अदानी, बिड़ला, टाटा जैसे अपने आकाओं को मोदी सरकार एक के बाद एक तोहफे़ दे रही है! तमाम करों से छूट, लगभग मुफ़्त बिजली, पानी, ज़मीन, ब्याज़रहित क़र्ज़ और मज़दूरों को मनमाफि़क ढंग से लूटने की छूट दी जा रही है। देश की प्राकृतिक सम्पदा और जनता के पैसे से खड़े किये सार्वजनिक उद्योगों को औने-पौने दामों पर उन्हें सौंपा जा रहा है। ‘स्वदेशी’, ‘देशभक्ति’, ‘राष्ट्रवाद’ का ढोल बजाते हुए सत्ता में आये मोदी ने अपनी सरकार बनने के साथ ही बीमा, रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों समेत तमाम क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को इजाज़त दे दी है। ‘मेक इन इण्डिया’ के सारे शोर-शराबे का अर्थ यही है कि ‘आओ दुनिया भर के मालिको, पूँजीपतियो और व्यापारियो! हमारे देश के सस्ते श्रम और प्राकृतिक संसाधनों को बेरोक-टोक जमकर लूटो!’
अगर हम आज ही हिटलर के इन अनुयायियों की असलियत नहीं पहचानते और इनके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते तो कल बहुत देर हो जायेगी। हर ज़ुबान पर ताला लग जायेगा। देश में महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी का जो आलम है, ज़ाहिर है हममें से हर उस इंसान को कल अपने हक़ की आवाज़ उठानी पड़ेगी जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुआ है। ऐसे में हर किसी को ये सरकार और उसके संरक्षण में काम करने वाली गुण्डावाहिनियाँ ”देशद्रोही” घोषित कर देंगी! हमें इनकी असलियत को जनता के सामने नंगा करना होगा। शहरों की कॉलोनियों, बस्तियों से लेकर कैम्पसों और शैक्षणिक संस्थानों में हमें इन्हें बेनक़ाब करना होगा। गाँव-गाँव, क़स्बे-क़स्बे में इनकी पोल खोलनी होगी।
फासिस्टों के विरुद्ध धुआँधार प्रचार और इस संघर्ष में मेहनतकश जनता के नौजवानों की भर्ती के साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि फासिस्ट शक्तियों ने आज राज्यसत्ता पर क़ब्ज़ा करने के साथ ही, समाज में विभिन्न रूपों में अपनी पैठ बना रखी है। इनसे मुकाबले के लिए हमें वैकल्पिक शिक्षा, प्रचार और संस्कृति का अपना तन्त्र विकसित करना होगा, मज़दूर वर्ग को राजनीतिक स्तर पर शिक्षित-संगठित करना होगा और मध्य वर्ग के रैडिकल तत्वों को उनके साथ खड़ा करना होगा। संगठित क्रान्तिकारी कैडर शक्ति की मदद से हमें भी अपनी खन्दकें खोदकर और बंकर बनाकर पूँजी और श्रम की ताक़तों के बीच मोर्चा बाँधकर चलने वाले लम्बे वर्गयुद्ध में पूँजी के भाड़े के गुण्डे फासिस्टों से मोर्चा लेना होगा।
मज़दूर बिगुल, मई 2018
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