मुनाफ़ाख़ोरी के गर्भ से पैदा हुआ वैक्सीन संकट
हमारे देश और दुनिया में पैदा हुई वैक्सीन की किल्लत का ज़िम्मेदार कौन?
– डॉ. पावेल पराशर
कोविड-19 महामारी के बीच जब दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कार्यरत वैज्ञानिकों की मेहनत रंग लायी और वैक्सीन के सफल निर्माण और शुरुआती ट्रायलों में उसकी प्रत्यक्ष प्रभाविता की ख़बरें आयीं तो दुनिया को इस अँधेरे समय में आशा की किरण दिखायी दी। लेकिन वैक्सीन निर्माण और उसके वितरण के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ी मुनाफ़ाख़ोर फ़ार्मा कम्पनियाँ, मौजूदा पेटेण्ट क़ानून और बौद्धिक सम्पत्ति अधिकारों के पूँजीवादी नियम, विज्ञान द्वारा पैदा की गयी इस आशा की इस किरण को लगातार मद्धम किये जा रहे हैं।
चिकित्सा क्षेत्र के नामी जर्नल ‘द लान्सेट’ में प्रकाशित एक हालिया लेख ने यह निष्कर्ष निकाला कि नयी वैक्सीनों की प्रभाविता दुनिया के लोगों के लिए क्षीण हो जायेगी, यदि आबादी का टीकाकरण एक तय समय सीमा के भीतर पूरा न हो सका। कई वैक्सीनों को महीनों पहले, कुछ को तो करीब आधे साल पहले स्वीकृति मिल जाने के बाद भी आज तक टीकाकरण की रफ़्तार बेहद धीमी है और अगर यही गति जारी रही तो साल के अन्त तक बस चन्द अमीर मुल्क ही ‘हर्ड इम्युनिटी’ तक पहुँच सकेंगे। इस बीच वायरस में हो रहे नये-नये म्युटेशन जारी रहेंगे जो वर्तमान वैक्सीनों की प्रभाविता को भी क्षीण करेंगे, इसकी प्रबल सम्भावना जतायी जा चुकी है।
जहाँ तक दोषारोपण की बात है, तो भारत सहित दुनिया भर का पूँजीवादी मीडिया इस कुप्रबन्धन का ठीकरा सरकारों की भारी-भरकम और अव्यवस्थित नौकरशाही पर फोड़ना चाह रहा है। पर यदि हम इसकी जड़ में जाकर पड़ताल करें तो हम पायेंगे कि इसके लिए ज़िम्मेदार हैं—मुनाफ़े पर टिकी विश्व अर्थव्यवस्था, साम्राज्यवादी बिग फ़ार्मा और इजारेदार कम्पनियों के हित में बने बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के क़ानून, पेटेण्ट के नियम, दशकों की नवउदारवादी नीतियों के पैरोकारों द्वारा बहुप्रचारित दक्षता, प्रभावशीलता और नवोन्मेष के तमाम मिथकों के बिल्कुल उलट, फिसड्डी, निष्प्रभावी और निकम्मा साबित हो चुका निजी क्षेत्र, और माँग व आपूर्ति के प्रबन्धन में पूरी तरह से अयोग्य साबित हो चुका अनियंत्रित अराजक “मुक्त” बाज़ार।
वैसे तो पूँजीवादी अर्थशास्त्र के पैरोकार न जाने कब से यह डींग हाँकते रहे हैं कि निजी उद्यमिता ही नवोन्मेष का इकलौता स्रोत है। पर उनकी इस डींग को बड़ी फ़ार्मा कम्पनियों ने ही इस महामारी में बिल्कुल झूठा साबित कर दिया। दशकों से फ़ार्मा उद्योग द्वारा वैक्सीनों पर होने वाले अनुसन्धान को वरीयता में नीचे धकेल दिये जाने का काम जारी था, क्योंकि वैक्सीन यानी बीमारी की रोकथाम सम्बन्धी शोध में निवेश बड़ी फ़ार्मा कम्पनियों के लिए कम फ़ायदे का सौदा था। 21वीं सदी की शुरुआत से ही सार्स, मर्स, इबोला, नीपाह जैसी एक के बाद एक पैदा हो रही महामारियों के बीच वैक्सीन रिसर्च पर होने वाले निवेश की माँग को बड़ी फ़ार्मा कम्पनियाँ और पूँजीवादी सरकारें अनदेखा करती रहीं। अमेरिका की 18 सबसे बड़ी फ़ार्मा कम्पनियों में से 15 ने तो इस दिशा में शोध को पूरी तरह छोड़ रखा था। हृदयरोग की दवाएँ, मनोचिकित्सा में इस्तेमाल होने वाली ट्रैंक्विलाइज़र (प्रशांतक दवाएँ) के नये नये प्रकार, कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रण में लाने वाले क़िस्म-क़िस्म की नयी स्टेटिन दवाएँ मुनाफ़े के मामले में कम्पनियों के लिए सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी बनी रहीं, पर अस्पताल जनित संक्रमण, नये संक्रामक रोग व तीसरी दुनिया के पारम्परिक रोगों से होने वाली बीमारियों पर रिसर्च निवेश के लिए तरसते रहे क्योंकि वहाँ निवेश मुनाफ़े का सौदा नहीं रहा।
यहाँ तक कि बायोएनटेक-फाईज़र, एस्ट्रा ज़ेनेका जैसी बड़ी कम्पनियों ने भी कोविड वैक्सीन बनाने की पहलक़दमी तब शुरू की जब इन्हें इनके देशों की सरकार से शोध के लिए करदाताओं की जेब से वसूली हुई मोटी रकम के पैकेज मिले। उदाहरणस्वरूप सिर्फ़ मॉडर्ना वैक्सीन के निर्माण हेतु रिसर्च की शुरुआत करने से लेकर उसे ख़रीदने तक, अमेरिकी सरकारी एजेन्सियों ने कम्पनी को ढाई अरब डॉलर का भुगतान किया। अब जब मुनाफ़ा हो रहा है तो फ़ायदा कम्पनी का, और जब जोखिम लेने की बात आये, तो उसके लिए जनता के टैक्स का पैसा।
इसके अलावा वैक्सीन निर्माण और रिसर्च निजी हाथों में होने के कारण दुनिया के विभिन्न कोने में हो रहे शोधकार्य एक दूसरे के पूरक न होकर प्रतिस्पर्धी हो गये। रिसर्च में ऐसी गलाकाटू प्रतिस्पर्धा न सिर्फ़ लागत और संसाधनों के मामले में महँगी पड़ती है, बल्कि वह उत्पाद की प्रभाविता पर भी प्रतिकूल असर डालती है क्योंकि यह दुनिया के कोने कोने में एक ही दिशा में कार्यरत वैज्ञानिकों को आपसी सहयोग करने और एक दूसरे के रिसर्च का डेटा साझा करते हुए सर्वोत्तम उत्पाद का निर्माण करने से रोकती है। उदाहरण स्वरूप, एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा निर्मित वैक्सीन जो कोविशील्ड नाम से उपलब्ध है, और रूस की स्पुतनिक-वी काफ़ी हद तक एक ही (वायरल वेक्टर) प्रकार की वैक्सीन हैं। इसी तरह मॉडर्ना और फाइज़र, दोनों आर.एन.ए. तकनीक से बनी काफ़ी मिलती जुलती वैक्सीन हैं। यदि इनकी निर्माता कम्पनियों में मुनाफ़े के लिए गलाकाटू प्रतिस्पर्धा नहीं होती, इनके निर्माण के दौरान एक दूसरे के साथ रिसर्च डेटा साझा किया गया होता और आपसी सहयोग से वैक्सीन का निर्माण किया गया होता तो न सिर्फ़ काफ़ी समय व संसाधनों की बचत होती, साथ ही ये अपने सर्वोत्तम स्वरूप में विकसित होकर जनता तक पहुँचते।
अब आते हैं इन नयी वैक्सीनों की जनता तक पहुँच सुनिश्चित करने के लक्ष्य पर। यहाँ नवउदारवादी प्रचार तंत्र के एक और असंख्य दफा दोहराये गये झूठ का पर्दाफ़ाश होता है कि मुक्त बाज़ार की प्रतिस्पर्धा माँग व आपूर्ति में सन्तुलन बनाये रखने और प्रभावी ढंग से वितरण को अंजाम देने में सक्षम है। वैसे तो इस दावे की धज्जियाँ साल 2020 की शुरुआत में ही उड़ गयीं जब हमने अमीर साम्राज्यवादी देशों को ज़रूरी मेडिकल उपकरणों, पीपीई किट, वेंटीलेटर आदि की हड़प करते और ग़रीब देशों पर इनकी भीषण कमी का संकट थोपते हुए देखा। मौजूदा वैक्सीन संकट भी उसी कहानी को दोहरा रहा है। इज़राइल में बेहतरीन टीकाकरण दर के पीछे यही समीकरण काम कर रहा है, जिसने फाईज़र-बायोएनटेक की वैक्सीन के लिए दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली लगायी, मगर फ़िलिस्तीन और यमन जैसे ग़रीब मुल्क टीकाकरण दर की इस होड़ में बहुत पीछे धकेल दिये गये। अमेरिका भी फ़िलहाल इसी नीति पर चल रहा है। यहाँ तक कि यूरोपियन यूनियन के भीतर भी, जहाँ सदस्य देशों के बीच समन्वय के आधार पर आबादी के अनुपात में वैक्सीन के उचित वितरण के लिए समझौता हुआ था, वहाँ भी जर्मनी जैसे धनी मुल्क अपने लिए तय कोटे से कहीं अधिक वैक्सीन डोज़ प्राप्त करने में सफल रहे। यदि यही परिस्थिति आगे भी बरकरार रहती है जिसमें अधिक बोली लगाने वाले राष्ट्र अपनी ज़रूरत से अधिक वैक्सीन ख़रीदना जारी रखते हैं तो वैक्सीन की आपूर्ति निरन्तर वैश्विक माँग से कम ही रहेगी। तमाम राष्ट्र वैक्सीन के लिए बोली लगाने और एक दूसरे को पछाड़ने की ऐसी गलाकाटू होड़ में लग गये क्योंकि आपूर्ति की कमी है, और यह कमी इसलिए है क्योंकि फ़ार्मा कम्पनियों को अपने आविष्कार दुनिया के साथ साझा न करने का अधिकार प्राप्त है। इस घोर अनियमितता के पीछे ज़िम्मेदार हैं फ़ार्मा कम्पनियों के पेटेण्ट जो वैक्सीन आपूर्तिकर्ता को विज्ञान के इस आविष्कार पर एकाधिकार थोपने का अधिकार दे देते हैं। वैक्सीनों को इन कम्पनियों की अनन्य बौद्धिक सम्पदा बनाये रखना इनकी क़ीमत को भी कई गुणा तक बढ़ा देता है, साथ ही इनके वैश्विक स्तर पर उत्पादन और वितरण की प्रभाविता को भी क्षीण करता है।
अब बात करते हैं भारत की, क्योंकि यहाँ वैक्सीन संकट और कुप्रबन्धन अलग ही ‘कीर्तिमान’ स्थापित कर रहा है। मोदी सरकार की लचर और घटिया टीकाकरण योजना ने यह सुनिश्चित किया है कि भारत न सिर्फ़ वर्तमान में वैक्सीन की भयंकर किल्लत से जूझ रहा है बल्कि आने वाले लम्बे समय तक यह किल्लत बरकरार रहेगी। प्रधानमंत्री द्वारा 7 जून, 2021 को दिये गये भाषण में अपने 19 अप्रैल, 2021 की तुगलकी वैक्सीन नीति के कारण पैदा हुए भयंकर वैक्सीन संकट और कुप्रबन्धन को सही करने का आंशिक प्रयास हुआ। सरकार कह रही है कि अब वह कोविड वैक्सीन के सिर्फ़ 50% डोज़ ख़रीदने के बजाय सीधे 75% डोज़ खरीदेगी और 18 वर्ष से ऊपर के हर नागरिक का मुफ़्त टीकाकरण करेगी। इस तरह 19 अप्रैल की नीति के वजह से राज्यों पर पड़ने वाले “अतिरिक्त भार” से उन्हें मुक्त करने का कथित प्रयास किया जा रहा है। हालाँकि कुल वैक्सीन का 25% हिस्सा अब भी निजी अस्पतालों के लिए रिज़र्व कर दिया गया है जिन तक सिर्फ़ पैसे वालों की पहुँच होगी। जो वैक्सीन अभी निजी अस्पतालों में उपलब्ध हैं वे वैक्सीन का दाम, अस्पताल का शुल्क और जीएसटी लगाकर 1100 से 1500 रुपये में मिल रही है। जहाँ दुनिया के लगभग सभी देशों में वैक्सीन निःशुल्क उपलब्ध है, भारत उन गिने-चुने देशों में से है जो वैक्सीन के पैसे वसूल रहा है।
मोदी सरकार की 19 अप्रैल की “उदारीकृत टीकाकरण नीति” ने वैक्सीन कम्पनियों के सुपर मुनाफ़े के दरवाज़े पूरी तरह खोल दिये। इससे पहले की नीति वैक्सीनों की क़ीमत पर एक हद तक लगाम लगाती थी जिसमें वैक्सीन कम्पनियों को सामान्य मुनाफ़ा ही मिलता था। 19 अप्रैल की नयी टीकाकरण नीति वैक्सीन कम्पनियों के दबाव में लिया गया फ़ैसला था जिसने निजी वैक्सीन निर्माताओं को क़ीमत ख़ुद तय करने की छूट दे दी। इस नीति ने वैक्सीन के बाज़ार को ही पहले से अधिक अराजक, अनियंत्रित और विकृत करने का काम किया, केन्द्र, राज्य और निजी अस्पतालों को एक दूसरे के साथ ग़ैर ज़रूरी आपसी होड़ की स्थिति में ला खड़ा किया जिसकी वजह से वैक्सीन की बर्बादी भी बेतहाशा हुई। कुछ दिनों पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर द्वारा दिया गया यह मूर्खतापूर्ण वक्तव्य इसकी गवाही देता है – “हम भी दो लाख टीके एक दिन में लगाकर ख़त्म कर सकते हैं, लेकिन हम 50-60 हज़ार रोज़ टीके लगा रहे हैं, ताकि काम चलता रहे” ।
नयी टीकाकरण नीति को लागू करते हुए केन्द्र सरकार ने राजनीतिक हित साधने के अपने “आपदा में अवसर” सिद्धान्त से ज़रा भी भटकाव नहीं किया। 19 अप्रैल की नयी वैक्सीन नीति लाते हुए यह तर्क पेश किया गया कि यह नीति राज्य सरकारों के दबाव में ही लायी गयी है क्योंकि वे टीकाकरण में “स्वायत्तता” की माँग कर रहे हैं, लेकिन सच्चाई यह थी कि राज्य वैक्सीन के वितरण में स्वायत्तता की माँग करते आये हैं न कि ख़रीदारी में। केन्द्र की इसी नीति के कारण झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य लम्बे समय तक पर्याप्त वैक्सीन ख़रीदने में नाकाम रहे क्योंकि वैक्सीन निर्माता कम्पनियाँ सिर्फ़ केन्द्र के साथ सौदा करने के इच्छुक थीं। नयी टीकाकरण नीति के कारण वैक्सीन अनुपलब्धता का संकट इतना गहरा हो गया कि अब तक मौन व्रत धारण किये बैठे सुप्रीम कोर्ट को भी चुप्पी तोड़नी पड़ी और इस नीति को “मनमाना और तर्कहीन” घोषित करना पड़ा। जब यह नीति सरकार के लिए सरदर्द बन गयी तो 7 जून को प्रधानमंत्री ने अपनी इस तुगलकी नीति में कुछ सुधार करने की कोशिश ज़रूर की लेकिन अपनी इस “उदारीकृत टीकाकरण नीति” की औंधे मुँह असफलता को स्वीकार करना तो दूर, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बने रहे।
हालाँकि 7 जून के भाषण के बावजूद 19 अप्रैल की तुगलकी टीकाकरण नीति की कई बुनियादी समस्याएँ जस की तस बनी हुई हैं। पहली तो यह कि जो 25% वैक्सीन निजी अस्पतालों के लिए छोड़ी गयी, वह और कुछ नहीं, मुट्ठीभर अमीर व उच्च मध्यवर्ग के हिस्से आने वाला ‘वैक्सीन आरक्षण’ है, जो फ़ासिस्ट पूँजीवादी राज्यसत्ता की वर्ग पक्षधरता का अश्लील प्रदर्शन है। इण्डियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार 19 अप्रैल की टीकाकरण नीति के दौरान ही मई महीने के दौरान हुई निजी अस्पतालों में वैक्सीन की बिक्री (1.2 करोड़ वैक्सीन डोज़) का 50% हिस्सा (60.57 लाख डोज़) महज़ 9 कॉर्पोरेट अस्पतालों ने ख़रीदा और बाकी के बचे 50% में से अन्य 300 निजी अस्पतालों ने वैक्सीन की ख़रीदारी की, उनमें भी अधिकतर बड़े शहरों के अस्पतालों ने। निजी अस्पतालों द्वारा ख़रीदे गये इन 1.2 करोड़ वैक्सीन डोज़ का मात्र 18% यानी 22 लाख़ डोज़ ही लगायी गयी। ये है ‘मुक्त’ बाज़ार में वितरण की “प्रभाविता” के उस मिथक का असली चेहरा जिसे नवउदारवादी नीतियों के पैरोकार पिछली आधी सदी से प्रचारित करते आये हैं। लाज़िमी है, सरकार के मुनाफ़ाख़ोर फ़ार्मा कम्पनियों के प्रति प्रेम-भाव में छोड़े गये अमीरों के 25% ‘वैक्सीन आरक्षण’ की भी यही गत होने वाली है। लाज़िमी है कि वैक्सीन निर्माता अपने स्टॉक को उन्हीं निजी खिलाड़ियों और अस्पतालों को बेचने के लिए वरीयता देंगे जो उनसे बेहतर मोलभाव की स्थिति में होंगे। वहीं सरकार को मिलने वाले कोटे की वैक्सीन की भारी किल्लत जारी रहेगी। सारांश यही कि 19 अप्रैल की अपनी तुगलकी टीकाकरण नीति को “सुधारने” के लिए दिये गये 7 जून के भाषण में भी प्रधानमंत्री ने निजी फ़ार्मा कम्पनियों के लिए पहले से जारी 2000-4000% मुनाफ़ा संरक्षित करने का पूरा बन्दोबस्त किया है, जो इस महामारी के बीच जनता के साथ किये जाने वाले अपराध से कम नहीं है।
जब तक कि सरकार इन निजी कम्पनियों से पूरी 100% वैक्सीन नहीं ख़रीदती, इन्हें उत्पादन का तय टारगेट देकर वैक्सीन उत्पादन की गति को कई गुना तक नहीं बढ़ाती, और फ़ार्मा कम्पनियों द्वारा उस टारगेट को पूरा न कर पाने की सूरत में वैक्सीन फ़ैक्ट्रियों को अपने हाथ में लेकर उत्पादन ख़ुद नहीं शुरू करती, तब तक भारत की वैक्सीन नीति इसी तरह निष्प्रभावी रहेगी। पर ख़ुद निजी फ़ार्मा कम्पनियों व कॉर्पोरेट के पैसे के बल पर सत्तासीन हुई, उन्हीं की सरकार से इसकी उम्मीद क्या ही की जाये?
वैश्विक स्तर पर भी यह वैक्सीन संकट हमें यही सबक़ देता है कि साम्राज्यवादी ताक़तों द्वारा नियंत्रित ग्लोबल सप्लाई चेन हमेशा ग़रीब मुल्कों को उनकी बुनियादी इंसानी ज़रूरतों से भी वंचित ही रखेगा और उनके लिए भीषण आपदा और संकट ही लेकर आता रहेगा। मुनाफ़ाख़ोर कम्पनियों की दया पर टिके शोध कार्य और विज्ञान को जब तक मुनाफ़े की जंजीरों से आज़ाद नहीं किया जायेगा, तब तक विज्ञान समाज की ज़रूरतों को पूरा करने में अक्षम और निष्प्रभावी सिद्ध होता रहेगा, व उसका फ़ायदा सिर्फ़ धन्नासेठों की तिजोरी भरने के लिए होता रहेगा।
मज़दूर बिगुल, जून 2021
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