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गटर साफ़ करने के दौरान सफ़ाईकर्मियों की मौतों का जि़म्मेदार कौन?

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 1,80,657 परिवार ऐसे हैं जो गटर की सफ़ाई या मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं और इसी गणना में यह भी पाया गया कि क़रीब 7,94,000 लोग इस काम में लगे हुए हैं। अब इन आँकड़ों को वास्तविकता से कितना कम करके आँका गया है, उसका अनुमान इस बात से लग जाता है कि भारतीय रेलवे जो सफ़ाईकर्मियों का सबसे बड़ा नियोक्ता है, ख़ुद़ इस सेक्टर में लगे सफ़ाईकर्मियों की संख्या को क़ानूनी जामे में छिपा देता है। ग़ौरतलब बात यह है कि रेलवे इन सफ़ाईकर्मियों की नियुक्ति “मैला ढोने वाली श्रेणी में नहीं” बल्कि “क्लीनर” की श्रेणी के तहत करता है या फिर इस काम को ठेके पर दे देता है।

“संस्कारी देशभक्तों” के कुसंस्कारी शोहदे – सत्ता की शह पर बेख़ौफ़ गुण्डे!

”बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” वाली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने बेटे को बेटियों के बारे में कैसे संस्कार दिये हैं, इस घटना से सहज ही समझा जा सकता है व साथ ही पानी की तरह साफ़ केस में सत्ता पक्ष के लोग तरह-तरह की दलीलें देकर आरोपी को बचाने की हरसम्भव कोशिश कर रहे हैं और पूरे घटनाक्रम को देखते हुए सरकारी दबाव के चलते पुलिस की मिलीभगत भी अब किसी से छिपी नहीं है। हालाँकि बाद में देश-भर में चण्डीगढ़ पुलिस के इस ग़ैर-जि़म्मेदाराना व सत्तापरस्त रवैये के खि़लाफ़ उठी विरोध की आवाज़ों ने पुलिस को फिर से धाराएँ लगाकर दोनों को गिरफ़्तार करने पर मज़बूर कर दिया।

अर्थव्यवस्था में सुधार के हवाई दावों की हक़ीक़त

11 अगस्त को ही सरकार ने अर्धवार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण जारी किया जिसकी मुख्य बात थी कि अर्थव्यवस्था पर संकुचन या डिफ़्लेशन का दबाव है और जीडीपी में वृद्धि दर सरकारी अनुमान से कम रहने की सम्भावना है। इस संकुचन का अर्थ है कम माँग के चलते दाम न बढ़ा पाने की मज़बूरी से मुद्रास्फीति या महँगाई का नहीं बढ़ना। और विस्तार में जायें तो रिज़र्व बैंक और सरकार दोनों का विश्लेषण कहता है कि महँगाई की दर कम रहने की वजह एक तो कृषि उत्पादों के दामों में कमी है; दूसरे, माँग की कमी से अन्य उत्पादक दाम बढ़ाने में असमर्थ हैं, इसलिए महँगाई की दर 4% के नीचे आ गयी है।

गोरखपुर में मासूमों की मौत – अब भी चेत जाओ वरना हत्यारों-लुटेरों का यह गिरोह पूरे समाज की ऑक्सीजन बन्द कर देगा!

इस वर्ष के बजट में चिकित्सा शिक्षा का आवंटन घटाकर आधा कर दिया गया है। जान लें कि बीआरडी मेडिकल कॉलेज और अन्य सरकारी कॉलेजों को इसी मद में पैसे मिलते हैं। ऐसे 14 मेडिकल कॉलेजों और उनके साथ जुड़े टीचिंग अस्पतालों का बजट पिछले वर्ष के 2344 करोड़ से घटाकर इस वर्ष 1148 करोड़ कर दिया गया है। बीआरडी मेडिकल कॉलेज का आवंटन पिछले वर्ष 15.9 करोड़ से घटकर इस वर्ष केवल 7.8 करोड़ रह गया है। इतना ही नहीं, मशीनों और उपकरणों के लिए इसे मिलने वाली राशि पिछले वर्ष 3 करोड़ से घटाकर इस वर्ष केवल 75 लाख कर दी गयी है।

‘आज़ादी कूच’ : एक सम्भावना-सम्पन्न आन्दोलन के अन्तरविरोध और भविष्य का प्रश्न

हम एक बार यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि हमारी इस कॉमरेडाना आलोचना का मकसद है इस आन्दोलन के सक्षम और युवा नेतृत्व के समक्ष कुछ ज़रूरी सवालों को उठाना जिनका जवाब भविष्य में इसे देना होगा। आज समूचा जाति-उन्मूलन आन्दोलन और साथ ही हम जैसे क्रान्तिकारी संगठन व व्यक्ति जिग्नेश मेवानी की अगुवाई में चल रहे इस आन्दोलन को उम्मीद, अधीरता और अकुलाहट के साथ देख रहे हैं। किसी भी किस्म का विचारधारात्मक समझौता, वैचारिक स्पष्टवादिता की कमी और विचारधारा और विज्ञान की कीमत पर रणकौशल और कूटनीति करने की हमेशा भारी कीमत चुकानी पड़ती है, चाहे इसका नतीजा तत्काल सामने न आये, तो भी।

भारत में सूचना तकनीक (आईटी) क्षेत्र के लाखों कर्मचारियों पर लटकी छँटनी की तलवार

मौजूदा हालात ये हैं कि आईआईटी जैसी संस्थाओं में से इस वर्ष 66 फ़ीसदी विद्यार्थी ही कैम्पस प्लेसमेण्ट के दौरान रोज़गार हासिल कर पाये। इंजीनियरिंग करने के बाद हालत यह है कि बड़ी संख्या में नौजवान गले में डिगरी लटकाकर नौकरी के लिए धक्के खा रहे हैं। जो रोज़गार हासिल करने में क़ामयाब हो भी जाते हैं, वे भी छोटी-छोटी कम्पनियों में 10 से 15 हज़ार तक वेतन पर लगातार छँटनी के डर से काम कर रहे हैं। आईटी क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में रोज़गार हासिल करना मध्यवर्ग का सपना रहा है। क़र्ज़ लेकर या अपनी जि़न्दगी की पूरी कमाई लगा कर मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों पर निवेश करता है। लेकिन अब यह सपना लगातार टूट रहा है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 – जनता के लिए बची-खुची स्वास्थ्य सुविधाओं को भी बाज़ार के मगरमच्छों के हवाले कर देने का दस्तावेज़

इस नयी स्वास्थ्य नीति का सबसे घटिया पहलू निजी क्षेत्र के लिए राह साफ़ करना है। भारत में पहले ही स्वास्थ्य के कुल क्षेत्र में से 70% के क़रीब हिस्से पर निजी क्षेत्र का क़ब्ज़ा है जिनमें अपोलो, फ़ोर्टिस, मेदान्ता, टाटा जैसे बड़े कारपोरेट अस्पतालों से लेकर क़स्बों तक में खुले निजी नर्सिंग होम शामिल हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में कारपोरेट अस्पतालों का रिकाॅर्ड-तोड़ फैलाव हुआ है, इन्होंने एक हद तक निजी नर्सिंग होमों को भी निगल लिया है। इसके साथ ही बची-खुची सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के अन्दर भी निजी क्षेत्र की घुसपैठ बढ़ी है। ज़िला-स्तरीय अस्पताल, मेडिकल कॉलेज और बड़े मेडिकल संस्थानों में प्राइवेट-पब्लिक-पार्टनरशिप के नाम पर बहुत सारी सुविधाएँ निजी हाथों में सौंपी जा चुकी हैं, या सौंपने की तैयारी है।

यूनियन बनाने की कोशिश और माँगें उठाने पर ठेका श्रमिकों को कम्पनी ने निकाला, संघर्ष जारी

केन्द्र में भाजपा की फासीवादी मोदी सरकार तो खुल्ले तौर पर मज़दूरों की विरोधी है ही लेकिन दिल्ली का ये नटवरलाल जो कि छोटे बनिये-व्यापारी का प्रतिनिधित्व करता है किसी भी मायने में मोदी से कम नहीं है! जिन तथाकथित ‘लिबरल जन’ का भरोसा इस नटवरलाल पर है और जो इसे मोदी का विकल्प समझ रहे हैं, उन्हें भी अब अपनी आँखे खोल लेनी चाहिए।

ऑटोमैक्स में तालाबंदी के ख़ि‍लाफ़ आन्दोलन

इस चीज की चर्चा करना भी जरूरी है कि इस कम्पनी में  पिछले 20-25 सालों में 30-40 श्रमि‍कों के हाथ कटे हैं और किसी का हाथ, बाजू, अंगूठा और कुछ श्रमिकों का तो एक बार ज़्यादा कटा है और कई श्रमिकों के तो पैर कटे हैं। आज तक किसी को कोई उचित मुआवजा नहीं मिला।

जीएसटी : कॉरपोरेट पे करम, जनता पे सितम का एक और औज़ार

इस समाज में कोई भी नीति ऐसी नहीं हो सकती जो सब वर्गों के लिए समान हितकारी हो और हर नीति का विश्लेषण इस आधार पर होना चाहिए कि इसका फ़ायदा किस तबक़े को होगा, नुक़सान किस तबक़े को। ऐसे वर्ग विभाजित, ग़ैर-बराबरी और शोषण पर आधारित समाज में प्रत्येक नीति का विभिन्न वर्गों की जि़न्दगी पर असर समझे बग़ैर की गयी कोई भी चर्चा निरर्थक या गुमराह करने वाली है। इस दृष्टिकोण से इसके कुछ अहम बिन्दुओं की चर्चा ज़रूरी है।