मोदी-शाह की राजग गठबन्धन सरकार का पहला बजट
मेहनतकश-मज़दूरों के हितों पर हमले और पूँजीपतियों के हितों की हिमायत का दस्तावेज़
सम्पादकीय अग्रलेख
वित्तमन्त्री निर्मला सीतारमण ने 23 जुलाई 2024 को मोदी-शाह नीत राजग सरकार का पहला बजट पेश किया। बीते लोकसभा चुनावों में राज्यसत्ता के भीतर घुसपैठ के ज़रिये ईवीएम घपला करने, नौकरशाही व समस्त संस्थाओं का इस्तेमाल करने, बसपा जैसी दल्ली पार्टियों को अपने प्रॉक्सी उम्मीदवार के रूप में खड़ा करने के बावजूद, भाजपा अपने बूते पर बहुमत तक नहीं पहुँच पायी। इसका प्रमुख कारण था देश में बेरोज़गारी और महँगाई को लेकर मौजूद गहरा असन्तोष। अब जबकि महाराष्ट्र, हरियाणा व झारखण्ड जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव आ रहे हैं, तो भाजपा-नीत राजग सरकार के सामने यह चुनौती थी कि आर्थिक असन्तोष को लेकर कुछ किया जाय। लेकिन साथ ही चुनावों से पहले इलेक्टोरल बॉण्ड के ज़रिये जो लाखों करोड़ का चन्दा देश के पूँजीपति वर्ग ने भाजपा को दिया है, उसके बदले पूँजी के हितों की भी सेवा करनी थी। नतीजतन, मोदी सरकार के नये बजट में वही हुआ जो हो सकता था और जिसकी आशंका थी। यानी, देश के मज़दूरों, मेहनतकश ग़रीब व मँझोले किसानों और आम घरों से आने वाले छात्रों, युवाओं व स्त्रियों को केवल झुनझुना थमाया गया जबकि पूँजीपतियों की सेवा के लिए सारे असली कदम उठाये गये। पूँजीवादी बजट का विश्लेषण करना और उसके वर्गीय चरित्र को समझना सर्वहारा वर्ग का एक कार्यभार हो सकता है। केवल तभी वह व्यापक जनता के समक्ष इसके चरित्र को साफ़ कर सकता है।
बजट भाषण में वित्तमन्त्री ने बेरोज़गारी के मसले पर काफ़ी-कुछ कहा। उन्हें पता था कि बीते लोकसभा चुनावों में तमाम हेराफेरी के बावजूद भाजपा की जो गत बनी उसके पीछे बेरोज़गारी और उसके कारण व्यापक मेहतनकश आबादी और युवाओं में मौजूद ग़ुस्सा एक प्रमुख कारण था। इसलिए सबसे पहले यह देख लेते हैं कि रोज़गार के मोर्चे पर मोदी सरकार ने क्या किया है।
बेरोज़गारी के मुद्दे पर बजट 2024-25 : मज़दूरों और नौजवानों को मूर्ख बनाने की चालाक कोशिश
बजट से पहले आये आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने कुबूल किया था कि देश की “कारपोरेट पूँजी मुनाफ़े के समन्दर में तैर रही है”। ग़ौरतलब है, 2020 से 2023 के बीच भारत 33,000 शीर्ष कम्पनियों का कर-पूर्व मुनाफ़ा चौगुना हो गया। लेकिन निजी क्षेत्र के पूँजीपतियों के लाभ में हुई भारी बढ़ोत्तरी की तुलना में निजी क्षेत्र में नौकरियों में बढ़ोत्तरी नहीं के बराबर हुई है। इसलिए सरकार भी निजी क्षेत्र को तमाम नयी सहूलियतें देते हुए उससे आग्रह करती नज़र आ रही है कि “हे प्रभु, नया निवेश करें, नयी नौकरियाँ पैदा करें, अन्यथा आपके सेवक ख़तरे में पड़ सकते हैं।” ये नयी सहूलियतें क्या हैं? बजट में मोदी सरकार ने रोज़गार पैदा करने की क्या नीतियाँ पेश की हैं?
सबसे पहली नीति को नाम दिया गया है रोज़गार-सम्बन्धित प्रोत्साहन (एम्प्लॉयमेण्ट लिंक्ड इन्सेण्टिव)। ये क्या वस्तु है? यह एक दिलचस्प वस्तु है! इसके तहत, मोदी सरकार उन पूँजीपतियों को विशेष राहत देगी जो नये मज़दूरों को काम पर रखेगी। कैसे? मोदी सरकार उन्हें मज़दूरी का एक हिस्सा देगी, जिससे कि मज़दूरी-बिल का बोझ इन पूँजीपतियों पर उसी अनुपात में नहीं बढ़ेगा जिस अनुपात में मज़दूरों की संख्या बढ़ेगी। यानी, मज़दूरी देने के बोझ से उन पूँजीपतियों को कुछ राहत देगी, जो नया रोज़गार नये मज़दूरों को देंगे! पहली बात तो यह कि यह योजना लागू होना ही बहुत मुश्किल है। बहुत-से पूँजीपति मज़दूरों की संख्या को बढ़ाकर दिखायेंगे और ये लाभ प्राप्त करेंगे, लेकिन वास्तव में अधिक मज़दूरों को काम पर नहीं रखेंगे। लेकिन पल भर को यह मान भी लिया जाय कि भारत के सारे छोटे व मँझोले पूँजीपति (क्योंकि इसका असर बड़े व इजारेदार पूँजीपतियों पर नगण्य होगा) मर्यादा पुरुषोत्तम व नैतिकता के मूर्त रूप बन कर इस योजना पर ईमानदारी से अमल करते हैं, तो वास्तव में होगा क्या?
पहली बात तो यह कि श्रमशक्ति पर पूँजीपतियों का प्रति इकाई ख़र्च कम होगा और इसलिए निवेश की हर इकाई के सापेक्ष उनके मुनाफ़े की दर बढ़ेगी। दूसरी बात यह कि कोई पूँजीपति इस योजना का चयन तभी करेगा जबकि उसकी प्रति इकाई लागत इस योजना का चुनाव करने से वाकई कम हो, जो इस बात पर भी निर्भर करेगा कि उसके विशिष्ट माल (वस्तु या सेवा) के लिए बाज़ार में पर्याप्त प्रभावी माँग है या नहीं। तीसरी बात, पूँजीपतियों को यह राहत जिस स्रोत से दी जायेगी, वह होगा सरकारी ख़ज़ाना, जो मूलत: और मुख्यत:, जनता से ही करों के रूप में वसूला जायेगा। इसका बोझ सबसे पहले तो अप्रत्यक्ष करों के रूप में आम मेहनतकश जनता पर डाला जायेगा और गौण रूप में आयकर के रूप में मध्यवर्ग पर डाला जायेगा। जहाँ तक पूँजीपतियों द्वारा दिये जाने वाले कारपोरेट टैक्स व अन्य शुल्कों की बात है, या विदेशों से उत्पादन के साधनों के सस्ते निवेश के लिए विशिष्ट आयातों पर लगने वाले शुल्कों की बात है, तो उसे बढ़ाना तो दूर उसे कम किया जायेगा। यह कोई भविष्यवाणी नही है, जो हम यहाँ मनमाने तरीक़े से कर रहे हैं। पिछले कई वर्षों में और विशेष तौर पर मोदी सरकार के 10 वर्षों के दौरान यह प्रक्रिया ही घटित हुई है। आइये, कुछ आँकड़ों पर निगाह डालते हैं।
2022-23 और 2024-25 के बीच कर से प्राप्त होने वाली कुल आय यानी सरकार का कर राजस्व 30,54,192 करोड़ रुपये से बढ़कर 38,30,796 करोड़ रुपये पहुँच गया। कैसे? मुख्य रूप से आम मेहनतकश जनता पर अप्रत्यक्ष करों और मध्यवर्ग पर आयकर का बोझ बढ़ाकर। दूसरी ओर, पूँजीपतियों द्वारा दिये जाने वाले कारपोरेट कर को लगातार घटाया गया। इस बीच कारपोरेट कर कुल कर राजस्व के 29 प्रतिशत से घटकर 27 प्रतिशत रह गया। दूसरी ओर, आयकर का हिस्सा 26.8 प्रतिशत से बढ़कर 30.2 प्रतिशत और महज़ जीएसटी 27 प्रतिशत से बढ़कर 27.2 प्रतिशत हो गया। ज्ञात हो कि पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाला कर जीएसटी में शामिल नहीं है। 2022-23 में पेट्रोलियम उत्पादों से केन्द्र सरकार ने 4.28 लाख करोड़ रुपये जनता से वसूले जबकि राज्य सरकारों ने कुल 3.2 लाख करोड़ रुपये वसूले। अगर इन्हें भी जनता पर डाले गये कर बोझ में जोड़ा जाय, तो यह आँकड़ा कहीं ज़्यादा हो जाता है। वहीं दूसरी ओर, देशी और विदेशी पूँजी को लाभ पहुँचाने के लिए कुल कर राजस्व में कस्टम शुल्क से आने वाले हिस्से को भी पिछले दो वर्षों में 7 प्रतिशत से घटाकर 6 प्रतिशत कर दिया गया है। कुछ लोगों को लगता है कि इससे केवल विदेशी पूँजी का लाभ पहुँचता है। लेकिन भारत के कुल आयात में करीब 13 प्रतिशत उत्पादन के साधनों का आयात है। इनके सस्ते होने का अर्थ है कि इसका फ़ायदा देशी पूँजी को भी मिलेगा क्योंकि उनकी लागत कम होगी और मुनाफ़े की दर बढ़ेगी। विदेशी पूँजी को तो इसका फ़ायदा होता ही है। कुल मिलाकर, सरकार के राजस्व में 14.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है, लेकिन सरकार के कुल ख़र्च में केवल 5.94 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है और यह बढ़ोत्तरी भी पूँजीपतियों के लिए होने वाले ख़र्च में हुई है क्योंकि सामाजिक ख़र्च में तो कमी आयी है। अब रोज़गार की बजट द्वारा प्रस्ताविक योजनाओं पर वापस लौटते हैं।
दूसरी धोखेधड़ी वाली योजना का नाम है इण्टर्नशिप योजना। इसके तहत सरकार ने दावा किया है कि 500 कम्पनियाँ 1 करोड़ लोगों को इण्टर्नशिप देंगी। लेकिन सरकार यह कैसे सुनिश्चित करेगी कि 500 कम्पनियाँ हर वर्ष ऐसा करें, इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है। साथ ही, यह भी नहीं बताया गया है कि इण्टर्नशिप के बाद इन युवाओं व कामगारों को वास्तव में रोज़गार मिलेगा या नहीं। यानी, वास्तव में कम्पनियाँ इण्टर्नशिप के दौरान इनका अतिशोषण कर इन्हें बाहर फेंक दें, तो सरकार क्या करेगी? सरकार की ओर से वायदा किया गया है कि 500 कम्पनियाँ हर वर्ष 20,000 लोगों को अप्रेण्टिस के तौर पर रखेंगी और इसकी एवज़ में इन अप्रेण्टिसों को सरकार रु. 5000 वज़ीफ़ा देगी! यानी, ये कामगार काम तो कम्पनी के लिए करेंगे और उन्हीं के लिए मुनाफ़ा भी पैदा करेंगे, लेकिन उन्हें वज़ीफ़ा देगी सरकार! कहाँ से देगी? अपने ख़ज़ाने से! सरकारी ख़ज़ाना कहाँ से आता है? सीधे जनता की जेब से और जनता की मेहनत से, जिसकी विनियोजित लूट का एक हिस्सा कम्पनियाँ कर के रूप में देती हैं! यानी, यहाँ जनता से ही पैसे वसूलकर उसे वज़ीफ़ा देने की योजना है, जिसका पूरा फ़ायदा निजी कम्पनियाँ उठाने वाली हैं।
तीसरी बात जो बजट में कही गयी है और जो रोज़गार सृजन के नज़रिये से महत्व रखती है वह अतिलघु, लघु व छोटे उद्योगों के लिए किया गया आबण्टन। उसकी भी स्थिति देख लें। इनके लिए पहले के ही समान 22,137.95 करोड़ रुपये का आबण्टन किया गया है। लेकिन पिछले वर्ष से जारी औसत मुद्रास्फीति की दर से इस आबण्टन को प्रतिसन्तुलित करते हैं, तो वास्तविक अर्थों में यह 5 प्रतिशत की कमी है, क्योंकि एक वर्ष पहले इस राशि का जितना वास्तविक मूल्य था आज वह उससे 5 प्रतिशत कम है। नतीजतन, वे उद्योग जिनको सरकारी मदद से रोज़गार-सृजन होने की कोई सम्भावना है, उनके लिए आबण्टित बजट वास्तविक अर्थ में कम हुआ है।
रोज़गार-सृजन से जुड़ी अधिकांश योजनाएँ व बजट घोषणाएँ वास्तव में धोखेबाज़ी हैं। असल में, सरकार उस नवउदारवादी सोच के आधार पर चल रही है, जिसके अनुसार, मज़दूरी को अगर पर्याप्त नीचे किया जाय तो फिर सभी को रोज़गार दिया जा सकता है। वहीं प्रभात पटनायक जैसे कींसवादी इसका जवाब देते हुए दूसरे छोर पर जाते हैं और दावा करते हैं कि अगर सरकार पर्याप्त सामाजिक ख़र्च करे, तो इससे लोगों की औसत आय में बढ़ोत्तरी होगी और नतीजतन प्रभावी माँग में बढ़ोत्तरी होगी और फिर निवेश को भी प्रोत्साहन मिलेगा और अन्तत: रोज़गार में बढ़ोत्तरी होगी। कींस का मानना था कि सरकार सामाजिक ख़र्च द्वारा लोगों के जेबों में तब तक बिना मुद्रास्फीति के डर के पैसे डालती रह सकती है, जब तक कि लगभग पूर्ण रोज़गार की मंज़िल न आ जाय। लेकिन वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था में आम तौर पर यह सम्भव नहीं होता है। विशेष तौर पर, तब यह कतई सम्भव नहीं होता है जब मुनाफ़े की औसत दर गिर रही हो। क्योंकि तब सरकार द्वारा इस प्रकार का ख़र्च लोगों को कम ग़रज़मन्द बनाता है; लोग अच्छी मज़दूरी वाले रोज़गार के लिए इन्तज़ार कर सकते हैं; यह औसत मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा करता है। एक पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीवादी राज्यसत्ता में काबिज़ कोई भी पूँजीवादी पार्टी यह काम नहीं कर सकती है। पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन और निवेश को नियन्त्रित और विनियमित करने वाला पहलू होता है मुनाफ़ा। उत्पादन, विनिमय और वितरण, सबकुछ मुनाफ़े की ख़ातिर होता है। जब श्रम की उत्पादकता बढ़ती है, नयी तकनोलॉजी और मशीनें आती हैं, तो निवेशित पूँजी में उत्पादन के साधनों पर ख़र्च मज़दूरी पर ख़र्च के सापेक्ष बढ़ता है। अगर मुनाफ़े की औसत दर ज़्यादा हो, तो इसके बावजूद कुल रोज़गार में बढ़ोत्तरी हो सकती है। लेकिन दीर्घकालिक मन्दी के दौर में, जो पिछले कई दशकों से जारी है, यह स्थिति ही बेहद कम और बेहद छोटे दौरों के लिए आयी है। अधिकांशत: हुआ यह है कि उत्पादन के साधनों पर पूँजी निवेश के मज़दूरी पर निवेश के सापेक्ष बढ़ने का नतीजा यह हुआ है कि मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट आयी है और नतीजतन श्रम की उत्पादकता में होने वाली हर बढ़ोत्तरी का नतीजा यह हुआ है कि कुल रोज़गार सृजन की दर में कमी आयी है, क्योंकि मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट के कारण नये निवेश की दर नगण्य है और पुराने निवेश के पैमाने में भी विस्तार नहीं हो रहा है। अगर सरकारी आँकड़े देखें तो लगता है कि भारत में श्रम की उत्पादकता में कोई बढ़ोत्तरी नहीं आ रही है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक श्रम की उत्पादकता की वृद्धि दर मात्र 2.5 प्रतिशत बतायी गयी है। लेकिन इसकी गणना सकल घरेलू उत्पाद को कुल कार्य के घण्टों से विभाजित करके की गयी है। यह वास्तव में श्रम की उत्पादकता में वृद्धि को सही रूप में नहीं बता सकता है। वास्तव में, अगर हम पूँजी-श्रम अनुपात को देखें, तो हम पाते हैं कि 1994-2002 के कालखण्ड से 2003-2017 के कालखण्ड के बीच यह 2.8 से दोगुना होकर 5.6 हो गया। यानी, पूरे 100 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी। इसलिए न तो सरकारी नवउदारवादी अर्थशास्त्री यह समझते हैं कि रोज़गार सृजन की समस्या का समाधान क्या है और न ही प्रभात पटनायक जैसे कींसवादी समझते हैं कि प्रभावी माँग को सामाजिक ख़र्च अधिक करके बढ़ाने से रोज़गार सृजन की समस्या का समाधान पूँजीवादी व्यवस्था में और ख़ास तौर पर संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था में सम्भव ही नहीं है क्योंकि यह पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की औसत दर को और ज़्यादा गिराती है। कींस और प्रभात पटनायक, सी. पी. चन्द्रशेखर और जयति घोष जैसे उनके काबिल चेले मछली को आसमान में उड़ाना चाहते हैं और पंछी को नदी में तैराना चाहते हैं।
संक्षेप में, रोज़गार की समस्या में लगातार बढ़ोत्तरी का एक कारण ढाँचागत है: जारी पूँजीवादी मन्दी। वैसे तो पूँजीवादी व्यवस्था अपनी आन्तरिक गति से हमेशा बेरोज़गारों की एक फ़ौज को क़ायम रखती है। लेकिन श्रम की सक्रिय सेना व श्रम की रिज़र्व सेना का अनुपात मुनाफ़े की औसत दर व संचय की गति पर निर्भर करता है। मोदी सरकार पूँजीपतियों को मुनाफ़े की गिरती औसत दर के संकट से राहत दिलाने के लिए ठीक उन कदमों को उठायेगी, जो बेरोज़गारी को और ज़्यादा बढ़ायेगी। यह सोचना कि औसत मज़दूरी को अगर और ज़्यादा गिरा दिया जाय, तो रोज़गार सृजन की दर में विचारणीय वृद्धि हो सकती है, मोदी सरकार का मुग़ालता है क्योंकि औसत मज़दूरी की दर भारत में पहले ही बेहद नीचे है और इसे नीचे गिराते जाने की एक सीमा है। मोदी सरकार को यह लगता है कि अगर नये रोज़गार की लागत को मज़दूरी को घटाकर और साथ ही मज़दूरी के “बोझ” का एक हिस्सा सरकारी ख़ज़ाने पर डालकर पूँजीपतियों को निवेश के लिए प्रोत्साहन दिया जाय, तो निवेश की दर को बढ़ाया जा सकता है। लेकिन सच्चाई यह है कि ये कदम निवेश की दर को बढ़ायेंगे या नहीं, यह कई अन्य कारकों पर निर्भर करता है, मसलन, मुनाफ़े की औसत दर, श्रम की उत्पादकता, घरेलू बाज़ार का आकार, आदि।
दूसरी बात यह कि मोदी सरकार द्वारा रोज़गार-सम्बन्धित प्रोत्साहन योजनाओं व इण्टर्नशिप जैसी योजनाओं के ज़रिये मज़दूरी के ख़र्च का एक हिस्सा सरकारी ख़ज़ाने पर डाल देने से भी पूँजीपति वर्ग द्वारा निवेश की दर में कोई ख़ास बढ़ोत्तरी नहीं होने वाली है। वजह यह कि मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट की दर में कमी के कारण पूँजीपति इस “प्रोत्साहन” का इस्तेमाल अन्य अनुत्पादक गतिविधियों में ज़्यादा करेगा, मसलन, सट्टेबाज़ी, प्रापर्टी बाज़ार आदि में। यही पिछले 10 वर्षों में होता रहा है। लम्बी दूरी में देखें तो मोदी सरकार की इन धोखाधड़ी की योजनाओं से रोज़गार सृजन की दर में लम्बी दूरी में कोई विशेष अन्तर नहीं आने वाला है। सामाजिक ख़र्च में लगातार कटौती रोज़गार सृजन की दर को और भी कम करेगी।
सरकार द्वारा सामाजिक ख़र्च में भारी कटौती : यानी मेहनतकशों, मज़दूरों, महिलाओं को मिलने वाली सहूलियतों और रोज़गार में कमी
हमने ऊपर ज़िक्र किया कि क्यों संकट के दौर में पूँजीवादी सरकारें मज़दूरों की औसत आय को कम करने वाली नीतियों को लागू करती हैं। इसी के ज़रिये व्यापक मेहनतकश अवाम को पूँजीपतियों के सामने अधिक ग़रज़मन्द बनाया जा सकता है, पूँजीपतियों के निवेश की लाभप्रदता को बढ़ाया जा सकता है। फ़ासीवादी मोदी सरकार ने पिछले 10 वर्षों में लगातार यह काम किया है और गठबन्धन सरकार के रूप में तीसरी बार सरकार बनाने के बावजूद उसने इस काम को नये बजट में बदस्तूर जारी रखा है। इसमें नीतीश व नायडू जैसे अवसरवादी जनविरोधी क्षेत्रीय बुर्जुआ नेता कोई अड़चन डालने नहीं जा रहे हैं। क्योंकि इस नवउदारवादी एजेण्डा पर सभी पूँजीवादी पार्टियों की सहमति है।
इस बार मोदी सरकार ने मनरेगा के बजट में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की और उसे रु. 86,000 करोड़ पर ही रखा। यदि 5 प्रतिशत की औसत मुद्रास्फीति दर से इसे प्रतिसन्तुलित किया जाय, तो इसका अर्थ होगा कि मनरेगा के बजट में 5 प्रतिशत की कमी की गयी है। यह कहा गया है कि काम की माँग होने पर इस आबण्टन को बढ़ाया जा सकता है। लेकिन काम की माँग में बढ़ोत्तरी होगी कैसे जब इस योजना को लागू ही ढंग से नहीं किया जा रहा है? वक्त पर मज़दूरी नहीं मिलती, पूरे 100 दिन का काम नहीं मिलता और इसके कार्यान्वयन में सोचे-समझे तौर पर भ्रष्टाचार के बोलबाले को बरक़रार रखा गया है। ऐसे में काम की माँग कैसे पैदा होगी। वास्तव में, जो राशि बजट में आकलित की जाती है, मनरेगा के तहत उतनी भी ढंग से ख़र्च नहीं होती। बताने की आवश्यकता नहीं है कि मनरेगा ग्रामीण ग़रीब को भुखमरी के स्तर पर गाँव में रखने और कुछ अतिरिक्त आय का साधन देने के अलावा और कुछ नहीं करती। वास्तव में, यह एक रोज़गार योजना क़ानून है ही नहीं बल्कि उन्नीसवीं सदी के इंग्लैण्ड के ग़रीब क़ानून (पुअर लॉ) जैसा है जिसके तहत सबसे ग़रीब आबादी को बेहद कम मज़दूरी पर भुखमरी रेखा पर ज़िन्दा रहने भर का काम दिया जाता था। लेकिन सरकार उसे भी ढंग से लागू नहीं कर रही है ताकि मज़दूर आबादी को पूँजीपति वर्ग के समक्ष और ज़्यादा ग़रज़मन्द बनाया जा सके।
इसी प्रकार महिला एवं बाल विकास मन्त्रालय को आबण्टित राशि में 2.5 प्रतिशत की नाममात्र की बढ़ोत्तरी कर उसे 25,448.68 करोड़ रुपये से 26,092.29 करोड़ किया गया है। लेकिन वास्तविक मूल्य में देखें, यानी यदि इस राशि को मुद्रास्फीति से प्रतिसन्तुलित करें, तो यह आबण्टन घटाया गया है। नतीजतन, सभी स्कीम वर्करों को मिलने वाले मानदेय में बढ़ोत्तरी की कोई विशेष उम्मीद नहीं की जा सकती है। वहीं इसमें निवेश में कमी के कारण इस स्कीम के तहत भी रोज़गार का विस्तार नहीं होगा। हालाँकि स्कीम वर्करों को मज़दूर का कोई दर्जा भी नहीं दिया जाता और उन्हें सरकार का कर्मचारी नहीं माना जाता। नियोक्ता-कर्मचारी सम्बन्ध को छिपाकर उनके हक़ों को उनसे छीना जाता है और उनसे बेगार करवाया जाता है। इन योजनाओं के लिए आबण्टन में कमी से सरकार की मंशा ज़ाहिर हो जाती है कि वह स्कीम वर्करों को कतई न्याय नहीं देना चाहती और इसी अरक्षित अवस्था में रखकर उन्हें बेगार पर खटवाना चाहती है।
ग्रामीण विकास के बजट में कहने को 4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है। उसे 1,71,069.46 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 1,77,562.05 करोड़ रुपये कर दिया गया है। लेकिन, फिर से, अगर हम मुद्रास्फीति की औसत दर से उसे प्रतिसन्तुलित करें तो वास्तविक मूल्य के लिहाज़ से उसमें कमी आयी है। युवा मामलों व खेल के लिए बजट आबण्टन में मात्र 1.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है और उसे 3,396.96 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 3,442.32 करोड़ रुपये किया गया है। यानी वास्तविक रूप में इस मद में आबण्टन में करीब 4 प्रतिशत की कमी हुई है। देश में युवाओं की हालत दयनीय क्यों है और क्यों 140 करोड़ की आबादी के बावजूद भारत ओलम्पिक में एक स्वर्ण पदक भी नहीं जीत पाया, यह समझना कोई मुश्किल काम नहीं है।
लेकिन सबसे बड़ी कटौती की गयी है उच्चतर शिक्षा के बजट में। उसे 17 प्रतिशत कम करके 52,244.48 करोड़ रुपये से घटाकर 47,619.77 करोड़ रुपये कर दिया गया है। मुद्रास्फीति से प्रतिसन्तुलित करने पर यह कटौती 22 प्रतिशत तक पहुँच जाती है। स्कूल शिक्षा व साक्षरता के लिए की गयी बढ़ोत्तरी मात्र 0.70 प्रतिशत है, जो वास्तविक मूल्य के रूप में गिरावट को दिखलाती है। यानी उच्चतर, माध्यमिक व प्राथमिक सरकारी शिक्षा के खर्चे में भारी कटौती की गयी है। दूसरी ओर, बजट एक मॉडल स्किल लोन योजना की बात करता है जो कि सरकारी गारण्टी के साथ रु. 7.5 लाख तक के शिक्षा लोन की इजाज़त देता है। साथ ही, उच्चतर शिक्षा के रु. 10 लाख तक के कर्ज़ के लिए 3 प्रतिशत वार्षिक ब्याज़ की सब्सिडी हेतु सरकारी समर्थन देने की बात की गयी है। लेकिन जब रोज़गार सृजन ही नहीं हो रहा है, तो छात्र ये ब्याज़ और मूलधन चुकायेंगे कैसे? वास्तव में, इन कदमों के ज़रिये सरकार सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को तबाह कर रही है और निजी विश्वविद्यालयों, कॉलेजों व शिक्षण संस्थानों को फलने-फूलने का अवसर दे रही है। इसके अलावा, शिक्षा पर सरकार ख़र्च की जगह ऋण की व्यवस्था को लाकर वित्तीय पूँजी को भी छात्रों-युवाओं को लूटने का पूरा अवसर दे रही है।
संक्षेप में, सामाजिक ख़र्च में और जनता को लाभ पहुँचाने वाली अधिकांश सब्सिडियों में मोदी सरकार ने भारी कटौती की है। मूल उद्देश्य हैं औसत आय में कटौती कर मुनाफ़े की दर को पूँजीपतियों के लिए बढ़ाना, निजी क्षेत्र को भरपूर लाभ पहुँचाना और सार्वजनिक क्षेत्र को धीमी मौत मारना, ताकि नये लाभप्रद निवेश के अवसर पैदा हों।
खेती और बजट : धनी कुलकों, पूँजीवादी फार्मरों का तुष्टिकरण और ग़रीब मेहनतकश किसानों के लिए शून्य बटा सन्नाटा
कृषि और सम्बन्धित क्षेत्र के लिए होने वाले आबण्टन में कमी कर उसे 14,421.4 करोड़ रुपये से 14,053.3 करोड़ रुपये कर दिया गया है। वहीं दूसरी ओर, अधिकांश फसलों की एमएसपी को बरक़रार रखा गया है। ज़ाहिर है, इसका लाभ केवल धनी किसानों व पूँजीवादी ज़मीन्दारों को ही मिलेगा और उन्हीं को मिलता रहा है। लेकिन ग़रीब किसानों के लिए बजट में कुछ भी नहीं है, सिवाय नुकसान के। मसलन, खाद पर सब्सिडी को घटाकर 1,88,894 करोड़ से 1,64,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है, हालाँकि जो सब्सिडी मिलती भी है उसका अधिकांश फ़ायदा धनी किसानों व कुलकों को ही होता है। वहीं खाद्य सब्सिडी को रु. 2,12,332 करोड़ से घटाकर 2,05,250 करोड़ रुपये कर दिया गया है। इसके अलावा, समूची आम जनता को नुकसान पहुँचाते हुए पेट्रोलियम सब्सिडी को घटाकर 12,240 करोड़ रुपये से 11,925 करोड़ रुपये कर दिया गया है। यानी जल्द ही आप पेट्रोल व डीज़ल की कीमतों में बढ़ोत्तरी की उम्मीद कर सकते हैं। बस इस वर्ष के विधानसभा चुनावों को बीतने दें!
कुल मिलाकर खेती के क्षेत्र को इस बजट में 1.52 लाख करोड़ रुपये का आबण्टन किया गया है। वैसे देखा जाय तो यह कम नहीं है। लेकिन यह मद किन चीज़ों पर ख़र्च होने वाला है। पूँजीवादी फार्मरों के लिए बजट आबण्टन में 21.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है। ग़ौरतलब यह है कि धनी पूँजीवादी किसानों व कुलकों ने मुख्य तौर पर दो चीज़ों पर आपत्ति की है: पहला, लाभकारी मूल्य की क़ानूनी गारण्टी न देना और दूसरा ऋण माफ़ न करना। कोई भी समझ सकता है कि यह धनी किसानों व कुलकों की माँगें हैं। पहली बात तो यह है कि लाभकारी मूल्य तो धनी किसानों को मिल ही रहा है, बस वे उसकी क़ानूनी गारण्टी चाहते हैं। लेकिन यह सम्भव नहीं है क्योंकि पिछले वर्ष एमएसपी के मातहत आने वाली फसलों का कुल मूल्य था 10 लाख करोड़ रुपये! इसका 25 प्रतिशत व्यक्तिगत उपभोग के लिए इस्तेमाल होता है, तो विपणन योग्य फसल का मूल्य हुआ 7.5 लाख करोड़ रुपये! लेकिन इसके लिए भी बजट आबण्टन सम्भव नहीं है क्योंकि कुल बजट ख़र्च ही करीब 45 लाख करोड़ होने वाला है इस साल! कुलकों के हिमायती कहते हैं कि सरकार को बस निजी ख़रीदारों के लिए एमएसपी पर ख़रीद करने को बाध्य करना चाहिए। सरकार यह कर नहीं सकती है क्योंकि यह उन पूँजीपतियों की “स्वतन्त्रता” में हस्तक्षेप होगा जो खेती के क्षेत्र के नहीं हैं और सरकार स्वयं पूरी ख़रीद कर ही नहीं सकती है। इसलिए सरकारी क़ानूनी गारण्टी लागू करना ही सम्भव नहीं है। मोदी सरकार या कोई भी पूँजीवादी सरकार इसे लागू नहीं कर सकती क्योंकि वह औद्योगिक-वित्तीय बड़ी पूँजी के हितों को नुकसान नहीं पहुँचा सकती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यह एमएसपी की गारण्टी किसी भी तरीक़े से देश के मज़दूरों, ग़रीब किसानों, अर्द्धसर्वहारा व आम मेहनतकश आबादी के लिए फ़ायदेमन्द है। एमएसपी खाद्यान्न की कीमतों को बढ़ाता है और इसलिए ग़रीब-विरोधी है। यहाँ तक कि यह उन ग़रीब किसानों के हितों को भी नुकसान ही पहुँचाता है, जिनकी सरकारी मण्डी तक पहुँच है क्योंकि जो मुख्य तौर पर अनाज का ख़रीदार है, विक्रेता नहीं, उसे भी खाद्यान्न की कीमतों में वृद्धि का नुकसान ही होता है।
इसके अलावा, मोदी सरकार खेती में तिलहन की खेती को प्रोत्साहित करना चाहती है क्योंकि तिलहन के मामले में भारत अपने घरेलू उपभोग के एक बड़े हिस्से के लिए आयात पर निर्भर है और यह देश के पूँजीपति वर्ग के लिए आम तौर पर अच्छा नहीं है। लेकिन यह प्रोत्साहन भी ग़रीब और मेहनतकश किसानों के काम नहीं आने वाला है, बल्कि धनी पूँजीवादी फार्मरों व कुलकों के ही काम आयेगा। ऐसी ही पहल दलहन को लेकर भी की गयी है। साथ ही, सब्जि़यों के उत्पादन पर भी प्रोत्साहन दिया जा रहा है। लेकिन यह सबकुछ बड़ी पूँजीवादी खेती को ध्यान में रखकर किया जा रहा है।
संक्षेप में, गाँव के ग़रीब मेहनतकश किसानों के लिए मौजूदा बजट में कुछ भी नहीं है। न तो उनके लिए संस्थागत आसान कर्ज़ की कोई व्यवस्था की गयी है, न खेती के अवरचना निर्माण यानी सिंचाई आदि की उपयुक्त सरकारी व्यवस्था के लिए कोई प्रावधान किया गया है, न खेती के इनपुट्स को ग़रीब किसानों तक सस्ते में पहुँचाने की कोई व्यवस्था की गयी है, न ग़रीब किसानों से सरकारी ख़रीद की कोई व्यवस्था की गयी है। कुल मिलाकर, स्पष्ट है कि खेतिहर बुर्जुआज़ी और औद्योगिक-वित्तीय बुर्जुआज़ी के बीच के अन्तरविरोध के बावजूद मोदी सरकार ने वास्तव में धनी फार्मरों व कुलकों के हितों को कोई हानि नहीं पहुँचायी है और वास्तव में बजट के जनविरोधी प्रावधानों के हमलों का निशाना गाँव के ग़रीब हैं, यानी, खेतिहर सर्वहारा, अर्द्धसर्वहारा व ग़रीब मेहनतकश किसान।
कुल मिलाकर, मौजूदा बजट का मक़सद साफ़ है : संकट के दौर में पूँजीपतियों को अधिक से अधिक सहूलियतें, राहतें और रियायतें देना, निजीकरण की आँधी को बदस्तूर जारी रखना, मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश अवाम की औसत मज़दूरी व औसत आय को नीचे गिराकर उन्हें पूँजीपतियों के समक्ष अधिकतम सम्भव ज़रूरतमन्द और ग़रज़मन्द बनाना, पूँजीपतियों को करों से अधिक से अधिक मुक्त करना, सरकारी ख़ज़ाने में इससे होने वाली कमी को पूरा करने के लिए करों के बोझ को आम मेहनतकश जनता व मध्यवर्ग के ऊपर अधिक से अधिक बढ़ाना, जनता की साझा सम्पत्ति व सार्वजनिक क्षेत्र को अधिक से अधिक पूँजीवादी लूट के लिए खोलना, रोज़गार सृजन के नाम पर ऐसी योजनाओं को लागू करना जो पूँजीपतियों के लिए बेहद सस्ते श्रम के अतिदोहन को सरल और सहज बनाये।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2024
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