इक्कीसवीं सदी के ग़ुलाम, जिनका अपनी ज़िन्दगी पर भी कोई अधिकार नहीं है
राजविन्दर
जय सिंह को काम से निकाल दिया गया क्योंकि उसने मालिक से बोला था कि “बाबूजी, हम तो पहले ही 12 घण्टे काम कर रहे हैं, सुबह-रात का खाना भी बनाना होता है, हम 14 घण्टे कैसे काम कर पायेंगे?” बस इतना और यही गुनाह था एक मज़दूर का जो सिर्फ़ मालिक के मुनाफ़ा बढ़ाने के लालच को पूरा करने के बजाय थोड़ा अपने बारे में भी सोचता था।
जय सिंह दुआराम टेक्सटाइल, महावीर कालोनी, लुधियाना में काम करता था। दुआराम का एक और भी कारख़ाना है जो पावरलूम कारख़ानों के पुराने क्षेत्र गौशाला में स्थित है। दोनों कारख़ानों में शाल बनाये जाते हैं। यहाँ पर सभी मज़दूर पीस रेट पर काम करते हैं। लुधियाना के बाक़ी कारख़ानों की तरह यहाँ पर भी कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता है। यहाँ पर सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक काम होता था। अब मालिक ने नया फ़रमान सुना दिया कि आगे से कारख़ाना सुबह सात से रात नौ बजे तक चलेगा, यानी कि 14 घण्टे। जो काम करना चाहे करे वरना अपना रास्ता नापे। कुछ मज़दूरों ने 14 घण्टे काम करने का विरोध किया जिनमें एक जय सिंह भी था। अधिकतर मज़दूर 14 घण्टे काम करने के लिए मान गये और शिफ़्ट 14 घण्टे की हो गयी। यह सुनने में आया है कि एक मज़दूर स्वयं ही मालिक से बोला था कि गुज़ारा नहीं चल रहा है, हमें और काम चाहिए। मालिक ने काम के घण्टे बढ़ा दिये और बोल भी दिया कि जब तुम लोगों को 14 घण्टे काम की आदत पड़ जायेगी तो सुबह 6 से रात 10 बजे, यानि 16 घण्टे की शिफ़्ट कर देंगे।
होज़री और डाइंग के कारख़ानों में मज़दूर सीज़न में लगातार 36-36 घण्टे भी काम करते हैं। यह बहुत भयंकर स्थिति है कि मज़दूर काम के घण्टे बेतहाशा बढ़ाने का विरोध करने के बजाय और अधिक खटने को तैयार हो जाते हैं। बढ़ती महँगाई के कारण परिवार का पेट पालने के लिए मज़दूर अपनी मेहनत बढ़ा देता है, काम के घण्टे बढ़ा देता है और पहले से अधिक मशीनें चलाने लगता है और निर्जीव-सा होकर महज़ हाड़-माँस की एक मशीन बन जाता है। कारख़ाने में काम के अलावा मज़दूर को सब्ज़ी, राशन आदि ख़रीदारी करने, सुबह-शाम का खाना बनाने के लिए भी तो समय चाहिए। और दर्जनों मज़दूर इकट्ठे एक ही बेहड़े में रहते हैं जहाँ एक नल और एक-दो ही टायलेट होते हैं। इनके इस्तेमाल के लिए मज़दूरों की लाइन लगी रहती है और बहुत समय बर्बाद करना पड़ता है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि मज़दूर यह समय ख़ुद पर ख़र्च करता है। लेकिन दरअसल ख़ुद पर लगाया जाने वाला यह समय भी असल में एक तरह से मालिक की मशीन के एक पुर्ज़े को चालू रखने पर ख़र्च होता है। मज़दूर को पर्याप्त आराम और मनोरंजन के लिए तो समय मिल ही नहीं पाता। यह तो कोई इन्सान की ज़िन्दगी नहीं है। कितनी मजबूरी होगी उस इन्सान की जिसने अपने को भुलाकर परिवार को ज़िन्दा रखने के लिए अपने-आप को काम की भट्ठी में झोंक दिया है। दुआराम जैसे मालिक मज़दूर की मजबूरी का बख़ूबी फ़ायदा उठाते हैं और नयी-नयी गाड़ियाँ और बंगले खरीदते जाते हैं, नये-नये कारख़ाने लगाते जाते हैं।
क्या काम के घण्टे ऐसे ही बढ़ते जायेंगे? मज़दूरों ने आठ घण्टे काम के दिन की माँग 125 वर्ष पहले उठायी थी। उस समय भी मज़दूरों से 16 से 20 घण्टे काम लिया जाता था। उन्होंने ढेरों क़ुर्बानियों के दम पर आठ घण्टे काम का दिन लागू करवाया था। आठ घण्टे काम का मतलब है कि आठ घण्टे में मज़दूर को इतना मिले कि उसके परिवार की ज़रूरतें पूरी हों। आज की तरह नहीं कि आठ घण्टे के काम में अपनी ख़ुराकी, कमरा किराया, जेब ख़र्च ही न चले। ऐसी मजबूरी में मज़दूर वेतन बढ़ाने की माँग किये बग़ैर काम के घण्टे बढ़ाकर अपनी ज़रूरतें पूरी करने की कोशिश करता है जिसका नतीजा है कि मालिक 14 घण्टे की शिफ़्ट लगा देते हैं। महँगाई बढ़ने के साथ मालिकों ने अपने माल के रेट भी तो बढ़ाये हैं। तो फिर मज़दूर का भी हक़ बनता है कि वह अपने माल यानी अपनी श्रम शक्ति की क़ीमत बढ़ाये। लेकिन जागृति और एकजुटता की कमी के कारण वह ऐसा नहीं कर पाता। तभी तो जय सिंह की तरह अकेला पड़ जाने पर मालिक का निशाना बनता है। अब समय आ गया है कि हम सभी मज़दूर जाग जायें, नहीं तो यह सिलसिला रुकने वाला नहीं है। आने वाले दिनों में हमारे बच्चों को 18-20 घण्टे काम करना पड़ेगा। उनके पास तो खाना बनाने-खाने का समय भी नहीं बचेगा। हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है। या तो हम सभी मज़दूर एकजुट संघर्ष के द्वारा अपने अधिकार वापस छीनेंगे या हमारे बच्चों को हमसे भी ज़्यादा घिनौनी ग़ुलामी करनी पड़ेगी।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011
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