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बढ़ते असन्तोष से बौखलाये मोदी सरकार और संघ परिवार

अब ये साफ़ हो गया है कि 2019 के चुनाव तक मोदी सरकार और संघ परिवार देशभर में साम्‍प्रदायिक तनाव बढ़ाने, धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण को तेज़ करने और हर तरह के विरोधियों को कुचलने के लिए किसी भी हद तक जाने से गुरेज़ नहीं करेंगे। अगले आम चुनाव में अब एक वर्ष से भी कम समय बचा है और जनता के बढ़ते असन्‍तोष से भारतीय जनता पार्टी और उसके भगवा गिरोह की नींद हराम होती जा रही है। कई उपचनुावों और कर्नाटक में हार तथा जगह-जगह सरकार-विरोधी आन्‍दोलनों से उन्‍हें जनता के ग़ुस्‍से का अन्‍दाज़ा बख़ूबी हो रहा है।

कॉमरेड अरविन्द के स्मृतिदिवस के अवसर पर : भारतीय मज़दूर वर्ग की पहली राजनीतिक हड़ताल – एक प्रेरक और गौरवशाली इतिहास

23 जुलाई को करीब एक लाख मज़दूरों ने हड़ताल में हिस्सेदारी की। मुंबई की आम जनता भी मज़दूरों के साथ आ खड़ी हुई। 24 जुलाई को संघर्षरत जनता की लड़ाई सेना के हथियारबंद दस्तों के साथ फिर से शुरू हो गयी। गोलियों का जवाब ईंटो और पत्थरों की बारिश से दिया गया। बहुत से मज़दूर आम जनता के साथ शहीद हुए। इसी बीच पुलिस कमिश्नर ने मिल मालिकों से हड़ताल का विरोध करने के लिए कहा। मालिकों ने फैसला किया कि ‘उद्योग की भलाई’ के लिए मजदूरों को हड़ताल बंद कर देनी चाहिए। मिल मालिक एसोसिएशन के अध्यक्ष हरिलाल भाई विश्राम ने मिल मालिकों को सलाह दी -”आपकी ज़ि‍म्मेदारी यह देखना है कि सरकार को किसी तरह परेशान न किया जाए, कानून-कायदों को मानकर चला जाए। आप मज़दूरों को काम पर वापस जाने के लिए दबाव डालिए।” परन्तु मज़दूरों ने मालिकों-पुलिस-प्रशासन की तिकड़मों को धता बताते हुए अपने संघर्ष को जारी रखा। देश की जनता के सामने किये गए 6 दिन की हड़ताल के वायदे को मजदूरों ने शब्दशः निभाकर अपने जुझारूपन को स्थापित कर दिया।

आज़ाद ने मज़दूरों और ग़रीबों के जीवन को नज़दीक से देखा था और आज़ादी के बाद मज़दूरों के राज की स्थापना उनका सपना था

शोषण का अन्त, मानव मात्र की समानता की बात और श्रेणी-रहित समाज की कल्पना आदि समाजवाद की बातों ने उन्हें मुग्ध-सा कर लिया था। और समाजवाद की जिन बातों को जिस हद तक वे समझ पाये थे उतने को ही आज़ादी के ध्येय के साथ जीवन के सम्बल के रूप में उन्होंने पर्याप्त मान लिया था। वैज्ञानिक समाजवाद की बारीकियों को समझे बग़ैर भी वे अपने-आप को समाजवादी कहने में गौरव अनुभव करने लगे थे। यह बात आज़ाद ही नहीं, उस समय हम सब पर लागू थी। उस समय तक भगतसिंह और सुखदेव को छोड़कर और किसी ने न तो समाजवाद पर अधिक पढ़ा ही था और न मनन ही किया था। भगतसिंह और सुखदेव का ज्ञान भी हमारी तुलना में ही अधिक था। वैसे समाजवादी सिद्धान्त के हर पहलू को पूरे तौर पर वे भी नहीं समझ पाये थे। यह काम तो हमारे पकड़े जाने के बाद लाहौर जेल में सन 1929-30 में सम्पन्न हुआ। भगतसिंह की महानता इसमें थी कि वे अपने समय के दूसरे लोगों के मुक़ाबले राजनीतिक और सैद्धान्तिक सूझबूझ में काफ़ी आगे थे।

देशभर में लगातार जारी है जातिगत उत्पीड़न और हत्याएँ

जुझारू संघर्ष मेहनतकश दलितों को ही खड़ा करना होगा और इस लड़ाई में उन्हें अन्य जातियों के ग़रीबों को भी शामिल करने की कोशिश करनी होगी। ये रास्ता लम्बा है क्योंकि जाति व्यवस्था के हज़ारों वर्षों के इतिहास ने ग़रीबों में भी भयंकर जातिगत विभेद बनाये रखा है पर इसके अलावा कोई अन्य रास्ता भी नहीं है। जातिगत आधार पर संगठन बनाकर संघर्ष करने की बजाय सभी जातियों के ग़रीबों को एकजुट कर जाति-विरोधी संगठन खड़े करने होंगे तभी इस बदनुमा दाग से छुटकारा पाने की राह मिल सकती है।

संशोधनवादियों के लिए कार्ल मार्क्स की प्रासंगिकता!

कैडर के स्तर पर बहुत से इमानदार लोग भी कुटिल नेतृत्व द्वारा बहला-फुसला कर चेले मूंड लिए जाते हैं। भारत में फ़ासीवाद के चरित्र और इससे मुक़ाबले की “रणनीति” को लेकर सीपीआई (एम) में येचुरी धड़े और करात धड़े के बीच बहस है किन्तु भाजपा के प्रतिक्रियावादी-दक्षिणपन्थी होने पर तो सभी एकमत हैं ही तो फ़िर क्या कारण है कि “चीनी समाजवादी लोकगणराज्य” का राष्ट्रपति मोदी के साथ गलबहियाँ करता नज़र आ रहा है?! भारत में करोड़ों-अरबों के चीनी निवेश पर इनकी क्या राय है? संशोधनवादियों की ये फ़ितरत होती है कि वे नाम तो मार्क्स का लेते हैं किन्तु सत्तासीन होने के बाद नीतियाँ पूँजीवाद की ही आगे बढ़ाते हैं। भारत की तथाकथित वामपन्थी पार्टियाँ भी नेहरू के समय खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के लिए आँसू तो खूब बहाती हैं किन्तु जब सत्ता में भागीदारी की बात आती है तो उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत करने वाली और लम्बे समय तक इन नीतियों की सबसे बड़ी पक्षपोषक रहने वाली पार्टी कांग्रेस के साथ गलबहियाँ कर लेते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : भारतीय फ़ासीवादियों की असली जन्मकुण्डली

आरएसएस ने भी खुले तौर पर जर्मनी में नात्सियों द्वारा यहूदियों के क़त्लेआम का समर्थन किया। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइण्ड’ और बाद में प्रकाशित हुई ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में जर्मनी में नात्सियों द्वारा उठाये गये क़दमों का अनुमोदन किया था। गोलवलकर आरएसएस के लोगों के लिए सर्वाधिक पूजनीय सरसंघचालक थे। उन्हें आदर से संघ के लोग ‘गुरुजी’ कहते थे। गोलवलकर ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मेडिकल की पढ़ाई की और उसके बाद कुछ समय के लिए वहाँ पढ़ाया भी। इसी समय उन्हें ‘गुरुजी’ नाम मिला। हेडगेवार के कहने पर गोलवलकर ने संघ की सदस्यता ली और कुछ समय तक संघ में काम किया। अपने धार्मिक रुझान के कारण गोलवलकर कुछ समय के लिए आरएसएस से चले गये और किसी गुरु के मातहत संन्यास रखा। इसके बाद 1939 के क़रीब गोलवलकर फिर से आरएसएस में वापस आये। इस समय तक हेडगेवार अपनी मृत्युशैया पर थे और उन्होंने गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1940 से लेकर 1973 तक गोलवलकर आरएसएस के सुप्रीमो रहे।

क्रान्तिकारी सोवियत संघ में स्वास्थ्य सेवाएँ

सोवियत संघ में स्वास्थ्य सुविधा पूरी जनता को नि:शुल्क उपलब्ध थी। वहाँ गोरखपुर की तरह ऑक्सीजन सिलेण्डर के अभाव में बच्चे नहीं मरते थे और ना ही भूख से कोई मौत होती थी। सोवियत रूस में गृह युद्ध (1917-1922) के दौरान स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत पिछड़ गयी थीं। 1921 में जब गृहयुद्ध में सोवियत सत्ता जीत गयी, तब रूस में सब जगह गृहयुद्ध के कारण बुरा हाल था। देशभर में टाइफ़ाइड और चेचक जैसी बीमारियों से कई लोग मर रहे थे। साबुन, दवा, भोजन, मकान, स्कूल, पानी आदि तमाम बुनियादी सुविधाओं का चारों तरफ़़़ अकाल था। मृत्यु दर कई गुना बढ़ गयी थी और प्रजनन दर घट गयी थी। चारों तरफ़़़ अव्यवस्था का आलम था। पूरा देश स्वास्थ्य कर्मियों, अस्पतालों, बिस्तरों, दवाइयों, विश्रामगृहों के अभाव की समस्या से जूझ रहा था। ऐसे में सोवियत सत्ता ने एक केन्द्रीयकृत चिकित्सा प्रणाली को अपनाने का फ़ैसला किया जिसका लक्ष्य था छोटी दूरी में इलाज करना और लम्बी दूरी में बीमारी से बचाव के साधनों-तरीक़ों पर ज़ोर देना ताकि लोगों के जीवन स्तर को सुधारा जा सके।

हत्यारे वेदान्ता ग्रुप के अपराधों का कच्चा चिट्ठा

पिछली 22 मई को तमिलनाडु पुलिस ने एक रक्तपिपासु पूँजीपति के इशारे पर आज़ाद भारत के बर्बरतम सरकारी हत्याकाण्डों में से एक को अंजाम दिया। उस दिन तमिलनाडु के तूतुकोडि (या तूतीकोरिन) जिले में वेदान्ता ग्रुप की स्टरलाइट कम्पनी के दैत्याकार कॉपर प्लाण्ट के विरोध में 100 दिनों से धरने पर बैठे हज़ारों लोग सरकारी चुप्पी से आज़िज़ आकर ज़िला कलेक्ट्रेट और कॉपर प्लाण्ट की ओर मार्च निकाल रहे थे। पुलिस ने पहले जुलूस पर लाठी चार्ज किया और उसके बाद गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। सादी वर्दी में बसों के ऊपर तैनात पुलिस के निशानेबाज़ों ने एसॉल्ट राइफ़लों से निशाना साधकर प्रदर्शनकारियों को गोली मारी। आन्दोलन की अगुवाई कर रहे चार प्रमुख नेताओं को निशाना साधकर गोली से उड़ा दिया गया। सरकार के मुताबिक 13 प्रदर्शनकारी गोली से मारे गये और दर्जनों घायल हुए।

न्यूनतम वेतन क़ानून के ज़रिये केजरीवाल की नयी नौटंकी का पर्दाफ़ाश करो! संगठित होकर अपने हक़ हासिल करो!!

 अगर सरकार की सही मायने में यह मंशा होती कि यह क़ानून लागू किया जाये तो सबसे पहले तो यही सवाल बनता है कि दिल्ली की आप सरकार ने पुराने क़ानूनों को ही कितना लागू किया है? अगर सही मायने में केजरीवाल सरकार की यह मंशा होती तो वह सबसे पहले हर फ़ैक्टरी में मौजूदा श्रम क़ानूनों को लागू करवाने का प्रयास करती, परन्तु पंगु बनाये गये श्रम विभाग के ज़रिये यह सम्भव ही नहीं है। कैग की रिपोर्ट इनकी हक़ीक़त सामने ला देती है। इस रिपोर्ट के अनुसार कारख़ाना अधिनियम, 1948 (Factories Act, 1948) का भी पालन दिल्ली सरकार के विभागों द्वारा नहीं किया जा रहा है। वर्ष 2011 से लेकर 2015 के बीच केवल 11-25% पंजीकृत कारख़ानों का निरीक्षण किया गया। निश्चित ही  इस क़ानून से जिसको थोडा-बहुत फ़ायदा पहुँचेगा, वह सरकारी कर्मचारियों और संगठित क्षेत्र का छोटा-सा हिस्सा है, परन्तु यह लगातार सिकुड़ रहा है।

भारत में लगातार चौड़ी होती असमानता की खाई! जनता की बर्बादी की क़ीमत पर हो रहा ”विकास”!!

इस संकट के कीचड़ में भी अमीरों के कमल खिलते ही जा रहे हैं। केवल पिछले वर्ष के दौरान देश में 17 नये ”खरबपति” और पैदा हुए जिससे भारत में खरबपतियों की संख्या शतक पूरा कर 101 तक पहुँच गयी। ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के अनुसार – पिछले वर्ष देश में पैदा हुई कुल सम्पदा का 73 प्रतिशत देश के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की मुट्ठी में चला गया। इस छोटे-से समूह की सम्पत्ति में पिछले चन्द वर्षों के दौरान 20.9 लाख करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी हुई जो 2017 के केन्द्रीय बजट में ख़र्च के कुल अनुमान के लगभग बराबर है। दूसरी ओर, देश के 67 करोड़ नागरिकों, यानी सबसे ग़रीब आधी आबादी की सम्पदा सिर्फ़ एक प्रतिशत बढ़ी। देश के खरबपतियों की सम्पत्ति में 4891 खरब रुपये का इज़ाफ़ा हुआ है। यह इतनी बड़ी रक़म है जिससे देश के सभी राज्यों के शिक्षा और स्वास्थ्य बजट का 85 प्रतिशत पूरा हो जायेगा। आमदनी में असमानता किस हद तक है इसका अनुमान सिर्फ़ इस उदाहरण से लगाया जा सकता है कि भारत की किसी बड़ी गारमेण्ट कम्पनी में सबसे ऊपर के किसी अधिकारी की एक साल की कमाई के बराबर कमाने में ग्रामीण भारत में न्यूनतम मज़दूरी पाने वाले एक मज़दूर को 941 साल लग जायेंगे। दूसरी ओर वह मज़दूर अगर 50 वर्ष काम करे, तो भी उसकी जीवन-भर की कमाई के बराबर कमाने में गारमेण्ट कम्पनी के उस शीर्षस्थ अधिकारी को सिर्फ़ साढ़े सत्रह दिन लगेंगे।