Category Archives: श्रम क़ानून

कौशल विकास: मज़दूरों के लिए नया झुनझुना और पूँजीपतियों के लिए रसमलाई

सरकार का कहना है कि सरकारी स्कूलों और आईटीआई संस्थानों को कम्पनियों द्वारा विभिन्न कोर्स चलाने के लिए दिया जायेगा, इस तरह ग़रीबों और निम्न मध्यवर्ग के बेटे-बेटियों को कुशल श्रमिक बनाने का रास्ता तैयार किया गया है। लेकिन चूँकि पहले से ही असंगठित क्षेत्र में करीब 44 करोड़ कामगार काम कर रहे हैं उनको कुशल श्रमिक बनाने के लिए अलग से एक विशेष योजना तैयार की गयी है, मोदी सरकार इन 44 करोड़ कामगारों को कारख़ानों में प्रशिक्षण देने वाली है और यहीं पर इस योजना का असली पेंच है। सवाल यह है कि जब इतने कारख़ाने हैं ही नहीं तब भला इतने बड़े-बड़े दावे क्यों किये जा रहे हैं! असल में यह कौशल विकास के नाम पर मज़दूरों को लूटने और पूँजीपतियों को सस्ता श्रम उपलब्ध कराने का हथकण्डा मात्र है। देश में एपेरेन्टिस एक्ट 1961 नाम का एक क़ानून है जिसके तहत चुनिन्दा उद्योगों में ट्रेनिंग की पहले से ही व्यवस्था मौजूद है। इस क़ानून के तहत कारख़ानों में काम करने वाले एपेरेन्टिस या ट्रेनी पहले से ही ज़्यादातर श्रम क़ानूनों के दायरे से बाहर हैं। सरकार के अनुसार इस समय देश में मात्र 23800 कारख़ाने ऐसे हैं जो एपेरेन्टिस एक्ट 1961 के अन्तर्गत आते हैं। सरकार की मंशा है कि अगले 5 सालों में इन कारख़ानों की संख्या बढ़ाकर 1 लाख कर दी जाये। ज़ाहिर सी बात है कि यह योजना केवल 5 साल के लिए नहीं है और इसका मक़सद है कि ट्रेनिंग या कौशल विकास के नाम पर ज़्यादा से ज़्यादा कारख़ानों को श्रम क़ानूनों और न्यूनतम वेतन के क़ानूनों के दायरे से बाहर कर दिया जाये।

“अच्छे दिनों” की असलियत पहचानने में क्या अब भी कोई कसर बाक़ी है?

16 मई को सत्ता में आने के ठीक पहले अपने ख़र्चीले चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा का नारा था, “बहुत हुई महँगाई की मार–अबकी बार मोदी सरकार!” उस नारे का क्या हुआ? दुनिया भर में तेल की कीमतों में आयी भारी गिरावट के बावजूद पहले तो मोदी सरकार ने उस अनुपात में तेल की कीमतों में कमी नहीं की; और जो थोड़ी-बहुत कमी की थी अब उससे कहीं ज़्यादा बढ़ोत्तरी कर दी है। नतीजतन, हर बुनियादी ज़रूरत की चीज़ महँगी हो गयी है। आम ग़रीब आदमी के लिए दो वक़्त का खाना जुटाना भी मुश्किल हो रहा है। मोदी सरकार का नारा था कि देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर दिया जायेगा! लेकिन मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही भ्रष्टाचार के अब तक के कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया! ऐसे तमाम टूटे हुए वायदों की लम्बी सूची तैयार की जा सकती है जो अब चुटकुलों में तब्दील हो चुके हैं और लोग उस पर हँस रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के मुँह से “मित्रों…” निकलते ही बच्चों की भी हंसी निकल जाती है। लेकिन यह भी सोचने की बात है कि ऐसे धोखेबाज़, भ्रष्ट मदारियों को देश की जनता ने किस प्रकार चुन लिया?

हेडगेवार अस्पताल के ठेका सफ़ाई कर्मचारियों के संघर्ष के आगे झुके अस्पताल प्रशासन और दिल्ली सरकार

डीएसजीएचकेयू की संयोजक शिवानी ने बताया कि हमारी मुख्य माँग तो यही है कि दिल्ली सरकार दिल्ली में नियमित प्रकृति के कार्य में ठेका प्रथा समाप्त करने के अपने वायदे को पूरा करे। उन्होंने कहा कि मज़दूरों की एकजुटता के चलते हमें आंशिक जीत तो मिली है पर हमारा संघर्ष अभी ख़त्म नहीं हुआ है; हमारी यूनियन ठेका प्रथा समाप्त करने की माँग को लेकर दिल्ली सरकार के अन्य अस्पताल के ठेका कर्मियों को गोलबन्द करेगी। दिल्ली स्टेट गवर्मेण्ट हॉस्पिटल कॉण्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन ने इस जीत के बाद अब दिल्ली के सभी सरकारी अस्पतालों और डिस्पेंसरियों में ठेका प्रथा ख़त्म करवाने की माँग को लेकर सभी कर्मचारियों को एकजुट करने के लिए अभियान शुरू कर दिया है

श्रम सुधारों के नाम पर मोदी सरकार का मज़दूरों पर हमला तेज़

सच तो यह है कि छोटे-छोटे प्लाण्टों से लेकर घरेलू वर्कशॉपों तक ठेका, उपठेका और पीसरेट पर उत्पादन के काम को इस तरह बाँट दिया गया है कि उनमें काम करने वाले अधिकांश मज़दूरों का कोई रेकार्ड नहीं रखा जाता। ठेका, कैजुअल या अप्रेण्टिस मज़दूर को मिलने वाले क़ानूनी हक़ भी उन्हें हासिल नहीं होते। व्यवहारतः वे दिहाड़ी मज़दूर होते हैं जो सरकार और श्रम विभाग के लिए अदृश्य होते हैं। नये श्रम सुधारों द्वारा श्रम विभागों को एकदम निष्प्रभावी बनाकर इस किस्म के अनौपचारिकीकरण को अब ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि विदेशी कम्पनियाँ और देश के छोटे-बड़े सभी पूँजीपति खुले हाथों से और मनमाने ढंग से अतिलाभ निचोड़ सके। मोदी द्वारा ‘मेक इन इण्डिया’ को रफ्तार देने के लिए प्रस्तावित श्रम सुधारों की यह वास्तव में महज़ शुरुआत भर है। यह तो महज़ ट्रेलर है, पूरी पिक्चर अगले दो-तीन वर्षों में सामने आ जायेगी।

ई.एस.आई. ख़त्म करने की मोदी सरकार की मज़दूर-विरोधी साज़िशें

विभाग के अधिकारी पूँजीपतियों से पैसा खाते हैं और मज़दूरों को ई.एस.आई. सुविधा न देने वाले पूँजीपतियों पर कार्रवाई नहीं करते। ऐसा भी काफ़ी बड़े स्तर पर होता है कि पूँजीपति मज़दूरों के वेतन से ई.एस.आई. का पैसा काट लेते हैं लेकिन ई.एस.आई. विभाग को जमा नहीं करवाते। लेकिन पूँजीपति वर्ग मज़दूरों को ई.एस.आई. सुविधा देने या मज़दूरों के दवा-इलाज पर पैसा खर्च करने के झंझट से ही मुक्ति पाना चाहता है। इसी कोशिश में ई.एस.आई. को वैकल्पिक बनाया जा रहा है। पूँजीपति जो पैसा ई.एस.आई. विभाग को जमा करवाते थे अब निजी बीमा कम्पनी को देंगे। कोई भी समझ सकता है पूँजीपतियों को ऐसा विकल्प मिल जाने से पूँजीपतियों के लिए और भी बड़े स्तर पर मज़दूरों को ई.एस.आई. सुविधा न देना आसान हो जायेगा।

केजरीवाल सरकार न्यूनतम वेतनमान लागू कराने की ज़िम्मेदारी से मुकरी

न्यूनतम वेतन देने के लिए फैक्ट्री मालिकों पर दबाव बनाने की जगह आम आदमी पार्टी की सरकार कहती है कि मज़दूर ऐसी जगह काम तलाशें जहाँ न्यूनतम वेतन मिलता हो। परन्तु दिल्ली में 70 लाख आबादी ठेके पर काम करती है, उसे न तो न्यूनतम वेतन मिलता है और न ही अन्य श्रम क़ानूनों के तहत मिलने वाली सुविधाएँ, वे कौन सी फैक्ट्री में काम तलाशें?

केजरीवाल सरकार को वादों की याद दिलाने दिल्ली सचिवालय पहुँचे ठेका मज़दूरों पर पुलिस का बुरी तरह लाठीचार्ज

शांतिपूर्वक अपनी बात को मुख्यमन्त्री तक ले जाने के इरादे से आये दिल्ली भर के मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता को वहशी तरीक़े से पीटा गया। पुलिस के पुरुष कर्मियों ने महिलाओं को बुरी तरह पीटा जिसके कारण अनेक महिलाओं को गंभीर चोटें आयी, एक युवा महिला कार्यकर्ता की टांग टूट गयी और बहुत से लोगों के सर फूट गये। इतने पर भी दिल्ली पुलिस को चैन नहीं आया, रैपिड एक्शन फोर्स और दिल्ली पिुलस ने मिलकर मज़दूरों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा, आँसू गैस के गोले बारिश की तरह बरसाए गये। प्रदर्शन में महिलायें व बच्चे भी शामिल थे मगर पुलिस ने उन्हें भी नहीं बक्शा।

मुख्यमंत्री केजरीवाल से मिलने गये मेट्रो मज़दूरों पर बरसी पुलिस की लाठी

डीएमआरसी में सभी टॉम ऑपरेटर, हाउसकीपर, सिक्योरिटी गार्ड, एयरपोर्ट लाइन का तकनीकी स्टाफ, ट्रैक ब्वॉय आदि नियमित प्रकृति का कार्य करने के बावजूद ठेके पर रखे जाते हैं। दिल्ली ही नहीं बल्कि भारत की शान मानी जानेवाली दिल्ली मेट्रो इन ठेका कर्मचारियों को अपना कर्मचारी न मानकर ठेका कम्पनियों जेएमडी, ट्रिग, एटूजेड, बेदी एण्ड बेदी, एनसीईएस आदि का कर्मचारी बताती है, जबकि भारत का श्रम कानून स्पष्ट तौर पर यह बताता है कि प्रधान नियोक्‍ता स्वयं डीएमआरसी है। ठेका कम्पनियाँ भर्ती के समय सिक्योरिटी राशि के नाम पर वर्कर्स से 20-30 हजार रुपये वसूलती हैं और ‘रिकॉल’ के नाम पर मनमाने तरीके से काम से निकाल दिया जाता है। ज़्यादातर वर्कर्स को न्यूनतम मज़दूरी, ईएसआई, पीएफ की सुविधाएँ नहीं मिलती हैं। यहाँ श्रम कानूनों का सरेआम उल्लंघन किया जाता है।

श्रम क़ानूनों में “सुधार” के बहाने रहे-सहे अधिकार छीनने की तैयारी

देशभर की जनता के बीच ‘अच्छे दिन’ का शिगुफा उछालकर सत्ता में आयी भाजपा ने गद्दी सम्भालते ही अपना असली रंग दिखाना चालु कर दिया था। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी नीत भाजपा सरकार नित ऐसी नीतियाँ लागु कर रही है जो देशभर की मेहनतकश जनता के बुरे दिन लेकर आएंगी व उन्ही के पद-चिह्नों पर चलते हुए देवेन्द्र फड़नवीस भी महाराष्ट्र की मेहनतकश जनता के हितों को ताक पर रख अमीरजादों के अच्छे दिन लाने में जुटे हुए हैं। मज़दूरों को इन “अच्छे दिनों” का असली अर्थ अब अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।

मज़दूर विरोधी “श्रम सुधारों” के खि़लाफ़ रोषपूर्ण प्रदर्शन

केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा नवउदारवादी नीतियों के तहत श्रम क़ानूनों में मज़दूर विरोधी संशोधनों के खि़लाफ़ बीती 20 नवम्बर को टेक्सटाइल-हौज़री कामगार यूनियन और कारख़ाना मज़दूर यूनियन की ओर से डी.सी. कार्यालय पर ज़ोरदार प्रदर्शन किया गया। मज़दूर संगठनों ने तथाकथित श्रम सुधारों की तीखी आलोचना करते हुए भारत सरकार से घोर मज़दूर विरोधी नीति रद्द करने की माँग की। डी.सी. लुधियाना के ज़रिये भारत सरकार को इस सम्बन्धी माँगपत्र भेजा गया है। संगठनों के वक्ताओं ने प्रदर्शन को सम्बोधित करते हुए कहा कि पहले ही पूँजीपति मज़दूरों की मेहनत की भयंकर लूट कर रहे हैं, जिसके चलते मज़दूर ग़रीबी-बदहाली की ज़िन्दगी जीने पर मज़बूर हैं। “श्रम सुधारों” के कारण मज़दूरों की लूट ओर तीखी होगी। इसके खि़लाफ़ मज़दूरों में भारी रोष है। अगर यह नीति रद्द नहीं होती तो हुक्मरानों को तीखे मज़दूर आन्दोलन का सामना करना होगा।