इक्कीसवीं सदी के ग़ुलाम, जिनका अपनी ज़िन्दगी पर भी कोई अधिकार नहीं है
होज़री और डाइंग के कारख़ानों में मज़दूर सीज़न में लगातार 36-36 घण्टे भी काम करते हैं। यह बहुत भयंकर स्थिति है कि मज़दूर काम के घण्टे बेतहाशा बढ़ाने का विरोध करने के बजाय और अधिक खटने को तैयार हो जाते हैं। बढ़ती महँगाई के कारण परिवार का पेट पालने के लिए मज़दूर अपनी मेहनत बढ़ा देता है, काम के घण्टे बढ़ा देता है और पहले से अधिक मशीनें चलाने लगता है और निर्जीव-सा होकर महज़ हाड़-माँस की एक मशीन बन जाता है। कारख़ाने में काम के अलावा मज़दूर को सब्ज़ी, राशन आदि ख़रीदारी करने, सुबह-शाम का खाना बनाने के लिए भी तो समय चाहिए। और दर्जनों मज़दूर इकट्ठे एक ही बेहड़े में रहते हैं जहाँ एक नल और एक-दो ही टायलेट होते हैं। इनके इस्तेमाल के लिए मज़दूरों की लाइन लगी रहती है और बहुत समय बर्बाद करना पड़ता है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि मज़दूर यह समय ख़ुद पर ख़र्च करता है। लेकिन दरअसल ख़ुद पर लगाया जाने वाला यह समय भी असल में एक तरह से मालिक की मशीन के एक पुर्ज़े को चालू रखने पर ख़र्च होता है। मज़दूर को पर्याप्त आराम और मनोरंजन के लिए तो समय मिल ही नहीं पाता। यह तो कोई इन्सान की ज़िन्दगी नहीं है। कितनी मजबूरी होगी उस इन्सान की जिसने अपने को भुलाकर परिवार को ज़िन्दा रखने के लिए अपने-आप को काम की भट्ठी में झोंक दिया है। दुआराम जैसे मालिक मज़दूर की मजबूरी का बख़ूबी फ़ायदा उठाते हैं और नयी-नयी गाड़ियाँ और बंगले खरीदते जाते हैं, नये-नये कारख़ाने लगाते जाते हैं।