लेबर ब्यूरो के आँकड़ों ने खोली सरकारी ढोल की पोल
दुनिया में सबसे अधिक बेरोज़गारों वाला देश बना भारत
रोज़गार लगातार घट रहा है और स्व-रोज़गार के अवसर कम हो रहे हैं

सत्यप्रकाश

लेबर ब्यूरो के हाल में जारी आँकड़ों ने मोदी सरकार के लम्बे-चौड़े दावों की पोल खोल दी है और उस सच्चाई को आँकड़ों की शक्ल में हमारे सामने रख दिया है जिसे आम लोग अपने अनुभवों से लगातार महसूस कर रहे हैं। भारत को दुनिया में सबसे अधिक बेरोज़गारों वाला देश होने का गौरव हासिल हो गया है। समावेशी विकास सूचकांक में दुनिया में भारत साठवें स्थान पर पहुँच गया है, यानी अपने पड़ोसियों से भी काफ़ी नीचे।

आँकड़े बताते हैं कि देश में रोज़गार लगातार घट रहा है और स्व-रोज़गार के अवसर कम हो रहे हैं। सामाजिक-आर्थिक असमानता लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन इसी के साथ देश में हो रहे ‘’विकास’’ का दूसरा पहले यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था को दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला बताया जा रहा है। ‘बिज़नेस एक्सेसिबिलिटी इंडेक्स’ यानी व्यवसाय करने में सुविधाओं आदि के मामले में हम 30 सीढ़ी ऊपर चढ़ गये हैं।

सच यही है कि जैसे-जैसे देश में विकास हो रहा है, वैसे-वैसे यहाँ असमानता आसमान छूती जा रही है। अमीरों और ग़रीबों के बीच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। आज़ादी के बाद से ही देश के नये सत्ताधारियों ने विकास का जो रास्ता चुना था, उस पर चलते हुए इसी दिशा में समाज आगे बढ़ रहा था। लेकिन पिछले तीन दशकों से जारी निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने इस रफ़्तार को बहुत तेज़ कर दिया है। देश के सारे संसाधन मुट्ठीभर लोगों के हाथों में सिमटते जा रहे हैं। इस दौर में देश में दौलत के पैदा होने की रफ़्तार बहुत तेज़ रही है। बहुराष्ट्रीय वित्तीय सेवाएँ कम्पनी, क्रेडिट सुइस ग्लोबल के अनुसार, वर्ष 2000 से, भारत में मौजूद सम्पदा के कुल मूल्य में हर साल 9.9 प्रतिशत की दर से बढ़ोत्तरी हो रही है, जबकि दुनिया के पैमाने पर यह औसतन सिर्फ़ 6 प्रतिशत रहा है। लेकिन जिन लोगों की मेहनत के बल पर यह सम्पदा पैदा हो रही है, वे इससे पूरी तरह वंचित हैं।

समाचार एजेंसी ए.एन.आई. की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सार्वजनिक संसाधनों के वितरण में असमानता बहुत बढ़ गयी है और आबादी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा अब भी ग़रीबी रेखा के नीचे जीता है। हालत यह है कि 2017 के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत खिसक कर 100वें पर पहुँच गया है (2016 में हम 97वें स्थान पर थे)। बंगलादेश, श्रीलंका, म्यांमार और कई अफ्रीकी देश भी इस मामले में भारत से बेहतर स्थिति में हैं।

‘ऑक्सफ़ेम’ की रिपोर्ट ‘बढ़ता अंतर: भारत असमानता रिपोर्ट 2018’ के मुताबिक, दुनिया के पैमाने पर सिर्फ़ एक प्रतिशत लोगों के हाथों में दुनिया की कुल दौलत का 50 प्रतिशत है। भारत में एक प्रतिशत लोगों के हाथों में देश की 58 प्रतिशत सम्पत्ति है (कुछ रिपोर्टों के अनुसार यह और भी ज़्यादा है), और केवल 57 अरबपतियों के पास इतनी दौलत है जो देश की 70 प्रतिशत आबादी की कुल सम्पत्ति के बराबर है।

भारत आबादी के लिहाज़ से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। देश की 65 प्रतिशत आबादी की औसत उम्र 35 साल से कम है। किसी भी समाज के लिए इतनी बड़ी युवा आबादी एक बहुत बड़ी ताक़त होती। लेकिन भारत में इस आबादी का बड़ा हिस्सा बेरोज़गार है। आर्थिक सहकार और विकास संगठन के आँकड़ों के अनुसार, देश में रोज़गार से वंचित युवाओं की संख्या बहुत अधिक है जिसके कारण समाज में असन्तोष बढ़ रहा है।

इसी तरह, देश की कुल कामगार आबादी में स्त्रियों की भागीदारी अभी केवल 27 प्रतिशत है। (कामगार आबादी में घरेलू काम और देखभाल जैसे कामों को नहीं जोड़ा जाता जिनके लिए कोई भुगतान नहीं होता।) विश्व बैंक के अनुमान बताते हैं कि 2004-05 से लेकर 2011-12 के बीच 19.6 प्रतिशत स्त्रियाँ कामगार आबादी से बाहर निकल गयीं, जोकि बहुत बड़ी संख्या है। हालाँकि, ये आँकड़े पूरी तस्वीर नहीं बताते क्योंकि स्त्रियों की एक अच्छी-खासी आबादी घरों पर रहकर बेहद काम दामों पर पीसरेट आदि पर किये जाने वाले कामों से जुड़ी है जो अक्सर ऐसी गणनाओं से बाहर ही रह जाती है। अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुमान है कि अगर भारत में कामगार स्त्रियों की संख्या पुरुषों के बराबर हो जाये तो देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 27 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो जायेगी। ऐसे हवाई अनुमानों पर हँसा ही जा सकता है क्योंकि जब पहले से मौजूद कामगार आबादी के ही बड़े हिस्से को काम नहीं मिल रहा है तो स्त्रियों की इस विशाल आबादी के लिए रोज़गार कहाँ से आयेगा। लेकिन सरकार और देशी-विदेशी पूँजीपतियों की संस्थाएँ औरतों को काम में लगाने के लिए तरह-तरह की योजनाएँ इसलिए बना रही हैं क्योंकि उनसे कम मज़दूरी पर ज़्यादा काम कराये जा सकते हैं। वे यह भी सोचते हैं कि स्त्रियों को ग़ुलाम बनाकर रहना भी ज़्यादा आसान होगा।

पिछले कुछ सालों से स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम, प्रधानमंत्री रोज़गार प्रोत्साहन योजना, प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना जैसी तरह-तरह की योजनाएँ बनायी गयी हैं, लेकिन इन योजनाओं के दफ़्तर और प्रचार सँभालने वाले लोगों को रोज़गार देने के अलावा देश में बेरोज़गारी कम करने की दिशा में इससे कोई प्रगति नहीं हुई है। ज़्यादातर योजनाएँ तो चुनावी घोषणाओं की तरह बिना किसी तैयारी के शुरू कर दी गयी हैं। उद्योगों की ज़रूरतों और युवाओं को सिखाए जा रहे कौशलों में कोई तालमेल ही नहीं है और अधिकांश मामलों में दी जा रही ट्रेनिंग इतनी घटिया है कि उससे कोई रोज़गार नहीं मिल सकता।

वैश्विक मन्दी, नोटबन्दी और जीएसटी की मार

जिन उद्योगों में सबसे अधिक रोज़गार मिलता था, उनकी हालत पतली है। ‘लाइव मिंट’ अखबार के अनुसार न केवल इन कम्पनियों के निर्यात की हालत खस्ता है बल्कि औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े भी बताते हैं कि इन सेक्टरों में वृद्धि बहुत सुस्त है। इतना ही नहीं, श्रम-सघन उत्पादों का आयात बढ़ रहा है। इन सबके चलते रोज़गार की हालत और भी बदतर होने वाली है।

भारत के श्रम-सघन उद्योगों, जैसे टेक्सटाइल, आभूषण और हीरे-जवाहरात, चमड़ा आदि का निर्यात घट रहा है। पिछले साल जुलाई में जीएसटी लागू होने के बाद से इसमें गिरावट तेज़ी से जारी है। इससे पहले नोटबन्दी के दौरान सूरत के आभूषण उद्योग से हज़ारों मज़दूरों सहित देश में लाखों मज़दूरों का काम छूट गया था जिनमें से बहुत से अब भी खाली बैठे हैं। चमड़ा, टेक्सटाइल, हस्तशिल्प, खेलकूद के सामान, फर्नीचर और मैन्युफैक्चरिंग के अन्य सामानों के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में पिछले वर्ष अप्रैल से तेज़ी से गिरावट आयी है। जिन सेक्टरों में श्रम-सघनता कम है, यानी जहाँ रोज़गार भी कम पैदा होता है, वे अब थोड़ा उबरे हैं।

रिपोर्ट कहती है कि नीरव मोदी और मेहुल चौकसी जैसे महारथियों के कारनामों के बाद आभूषण और जवाहरात उद्योग के लिए बैंकों से कर्ज़ मिलने में कठिनाई होगी जिसका भी सीधा असर रोज़गार पर पड़ेगा।

टेक्सटाइल उद्योग में पड़ोसी देशों बंगलादेश और वियतनाम के साथ तीखी प्रतिस्पर्धा है। नेपाल भी अपनी सस्ती श्रमशक्ति टेक्सटाइल कम्पनियों की सेवा में लगाने के लिए तेज़ी से एसईज़ेड आदि बनाने में लगा है। इस कारण इस क्षेत्र में निकट भविष्य में रोज़गार बढ़ने की सम्भावना कम ही लग रही है। भारत से निर्यात होने वाले टेक्सटाइल में सबसे बड़ा हिस्सा धागे, तौलियों और सिले-सिलाए कपड़ों का है। पिछले करीब पूरे साल भारत से धागे का निर्यात घटा है। जून 2017 से संयुक्त अरब अमीरात को होने वाले निर्यात में 45 प्रतिशत की गिरावट के कारण सिले-सिलाए कपड़ों के निर्यात की हालत खराब रही है। ट्रांस-पैसिफिक भागीदारी और यूरोपीय संघ-वियतनाम मुक्त व्यापार समझौते के बाद वियतनाम की इस बाज़ार में हिस्सेदारी और बढ़ेगी जिसका सीधा असर भारत पर पड़ेगा। भारत के निर्यातों के एक बड़े खरीदार अमेरिका में बढ़ते संरक्षणवाद के कारण भी भारत के निर्यातकों की मायूसी बढ़ सकती है। मोदी भक्त चाहे जितनी डोनाल्ड ट्रम्प की भक्ति कर लें, सच यही है कि ट्रम्प संकट से जूझती अमेरिकी अर्थव्यवस्था का हित देखेगा न कि भारत के पूँजीपतियों का।

कुल मिलाकर सबसे ज़्यादा रोज़गार देने वाले सेक्टरों की हालत में सुधार जल्दी होता नहीं दिख रहा है। निर्माण उद्योग भी ऐसी ही हालत से गुज़र रहा है। देशभर में लाखों फ्लैट खाली पड़े हैं और निर्माण गतिविधियों में भारी सुस्ती बनी हुई है। रिपोर्ट के अनुसार उत्पाद और निर्यात में कमज़ोरी का असर समग्र उपभोग पर भी पड़ेगा जिसके असर से सेवा उद्योग में भी सुस्ती आ सकती है। ग्रामीण अर्थव्यस्था पर इसके नतीजे दिखने भी शुरू हो गये हैं।

देश पर राज कर रहे जुमला-नरेशों की बातों पर मत जाइये। कौवा कान ले गया की तर्ज़ पर कोई किसी के ख़िलाफ़ आपको भड़का दे तो आँखों पर पट्टी बाँधकर आग में कूदने मत लगिये। देश-समाज और अपनी ज़िन्दगी की असली तस्वीर को पहचानिये और असली सवालों पर लड़ने की तैयारी करिये। वरना कल तक बचाने के लिए कुछ बचेगा ही नहीं!

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2018


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments