Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

फ़रीदाबाद औद्योगिक क्षेत्र की एक आरम्भिक रिपोर्ट

आज़ादी के बाद 1949 से फ़रीदाबाद को एक औद्योगिक शहर की तरह विकसित करने का काम किया गया। भारत-पाकिस्तान बँटवारे के समय शरणाथिर्यों को यहाँ बसाया गया था। उस दौर से ही यहाँ छोटे उद्योग-धन्धे विकसित हो रहे थे। जल्द ही यहाँ बड़े उद्योगों की भी स्थापना हुई और 1950 के दशक से इसका औद्योगीकरण और तीव्र विकास आरम्भ हुआ। मुग़ल सल्तनत के काल से ही फ़रीदाबाद दिल्ली व आगरा के बीच एक छोटा शहर हुआ करता था। आज की बात की जाये तो फ़रीदाबाद देश के बड़े औद्योगिक शहरों में नौवें स्थान पर है। फ़रीदाबाद में 8000 के क़रीब छोटी-बड़ी पंजीकृत कम्पनियाँ हैं।

कोरोना काल में मज़दूरों की जीवनस्थिति

आज देशभर के मज़दूर कोरोना की मार के साथ-साथ सरकार की क्रूरता और मालिकों द्वारा बदस्तूर शोषण की मार झेल रहे हैं। बीते वर्ष से अब तक पूरे कोरोनाकाल में मज़दूरों-मेहनतकशों का जीवन स्तर नीचे गया है। खाने-पीने में कटौती करने से लेकर वेतन में कटौती होने या रोज़गार छीने जाने से मज़दूरों के हालात बद से बदतर हुए हैं। कोरोना महामारी से बरपे इस क़हर ने पूँजीवादी व्यवस्था के पोर-पोर को नंगा करके रख दिया है।

वज़ीरपुर के मज़दूर आन्‍दोलन को पुन: संगठित करने की चुनौतियाँ

22 अगस्त को सी-60/3 फ़ैक्टरी में पॉलिश के कारख़ाने में छत गिरने से एक मज़दूर की मौत हो गयी। सोनू नाम का यह मज़दूर वज़ीरपुर की झुग्गियों में रहता था। मलबे के नीचे दबने के कारण सोनू की तत्काल मौत हो गयी, हादसा होने के बाद फ़ैक्टरी पर पुलिस पहुँची और पोस्टमार्टम के लिए मज़दूर के मृत शरीर को बाबू जगजीवन राम अस्पताल में ले गयी। मुनाफ़े की हवस में पगलाये मालिक की फ़ैक्टरी को जर्जर भवन में चलाने के कारण एक बार फिर एक और मज़दूर को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

वेतन न देने और वेतन कटौती में घपलेबाज़ी को लेकर मानेसर की श्रीनिसंस कम्पनी के मज़दूरों के क़ानूनी संघर्ष की उम्मीदें भी लगभग ख़त्म!

श्रीनिसंस वायरिंग लिमिटेड (मानेसर) के मज़दूरों को पिछले छह महीने से उनके वेतन का भुगतान नहीं किया गया है। दूसरे, वेतन से कम्पनी द्वारा पैसा काटने के बावजूद न तो पी.एफ़. और न ही ई.एस.आयी. में पैसा जमा किया गया है; और न ही मज़दूरों द्वारा कम्पनी से लिये गये क़र्ज़ की क़िश्त चुकायी जा रही थी। इस तानाशाही व घपलेबाज़ी की शिकायत मज़दूरों ने श्रम उपायुक्त को 9 जुलाई को लिखित रूप में भी की थी। स्टाफ़ के क़रीब 20 मज़दूरों की तनख़्वाह का जनवरी 2021 से तथा ठेका व अप्रेण्टिस मज़दूरों का अप्रैल 2021 से भुगतान नहीं किया गया है।

बंगलादेश में एक बार फिर मुनाफे़ की आग की बलि चढ़े 52 मज़दूर

भारत हो या बंगलादेश या कोई अन्य पूँजीवादी देश, मालिकों के लिए मज़दूरों की अहमियत कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं होती। बीते 8 जुलाई को बंगलादेश में ढाका के नारायणगंज क्षेत्र में जूस के कारख़ाने में भीषण आग लगी, जिसमें 52 मज़दूरों की जान चली गयी और कई घायल हुए।

अनियोजित लॉकडाउन में बदहाल होते मुम्बई के मेहनतकशों के हालात

मानखुर्द, मुम्बई के सबसे बाहरी छोर पर आता है और सबसे ग़रीब इलाक़ों में से एक है। यहाँ मज़दूरों, मेहनतकशों और निम्न मध्यम वर्ग के रिहायशी इलाक़े आपस में गुँथे-बुने ढंग से मौजूद हैं। मुम्बई की इन्हीं बस्तियों में रहने वाली मज़दूर-मेहनतकश आबादी, पूरे मुम्बई के तमाम इलाक़ों को चलाने और चमकाने का काम करती है।

आवश्यक रक्षा सेवा अध्यादेश, 2021 के ज़रिए मज़दूरों के अधिकारों पर फ़ासीवादी सत्ता का एक और हमला!

बीते 30 जून को फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा आवश्यक रक्षा सेवा अध्यादेश, 2021 लाया गया। ज्ञात हो कि यह अध्यादेश केन्द्र सरकार को आवश्यक रक्षा सेवाओं में लगे फ़ैक्टरी मज़दूरों के हड़ताल पर रोक लगाने समेत अनेक अधिकारों को निरस्त करने की अनुमति देता है।

मज़दूरों की लूट और बढ़ाने के लिए अब अप्रेण्टिस क़ानून में बदलाव की तैयारी

मोदी सरकार के केन्द्र में सत्तासीन होने के बाद से ही लगातार मज़दूर विरोधी नीतियों को लागू किया जा रहा है। तमाम श्रम क़ानूनों को ढीला करने का काम किया जा रहा है। इसी कड़ी में यह सरकार अप्रेण्टिस क़ानून में बदलाव की तैयारी कर रही है। यह अनुमान है कि आने वाले मानसून सत्र में यह सरकार अप्रेण्टिस क़ानून में बदलाव से जुड़े बिल को मंज़ूरी के लिए ला सकती है। इस नये क़ानून के आने के बाद कोई भी कम्पनी 15 फ़ीसदी तक अप्रेण्टिस स्टाफ़ रख सकती है, जबकि पहले इन कम्पनियों को 10 फ़ीसदी से अधिक अप्रेण्टिस स्टाफ़ रखने की मंज़ूरी नहीं थी।

दिल्ली के उद्योग नगर में मज़दूरों के हत्याकाण्ड का ज़िम्मेदार कौन?

एक बार फिर ये साबित हो गया कि पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरों की अहमियत कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है। बीते 21 जून को दिल्ली के पीरागढ़ी स्थित उद्योग नगर औद्योगिक क्षेत्र में जूता कारख़ाने में भीषण आग लग गयी, जिसमें 6 मज़दूरों की जानें चली गयीं। सरकार और मालिक की लापरवाही का आलम यह है कि उन मज़दूरों की लाशों को सात-आठ दिन बीतने के बाद धीरे-धीरे निकाला गया।

पुणे में 18 मज़दूरों की मौत : मज़दूर नहीं जागे तो मौतों का यह सिलसिला चलता ही रहेगा

एक बार फिर यह साबित हो गया कि पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरों की जान की क़ीमत कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है। बीते 7 जून को पुणे के औद्योगिक क्षेत्र में केमिकल के एक कारखाने में भीषण आग लग गयी, जिसमें 18 मज़दूरों की जान चली गयी जिनमें ज़्यादातर महिलाएँ थीं। उस समय फैक्ट्री में 37 मज़दूर मौजूद थे। इनमें कार्यरत मज़दूर महज़ 7000-8000 रुपये वेतन पर फैक्टरी मालिक के कारखाने में खटते थे। इस हत्याकांड का ज़िम्मेदार कौन है?