‘मज़दूर बिगुल’ द्वारा एक जाँच रिपोर्ट
बादाम उद्योग में मशीनीकरण: मज़दूरों ने क्या पाया और क्या खोया
बिगुल संवाददाता
पिछले अंक में हमने दिल्ली के बादाम प्रसंस्करण उद्योग के मशीनीकरण के बारे में लिखा था। इस मशीनीकरण को लेकर मज़दूरों में एक डर फैला हुआ है। वास्तव में, यह डर बादाम गोदामों के ठेकेदारों द्वारा फैलाया गया डर है। मालिक मज़दूरों के बीच यह बात फैला रहे हैं कि मशीनें लगने के बाद मज़दूर हड़ताल का मज़दूरों को कोई लाभ नहीं मिलेगा; मालिकों द्वारा फैलायी गयी अफ़वाह यह है कि मशीनें आने के बाद अगर हड़ताल होती भी है तो काम मशीनों द्वारा करवा लिया जायेगा। इस अफ़वाह के कारण बादाम मज़दूरों के एक हिस्से में यह बात घर कर गयी है कि अब मज़दूरों की मोलभाव की ताक़त कम हो गयी है और हड़ताल करने पर भी मालिकों पर कोई दबाव नहीं बनाया जा सकेगा। अब मालिक गरज़मन्द नहीं रहा, बल्कि मज़दूर गरज़मन्द हो गया है। लेकिन ऐसा सोचना वास्तव में समझदारी की कमी को दिखलाता है। मालिक तो यह अफ़वाह हर-हमेशा फैलायेगा कि मशीन आने पर मज़दूर की ताक़त कम हो गयी और अब मज़दूर को मालिक की शर्तों पर काम करना पड़ेगा। हम इस वहम को दूर करना ज़रूरी समझते हैं। मज़दूर जब तक इस वहम से बाहर नहीं आयेंगे तब तक वे समझ नहीं पायेंगे कि इस मशीनीकरण के सारे पहलू क्या हैं? उन्हें क्या लाभ हो रहा है और क्या हानि? और वे यह भी नहीं समझ पायेंगे कि आगे किस प्रकार संघर्ष की रणनीति बनायी जाय।
मशीनीकरण पूँजीवादी व्यवस्था की आम प्रवृत्ति है
पहली बात हमें यह समझनी होगी कि किसी भी उद्योग में मालिक हमेशा यह कोशिश करता है कि नयी से नयी तकनीक और नयी से नयी मशीनें आयें। इसका कारण यह होता है कि नयी मशीनों या तकनीकों से मज़दूर की उत्पादकता बढ़ जाती है। पहले मज़दूर एक घण्टे में जितना उत्पादन कर सकता था, अब उससे कहीं ज़्यादा उत्पादन कर सकता है। यानी उतनी ही मज़दूरी में मालिक के लिए ज़्यादा माल पैदा हो सकता है। यह बात आप बादाम उद्योग में भी देख सकते हैं। मशीन एक घण्टे में 20 से 25 बोरी फ्रेश बादाम की गिरी निकालती है और एक घण्टे में 10 से 12 बोरी कठोर गोला बादाम की गिरी निकालती है। हालाँकि, इसके बाद भी सफ़ाई और श्रेणीकरण आदि का काम बाकी रहता है जो मशीनों द्वारा नहीं होता बल्कि महिलाएँ हाथ से करती हैं, लेकिन फिर भी उद्योग की कुल उत्पादकता मशीन के आने से बढ़ती है। वास्तव में, मज़दूर को उत्पादकता बढ़ने के साथ ज़्यादा मज़दूरी मिलनी चाहिए, लेकिन होता इसका उल्टा है। उत्पादकता बढ़ने पर मालिक जो पहला काम करता है, वह होता है मज़दूरों की छँटनी। चूँकि पहले जितना ही उत्पादन अब कम समय और श्रम में किया जा सकता है, इसलिए कुछ मज़दूर बेकार हो जाते हैं। बादाम उद्योग में भी यह हुआ है। करीब 30 से 40 फ़ीसदी मज़दूर अब बेकार हो जायेंगे, और शहर के बेरोज़गार या अर्द्धबेरोज़गार मज़दूरों की श्रेणी में शामिल हो जायेंगे, जो कभी बेलदारी, कभी बादाम सफ़ाई, कभी रिक्शा-ठेला चलाने आदि का काम करेंगे। यही नुकसान है, जो मशीनीकरण के कारण मज़दूरों को होगा। इस प्रकार मशीनीकरण के ज़रिये पूँजीपति श्रम की उत्पादकता बढ़ाकर मज़दूरों के शोषण को बढ़ाता है और कुछ मज़दूरों की छँटनी करके उन्हें बेरोज़गारों की रिज़र्व सेना में शामिल कर देता है। इस रिज़र्व सेना का भय दिखाकर मालिक रोज़गार में लगे मज़दूरों को भी डराता रहता है कि अगर तुम कम मज़दूरी पर काम नहीं करोगे, तो बाहर बेरोज़गार मज़दूर इतनी ही मज़दूरी पर काम करने को तैयार खड़े हैं। यह भय दिखाकर पूँजीपति उत्पादकता बढ़ने के बावजूद वास्तव में मज़दूरी को बढ़ाता नहीं बल्कि कम करता है। यही डर आज एक दूसरे रूप में बादाम मज़दूरों के बीच फैला हुआ है। यह काम पूँजीपति हमेशा करता है। और इसीलिए पूँजीपति इस फ़िराक में रहता है कि नयी मशीनें और तकनोलॉजी लगाकर मज़दूरों पर होने वाले अपने नियमित ख़र्च को कम करे और श्रम की उत्पादकता बढ़ाकर कम मज़दूरों से ही उतना काम करा ले। मशीनीकरण की प्रवृत्ति हर उद्योग में होती है। हर उद्योग में पूँजीपति नयी से नयी मशीनें और तकनोलॉजी लाने का प्रयास करता रहता है, क्योंकि नयी तकनोलॉजी और मशीन श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर पूँजीवादी शोषण को और व्यापक और सघन बनाती हैं।
बादाम उद्योग में भी यह प्रक्रिया देर-सबेर होनी ही थी। अगर कोई ऐसा समझता है कि बादाम उद्योग हमेशा ऐसे ही आदिम रूप में मौजूद रहेगा और उसमें कभी मशीनें नहीं आयेंगी तो यह उसकी मूर्खता है। बादाम मज़दूर यूनियन और साथ ही बिगुल मज़दूर दस्ता बार-बार इस बात की ओर इशारा करता रहा है, कि देर-सबेर इस उद्योग में भी मशीनें आयेंगी और इस उद्योग का मानकीकरण होगा। यही हो रहा है क्योंकि यह होना ही था।
मज़दूरों को क्या लाभ हुआ और क्या हानि?
पहली बात यह कि सभी मज़दूरों को बेवजह हवा-हवाई तरीके से डरे रहने की बजाय ठोस तरीके से यह समझ लेना चाहिए कि इस मशीनीकरण से उन्हें क्या मिला और उन्होंने क्या खोया? बिना कारण डरे रहने से मालिकों की अफ़वाह फैलाने की साज़िश कामयाब होगी और हमारी स्थिति ग़ुलामों से भी बदतर हो जायेगी।
मज़दूरों को मशीनीकरण से सिर्फ़ एक नुकसान है। यह नुकसान यह है कि कुल बादाम मज़दूर आबादी में से कुछ मज़दूर रोज़गार खोयेंगे। यह प्रक्रिया जारी है। इसके कारण तात्कालिक तौर पर मज़दूरों पर असर पड़ेगा। बेरोज़गार हुए मज़दूर जब तक नया काम नहीं पा जाते, उस जगह से कहीं और विस्थापित नहीं हो जाते या बादाम उद्योग में किसी नये विस्तार के कारण अगर श्रम की माँग नहीं बढ़ती, तब तक वे काम में लगे मज़दूरों के मोलभाव की ताक़त को कुछ कम करेंगे। लेकिन यह भी तब होगा जब बादाम मज़दूरों की पूरी आबादी (जो काम में लगे हैं वे भी और जो बेरोज़गार हैं, वे भी) राजनीतिक तौर पर संगठित न हो। ऐसे में मज़दूरों के बीच ही रोज़गार को लेकर होड़ लग जाती है और मज़दूरी इसके कारण नीचे आने लगती है। इस रूप में पूँजीपति को फ़ायदा पहुँचता है। लेकिन अगर बेरोज़गार और रोज़गारशुदा बादाम मज़दूर राजनीतिक तौर पर संगठित हों तो पूँजीपतियों की होड़ कराने की चाल उस हद तक कामयाब नहीं हो पाती है। हाँ, तात्कालिक तौर पर मज़दूरों को कुछ नुकसान ज़रूर पहुँचता है। आज बादाम उद्योग में यही दौर चल रहा है, जब इस तात्कालिक नुकसान के कारण मज़दूरों को ऐसा लग रहा है कि अब मालिक का हाथ ऊपर हो गया है।
लेकिन यह स्थिति कभी भी बहुत लम्बे समय तक नहीं बनी रहती है। नये तरीके से फिर वह दौर आता है जब मालिक ज़रूरतमन्द और गरज़मन्द हो जाता है। यह समझना ज़रूरी है कि ऐसा कब होता है।
मशीनीकरण के तुरन्त बाद जो मज़दूर आबादी बेरोज़गार होती है, वह आने वाले समय में या तो उसी इलाक़े में कोई नया रोज़गार प्राप्त करती है, या फिर दूसरे इलाक़ों में जाने लगती है। हो सकता है कि कुछ बेरोज़गार हुए मज़दूर नोएडा, नांगलोई, नरेला, बुराड़ी, गाँधीनगर, या किसी और औद्योगिक क्षेत्र में चले जायें। यह प्रक्रिया पूरी होने में कुछ समय लगता है। हो सकता है 6 महीने या एक साल। लेकिन देर-सबेर यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है। जो मज़दूर कहीं रोज़गार नहीं पाते वे भी उसी इलाक़े में नहीं पड़े रहते हैं। वे या तो गाँव लौट जाते हैं, या किसी और शहर की ओर रुख़ करते हैं, जैसे कि करनाल, लुधियाना, आदि। जब यह प्रक्रिया चल रही होती है, उसी समय उद्योग में बची हुई मज़दूर आबादी स्थिरीकृत हो रही होती है। यानी, जो मज़दूर मशीनीकरण के बाद उद्योग में लगे रहते हैं वे उद्योग में नये सिरे से व्यवस्थित हो जाते हैं।
बादाम उद्योग में भी यह प्रक्रिया घटित होगी। आने वाले समय में जो मज़दूर बादाम उद्योग में लगे रहेंगे वे व्यवस्थित, स्थिरीकृत और संगठित होंगे। यह नयी मज़दूर आबादी बादाम उद्योग में तेज़ी के दौर में फिर से बढ़ेगी और हो सकता है वह पहले जितनी या उससे भी ज़्यादा हो जाये। इसलिए ऐसा भी नहीं है कि जितने मज़दूर मशीनीकरण के बाद बेरोज़गार होंगे, बादाम मज़दूरों की आबादी में से घटेंगे, वे दोबारा कभी बादाम उद्योग में काम नहीं पा सकते। तेज़ी के दौर में ऐसा हो भी सकता है। लेकिन अभी अगर यही मानकर चलते हैं कि 70 फ़ीसदी मज़दूर उद्योग में बचते हैं जबकि 30 फ़ीसदी की बादाम उद्योग से छँटनी हो जाती है। जैसा कि हमने पहले बताया, ये 70 फ़ीसदी बचे हुए मज़दूर कुछ समय के लिए मशीनीकरण के आतंक में रहते हैं और उन्हें लगता है कि मालिक की मोलभाव करने की ताक़त ज़्यादा हो गयी है। इसका कारण यह है कि अभी बादाम उद्योग में बेरोज़गार मज़दूर उपलब्ध होते हैं। लेकिन यह स्थिति लगातार बनी नहीं रहती।
इस सारी उथल-फथल के व्यवस्थित होने के बाद जो स्थिति पैदा होती है उसमें मज़दूरों के लिए कुछ फ़ायदे की बातें भी हैं।
पहली बात, अब जो मज़दूर आबादी बचेगी वह मशीन पर काम करने वाली मज़दूर आबादी होगी। मालिक हर-हमेशा यह चाहेगा कि उसकी महँगी मशीन बार-बार नये हाथों में न जाये। इस मशीन की क़ीमत 40 हज़ार रुपये हैं। वैसे तो बादाम प्रसंस्करण की इस मशीन को चलाने के लिए किसी बहुत उन्नत तकनीकी कौशल की आवश्यकता नहीं है लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हर सड़क चलता आदमी इसे चला सकता है। मालिक विशेषकर ऐसे मज़दूरों को ही तरजीह देगा जो बादाम उद्योग में ही काम करते रहे हों, और जो बादाम तुड़ाई के बारे में कुछ जानते हों। ऐसे में, मालिक मशीन पर काम करने वाले मज़दूरों की आबादी को स्थायी चाहेगा। वैसे, वह मशीन थोड़े प्रशिक्षण के बाद कोई भी चला सकता है। लेकिन काम के दौड़ने के दौर में मालिक कभी यह नहीं चाहेगा कि मशीन पर वह नया मज़दूर लगाये या मज़दूर बदलता रहे। इसलिए मशीन पर काम करने वाले मशीन ऑपरेटरों की आबादी को मालिक स्थायी ही रखना चाहेगा। और यह मशीन ऑपरेटर मज़दूरों के लिए एक अच्छी बात है। यह उनके मोलभाव की ताक़त को समय बीतने के साथ बढ़ायेगा।
दूसरी बात, मशीन पर सिर्फ़ पुरुष मज़दूर काम करेंगे। कम-से-कम फिलहाल ऐसा ही दिख रहा है। पुरुष मज़दूरों की मोलभाव की ताक़त पूँजीवादी समाज में वैसे भी ज़्यादा होती है। स्त्री और बाल मज़दूरों का श्रम सबसे सस्ता और कमज़ोर स्थिति में होता है और पूँजीपति हर हाल में उसका शोषण करना चाहता है। ऐसे में, बादाम मालिक अब पुरुष मज़दूरों के श्रम पर ज़्यादा निर्भर होंगे। ऐसे में, कुल मिलाकर बादाम मज़दूरों की ताक़त पहले के मुकाबले समय बीतने के साथ बढ़ेगी।
तीसरी बात, बादाम प्रसंस्करण मशीन आने के बाद भी प्रसंस्करण का सारा काम मशीन पर नहीं हो सकता है। अभी इस उद्योग में तकनोलॉजी की जो स्थिति है उसके मद्देनज़र लम्बे समय तक प्रसंस्करण के कई कामों, जैसे सफ़ाई, छँटाई, श्रेणीकरण आदि के लिए स्त्री मज़दूरों की दस्ती मेहनत ही काम आयेगी। ऐसे में, स्त्री मज़दूरों की उद्योग से छँटनी बड़े पैमाने पर नहीं होगी। लेकिन उनके श्रम की क़ीमत और ज़्यादा कम हो जायेगी, उनका शोषण और अधिक बढ़ जायेगा। जैसे कि मशीन से निकले माल की सफ़ाई पर मज़दूरों को प्रति बोरी मात्र एक रुपया प्राप्त होगा। इस दर पर काम होने के साथ स्त्री मज़दूरों का मालिकों के साथ अन्तरविरोध तेज़ी से बढ़ सकता है। उन्हें इस शोषण के विरुद्ध संगठित करना पहले के मुकाबले आसान होगा, बशर्ते कि उनके दिमाग़ से यह बात निकल जाये कि अब उनके मोलभाव करने की कोई ताक़त नहीं रही और वे नयी परिस्थितियों में मौजूद सकारात्मक को भी समझें।
चौथी बात, बादाम प्रसंस्करण उद्योग में मशीनीकरण के साथ ही उसके कारख़ाना अधिनियम के तहत आने का एक बड़ा कारण पैदा हो गया है। पहले बादाम मज़दूर यूनियन ने जब इस उद्योग के ग़ैर-क़ानूनी ढंग से काम करने को लेकर उपश्रमायुक्त से बात की थी, तो उसने यह बात करके मज़दूरों को टरका दिया था कि यह घरेलू उद्योग है और इसके लिए कारख़ाना अधिनियम लागू नहीं हो सकता। हालाँकि यह बात तब भी ग़लत थी क्योंकि ज़्यादातर गोदामों में 20 से ज़्यादा मज़दूर काम करते थे और जिस भी वर्कशाप या कारख़ाने में बीस से ज़्यादा मज़दूर काम करते हों, वह कारख़ाना अधिनियम के तहत आता है, भले ही उसमें मशीन और बिजली कनेक्शन न हो। और अगर मशीन और बिजली कनेक्शन है तब तो 10 मज़दूरों के साथ काम करने पर भी कारखाना अधिनियम लागू होता है। अब अधिकांश गोदामों में मशीनें आ चुकी हैं। क़ानूनी तौर पर मालिक बेहद कमज़ोर है। अगर वह हमारी माँगों पर नहीं मानता है, तो हम उस पर उद्योग के क़ानूनीकरण के लिए संघर्ष का दबाव बना सकते हैं। क़ानून का भय सभी मालिकों में होता है, क्योंकि क़ानून लागू होने पर उनका ख़र्चा होता है और मुनाफ़े में कमी आती है। बादाम उद्योग में ठेकेदार पहले भी ग़ैर-क़ानूनी तौर पर गोदाम चलवा रहे थे। लेकिन मशीन लगने के बाद तो वे बुरी तरह से फँसेंगे। इसलिए मज़दूरों के पास एक बहुत बड़ा नया हथियार आ गया है। वह हथियार है क़ानूनीकरण के भय का हथियार। अगर मालिक हमें मशीन का भय दिखाता है तो हम उसे नियमितीकरण का भय दिखायेंगे। इसलिए अगर वह एक मायने में ताक़तवर हुआ है तो दूसरे मायने में वह बेहद कमज़ोर हो गया है।
पाँचवी बात यह है कि अभी बादाम उत्पादन पूरी तरह मशीन पर निर्भर नहीं हुआ है। अभी तक मिली ख़बरों के अनुसार करीब 75 फ़ीसदी मालिक मशीन से ज़्यादा काम करवा रहे हैं, जबकि 25 फ़ीसदी मालिक मुख्य तौर पर हाथ से ही काम करवा रहे हैं। इसका एक कारण मशीन से माल का ख़राब होना भी हो सकता है। लेकिन इस कमज़ोरी पर हम बहुत ज़्यादा निर्भर नहीं कर सकते हैं क्योंकि एक बार मशीन के प्रवेश के बाद उद्योग की आम दिशा मशीनीकरण की ही होती है। इसलिए आज मशीनों से काम करवाने में जो भी कमी हो, कल यह कमी दूर हो जायेगी। इस कमी से मज़दूरों को केवल तात्कालिक तौर पर फ़ायदा मिलेगा। असली फ़ायदा ऊपर के चारों कारणों से होगा।
इसलिए मज़दूरों को बेवजह डरना बन्द कर देना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि हाथ से भी वही काम करते थे और मशीनें भी वही चलायेंगे, ठेकेदारों और मालिकों के अमीरज़ादे नहीं! इसलिए चाहे कोई भी मशीन आ जाये, मज़दूरों की ज़रूरत कभी ख़त्म नहीं हो सकती है। चाहे मालिक कुछ भी जादू कर ले, बिना मज़दूरों के उसका काम नहीं चल सकता है। मज़दूर ही मूल्य पैदा करता है। मशीनें भी मज़दूर ही बनाता है और उन्हें चलाता भी मज़दूर ही है। बादाम मालिक मशीनीकरण के साथ कई अर्थों में कमज़ोर हुए हैं। मशीनीकरण इस उद्योग और पूरी मज़दूर आबादी का मानकीकरण करेगा। इस मानकीकरण के चलते मज़दूरों में दूरगामी तौर पर ज़्यादा मज़बूत संगठन और एकता की ज़मीन तैयार होगी, क्योंकि उनके जीवन में अन्तर का पहलू और ज़्यादा कम होगा और जीवन परिस्थितियों का एकीकरण और मानकीकरण होगा। ऐसे में, मज़दूरों के अन्दर वर्ग चेतना और राजनीतिक संगठन की चेतना बढ़ेगी। मालिक मशीन पर काम करने वाले मज़दूर के सामने ज़्यादा कमज़ोर होता है, बनिस्बत हाथ से काम करने वाले मज़दूर के सामने। इसलिए मशीन पर काम करने वाली मज़दूर आबादी ज़्यादा ताक़तवर और लड़ाकू सिद्ध हो सकती है। बादाम मज़दूर यूनियन को इसी दिशा में सोचना होगा और मज़दूरों को यह बात लम्बी प्रक्रिया में समझाते हुए संगठित करना होगा।
आगे की रणनीति क्या हो?
बादाम मज़दूर यूनियन के साथियों के लिए कुछ सुझाव
आगे बादाम मज़दूर यूनियन को मज़दूरों के लिए सभी ताक़तवर पहलुओं पर अपनी रणनीति को केन्द्रित करना चाहिए।
पहली बात, उसे मज़दूरों के उन्नत हिस्से के बीच से सबसे पहले मशीनीकरण से पैदा हुए भय को समाप्त करने के लिए लम्बा प्रचार अभियान चलाना चाहिए। मज़दूरों को यह समझाना होगा कि मशीन भी वही चलायेंगे, मालिक ख़ुद नहीं चलायेगा! मशीन मज़दूर का स्थानापन्न नहीं बन सकती। वह उसके श्रम के गुण और परिमाण को बदल देती है। वह उसके श्रम की आवश्यकता को ही समाप्त नहीं कर देती है।
दूसरी बात, मज़दूरों को यह समझाना होगा कि एक बार स्थिरीकरण होने के बाद, मशीन पर काम करने के अनुभव से लैस मज़दूर आबादी को मालिक बार-बार नहीं बदलना चाहेगा। यह मशीन के लिए भी जोखिम भरा होगा और उत्पादन के लिए भी। इसलिए मशीन चलाने में ज़्यादा कुशलता की आवश्यकता न होने के बावजूद मालिक मशीन पर काम करने वाले मज़दूरों को बार-बार बदलना पसन्द नहीं करेगा और इस रूप में दूरगामी तौर पर उसकी निर्भरता मशीन मज़दूर पर ज़्यादा होगी।
तीसरी बात, मज़दूरों को समझाना होगा कि मशीनीकरण के बाद पूरे उद्योग के क़ानूनीकरण की ज़्यादा मज़बूत ज़मीन पैदा हो गयी है। इससे दो तरह से हमें लाभ मिल सकता है। जब तक श्रम विभाग इस उद्योग का क़ानूनीकरण नहीं करता है, तब तक यूनियन क़ानूनीकरण का डण्डा दिखाकर मालिकों में भय पैदा कर सकती है। और दूसरा फ़ायदा यह कि जब क़ानूनीकरण हो जायेगा तो कई गोदाम बन्द होंगे (जो क़ानूनीकरण का ख़र्च नहीं उठा पायेंगे), लेकिन उनकी जगह कुछ बड़े गोदाम पैदा होंगे जो या तो बड़े ठेकेदार खोलेंगे या सीधे खारी बावली के मालिक। ऐसा होने पर कारख़ानों की संख्या घटेगी, लेकिन मज़दूरों की संख्या में कोई विशेष अन्तर नहीं आयेगा। और इस मज़दूर आबादी के पास क़ानूनीकरण होने के कारण अपने श्रम अधिकारों के लिए लड़ने और उन्हें हासिल करने की ताक़त मौजूद होगी।
चौथी बात, यूनियन को यह बात मज़दूरों को समझनी होगी कि क़ानूनीकरण होने से मज़दूर अपनी यूनियन का पंजीकरण भी करा सकेंगे और मज़दूर की पहचान के नाते मिलने वाले सभी क़ानूनी अधिकारों और सुविधाओं के लिए भी लड़ सकेंगे। इसके अतिरिक्त, अन्य सेक्टरों और उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों के साथ उनकी एकता स्थापित होने की ज़्यादा मज़बूत ज़मीन भी क़ानूनीकरण और क़ानूनी यूनियन के साथ पैदा होगी। यह कुल मिलाकर मज़दूरों की ताक़त को बढ़ायेगा।
पाँचवीं बात, यूनियन को मज़दूरों को यह समझाना होगा कि मशीनीकरण पूँजीवादी समाज की आम प्रवृत्ति है। यह एक ओर तात्कालिक तौर पर पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े को बढ़ाता है, तो दूसरी तरफ़ यही पूँजीवाद की कब्र खोदने वाले सर्वहारा वर्ग को भी ताक़तवर बनाता है। बेरोज़गार होने वाली मज़दूर आबादी पूँजीवाद के लिए दूरगामी तौर पर एक ख़तरा बनती है। मशीनीकरण मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को स्वयं नहीं बढ़ाता, लेकिन वह इसकी ज़मीन पैदा करता है क्योंकि वह पूरे उद्योग और मज़दूर आबादी की सम्पूर्ण जीवन स्थितियों का मानकीकरण करता है। मशीनीकरण ने यूनियन के साथियों को पूँजीवाद के बारे में मज़दूरों के उन्नत तबके को शिक्षित करने का एक मूल्यवान अवसर दिया है और उन्हें इस अवसर को क़तई नहीं चूकना चाहिए। इसके लिए पर्चे निकाले जाने चाहिए, मीटिंगें की जानी चाहिए, रचनात्मक पोस्टर लगाये जाने चाहिए और भी तमाम कार्रवाइयाँ की जानी चाहिए।
हमें याद रखना चाहिए कि लेनिन ने ट्रेड यूनियन को पूँजी के हमलों के समक्ष मज़दूर वर्ग के आर्थिक हितों की रक्षा के लिए मज़दूर वर्ग के संगठन के अलावा ‘कम्युनिज़्म की पाठशाला’ भी कहा है, क्योंकि यहीं पर मज़दूर अपने संगठन को पहचानता है, अपनी वर्ग चेतना उन्नत करता है, और पूँजीवाद की कार्यप्रणाली और उसके रहस्यों को समझता जाता है। यदि कोई ट्रेड यूनियन लगातार आर्थिक मुद्दों पर आन्दोलन और संघर्ष के बारे में सोचेगी तो वह अर्थवाद और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद के रास्ते पर चल पड़ेगी। बादाम मज़दूर यूनियन के साथियों ने पहले भी राजनीतिक प्रचार के कामों को प्रभावी रूप से हाथ में लिया है। आज उनके सामने आम राजनीतिक प्रचार के लिए एक शानदार ठोस अवसर है। यूनियन के साथियों का यह कार्यभार होगा कि पूँजीवाद की हर आम व ख़ास परिघटना पर मज़दूर वर्ग को राजनीतिक तौर पर शिक्षित-प्रशिक्षित करें, पूँजीवाद को बेनक़ाब करें, और ट्रेड यूनियन के मंच से आर्थिक संघर्ष खड़ा करते हुए भी अर्थवाद का खण्डन करें और राजनीतिक प्रचार करते हुए मज़दूरों को पूँजीवाद-विरोध की मंज़िल तक लायें। बादाम मज़दूर यूनियन के साथियों का इसका अमूल्य अवसर मिला है। इसे हाथ से जानें न दें।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2011
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन