Category Archives: श्रम क़ानून

करावलनगर के बादाम उद्योग का मशीनीकरण

मशीनीकरण करावलनगर के बादाम उद्योग का मानकीकरण करेगा और उसे देर-सबेर कारख़ाना अधिनियम के तहत लायेगा। मशीनीकरण मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को बढ़ाने में एक सहायक कारक बनेगा और मशीन पर काम करने वाली मज़दूर आबादी मालिकों और ठेकेदारों के लिए अकुशल मज़दूर के मुक़ाबले कहीं ज्यादा अनिवार्य होगी। अकुशल मज़दूर आसानी से मिल जाता है, लेकिन एक ख़ास प्रकार की मशीन को सही तरीक़े से चला सकने वाला मज़दूर सड़क पर घूमता नहीं मिल जाता। ऐसे में, मज़दूरों की सामूहिक मोल-भाव की ताक़त पहले के मुक़ाबले कहीं ज्यादा होगी। मशीनीकरण के शुरू होने के समय मज़दूर आतंकित थे कि अब मालिक गरज़मन्द नहीं रहा और अब उनकी ताक़त कम हो गयी है। लेकिन अब मज़दूर इस बात को समझने लगे हैं कि मशीनीकरण के कारण होने वाली छँटनी के बाद जो कटी-छँटी मज़दूर आबादी बचेगी, वह कहीं ज्यादा ताक़तवर और संगठित होगी और साथ ही मालिकों के लिए कहीं ज्यादा ज़रूरी होगी। इस रूप में मशीनीकरण ने बादाम उद्योग के साथ-साथ बादाम मज़दूरों के संगठन को भी एक नयी मंज़िल में पहुँचा दिया है।

लुधियाना का श्रम विभाग : एक नख-दन्त विहीन बाघ

पंजाब के औद्योगिक शहर लुधियाना में होज़री, डाइंग प्लांट, टेक्सटाइल, आटो पार्ट्स, साइकिल उद्योग में बड़ी मज़दूर आबादी खटती है। यह आबादी मुख्यत: बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल, हिमाचल आदि राज्यों और पड़ोसी देश नेपाल से यहाँ काम करने आती है। पंजाबी आबादी इन कारख़ानों में कम है। अगर है भी तो ज्यादातर स्टाफ के कामों में है। लुधियाना के फैक्ट्री मालिकों का मज़दूरों के प्रति रवैया एकदम तानाशाही वाला है। अक्सर ही मज़दूरों के साथ मारपीट की घटनाएँ होती रहती हैं। पहले तो वेतन ही बहुत कम दिया जाता है। कुछ मालिक तो मज़दूरों से कुछ दिन काम करवाकर बिना पैसा दिये ही लात-गाली देकर काम से निकाल देते हैं। ऐसे में बहुत सारे मज़दूर तो अपना भाग्य मानकर चुप लगा जाते हैं और किसी दूसरी फैक्ट्री में काम पकड़ लेते हैं। लेकिन कुछ जागरूक मज़दूर मालिक को सबक सिखाने के लिए किसी तथाकथित ”कामरेड” के माध्यम से मालिक के ख़िलाफ लेबर दफ्तर में शिक़ायत कर देते हैं। मालिकों से जो कसर बचती है वह लेबर अधिकारी निकाल देते हैं। सालों-साल केस चलता है। अक्सर मालिक लेबर दफ्तर में पेश ही नहीं होते। और मज़दूर इन्साफ की उम्मीद लिये दिहाड़ी पर खटता रहता है।

आपने ठीक फ़रमाया मुख्यमन्त्री महोदय, बाल मजदूरी को आप नहीं रोक सकते!

बंगाल के ”संवेदनशील” मुख्यमन्त्री बुध्ददेव भट्टाचार्य बाल श्रम पर रोक लगाने के पक्षधर नहीं हैं! जहाँ 14 वर्ष की आयु से कम के बच्चों को मजदूरी कराये जाने को लेकर दुनियाभर में हो-हल्ला (दिखावे के लिए ही सही!) मचाया जा रहा हो, वहीं मजदूरों के पैरोकार का खोल ओढ़े भट्टाचार्य जी मजदूरों की एक सभा में कहते हैं कि वे बच्चों को मजदूरी करने से इसलिए नहीं रोक सकते, क्योंकि अपने परिवारों में आमदनी बढ़ाने में वे मददगार होते हैं और इसलिए भी ताकि वे काम करते हुए पढ़ाई भी कर सकें। मजदूरों के बच्चों को श्रम का पाठ पढ़ाने वाले बुध्ददेव भट्टाचार्य को संशोधनवादी वामपन्थी माकपा के अध्‍ययन चक्रों और शिविरों में मार्क्‍सवादी अर्थशास्त्र के सिध्दान्त का लगाया घोंटा थोड़ा बहुत याद तो होगा ही। जाहिरा तौर पर उन्हें इस बात की जानकारी है कि मुनाफे पर टिकी इस आदमख़ोर व्यवस्था में बाल श्रम को ख़तम ही नहीं किया जा सकता। पूँजीवाद की जिन्दगी की शर्त ही यही है कि वह सस्ते से सस्ता श्रम निचोड़ता रहे और उसे मुनाफे में ढालता जाये। आज भूमण्डलीकरण और वैश्विक मन्दी के दौर में तो मुनाफे की दर लगातार नीचे जा रही है और मुनाफे की दर को कायम रखने के लिए आदमख़ोर पूँजी एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के पिछड़े पूँजीवादी देशों में सस्ते श्रम की तलाश में अपनी पहुँच को और गहरा बना रही है और वहाँ भी ख़ासतौर पर स्त्रियों और बच्चों का शोषण सबसे भयंकर तरीके से कर रही है क्योंकि उनका श्रम इन देशों में मौजूद सस्ते श्रम में भी सबसे सस्ता है।

प्रबन्धन की गुण्डागर्दी की अनदेखी कर मज़दूरों पर एकतरफ़ा पुलिसिया कार्रवाई

आज के दौर में किसी एक फैक्टरी के मज़दूर अकेले-अकेले बहुत दूर तक अपनी लड़ाई नहीं लड़ सकते। हमें अपने इलाके के मज़दूरों को गोलबन्द करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा। मज़दूरों को सीटू, एटक और इण्टक जैसे मज़दूर वर्ग के ग़द्दारों से छुटकारा पाना होगा और अपनी क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन खड़ी करनी होगी।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 2 कार्य-दिवस का प्रश्न मज़दूर वर्ग के लिए एक महत्‍वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न है, महज़ आर्थिक नहीं

मज़दूर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपनी राजनीतिक चेतना की कमी के चलते इस माँग को ज़रूरत से ज्यादा माँगना समझ सकता है। लेकिन हमें यह बात समझनी होगी कि मानव चेतना और सभ्यता के आगे जाने के साथ हर मनुष्य को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वह भी भौतिक उत्पादन के अतिरिक्त सांस्कृतिक, बौध्दिक उत्पादन और राजनीति में भाग ले सके; उसे मनोरंजन और परिवार के साथ वक्त बिताने का मौका मिलना चाहिए। दरअसल, यह हमारा मानवाधिकार है। लेकिन लम्बे समय तक पूँजीपति वर्ग ने हमें पाशविक स्थितियों में रहने को मजबूर किया है और हमारा अस्तित्व महज़ पाशविक कार्य करने तक सीमित होकर रह गया है, जैसे कि भोजन करना, प्रजनन करना, आदि। लेकिन मानव होने का अर्थ क्या सिर्फ यही है? हम जो दुनिया के हरेक सामान को बनाते हैं, यह अच्छी तरह से जानते हैं कि दुनिया आज हमारी मेहनत के बूते कहाँ पहुँच चुकी है। लेकिन हम अपनी ही मेहनत के इन शानदार फलों का उपभोग नहीं कर सकते। ऐसे में अगर हम इन पर हक की माँग करते हैं तो इसमें नाजायज़ क्या है? इसलिए हमें इनसान के तौर पर ज़िन्दगी जीने के अपने अधिकार को समझना होगा। हम सिर्फ पूँजीपतियों के लिए मुनाफा पैदा करने, जानवरों की तरह जीने और फिर जानवरों की तरह मर जाने के लिए नहीं पैदा हुए हैं। जब हम यह समझ जायेंगे तो जान जायेंगे कि हम कुछ अधिक नहीं माँग रहे हैं। इसलिए हमारी दूरगामी माँग है – ‘काम के घण्टे छह करो!’ और हम छह घण्टे के कार्य-दिवस का कानून बनाने के लिए संघर्ष करेंगे।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 1 काम के दिन की उचित लम्बाई और उसके लिए उचित मज़दूरी मज़दूर वर्ग की न्यायसंगत और प्रमुख माँग है!

दुनियाभर के मज़दूर आन्दोलन में काम के दिन की उचित लम्बाई और उसके लिए उचित मज़दूरी का भुगतान एक प्रमुख मुद्दा रहा है। 1886 में हुआ शिकागो का महान मज़दूर आन्दोलन इसी मुद्दे को केन्द्र में रखकर हुआ था। मई दिवस शिकागो के मज़दूरों के इसी आन्दोलन की याद में मनाया जाता है। 1886 की पहली मई को शिकागो की सड़कों पर लाखों की संख्या में उतरकर मज़दूरों ने यह माँग की थी कि वे इंसानों जैसे जीवन के हकदार हैं। वे कारख़ानों और वर्कशॉपों में जानवरों की तरह 14 से 16 घण्टे और कई बार तो 18 घण्टे तक खटने को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने ‘आठ घण्टे काम,आठ घण्टे आराम और आठ घण्टे मनोरंजन’ का नारा दिया। कालान्तर में दुनियाभर के पूँजीपति वर्गों को मज़दूर वर्ग के आन्दोलन ने इस बात के लिए मजबूर किया कि वे कम-से-कम कानूनी और काग़ज़ी तौर पर मज़दूर वर्ग को आठ घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार दें। यह एक दीगर बात है कि आज कई ऐसे कानून बन गये हैं जो मज़दूर वर्ग के संघर्षों द्वारा अर्जित इस अधिकार में चोर दरवाज़े से हेर-फेर करते हैं और यह कि दुनियाभर में इस कानून को अधिकांशत: लागू ही नहीं किया जाता। आमतौर पर मज़दूर 12-14 घण्टे खटने के बाद न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं पाते।

लुधियाना के होजरी मजदूर संघर्ष की राह पर

इस आन्दोलन में जो मजदूर साथी आगे होकर मालिकों से रेट की बात कर रहे थे, उन्हें मालिक काम से हटाने की कोशिश करेंगे। अधिकतर कारखानों में मालिक नेतृत्वकारी मजदूरों को किसी न किसी बहाने कारखाने से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। इन्हीं बातों के मद्देनजर आपसी एकता बनाये रखना आने वाले समय की माँग है। बाकी कारखानों के मजदूरों से सम्पर्क करके होजरी उद्योग के मजदूरों की एक साझा संघर्ष कमेटी बनाने और एक साझा माँगपत्र तैयार करके उस पर संघर्ष का आधार तैयार करने का यह समय है।

शीला जी? आपको पता है, न्यूनतम मजदूरी कितने मजदूरों को मिलती है?

दिल्ली में काम करने वाला हर मजदूर जानता है कि इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं हो सकता। क्या दिल्ली सरकार नहीं जानती कि दिल्ली के 98 प्रतिशत मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है। राजधनी के दो दर्जन से अधिक औद्योगिक क्षेत्रों में लाखों स्त्री-पुरुष मजदूर हर महीने 1500 से लेकर 3000 रुपये तक पर खटते हैं। उन्हें ईएसआई, जॉब कार्ड, साप्ताहिक छुट्टी जैसी बुनियादी सुविधएँ भी नहीं मिलती हैं। ”दिल्ली की शान” कहे जाने वाले मेट्रो तक में न्यूनतम मजदूरी माँगने पर मजदूरों से गुण्डागर्दी की जाती है।

गोरखपुर में अड़ियल मालिकों के ख़िलाफ मज़दूरों का संघर्ष जारी

अंकुर उद्योग लि, वी एन डायर्स धागा व कपड़ा मिल तथा जालानजी पालिटेक्स के मज़दूरों ने लड़कर काम के घण्टे आठ कराये थे लेकिन मालिकान फिर से 12 घण्टे काम कराने की जी-तोड कोशिश में लगे हैं। लगातार मौखिक दबाव बनाने के बाद अन्त में अंकुर के मालिकान ने एक नोटिस लगा दिया कि अब कम्पनी में 12 घण्टा काम होगा। इसके बाद मजदूरों ने टोलियाँ बनाकर रातभर कमरे-कमरे घूमकर प्रचार किया और तैयारी कर लिया कि काम आठ घण्टा ही करेंगे। इसके बाद अगले दिन सुबह वाली शिफ्ट 2 बजे के 10 मिनट पहले ही मशीनें बन्द कर बाहर आ गयी। बाहर खडी दूसरी शिफ्ट ने ताली बजाकर उसका स्वागत किया। दूसरी शिफ्ट को मालिक ने अन्दर नही लिया। फिर गेट पर ही एक मैराथन मीटिंग शाम तक हुई। मजदूरों ने यह तय किया कि रात 10 बजे नहीं आयेंगे। दो बजे ही आयेगे। अपने अधिकारों के प्रति वे जाग गये हैं इसका एहसास मालिक को करा दिया। अगले दिन दूसरी शिफ्ट नही चली। तीसरे दिन फिर काम के घण्टे आठ रहने की नोटिस लग गयी।

लुधियाना के कारख़ाना मालिकों का खूँखार चेहरा फिर उजागर

असल में लुधियाना के कारख़ानों में मालिकों का जंगलराज खुलेआम चल रहा है। कारख़ाना मालिकों द्वारा श्रम कानूनों की खुलकर धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। लुधियाना के लगभग सभी कारख़ानों के मज़दूरों के हक-अधिकारों पर कारख़ाना मालिकों द्वारा डाका डाला जा रहा है। न कहीं आठ घण्टे की दिहाड़ी का कानून लागू होता है, न न्यूनतम वेतन दिया जाता है, ज़बरदस्ती ओवरटाइम लगवाया जाता है। कारख़ानों में वहाँ काम कर रहे अधिकतर मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता। कारख़ाने में काम करते हुए अगर किसी मज़दूर के साथ कोई हादसा हो जाये या उसकी जान ही चली जाये तो वह या उसका परिवार कोई मुआवज़ा माँगने के कानूनी तौर पर हकदार नहीं रह जाते।