Category Archives: श्रम क़ानून

सफ़ाई कर्मचारियों की सेहत और सुरक्षा का ध्‍यान कौन रखेगा, जज महोदय?

रात में सफाई व्यवस्था के पक्ष में तर्क दिया गया है कि सफाई के दौरान उड़ने वाली धूल से अस्थमा, एलर्जी या सांस की बीमारियां हो सकती हैं और इसका खराब असर सुबह टहलने वाले लोगों पर पड़ता है। इस बात को सही मानने पर सबसे पहले तो सफाई कर्मचारी के स्वास्थ्य की सुरक्षा की चिन्ता की जानी चाहिए। सफाई कर्मचारी तो बरसों से बिना किसी सांस संबंधी सुरक्षा उपकरण के सफाई कर रहे हैं और उनमें टीबी, अस्थमा आदि रोग भी बहुतायत में मिलते हैं। इन बीमारियों से कई सफाई कर्मचारी जाने-अनजाने असमय मौत के मुंह में समाते रहते हैं। उड़ने वाली धूल से सेहत को सबसे ज्यादा खतरा इन सफाई कर्मचारियों को होता है जबकि चिन्ता की जा रही है दिनभर ऑफिसों-दुकानों- फैक्ट्रियों में बैठे-बैठे तोंद बढ़ाने वाले और फिर सुबह उसे कम करने के लिए हाँफते-काँपते दौड़ने वाले बाबू-सेठ लोगों की सेहत की या उनकी जो शानदार ट्रैकसूट पहनकर सुबह जॉगिंग करते हैं। जिन्दगी भर धूल-गन्दगी के बीच जीने वाले और अपनी सेहत की कीमत पर शहर को साफ-सुथरा रखने वाले सफाई कर्मचारियों के स्वास्थ्य के बारे में चिन्ता न तो नगर निगम को है और न माननीय न्यायपालिका को।

दिल्ली मेट्रो की चकाचौंध के पीछे की काली सच्चाई

सफाई कर्मचारी ही नहीं मेट्रो के सभी कामगारों के हालात कमोबेश एक जैसे हैं, चाहे अपनी जान को जोखिम में डालकर कांस्ट्रक्शन में दिन-रात खटने वाले मजदूर हों या स्टेशनों पर काम करने वाले गार्ड व अन्य वर्कर किसी को भी उनके जायज हक और सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। किसी को कभी भी बिना कारण बताये काम पर से हटा दिया जाता है। वह दिन दूर नहीं जब एक जैसे हालात में काम करने वाले मेट्रो के सभी कर्मचारी इस बात को समझेंगे और अपने हकों के लिए एकजुट होकर आवाज बुलंद करेंगे। अधिकार माँगने से नहीं मिलते वरन उनके लिए संघर्ष करना पड़ता है। मजदूर अपने रोजमर्रा के अनुभवों से अच्छी तरह जानते हैं कि अकेले अपने दम पर वे भ्रष्ट मेट्रो प्रशासन और लुटेरे ठेकेदारों से नहीं लड़ सकते, उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करना ही होगा।

मैगपाई की गुण्डागर्दी के खि़लाफ़ मज़दूरों का जुझारू संघर्ष

निकाले गये रामराज, सलाउद्दीन, जोगिन्दर, गजेन्द्र, मिण्टू, प्रेमपाल, पप्पू महतो और रिषपाल आदि मज़दूरों के समर्थन में इसी फ़ैक्ट्री के तथा कुछ अन्य फ़ैक्ट्रियों के 50-60 मज़दूरों ने एकजुट होकर फ़ैक्ट्री गेट के सामने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। मामले को बढ़ता देखकर 6-7 दिन बाद मालिक ने 26 दिसम्बर 2008 को संजय तथा सन्तोष को बात करने के लिए बुलाया। अन्दर आने पर कारख़ाने का गेट बन्द करके मालिक के गुण्डे सन्तोष और संजय को मारने-पीटने और धमकाने लगे कि ज़्यादा नेता बनोगे तो भट्ठी में ज़िन्दा जला देंगे। संजय तो किसी तरह फ़ैक्ट्री की दीवार लाँघकर बाहर भाग आया जबकि सन्तोष को मालिक के गुण्डे पकड़ कर अन्दर मारपीट करने लगे। संजय द्वारा घटना की जानकारी मिलते ही मज़दूर नारे लगाते हुए पहले गेट पर इकट्ठे हुए फिर पास के थाने में एफआईआर दर्ज कराने भागे। वहाँ पुलिस वालों ने इसे दिखावटी रजिस्टर पर दर्ज कर लिया और मज़दूरों को धमकी के अन्दाज़ में हिदायत दी कि “शोर न करें” और फ़ैक्ट्री के पास जाकर चुपचाप खड़े हो जायें। मज़दूरों के पुनः फ़ैक्ट्री पहुँचने के बाद पुलिस वाले आये और मालिक के खि़लाफ़ कोई कार्रवाई करने के बजाय मसीहाई अन्दाज में यह कहते हुए फ़ैक्ट्री के अन्दर घुस गये कि शोर-शराबा मत करो और कि वे (पुलिसवाले) मालिक की कोई मदद नहीं करेंगे। मामले को उग्र होता देख मालिक के गुण्डों ने खुद ही सन्तोष को छोड़ दिया।