Category Archives: श्रम क़ानून

मजदूरों या उनके प्रतिनिधियों को सूचना दिए बिना ही निपटा ली गई एकतरफा वार्ता

गोरखपुर मजदूर आंदोलन समर्थक नागरिक मोर्चा ने कल शाम वीएन डायर्स के मालिक विष्‍णु अजीत सरिया-श्रम विभाग-प्रशासन के बीच हुई वार्ता को अवैध एवं कानून विरोधी बताया है। मोर्चा ने कहा कि कल हुई इस एकतरफा वार्ता में मजदूरों के प्रतिनिधि शामिल नहीं थे। इससे स्‍पष्‍ट होता है कि गोरखपुर प्रशासन मालिकों के पक्ष में काम कर रहा है, क्‍योंकि मजदूरों या उनके प्रतिनिधियों को इस वार्ता की सूचना तक नहीं दी गई। मजदूरों के प्रतिनिधियों के बिना हुई यह वार्ता पूरी तरह अवैधानिक है और इसमें श्रमिकों की मुख्‍य मांग, अवैध रूप से निकाले गए 18 मजदूरों को काम पर वापस लेने, पर कोई चर्चा ही नहीं गई।

मज़दूरों के जुझारू संघर्ष और देशव्यापी जनदबाव से गोरखपुर में मजदूर आन्दोलन को मिली आंशिक जीत

कल ‘मज़दूर सत्याग्रह’ के लिए शान्तिपूर्ण ढंग से आयुक्त कार्यालय पर जा रहे मजदूरों पर शहर में जगह-जगह हुए लाठीचार्ज, गिरफ्तारी, सार्वजनिक वाहनों तक से उतारकर मजदूरों की पिटाई और महिला मजदूरों के साथ पुलिस के दुव्यर्वहार की चैतरफा भर्त्‍सना और सैकड़ों मजदूरों के टाउनहाल पर भूख हड़ताल शुरू कर देने के बाद प्रशासन भारी दबाव में आ गया था। अधिकारियों ने देर शाम हिरासत में लिए गए सभी मजदूर नेताओं और मजदूरों को रिहा कर दिया तथा मालिकों को वार्ता के लिए बुलाया था। कुछ मांगों पर मालिक की सहमति तथा आज औपचारिक वार्ता तय होने के बाद कल रात अधिकांश मजदूरों द्वारा भूख हड़ताल स्थगित कर धरना हटा लिया गया था लेकिन करीब 25 मजदूरों का जत्था भूख हड़ताल जारी रखे था।

एक नयी पहल! एक नयी शुरुआत! एक नयी मुहिम! मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन को एक तूफ़ानी जनान्दोलन बनाओ!

इक्कीसवीं सदी में पूँजी और श्रम की शक्तियों के बीच निर्णायक युद्ध होना ही है। मेहनतकशों के सामने नारकीय ग़ुलामी, अपमान और बेबसी की ज़िन्दगी से निज़ात पाने का मात्र यही एक रास्ता है। गुज़रे दिनों की पस्ती-मायूसी भूलकर और पिछली हारों से ज़रूरी सबक लेकर एक नयी लड़ाई शुरू करनी होगी और जीत का भविष्य अपने हाथों गढ़ना होगा। शुरुआत पूँजीवादी हुकूमत के सामने अपनी सभी राजनीतिक माँगों को चार्टर के रूप में रखने से होगी। मज़दूरों को भितरघातियों, नकली मज़दूर नेताओं और मौक़ापरस्तों से होशियार रहना होगा। रस्मी लड़ाइयों से दूर रहना होगा। मेहनतकश की मुक्ति स्वयं मेहनतकश का काम है।

मालिक बनने के भ्रम में पिसते मज़दूर

बादली औद्योगिक क्षेत्र एफ 2/86 में अशोक नाम के व्यक्ति की कम्पनी है जिसमें बालों में लगाने वाला तेल बनता है और पैक होता है। पैकिंग का काम मालिक ठेके पर कराता है। इस कम्पनी में काम करने वाले आमोद का कहना है कि ये तो 8 घण्टे के 3000 रु. से भी कम पड़ता है। और उसके बाद दुनियाभर की सरदर्दी ऊपर से कि माल पूरा पैक करके देना है। अब उस काम को पूरा करने के लिए आमोद और उसका भाई प्रमोद और उमेश 12-14 घंटे 4-5 लोगों को साथ लेकर काम करता है। आमोद का कहना है कि कभी काम होता है कभी नहीं। जब काम होता है तब तो ठीक नहीं तो सारे मजदूरों को बैठाकर पैसा देना पड़ता है। जिससे मालिक की कोई सिरदर्दी नहीं है। जितना माल पैक हुआ उस हिसाब से हफ्ते में भुगतान कर देता है। अगर यही माल मालिक को खुद पैक कराना पड़ता तो 8-10 मजदूर रखने पड़ते। उनसे काम कराने के लिए सुपरवाइजर रखना पड़ता और हिसाब-किताब के लिए एक कम्प्यूटर ऑपरेटर रखना पड़ता। मगर मालिक ने ठेके पर काम दे दिया और अपनी सारी ज़ि‍म्मेदारियों से छुट्टी पा ली। अगर ठेकेदार काम पूरा करके नहीं देगा तो मालिक पैसा रोक लेगा। मगर आज हम लोग भी तो इस बात को नहीं सोचते हैं। और ठेके पर काम लेकर मालिक बनने की सोचते हैं। काम तो ज्यादा बढ़ जाता है मगर हमारी जिन्दगी में कोई बदलाव नहीं होता। इसलिए आज की यह जरूरत है कि हम सब मिलकर मालिकों के इस लूट तन्त्र को खत्म कर दें।

मजदूर मांगपत्रक आंदोलन 2011 – हर इंसाफ़पसन्‍द नागरिक से समर्थन की अपील

लम्बे संघर्षों और क़ुर्बानियों की बदौलत जो क़ानूनी अधिकार मज़दूरों ने हासिल किये थे, आज उनमें से ज़्यादातर छीने जा चुके हैं। जो पुराने श्रम क़ानून (जो क़तई नाकाफ़ी हैं) काग़ज़ों पर मौजूद हैं, उनका व्यवहार में लगभग कोई मतलब नहीं रह गया है। दिखावे के लिए सरकार जो नये क़ानून बना रही है, वे ज़्यादातर प्रभावहीन और पाखण्डपूर्ण हैं या मालिकों के पक्ष में हैं। श्रम क़ानून न केवल बेहद उलझे हुए हैं, बल्कि न्याय की पूरी प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और लम्बी है और मज़दूरों को शायद ही कभी न्याय मिल पाता है। श्रम विभाग के कार्यालयों, अधिकारियों, कर्मचारियों की संख्या ज़रूरत से काफ़ी कम है और श्रम क़ानूनों को लागू करवाने के बजाय यह विभाग प्राय: मालिकों के एजेण्ट की भूमिका निभाता है। श्रम न्यायालयों और औद्योगिक ट्रिब्यूनलों की संख्या भी काफ़ी कम है। भारत की मेहनतकश जनता के लिए संविधानप्रदत्त जीने के मूलभूत अधिकार का कोई मतलब नहीं है। नागरिक आज़ादी और लोकतान्त्रिक अधिकार उनके लिए बेमानी हैं।इन हालात में, भारत के मज़दूर, भारत की संसद और सरकार को बता देना चाहते हैं कि उन्‍हें यह अन्‍धेरगर्दी, यह अनाचार-अत्याचार अब और अधिक बर्दाश्त नहीं। मज़दूर वर्ग को हर क़ीमत पर हक़ और इंसाफ़ चाहिए और इसके लिए एक लम्बी मुहिम की शुरुआत कर दी गयी है। इसके पहले क़दम के तौर पर, संसद में बैठे जन-प्रतिनिधियों और शासन चलाने वाली सरकार के सामने, सम्मानपूर्वक जीने के लिए,अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करते हुए जीने के लिए, अपने न्यायसंगत और लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए, और इस देश की तमाम तरक़्क़ी में अपना वाजिब हक़ पाने के लिए मज़दूरों का एक माँग-पत्रक प्रस्तुत किया जा रहा है। इस माँग-पत्रक में कुल 26 श्रेणी की माँगें हैं जोभारत के मज़दूर वर्ग की लगभग सभी प्रमुख आवश्‍यकताओं का प्रतिनिधित्‍व करती हैं और साथ ही उसकी राजनीतिक माँगों को भी अभिव्‍यक्‍त करती हैं।

मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन-2011 के तहत करावल नगर में ‘मज़दूर पंचायत’ का आयोजन

शहीदेआज़म भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव के 80वें शहादत दिवस पर करावल नगर के न्यू सभापुर इलाक़े में ‘मज़दूर पंचायत’ का आयोजन किया गया। यह आयोजन मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन-2011 की तरफ़ से किया गया था। इसमें करावल नगर के तमाम दिहाड़ी, ठेका व पीस रेट पर काम करने वाले मज़दूरों ने भागीदारी की और अपनी समस्याओं को साझा किया।

दिल्ली के विधायकों के वेतन में 300 प्रतिशत वृद्धि और मज़दूरों के वेतन में 15 प्रतिशत की वृद्धि

अगर मज़दूरों के हालात पर नज़र डाली जाये तो मौजूदा समय में दिल्ली में 45 लाख मज़दूरों की संख्या असंगठित क्षेत्र मे कार्यरत है; जिसमें से एक-तिहाई आबादी व्यापारिक प्रतिष्ठानों, होटलों और रेस्तरों आदि में लगी हुई है। करीब 27 प्रतिशत हिस्सा मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र, यानी कारखाना उत्पादन में लगा हुआ है। जबकि निर्माण क्षेत्र यानी इमारतें, सड़कें, फ्लाईओवर आदि बनाने का काम करने में भी लाखों मज़दूर लगे हुए हैं। ये ज़्यादातर मज़दूर 12-14 घण्टे खटने के बाद मुश्किल से 3000 से 4000 रुपये कमा पाते हैं, यानी मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी क़ानून या आठ घण्टे के क़ानून का कोई मतलब नहीं रह जाता है बाकी ईएसआई, पीएफ़ जैसी सुविधाएँ तो बहुत दूर की बात है। दिल्ली की शान कही जाने वाली जाने वाली मेट्रो रेल में तो न्यूनतम मज़दूरी की सरेआम धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। वैसे खुद दिल्ली सरकार की मानव विकास रपट 2006 में यह स्वीकार किया गया है कि ये मज़दूर जिन कारख़ानों में काम करते हैं उनमें काम करने की स्थितियाँ इन्सानों के काम करने लायक नहीं हैं।

बादाम उद्योग में मशीनीकरण: मज़दूरों ने क्या पाया और क्या खोया

मज़दूरों को बेवजह डरना बन्द कर देना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि हाथ से भी वही काम करते थे और मशीनें भी वही चलायेंगे, ठेकेदारों और मालिकों के अमीरज़ादे नहीं! इसलिए चाहे कोई भी मशीन आ जाये, मज़दूरों की ज़रूरत कभी ख़त्म नहीं हो सकती है। चाहे मालिक कुछ भी जादू कर ले, बिना मज़दूरों के उसका काम नहीं चल सकता है। मज़दूर ही मूल्य पैदा करता है। मशीनें भी मज़दूर ही बनाता है और उन्हें चलाता भी मज़दूर ही है। बादाम मालिक मशीनीकरण के साथ कई अर्थों में कमज़ोर हुए हैं। मशीनीकरण इस उद्योग और पूरी मज़दूर आबादी का मानकीकरण करेगा। इस मानकीकरण के चलते मज़दूरों में दूरगामी तौर पर ज़्यादा मज़बूत संगठन और एकता की ज़मीन तैयार होगी, क्योंकि उनके जीवन में अन्तर का पहलू और ज़्यादा कम होगा और जीवन परिस्थितियों का एकीकरण और मानकीकरण होगा। ऐसे में, मज़दूरों के अन्दर वर्ग चेतना और राजनीतिक संगठन की चेतना बढ़ेगी। मालिक मशीन पर काम करने वाले मज़दूर के सामने ज़्यादा कमज़ोर होता है, बनिस्बत हाथ से काम करने वाले मज़दूर के सामने। इसलिए मशीन पर काम करने वाली मज़दूर आबादी ज़्यादा ताक़तवर और लड़ाकू सिद्ध हो सकती है। बादाम मज़दूर यूनियन को इसी दिशा में सोचना होगा और मज़दूरों को यह बात लम्बी प्रक्रिया में समझाते हुए संगठित करना होगा।

इक्कीसवीं सदी के ग़ुलाम, जिनका अपनी ज़िन्दगी पर भी कोई अधिकार नहीं है

होज़री और डाइंग के कारख़ानों में मज़दूर सीज़न में लगातार 36-36 घण्टे भी काम करते हैं। यह बहुत भयंकर स्थिति है कि मज़दूर काम के घण्टे बेतहाशा बढ़ाने का विरोध करने के बजाय और अधिक खटने को तैयार हो जाते हैं। बढ़ती महँगाई के कारण परिवार का पेट पालने के लिए मज़दूर अपनी मेहनत बढ़ा देता है, काम के घण्टे बढ़ा देता है और पहले से अधिक मशीनें चलाने लगता है और निर्जीव-सा होकर महज़ हाड़-माँस की एक मशीन बन जाता है। कारख़ाने में काम के अलावा मज़दूर को सब्ज़ी, राशन आदि ख़रीदारी करने, सुबह-शाम का खाना बनाने के लिए भी तो समय चाहिए। और दर्जनों मज़दूर इकट्ठे एक ही बेहड़े में रहते हैं जहाँ एक नल और एक-दो ही टायलेट होते हैं। इनके इस्तेमाल के लिए मज़दूरों की लाइन लगी रहती है और बहुत समय बर्बाद करना पड़ता है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि मज़दूर यह समय ख़ुद पर ख़र्च करता है। लेकिन दरअसल ख़ुद पर लगाया जाने वाला यह समय भी असल में एक तरह से मालिक की मशीन के एक पुर्ज़े को चालू रखने पर ख़र्च होता है। मज़दूर को पर्याप्त आराम और मनोरंजन के लिए तो समय मिल ही नहीं पाता। यह तो कोई इन्सान की ज़िन्दगी नहीं है। कितनी मजबूरी होगी उस इन्सान की जिसने अपने को भुलाकर परिवार को ज़िन्दा रखने के लिए अपने-आप को काम की भट्ठी में झोंक दिया है। दुआराम जैसे मालिक मज़दूर की मजबूरी का बख़ूबी फ़ायदा उठाते हैं और नयी-नयी गाड़ियाँ और बंगले खरीदते जाते हैं, नये-नये कारख़ाने लगाते जाते हैं।

इस व्यवस्था में मौत का खेल यूँ ही जारी रहेगा!

मुनाफे की अंधी हवस बार-बार मेहनतकशों को अपना शिकार बनाती रहती है। इसका एक ताज़ा उदाहरण है सण्डीला (हरदोई) औद्योगिक क्षेत्र में स्थित ‘अमित हाइड्रोकेम लैब्स इण्डिया प्रा. लिमिटेड’ में हुआ गैस रिसाव। इस फैक्ट्री से फास्जीन गैस का रिसाव हुआ जो कि एक प्रतिबन्धित गैस है। इस गैस का प्रभाव फैक्ट्री के आसपास 600 मीटर से अधिक क्षेत्र में फैल गया। प्रभाव इतना घातक था कि 5 व्यक्तियों और दर्जनों पशुओं की मृत्यु हो गयी और अनेक व्यक्ति अस्पताल में गम्भीर स्थिति में भरती हैं। इस घटना के अगले दिन इसी फैक्ट्री में रसायन से भरा एक जार फट गया जिससे गैस का रिसाव और तेज़ हो गया। किसी बड़ी घटना की आशंका को देखते हुए पूरे औद्योगिक क्षेत्र को ही ख़ाली करा दिया गया। इस फैक्ट्री में कैंसररोधी मैटीरियल बनाने के नाम पर मौत का खेल रचा जा रहा था। इस तरह के तमाम और उद्योग हैं जहाँ पर, अवैध रूप से ज़िन्दगी के लिए ख़तरनाक रसायनों को तैयार किया जाता है।