200 मेहनतकशों की जान लेने वाली चमोली दुर्घटना सरकार और व्यवस्था की पैदाइश है!

– अपूर्व मालवीय

पिछली 7 फ़रवरी की सुबह चमोली ज़िले के ऋषिगंगा हाइड्रो इलेक्ट्रिक पॉवर प्रोजेक्ट पर काम कर रहे मज़दूरों की दिनचर्या सामान्य दिनों की तरह ही शुरू हो गयी थी। क़रीब 30-35 मज़दूर वहाँ काम कर रहे थे। लेकिन काम के एक घण्टे बाद ही सब कुछ बदल गया। वहाँ मशीन पर काम कर रहे एक मज़दूर कुलदीप पटवार को ऊपर पहाड़ से धूल और गर्द का एक बड़ा ग़ुबार नीचे आता हुआ दिखायी दिया। पहाड़ी होने के नाते वह समझ गये कि ये सामान्य ग़ुबार नहीं है बल्कि आने वाली मौत है। वह चिल्लाते हुए अपनी बायीं तरफ़ की पहाड़ी पर ऊपर भागे। बाक़ी के मज़दूरों ने भी देखा लेकिन ज़्यादातर मज़दूर मैदानी इलाक़ों से आने की वजह से पहाड़ पर ज़्यादा तेज़ी से नहीं चढ़ सके और पानी व मलबे के सैलाब में बह गये।
यह सैलाब ऋषिगंगा पॉवर प्रोजेक्ट को ध्वस्त करता, उसे भी अपने मलबे में मिलाता हुआ नीचे की तरफ़ और भी तेज़ी से बढ़ गया। नदी के किनारे एक चरवाहा अपनी भेड़-बकरियाँ चरा रहा था, वो भी अपनी भेड़-बकरियों सहित सैलाब में बह गया। ऋषिगंगा पॉवर प्रोजेक्ट के ठीक  पाँच किलोमीटर नीचे धौलीगंगा पर एक और पॉवर प्रोजेक्ट है, तपोवन-विष्णुगाड़। वहाँ भी काम कर रहे मज़दूरों के ऊपर ये सैलाब मौत बनकर टूटा। इस एन.टी.पी.सी. के प्रोजेक्ट पर 176 मज़दूर काम कर रहे थे। यहाँ दो सुरंगों में तेज़ी से काम हो रहा था। सैलाब का मलबा इन दोनों सुरंगों में भी भर गया और इसमें काम कर रहे 40 से भी ज़्यादा मज़दूर उसके अन्दर ही दब कर मर गये। सैकड़ों मज़दूरों को ये सैलाब अपने साथ बहा ले गया। इस सैलाब की भयंकरता का अन्दाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जो बाँध पानी को रोकने के लिए बनाये जाते हैं, यह सैलाब उनको ही तोड़कर बहा ले गया, साथ ही ऋषिगंगा और धौलीगंगा पर बने 13 पुलों को भी अपने साथ बहा ले गया जो नदी से 30 फ़ीट ऊपर तक बने थे। इस हादसे में 200 से भी ज़्यादा जानें गयीं और क़रीब 33 गाँव मुख्यधारा से कट गये।
उन मरने वालों का कभी जिक्र भी न हो पायेगा जिन्हें ठेकेदार ट्रकों में ठूँस कर दूर राज्यों से लाये होंगे। उनके घर वाले मौत का कभी दावा भी न कर पायेंंगे, उनका कहीं लेखा-जोखा भी नहीं मिलेगा।

कैसे हुआ हादसा?

भू-वैज्ञानिकों के अनुसार इस हादसे के दो कारण हो सकते हैं – हिमस्खलन या किसी ग्लेशियर झील का फटना। ऋषिगंगा से ऊपर या तो किसी तरह से हिमस्खलन हुआ हो और नीचे का इलाक़ा सीधे में गहरा है, तो बाँध उसे रोक ना पाया हो और बाँध को तोड़ते हुए पानी तेज़ी से नीचे गया हो।
लेकिन दूसरी सम्भावना ज़्यादा सही मानी जा रही है। वहाँ कोई ग्लेशियर झील बनी जो फट गयी। उत्तराखण्ड के ‘साउथ फ़ेसिंग ग्लेशियर’ मलबे से लदे होते हैं और धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। इस वजह से रास्ते में जो मलबा मिलता है, वह उस पर ठहर-सा जाता है। ग्लेशियर के आख़िरी प्वाइण्ट (टोंग) पर आकर यह मलबा जब जमा हो जाता है, तो नीचे की तरफ़ एक बाँध का सा रूप ले लेता है। तापमान कम होने की वजह से उस मलबे के नीचे बर्फ़ भी होती है। उसके पीछे जो पानी जमा होता है, उसे ग्लेशियर झील कहते हैं। जब ये ग्लेशियर झील फटती है (हिमस्खलन या भूकम्प या किसी और वजह से), तो उसमें चूँकि बहुत मलबा होता है, इसलिए वह ‘वॉटर कैनन’ की तरह काम करती है और तबाही काफ़ी अधिक होती है। 2013 में आयी उत्तराखण्ड की केदारनाथ आपदा ऐसी ही एक छोटी ग्लेशियर झील के फटने से ही हुई थी। अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र, उत्तराखण्ड ने जो डेटा दिया है उसके अनुसार घटना के एक हफ़्ते पहले तक वहाँ कोई ग्लेशियर झील नहीं थी। वैसे तो ऐसी झील कुछ घण्टों में भी बन सकती है और कई बार सालों भी लग जाते हैं। इस कारण ऐसा लगता है कि जो झील बनी वो ज़्यादा बड़ी नहीं थी। नहीं तो तबाही की भयावहता का अन्दाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता।
पर सवाल यह है कि ऐसी जगह पर हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट को मंज़ूरी क्यों दी गयी, जहाँ हिमस्खलन और भूस्खलन के ख़तरे के बारे में पहले से पता था।
अफ़ग़ानिस्तान से लेकर बंगाल की तीस्ता नदी के बीच फैले मध्य हिमालयी विशाल भूभाग में उत्तराखंड क्षेत्र की पहाड़ियाँ सबसे कमजोर आँकी गयी हैं। यहाँ की मिट्टी भुरभुरी है। ये चट्टानें हल्के कम्पन में ही दरक जाती हैं। इस इलाक़े में भारी निर्माण और पानी के विशाल कुण्ड जल प्रलय को न्योता देने के समान हैं।
तपोवन-विष्णुगाड़ जलविद्युत परियोजना की सुरंग दुनिया की सबसे भारी मशीनों से बनायी गयी है। इन मशीनों ने आसपास की पहाड़ियों को बेहद कमज़ोर कर दिया है। इनको सरकार की बनायी हुई क़ब्रें कहा जाये तो ग़लत नहीं होगा।

क्या यह हादसा रोका जा सकता था!

इसका सीधा जवाब देने से पहले इस घटना का चरित्र समझिए। इस घटना के दो पहलू हैं। एक प्राकृतिक और दूसरा आर्थिक-राजनीतिक। जब हम इसके आर्थिक-राजनीतिक पहलू पर बात करते हैं तो पता चलता है कि अन्धाधुन्ध पूँजीवादी विकास और मुनाफ़े की हवस ने ही इस बार भी सैकड़ों ज़िन्दगियों को लील लिया है।
ऋषिगंगा प्रोजेक्ट को जहाँ बनाया गया है वो इलाक़ा और भी संवेदनशील है। यह सही है कि ऋषि गंगा के ऊपर कहीं ग्लेशियर झील फटी लेकिन जो भयावहता पैदा हुई उसका कारण ऋषिगंगा पर बना बाँध था। बाँध के कैचमेण्ट एरिया के पानी ने ऊपर से आये मलबे के साथ और भी भयंकर रूप ले लिया। बाँध ऊपर से आये मलबे की मात्रा और वेग को सह नहीं पाया और टूट गया। जिस कारण तबाही और भी ज़्यादा हुई।
उत्ताखण्ड में लम्बे समय से बड़ी बाँध परियोजनाओं का विरोध हो रहा है। लेकिन सिर्फ़ बड़ी प्राइवेट कम्पनियों को मुनाफ़ा दिलाने के लिए सरकारें इन परियोजनाओं को चला रही हैं। यह पूरा हिमालय क्षेत्र बहुत ही संवेदनशील है। यहाँ की मिट्टी भुरभुरी और चट्टानें अभी कच्ची हैं। चौड़ी सड़कें, सुरंगें और बड़े बाँध बनाने के लिए जिन बड़ी-बडी ड्रिलिंग मशीनों और विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जाता है, उससे पहाड़ों के अन्दर तक दरारें पड़ जाती हैं। पेड़ों की अन्धाधुन्‍ध कटाई से पहाड़ की मिट्टी अपनी पकड़ छोड़ देती है और भूस्खलन का ख़तरा बढ़ जाता है। अभी ऑल वेदर रोड बनाने के लिए ही 56 हज़ार पेड़ों को काट दिया गया है। इसके साथ ही, हिमालय रीजन भूकम्प प्रभावित ज़ोन में भी आता है। हल्के फुल्के भूकम्प यहाँ आते रहते हैं। लेकिन अगर कहीं इनकी भी तीव्रता बढ़ी और किसी बड़े बाँध के ऊपर उसका असर पड़ा तो फिर होने वाली तबाही को किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता है।
देहरादून में स्थित वाडिया भू-वैज्ञानिक संस्थान के वैज्ञानिकों ने पिछले साल जून-जुलाई के महीने में एक अध्ययन के ज़रिये जम्मू-कश्मीर के कराकोरम समेत सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों द्वारा नदियों के प्रवाह को रोकने और उससे बनने वाली झील के ख़तरों को लेकर चेतावनी जारी की थी। ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम चक्र में व्यापक बदलाव आ चुका है। सर्दियों में अत्यधिक सर्दी और बर्फ़बारी और गर्मियों में अत्यधिक गर्मी ग्लोबल वार्मिंग के साफ़ संकेत हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही ग्लेशियरों की प्रकृति में भी व्यापक बदलाव देखने को मिल रहा है। इसके लिए 2010 में एक ग्लेशियोलॉजी सेण्टर बनाने की परियोजना पर काम शुरू हुआ। इसके लिए उत्तराखण्ड के मसूरी में ही 200 हेक्टेयर भूमि भी ले ली गयी और 211 करोड़ का बजट भी पास कर दिया गया। लेकिन पिछले साल 25 जुलाई को मोदी सरकार ने इस परियोजना को बन्द करने का निर्णय ले लिया।
अगर इस परियोजना को बन्द नहीं किया जाता और हिमालय के ग्लेशियरों पर अनुसन्धान को बढ़ावा दिया जाता तो सम्भव था कि समय रहते इस घटना पर नियंत्रण पाया जा सकता था या इसमें होने वाली मौतों और व्यापक क्षति को रोका जा सकता था। लेकिन इस सरकार के पास गाय, गोबर और गौ-मूत्र पर अनुसन्धान के अलावा वैज्ञानिक शोधों के लिए फ़ण्ड नहीं है। वैसे भी सरकारों को इन आपदाओं से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। क्योंकि इन आपदाओं में ज़्यादातर मेहनतकश-मज़दूर ही मारे जाते हैं। सरकारों और पूँजीपतियों के लिए उनकी जान की क़ीमत कुछ भी नहीं है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2021


 

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