लुधियाना का श्रम विभाग : एक नख-दन्त विहीन बाघ
राजविन्दर
पंजाब के औद्योगिक शहर लुधियाना में होज़री, डाइंग प्लांट, टेक्सटाइल, आटो पार्ट्स, साइकिल उद्योग में बड़ी मज़दूर आबादी खटती है। यह आबादी मुख्यत: बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल, हिमाचल आदि राज्यों और पड़ोसी देश नेपाल से यहाँ काम करने आती है। पंजाबी आबादी इन कारख़ानों में कम है। अगर है भी तो ज्यादातर स्टाफ के कामों में है। लुधियाना के फैक्ट्री मालिकों का मज़दूरों के प्रति रवैया एकदम तानाशाही वाला है। अक्सर ही मज़दूरों के साथ मारपीट की घटनाएँ होती रहती हैं। पहले तो वेतन ही बहुत कम दिया जाता है। कुछ मालिक तो मज़दूरों से कुछ दिन काम करवाकर बिना पैसा दिये ही लात-गाली देकर काम से निकाल देते हैं। ऐसे में बहुत सारे मज़दूर तो अपना भाग्य मानकर चुप लगा जाते हैं और किसी दूसरी फैक्ट्री में काम पकड़ लेते हैं। लेकिन कुछ जागरूक मज़दूर मालिक को सबक सिखाने के लिए किसी तथाकथित ”कामरेड” के माध्यम से मालिक के ख़िलाफ लेबर दफ्तर में शिक़ायत कर देते हैं। मालिकों से जो कसर बचती है वह लेबर अधिकारी निकाल देते हैं। सालों-साल केस चलता है। अक्सर मालिक लेबर दफ्तर में पेश ही नहीं होते। और मज़दूर इन्साफ की उम्मीद लिये दिहाड़ी पर खटता रहता है।
थोड़ा लुधियाना के लेबर विभाग के बारे में भी जान लें। लुधियाना के लेबर दफ्तर में मात्रा 27 कर्मचारी हैं जो 1991 में 70 हुआ करते थे। तब कारख़ाने भी कम थे। लेकिन अब लुधियाना बड़ा औद्योगिक शहर बन गया है और लेबर अधिकारियों की संख्या सरकार ने कम कर दी है। और इस साल लगभग 12 कर्मचारी रिटायर हो रहे हैं। सोचा ही जा सकता है कि मात्रा 15 लोगों से यह दफ्तर कैसे मज़दूरों की समस्याओं को निपटायेगा। इससे सरकार की मंशा भी समझी जा सकती है कि वह इस विभाग को धीरे-धीरे ख़त्म ही कर देना चाहती है। पिछले दिनों चली पावरलूम मज़दूरों की हड़ताल के दौरान जब कारख़ानों में जाकर इन्तज़ामों की समीक्षा की बात उठी तो पता चला कि 1991 के बाद से लुधियाना में फैक्ट्री इन्सपेक्टर की पोस्ट खाली पड़ी हुई है। तो फैक्ट्री में जाकर चेकिंग कौन करे? अगर सारा स्टाफ दिन-रात एक करके चेकिंग करे तो कम से कम 5 साल तो चेकिंग में ही लग जायेंगे। लेबर अधिकारियों की ज़िम्मेवारी तो यह बनती है कि वे फैक्ट्री-फैक्ट्री जाकर श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के दोषी मालिकों के ऊपर कार्रवाई करें और मज़दूरों को इकट्ठा करके श्रम क़ानूनों के बारे में बतायें। लेकिन श्रम विभाग तो उन शिक़ायतों का निपटारा भी नहीं करता जो मज़दूर ख़ुद उनके पास ले जाते हैं। जो कर्मचारी बचे रह गये हैं वे मालिकों के ख़ास हैं और भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हुए हैं।
मज़दूर के शिकायत करने पर जो सेवादार या लेबर इन्सपेक्टर मालिक के पास चिट्ठी ले जाते हैं, मालिक उनकी जेब गर्म करके वापस भेज देते हैं। कई-कई तारीख़ों पर तो मालिक आते ही नहीं। अगर मालिक आते भी हैं तो श्रम अधिकारी ही उनको बचने के उपाय भी बताते हैं। मज़दूरों की एकजुट ताक़त के दबाव से ही श्रम अधिकारी मालिक के ऊपर कुछ कार्रवाई करते हैं, नहीं तो मालिक भक्ति का नज़ारा ही देखने को मिलता है। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि लेबर विभाग सिर्फ कहने को ही बाघ है। यह मालिकों से मज़दूरों को कोई भी अधिकार नहीं दिला सकता। क्योंकि इसके पास न काटने को दाँत हैं और न बखोरने को नाख़ून।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन