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न्यायिक व्यवस्था का संकट और फ़ासिस्ट आतंक राज

इस समय जो संकट पैदा हुआ है उसके केन्द्र में जो मामला है वह सीधे अमित शाह और उनके ज़रिए उनके आक़ा नरेन्द्र मोदी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में सत्ता तंत्र एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देगा इसे निपटाने में। असन्तुष्ट जजों की कुछ बातें सुन ली जायेंगी, कुछ ऊपरी ‘’सुधार’’ कर दिये जायेंगे और धीरे-धीरे सब फिर पटरी पर आ जायेगा। कुछ लोग चार जजों को जबरन क्रान्तिकारी बनाये दे रहे हैं, या इस संकट को फ़ासिस्टों के अन्त की शुरुआत घोषित किये दे रहे हैं, उन्हें अन्त में निराशा ही हाथ लगेगी।

नये साल में मज़दूर वर्ग के सामने खड़ा चुनौतियों का पहाड़

अल्पसंख्यकों, मज़दूरों, छोटे-मझौले किसानों के हितों पर हमलों के साथ ही गुज़रे साल महिलाओं, दलितों और आदिवासियों पर होने वाली वहशियाना हिंसा का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। इसके अतिरिक्त मुनाफ़े की बेलगाम हवस में पूँजीवादी तन्त्र ने समाज की रगों के साथ ही साथ आबोहवा में भी ज़हर घोलने का काम तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ाया जिसका नतीजा पिछले साल जाड़े की शुरुआत में अभूतपूर्व सघनता वाले ‘स्मॉग’ के रूप में सामने आया। फ़ासीवाद के दमघोंटू माहौल में इस देश में हर संवेदनशील और न्यायशील इंसान का जीना पहले ही दूभर हो गया था; जाड़े के मौसम में राजधानी व आस-पास के इलाक़ों में रहने वाली आम मेहनतकश आबादी का साँस लेना भी दूभर होता जा रहा है।

कड़कड़ाती ठण्ड और ‘स्मॉग’ के बीच मज़दूर वर्ग का जीवन

नगर निगम मध्यम वर्गीय इलाक़ों का कूड़ा मज़दूर बस्तियों के पास कहीं पाट कर वहाँ की आबोहवा ज़हरीली बनाते हैं और पूँजीपति खुलेआम बिना फ़िल्टर वाली चिमनियों का प्रयोग करते हैं। यह भी इस पूरी व्यवस्था की वर्गीय पक्षधरता ही है कि परिवहन के क्षेत्र में भी हुई अभूतपूर्व तकनीकी प्रगति का इस्तेमाल सार्वजनिक यातायात को बेहतर बनाने की बजाय अमीरों के लिए लग्ज़री कारों को बनाने में किया जाता है।

एनडीए सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में मज़दूर-विरोधी संशोधन के खि़लाफ़ एक हों!

एनडीए सरकार द्वारा ‘मेक इन इण्डिया’, ‘स्किल इण्डिया’, ‘डिजिटल इण्डिया’ और ‘व्यापार की सहूलियत’ जैसे कार्यक्रमों का डंका बजाते हुए श्रम क़ानूनों में संशोधन किये जा रहे हैं। श्रम मन्त्रालय द्वारा 43 श्रम क़ानूनों को 4 बड़े क़ानूनों में समेकित किया जा रहा है। इसी कड़ी में 10 अगस्त 2017 को लोक सभा में ‘कोड ऑफ़ वेजिस बिल, 2017’ पेश किया गया। प्रत्यक्ष रूप से इस बिल का उद्देश्य वेतन सम्बन्धी निम्न चार केन्द्रीय श्रम क़ानूनों के प्रासंगिक प्रावधानों का एकीकरण व सरलीकरण करना है

‘‘अब हम समाजवादी व्यवस्था का निर्माण शुरू करेंगे!’’ : जॉन रीड

एक हज़ार कण्ठों से निकली यह प्रबल ध्वनि सभा भवन में तरंगित होकर खिड़कियों-दरवाज़ों से बाहर निकली और ऊपर उठती गयी, ऊपर उठती गयी और निभृत आकाश में व्याप्त हो गयी। ‘‘लड़ाई ख़त्म हो गयी! लड़ाई ख़त्म हो गयी!’’ मेरे पास खड़े एक नौजवान मज़दूर ने कहा, जिसका चेहरा चमक रहा था। और जब यह गान समाप्त हो गया और हम वहाँ निस्तब्ध खोये से खड़े थे, हाॅल के पीछे से किसी ने आवाज़ दी, ‘‘साथियो, हम उन लोगों की याद करें, जिन्होंने आज़ादी के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया!’’ और इस प्रकार हमने शोकगान ‘शवयात्रा’ गाना शुरू किया, जिसका स्वर धीमा और उदास होते हुए भी विजयपूर्ण था। यह था दिल को हिला देने वाला एक ठेठ रूसी गाना। कुछ भी हो, ‘इण्टरनेशनल’ का राग विदेशी ही ठहरा, परन्तु ‘शवयात्रा’ में उस विशाल जनता के प्राणों की गूँज थी, जिसके प्रतिनिधि इस हाॅल में बैठे थे और अपनी धुँधले-धुँधले मानस-चित्र के आधार पर नये रूस का सृजन कर रहे थे – और शायद और भी ज़्यादा…

”यह सबकुछ जनता की सम्पत्ति है!” : अल्बर्ट रीस विलियम्स

यह निष्ठुर और हृदयहीन महल एक सदी से नेवा के तट पर खड़ा था। जनता ने प्रकाश पाने की आशा से इस ओर देखा, परन्तु उसे अन्धकार मिला। लोगों ने अनुकम्पा की भीख माँगी, परन्तु उन्हें कोड़े मिले, उनके गाँव फूँके और उन्हें निष्कासन की सज़ा देकर साइबेरिया भेज दिया गया, नारकीय यन्त्रणाएँ दी गयीं। 1905 की शीत ऋतु में एक दिन सुबह ठिठुरते हुए हज़ारों निहत्थे लोग अन्याय को दूर कराने के लिए ज़ार से अनुनय-विनय करने के ख़याल से यहाँ जमा हुए थे। मगर महल ने इस प्रार्थना के उत्तर में उन पर गोली-वर्षा की और उन्हें तोपों से भून डाला; उनके ख़ून से बर्फ़ लाल हो गयी थी। जन-समुदाय के लिए यह प्रासाद निर्दयता एवं उत्पीड़न का स्मारक बन गया था। यदि उन्होंने इसे भूमिसात कर दिया होता, तो यह केवल अपमानित जनता के ग़ुस्से का एक और दृष्टान्त होता, जिसने सदा के लिए अपने उत्पीड़न के घृणास्पद प्रतीक को मिटाकर आँखों से ओझल कर दिया होता।

“मैं आश्चर्य से भर जाता हूँ”: रवीन्द्रनाथ टैगोर

मुझे याद है, कैसे सोवियत संघ ने अपने नि:शस्त्रीकरण प्रस्तावों से उन देशों को चौंका दिया था, जो शान्ति-प्रिय होने की बातें करते थे। सोवियत संघ ने ऐसा इसलिए किया था, क्योंकि उनका उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर अपनी ताकत बढ़ाते जाना नहीं है – शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था और जनता की आजीविका के साधनों को सबसे कुशलता से और व्यापक रूप से विकसित करके अपने आदर्शों को ज़मीन पर उतारना ही उनका मकसद है – उनके इस मकसद के लिए अत्यन्त ज़रूरी है, बाधारहित शान्ति।

क्‍लासिकल मार्क्‍सवाद – व्यवहार के बारे में \ माओ त्से–तुङ

व्यवहार से ही सत्य की खोज करना और व्यवहार से ही सत्य को परखना और विकसित करना। इंद्रियग्राह्य ज्ञान से आरंभ करना और उसे गत्यात्मक रूप से बुद्धिसंगत ज्ञान में विकसित करना; उसके बाद बुद्धिसंगत ज्ञान से आरंभ करके गत्यात्मक रूप से क्रांतिकारी व्यवहार का पथ प्रदर्शन करना, जिससे कि मनोगत और वस्तुगत दुनिया में परिवर्तन लाया जा सके। व्यवहार, ज्ञान फिर व्यवहार, फिर ज्ञान। इस क्रम की अनंत काल तक आवृत्ति होती रहती है और हर आवृत्ति के साथ व्यवहार और ज्ञान की अंतर्वस्तु और अधिक ऊंचे स्तर पर पहुंचती जाती है। यह है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का समूचा ज्ञान–सिद्धांत, यह है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का जानने और कर्म करने की एकता का सिद्धांत।

उन्मुक्त स्त्री / रामवृक्ष बेनीपुरी

सोवियत ने स्त्रियों को स्वतन्त्र पेशा अख्तियार करने के लिए सारे दरवाज़े खोल दिये हैं। आज वहाँ ऐसी स्त्री का मिलना मुश्किल है; जो पति की कमाई पर गुज़ारा करती हो। स्थलीय, समुद्री और वायवीय – तीनों सेनाओं में साधारण सिपाही से लेकर बड़े-बड़े अफ़सर बनने तक का अधिकार स्त्रियों को प्राप्त है। वायुसेना में तो उनकी काफ़ी तादाद है। राजनीति में वह खुलकर हिस्सा लेती हैं; और राष्ट्रीय प्रजातन्त्रों तथा सोवियत संघ प्रजातन्त्र के मन्त्री जैसे दायित्वपूर्ण पदों पर वह पहुँच रही हैं। पार्लियामेण्ट के मेम्बरों में उनकी ख़ासी संख्या है। इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, डॉक्टर ही नहीं, बड़ी-बड़ी फ़ैक्टरियों में कितनी ही डायरेक्टर तथा डिप्टी डायरेक्टर तक स्त्रियाँ हैं। वर्तमान सोवियत पार्लियामेण्ट के सबसे कम उम्र के सदस्य क्लाउदिया सखारोवा को ही ले लीजिए। सखारोवा की उम्र अभी 19 साल है। वह रोदिन्की स्थान में पैदा हुई थी। उसके माँ-बाप उसी जगह कपड़े की मिल में मज़दूर थे। आजकल की बोल्शेविक बुनाई मिल, जिसकी सखारोवा डिप्टी डायरेक्टर है, क्रान्ति के पहले एक व्यापारी की सम्पत्ति थी।

मौजूदा दौर के किसान आन्दोलनों की प्रमुख माँगें बनाम छोटे किसानों, मज़दूरों और सर्वहारा वर्ग के साझा हित

ऐसे दौर में उजड़ते हुए किसान यानी सीमान्त, छोटे और ग़रीब किसान को बचाने के लिए जो माँगें उठायी जा रही हैं, जो नारे दिये जा रहे हैं, जो योजनाएँ सुझायी जा रही हैं – उनकी पड़ताल अत्यावश्यक है। क्या उक्त माँगें, नारे और योजनाएँ ग़रीब किसानों की सही सच्ची माँगें हो सकती हैं? उजड़ते छोटे किसानों की असल माँगें क्या हों यह सिर्फ़ भावना का सवाल नहीं है बल्कि तर्क का भी सवाल है। समाज परिवर्तन के क्रान्तिकारी आन्दोलन में चूँकि ग़रीब किसान मज़दूर वर्ग का सबसे विश्वस्त साथी है, इसलिए भी सर्वहारा के नज़रिये और वर्ग दृष्टिकोण से कुछ नुक्तों पर साफ़ नज़र होना ज़रूरी है।