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सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा (दूसरी किश्त) 

1917 की समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने वाली बाेल्शेविक पार्टी कला की अहमियत के प्रति पूरी सचेत थी। वह जानती थी कि कला लोगों के आत्मिक जीवन को ऊँचा उठाने, उनको सुसंकृत बनाने में कितनी सहायक होती है। अभी जब सिनेमा अपने शुरुआती दौर में ही था, तो हमें उसी समय पर ही लेनिन का वह प्रसिद्ध कथन मिलता है, जो उन्होंने लुनाचार्स्की के साथ अपनी मुलाक़ात के दौरान कहा था, “सब कलाओं में से सिनेमा हमारे लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है।” क्रान्ति के फ़ौरन बाद ही से सोवियत सरकार की तरफ़ से बाेल्शेविक पार्टी की इस समझ पर अमल का काम भी शुरू हो गया। जल्द ही ये प्रयास किये गये कि पूरे सोवियत संघ में संस्कृति के केन्द्रों का विस्तार किया जाये।

अगर हमने पूँजीवाद को तबाह नहीं किया तो पूँजीवाद पृथ्वी को तबाह कर देगा

‘पृथ्वी दिवस’ के अवसर पर 22 अप्रैल को पूरी दुनिया में पर्यावरण को बचाने की चिंता प्रकट करते हुए कार्यक्रम हुए। 1970 में इसकी शुरुआत अमेरिका से हुई और यह बात अनायास नहीं लगती कि इसके लिए 22 अप्रैल का दिन चुना गया जो लेनिन का जन्मदिन है। लेनिन के बहाने क्रांति पर बातें हों, इससे बेहतर तो यही होगा कि पर्यावरण के विनाश पर अकर्मक चिंतायें प्रकट की जाएँ और लोगों को ही कोसा जाये कि अगर वे अपनी आदतें नहीं बदलेंगे, और पर्यावरण की चिंता नहीं करेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब धरती पर क़यामत आ जायेगी। यानी सामाजिक बदलाव के बारे में नहीं, महाविनाश के दिन के बारे में सोचो। हालीवुड वाले इस महाविनाश की थीम पर सालाना कई फ़िल्में बनाते हैं।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी क़ानून में ”बदलाव” – जनहितों में बने क़ानूनों को कमज़ोर या ख़त्म करने का गुजरात मॉडल

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी क़ानून में ”बदलाव” – जनहितों में बने  क़ानूनों को कमज़ोर या ख़त्म करने का गुजरात मॉडल सत्यनारायण (अखिल भारतीय जाति विरोधी मंच, महाराष्ट्र) न्यारपालिका जब किसी अत्यन्त…

“रामराज्य” में राजस्थान में पसरी भयंकर बेरोज़गारी!

राजस्थान में पिछले 7 सालों में मात्र 2.55 लाख  सरकारी नौकरियाँ निकलीं और इनके लिए 1 करोड़ 8 लाख 23 हज़ार आवेदन किये गये यानी कि हर पद के लिए 44 अभ्यर्थियों के बीच मुकाबला हुआ! राजस्थान में हाल ही में रीट की परीक्षा हुई जिसमें केवल 54 हज़ार पद थे (शुरू में केवल 34 हज़ार पद थे जो कि चुनावी साल होने के कारण चालाकी से बढ़ाये गये) और लगभग 10 लाख नौजवानों ने परीक्षा दी। लेकिन उसमें भी भर्ती अटक गयी क्योंकि राजस्थान सरकार की काहिली के कारण पेपर आउट हो गया। क्लर्क ग्रेड परीक्षा में 6 लाख से अधिक उम्मीदवारों ने परीक्षा दी थी। पुलिस कांस्टेबल 2017 की परीक्षा में 5500 पद थे जिसके लिए 17 लाख आवेदन आये यानी कि एक पद के लिए 310 लोगों ने आवेदन किया।

”गुजरात मॉडल” का ख़ूनी चेहरा: सूरत का टेक्सटाइल उद्योग या मज़दूरों का क़त्लगाह!

रिपोर्ट के अनुसार ये आँकड़े सूरत के टेक्सटाइल कारखानों में पेशागत स्वास्थ्य और सुरक्षा के हालात की बेहद चिन्ताजनक तस्वीर पेश करते हैं। दुर्घटनाओं के कारणाों पर नज़र डालें तो 2012 और 2015 के बीच हुई 121 घातक दुर्घटनाओं में से 30 जलने के कारण हुईं जबकि 27 बिजली का करण्ट लगने से हुईं। 23 दुर्घटनाओं का कारण ‘’दो सतहों के बीच कुचलना’’ बताया गया है। कारखानों की भीतरी तस्वीर से वाकिफ़ कोई भी व्यक्ति इसका मतलब समझ सकता है। इसके अलावा बहुत सी मौतें दम घुटने, ऊँचाई से गिरने, आग और विस्फोट, मशीन में फँसने, गैस आदि कारणों से हुई हैं। ज़्यादातर दुर्घटनाएँ जानलेवा क्यों बन जाती हैं इसका कारण कारखानों की हालत से जुड़ा हुआ है। रिपोर्ट में दिये गये एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। सूरत के सूर्यपुर इंडस्ट्रियल एस्टेट में अश्विनी कुमार रोड पर एक पावरलूम यूनिट में 3 अक्टूबर 2015 को सुबह 11.45 बजे आग लगी।

सत्ता पर काबिज़ लुटेरों-हत्यारों-बलात्कारियों के गिरोह से देश को बचाना होगा!

यूँ तो पिछले कई वर्षों से भारतीय समाज एक भीषण सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और नैतिक संकट से गुज़र रहा है, परन्तु अप्रैल के महीने में सुर्खियों में रही कुछ घटनाएँ इस ओर साफ़ इशारा कर रही हैं कि यह चतुर्दिक संकट अपनी पराकाष्ठा पर जा पहुँचा है। जहाँ एक ओर कठुआ और उन्नाव की बर्बर घटनाओं ने यह साबित किया कि फ़ासिस्ट दरिंदगी के सबसे वीभत्स रूप का सामना औरतों को करना पड़ रहा है वहीं दूसरी ओर न्यायपालिका द्वारा असीमानन्द जैसे भगवा आतंकी और माया कोडनानी जैसे नरसंहारकों को बाइज्जत बरी करने और जस्टिस लोया की संदिग्ध मौत की उच्चतम न्यायालय द्वारा जाँच तक कराने से इनकार करने के बाद भारत के पूँजीवादी लोकतंत्र का बचा-खुचा आखिरी स्तम्भ भी ज़मींदोज़ होता नज़र आया। कहने की ज़रूरत नहीं कि ये सब फ़ासीवाद के गहराते अँधेरे के ही लक्षण हैं।

मजदूरों के पत्र – विदेशों में मज़दूरी कर रही भारतीय महिला मज़दूरों की हालत

यह पत्र हमें मज़दूर बिगुल की पाठक बिन्दर कौर ने भेजा है। बिन्दर कौर सिंगापुर में घरेलु नौकर के तौर पर काम करती हैं, पर मज़दूर बिगुल को व्हाटसएप्प के माध्यम से नियमित तौर पर पढ़ती हैं। तमाम सारे पढ़े-लिखे मज़दूर जो आज बेहद कम तनख़्वाहों पर अलग-अलग काम कर रहे हैं, राजनीतिक तौर पर बेहद सचेत हैं और समय-समय पर बिगुल को पत्र लिखते रहते हैं, फ़ोन करते रहते हैं। ऐसे में हम अन्य साथियों से भी अपील करते हैं कि वो मज़दूर बिगुल को पत्र लिखकर अपने जीवन के बारे में ज़रूर बतायें ताकि देशभर के मज़दूरों को पता चले कि जाति, धर्म, क्षेत्र से परे सभी मज़दूरों की माँगें और हालत एक ही है।

त्रिपुरा चुनाव : चेत जाइए, जुझारू बनिए, नहीं तो बिला जायेंगे!

लेकिन संसदीय वामपंथी और उदारवादी लोग शायद अब भी इस मुग़ालते में जी रहे हैं कि सूफि़याना कलाम सुनाकर, गंगा-जमनी तहजीब की दुहाई देकर, मोमबत्ती जुलूस निकालकर, ज्ञापन-प्रतिवेदन देकर, क़ानून और “पवित्र” संविधान की दुहाई देकर, तराजू के “सेक्युलर” पलड़े और फ़ासिस्ट पलड़े के बीच कूदते रहने वाले छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों और नरम केसरिया लाइन वाली कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाकर और चुनाव जीतकर फ़ासिस्टों के क़हर से निजात पा लेंगे। ये लोग भला कब चेतेंगे?

त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के नतीजे और संसदीय वाम का संकट

त्रिपुरा में वाम मोर्चे की सरकार और माणिक सरकार के बारे में बुर्जुआ मीडिया में जो ख़बरें आती थीं और सोशल मीडिया पर बीस साल से बिना किसी गम्भीर चुनौती के साफ़-सुथरी सरकार चला रहे माणिक सरकार के बारे में वामपन्थी लोग जो कुछ लिखते रहते थे, उसमें त्रिपुरा की ज़मीनी हकीक़त न के बराबर होती थी। इसीलिए वाम मोर्चे की इस क़दर बुरी पराजय से लोगों को काफ़ी सदमा लगा। त्रिपुरी समाज के अन्तर्विरोधों की ज़मीनी सच्चाइयों को जाने बिना वर्तमान चुनाव-परिणामों को ठीक से नहीं समझा जा सकता, पर उनकी चर्चा से पहले कुछ और ग़ौरतलब तथ्यों को हम सूत्रवत गिना देना चाहते हैं।

महाराष्ट्र में किसानों और आदिवासियों का ‘लाँग मार्च’ : आन्दोलन के मुद्दे, नतीजे और सबक़

पिछले दिनों महाराष्ट्र में किसानों और आदिवासियों का बड़ा आन्दोलन हुआ हालाँकि इसके प्रचार में व साथ ही नामकरण में आदिवासियों का अलग से नाम नहीं था। उत्तरी महाराष्ट्र के नासिक से हज़ारों लोग 9 मार्च को विधानसभा घेराव के लिए पैदल मार्च करते हुए चलना शुरू हुए, पैदल जत्थे में बच्चे-बूढ़े-महिलाएँ और जवान सभी शामिल थे। मुम्बई पहुँचने तक रास्ते से जत्थे में और लोग भी जुड़ते चले गये। 12 तारीख़ को किसान और आदिवासी मुम्बई के ऐतिहासिक ‘आज़ाद मैदान’ पहुँचे।