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‘‘अब हम समाजवादी व्यवस्था का निर्माण शुरू करेंगे!’’ : जॉन रीड

एक हज़ार कण्ठों से निकली यह प्रबल ध्वनि सभा भवन में तरंगित होकर खिड़कियों-दरवाज़ों से बाहर निकली और ऊपर उठती गयी, ऊपर उठती गयी और निभृत आकाश में व्याप्त हो गयी। ‘‘लड़ाई ख़त्म हो गयी! लड़ाई ख़त्म हो गयी!’’ मेरे पास खड़े एक नौजवान मज़दूर ने कहा, जिसका चेहरा चमक रहा था। और जब यह गान समाप्त हो गया और हम वहाँ निस्तब्ध खोये से खड़े थे, हाॅल के पीछे से किसी ने आवाज़ दी, ‘‘साथियो, हम उन लोगों की याद करें, जिन्होंने आज़ादी के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया!’’ और इस प्रकार हमने शोकगान ‘शवयात्रा’ गाना शुरू किया, जिसका स्वर धीमा और उदास होते हुए भी विजयपूर्ण था। यह था दिल को हिला देने वाला एक ठेठ रूसी गाना। कुछ भी हो, ‘इण्टरनेशनल’ का राग विदेशी ही ठहरा, परन्तु ‘शवयात्रा’ में उस विशाल जनता के प्राणों की गूँज थी, जिसके प्रतिनिधि इस हाॅल में बैठे थे और अपनी धुँधले-धुँधले मानस-चित्र के आधार पर नये रूस का सृजन कर रहे थे – और शायद और भी ज़्यादा…

”यह सबकुछ जनता की सम्पत्ति है!” : अल्बर्ट रीस विलियम्स

यह निष्ठुर और हृदयहीन महल एक सदी से नेवा के तट पर खड़ा था। जनता ने प्रकाश पाने की आशा से इस ओर देखा, परन्तु उसे अन्धकार मिला। लोगों ने अनुकम्पा की भीख माँगी, परन्तु उन्हें कोड़े मिले, उनके गाँव फूँके और उन्हें निष्कासन की सज़ा देकर साइबेरिया भेज दिया गया, नारकीय यन्त्रणाएँ दी गयीं। 1905 की शीत ऋतु में एक दिन सुबह ठिठुरते हुए हज़ारों निहत्थे लोग अन्याय को दूर कराने के लिए ज़ार से अनुनय-विनय करने के ख़याल से यहाँ जमा हुए थे। मगर महल ने इस प्रार्थना के उत्तर में उन पर गोली-वर्षा की और उन्हें तोपों से भून डाला; उनके ख़ून से बर्फ़ लाल हो गयी थी। जन-समुदाय के लिए यह प्रासाद निर्दयता एवं उत्पीड़न का स्मारक बन गया था। यदि उन्होंने इसे भूमिसात कर दिया होता, तो यह केवल अपमानित जनता के ग़ुस्से का एक और दृष्टान्त होता, जिसने सदा के लिए अपने उत्पीड़न के घृणास्पद प्रतीक को मिटाकर आँखों से ओझल कर दिया होता।

“मैं आश्चर्य से भर जाता हूँ”: रवीन्द्रनाथ टैगोर

मुझे याद है, कैसे सोवियत संघ ने अपने नि:शस्त्रीकरण प्रस्तावों से उन देशों को चौंका दिया था, जो शान्ति-प्रिय होने की बातें करते थे। सोवियत संघ ने ऐसा इसलिए किया था, क्योंकि उनका उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर अपनी ताकत बढ़ाते जाना नहीं है – शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था और जनता की आजीविका के साधनों को सबसे कुशलता से और व्यापक रूप से विकसित करके अपने आदर्शों को ज़मीन पर उतारना ही उनका मकसद है – उनके इस मकसद के लिए अत्यन्त ज़रूरी है, बाधारहित शान्ति।

क्‍लासिकल मार्क्‍सवाद – व्यवहार के बारे में \ माओ त्से–तुङ

व्यवहार से ही सत्य की खोज करना और व्यवहार से ही सत्य को परखना और विकसित करना। इंद्रियग्राह्य ज्ञान से आरंभ करना और उसे गत्यात्मक रूप से बुद्धिसंगत ज्ञान में विकसित करना; उसके बाद बुद्धिसंगत ज्ञान से आरंभ करके गत्यात्मक रूप से क्रांतिकारी व्यवहार का पथ प्रदर्शन करना, जिससे कि मनोगत और वस्तुगत दुनिया में परिवर्तन लाया जा सके। व्यवहार, ज्ञान फिर व्यवहार, फिर ज्ञान। इस क्रम की अनंत काल तक आवृत्ति होती रहती है और हर आवृत्ति के साथ व्यवहार और ज्ञान की अंतर्वस्तु और अधिक ऊंचे स्तर पर पहुंचती जाती है। यह है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का समूचा ज्ञान–सिद्धांत, यह है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का जानने और कर्म करने की एकता का सिद्धांत।

उन्मुक्त स्त्री / रामवृक्ष बेनीपुरी

सोवियत ने स्त्रियों को स्वतन्त्र पेशा अख्तियार करने के लिए सारे दरवाज़े खोल दिये हैं। आज वहाँ ऐसी स्त्री का मिलना मुश्किल है; जो पति की कमाई पर गुज़ारा करती हो। स्थलीय, समुद्री और वायवीय – तीनों सेनाओं में साधारण सिपाही से लेकर बड़े-बड़े अफ़सर बनने तक का अधिकार स्त्रियों को प्राप्त है। वायुसेना में तो उनकी काफ़ी तादाद है। राजनीति में वह खुलकर हिस्सा लेती हैं; और राष्ट्रीय प्रजातन्त्रों तथा सोवियत संघ प्रजातन्त्र के मन्त्री जैसे दायित्वपूर्ण पदों पर वह पहुँच रही हैं। पार्लियामेण्ट के मेम्बरों में उनकी ख़ासी संख्या है। इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, डॉक्टर ही नहीं, बड़ी-बड़ी फ़ैक्टरियों में कितनी ही डायरेक्टर तथा डिप्टी डायरेक्टर तक स्त्रियाँ हैं। वर्तमान सोवियत पार्लियामेण्ट के सबसे कम उम्र के सदस्य क्लाउदिया सखारोवा को ही ले लीजिए। सखारोवा की उम्र अभी 19 साल है। वह रोदिन्की स्थान में पैदा हुई थी। उसके माँ-बाप उसी जगह कपड़े की मिल में मज़दूर थे। आजकल की बोल्शेविक बुनाई मिल, जिसकी सखारोवा डिप्टी डायरेक्टर है, क्रान्ति के पहले एक व्यापारी की सम्पत्ति थी।

मौजूदा दौर के किसान आन्दोलनों की प्रमुख माँगें बनाम छोटे किसानों, मज़दूरों और सर्वहारा वर्ग के साझा हित

ऐसे दौर में उजड़ते हुए किसान यानी सीमान्त, छोटे और ग़रीब किसान को बचाने के लिए जो माँगें उठायी जा रही हैं, जो नारे दिये जा रहे हैं, जो योजनाएँ सुझायी जा रही हैं – उनकी पड़ताल अत्यावश्यक है। क्या उक्त माँगें, नारे और योजनाएँ ग़रीब किसानों की सही सच्ची माँगें हो सकती हैं? उजड़ते छोटे किसानों की असल माँगें क्या हों यह सिर्फ़ भावना का सवाल नहीं है बल्कि तर्क का भी सवाल है। समाज परिवर्तन के क्रान्तिकारी आन्दोलन में चूँकि ग़रीब किसान मज़दूर वर्ग का सबसे विश्वस्त साथी है, इसलिए भी सर्वहारा के नज़रिये और वर्ग दृष्टिकोण से कुछ नुक्तों पर साफ़ नज़र होना ज़रूरी है।

वाम गठबंधन की भारी जीत के बाद : नेपाल किस ओर?

बहुत सारे भावुकतावादी कम्युनिस्टों में संशोधनवादी वाम गठबन्धन की भारी जीत से यदि कुछ ज़्यादा ही उम्मीदें पैदा हो गयी हैं तो यह अच्छी बात नहीं है क्योंकि मिथ्या उम्मीद नाउम्मीदी से भी बुरी चीज़ होती है। एक अच्छी बात यह है कि संघर्षों में तपी-मंजी नेपाल की कम्युनिस्ट कतारों का एक अच्छा-खासा हिस्सा इस बात को समझता जा रहा है और आने वाले दिनों में इसे वह और बेहतर तरीके से तथा और तेज़ी से समझेगा।

गौरक्षा का गोरखधन्धा – फ़ासीवाद का असली चेहरा

इस प्रतिबन्ध से मुस्लिम और हिन्दू दोनों ही अपनी आजीविका खो रहे हैं। वैसे तो संघ द्वारा यह प्रचार किया जाता है कि मुस्लिम ही मुख्यतः मांस का सेवन करते हैं, पर विभिन्न राज्यों में मुसलमानों की तुलना में, दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों के समुदाय गोमांस ज़्यादा खाते हैं। एनएसएसओ के अनुमान के मुताबिक़, देश में 5.2 करोड़ लोग, मुख्य रूप से दलित और आदिवासी और विभिन्न समुदायों के ग़रीब लोग, गोमांस/भैंस का मांस खाते हैं। साफ़ है कि बीफ़ की खपत के मुद्दे को भी यहाँ वर्ग के आधार पर देखा जाना चाहिए। एक तरफ़ यह क़दम सीधे ग़रीबों को प्रोटीन पोषण के अपेक्षाकृत सस्ते स्रोत से वंचित कर रहा है, वहीं दूसरी ओर सत्ता में बैठे लोगों की मिलीभगत द्वारा समर्थित हिन्दू ब्रिगेड का यह आतंक अभियान, लाखों लोगों की आजीविका और उद्योग को पूरी तरह से मार रहा है।

गुजरात चुनाव और उसके बाद – फासीवाद से निजात पाने के आसान रास्तों का भ्रम छोड़ें और ‍भरपूर ताक़त के साथ असली लड़ाई की तैयारी में जुटें

भाजपा फासीवादी गिरोह यानी संघ परिवार की सिर्फ़ चुनावी शाखा है। किसी चुनाव में हार जाने से संघ परिवार के तमाम संगठन अपना काम करना बन्‍द नहीं कर देते। उनकी विषैली राजनीति लगातार जारी रहती है। सत्ता प्रतिष्‍ठान से लेकर समाज की तमाम संस्‍थाओं में, सेना-पुलिस, न्‍यायपालिका, नौकरशाही से लेकर शिक्षा-संस्‍कृति की संस्‍थाओं तक में उनकी घुसपैठ योजनाबद्ध ढंग से बढ़ती रहती है। 2004 और 2009 की चुनावी हारों के बाद और भी ज्‍़यादा ताक़त के साथ भाजपा की सत्ता में वापसी इसका उदाहरण है।

गौरी लंकेश का आख़िरी सम्पादकीय – फ़र्ज़ी ख़बरों के ज़माने में

हाल ही में पश्चिम बंगाल में जब दंगे हुए तो आरएसएस के लोगों ने दो पोस्टर जारी किये। एक पोस्टर का कैप्शन था, बंगाल जल रहा है, उसमें प्रोपर्टी के जलने की तस्वीर थी। दूसरे फ़ोटो में एक महिला की साड़ी खींची जा रही है और कैप्शन है बंगाल में हिन्दु महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है। बहुत जल्दी ही इस फ़ोटो का सच सामने आ गया। पहली तस्वीर 2002 के गुजरात दंगों की थी जब मुख्यमन्त्री मोदी ही सरकार में थे। दूसरी तस्वीर भोजपुरी सिनेमा के एक सीन की थी। सिर्फ़ आरएसएस ही नहीं बीजेपी के केन्द्रीय मन्त्री भी ऐसे फ़ेक न्यूज़ फैलाने में माहिर हैं।