Category Archives: श्रम क़ानून

रामपुर-चंदौली के पाँच बोरा कारखानों के मजदूरों के आन्दोलन की आंशिक जीत

इलाके का थानेदार सपा शासन में मुलायम सिंह यादव का खास रहा बताया जाता है और एनकाउण्टर स्पेशलिस्ट के रूप में कुख्यात है। 11 अक्टूबर को वह अचानक पुलिस फोर्स के साथ फैक्टरी गेट पर पहुँचा और बिगुल मजदूर दस्ता के साथियों को जीप में बैठाकर कुछ दूर ले गया। उसके बाद उसने फैक्‍ट्री गेट पर मिल मालिकों को बुलाकर आनन-फानन में मजदूरों के सामने समझौते की घोषणा करा दी। इसके अनुसार मजदूरों की मजदूरी 10 प्रतिशत बढ़ायी जायेगी और सभी मजदूरों को कम्पनी का आई-कार्ड दिया जायेगा। तालमेल की कमी और नेताओं की गैर-मौजूदगी से फैले भ्रम तथा पुलिसिया आतंक के कारण अधिकांश मजदूर तो उसी समय फैक्टरी में चले गये लेकिन करीब 60-70 मजदूर डटे रहे। मजबूरन पुलिस को ‘बिगुल’ के साथियों को वापस लेकर आना पड़ा। मजदूरों के बीच यह फैसला किया गया कि फिलहाल यहाँ की स्थिति में इस समझौते को मानकर आन्दोलन समाप्त करने के सिवा कोई चारा नहीं है। अब पूरी तैयारी के बाद संगठित तरीके से संघर्ष छेड़ना होगा। मालिकान साम-दाम-दण्ड-भेद से किसी तरह मजदूरों को झुकाने में कामयाब हो गये लेकिन इस हार से मिले सबकों से सीखकर मजदूरों ने भविष्य की निर्णायक लड़ाई के लिए कमर कसकर तैयारी शुरू कर दी है।

गोरखपुर में मजदूरों की एकजुटता के आगे झुके मिल मालिक

इस आन्दोलन ने दिखा दिया कि अगर मजदूर एकजुट रहें तो पूँजीपति-प्रशासन-नेताशाही की मिली-जुली ताकत भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। उल्टे इन शक्तियों का जनविरोधी चेहरा बेनकाब हो गया। प्रशासन ने मजदूरों को धमकाने और आतंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एल.आई.यू. और एस.ओ.जी. के लोग फैक्टरी इलाके में जाकर लगातार पूछताछ करते थे – तुम्हारे ये अगुवा नेता कहाँ से आये हैं। पुलिस अधिकारियों द्वारा लगातार धमकी देना कि मजदूरों को भड़काना बनद करो और जिला छोड़कर चले जाओ वरना एनकाउण्टर या जिलाबदर करने में देर नहीं लगेगी। मालिक ने भी बदहवासी में बहुत कुछ योजनाएँ बनायीं, लेकिन मजदूरों को एकजुट देखकर कुछ करने की हिम्मत नहीं पड़ी। कम्पनी के एक ठेकेदार की पत्नी ने कुछ महिला मजदूरों को बताया कि अपने नेता लोगों को सावधन कर दो कि सूरज डूबने के बाद बरगदवा चौराहा की ओर मत आयें, उसने अपने पति के मुँह से सुना था कि आज नेताओं का ”इन्तजाम” कर दिया जायेगा। ऐसी हर कोशिश के साथ मजदूरों की एकता और मजबूत होती गयी। मॉडर्न उद्योग के 51 दिन चले आन्दोलन के दौरान अंकुर उद्योग लि., वी.एन. डायर्स धगा व कपड़ा मिल तथा जालानजी पॉलीटेक्स के मजदूर लगातार साथ में जमे रहे। अंकुर उद्योग के मजदूरों ने आटा इकट्ठा करके दिया तो सारी फैक्टरियों के मजदूरों ने चन्दा लगाकर सहयोग दिया। जब 10 बजे रात को अन्य कम्पनियों की शिफ्ट छूटती थी तो रात को ही 500 से ज्यादा मजदूरों की मीटिंग होती थी, मजदूरों की वर्ग एकता जिन्दाबाद का नारा लगता था।

दिन-ब-दिन बिगड़ती लुधियाना के पावरलूम मज़दूरों की हालत

पावरलूम मज़दूरों की हालत दिन-ब-दिन बद से बदतर होती जा रही है। उनमें एकता का अभाव चिन्ता पैदा करता है। पूँजीपति मज़दूरों में एकता न होने का पूरा-पूरा फ़ायदा उठा रहे हैं। पावरलूम मज़दूरों को अपनी परिस्थितियों को सुधारने के लिए एकता बनाने की तरफ़ क़दम उठाने ही होंगे। आज नहीं तो कल उन्हें इस बारे में सोचना ही होगा।

दिल्ली के समयपुर व बादली औद्योगिक क्षेत्र की ख़ूनी फ़ैक्ट्रियों के ख़िलाफ़ बिगुल मज़दूर दस्ता की मुहिम

बादली औद्योगिक क्षेत्र की फ़ैक्ट्रियाँ मज़दूरों के लिए मौत के कारख़ाने बन चुकी हैं! इन फ़ैक्ट्रियों को मज़दूरों के ख़ून का स्वाद लग चुका है। यही ख़ून मुनाफ़े में बदल कर मालिकों की तिजोरी में चला जाता है और इस ख़ून का निश्चित हिस्सा थाने-पुलिस- नेता-अफ़सरों तक भी नियमित रूप से पहुँचता रहता है। इसी वजह से लगातार हो रही मज़दूरों की मौतों पर कोई कार्रवाई नहीं होती है! ख़ूनी कारख़ाना चलता रहता है, हत्यारे मालिक का मुनाफ़ा पैदा होता रहता है, पूँजी की देवी के खप्पर में मज़दूरों की बलि चढ़ती रहती है!

अमानवीय शोषण-उत्पीड़न के शिकार तमिलनाडु के भट्ठा मज़दूर

भट्ठा मज़दूर भयंकर कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए अभिशप्त हैं। बिना आराम दिये लम्बे- लम्बे समय तक उनसे कठिन काम लिया जाता है। मज़दूरों ने बताया कि ज़्यादातर ईंट चैम्बरों में 3 बजे दोपहर से काम शुरू होता है जो 7 बजे शाम तक चलता है। उसके बाद 6 घण्टे का ब्रेक होता है और ब्रेक के बाद रात 1 बजे से दुबारा काम शुरू होता है जो 10-30 बजे सुबह तक चलता है। चूँकि ईंट को सुखाने के लिए ज़्यादा समय तक धूप में रखने की ज़रूरत होती है इसलिए मज़दूर केवल दिन में ही सो पाते हैं। ईंट ढुलाई करने वाले मज़दूरों का यही रुटीन है। दिन में उन्हें सिर्फ़ ग्यारह बजे से दो बजे तक का समय मिलता है, जिसमें वे खाना बना सकते हैं। तीन बजे से फिर काम पर लग जाना होता है।

गोरखपुर में मज़दूरों की बढती एकजुटता और संघर्ष से मालिक घबराये

गोरखपुर में पिछले दिनों तीन कारखाने के मज़दूरों के जुझारू संघर्ष की जीत से उत्‍साहित होकर बरगदवा इलाके के दो और कारखानों के मजदूर भी आन्‍दोलन की राह पर उतर पड़े हैं। इलाके के कुछ अन्‍य कारखानों मे भी मजदूर संघर्ष के लिए कमर कस रहे हैं। वर्षों से बुरी तरह शोषण के शिकार, तमाम अधिकारों से वंचित और असंगठित बरगदवा क्षेत्र के हज़ारों मज़दूरों में अपने साथी मज़दूरों के सफल आन्दोलन ने उम्मीद की एक लौ जगा दी है।

नारकीय हालात में रहते और काम करते हैं दिल्ली मेट्रो के निर्माण कार्यों में लगे हज़ारों मज़दूर

मज़दूरों के काम की परिस्थितियां दिल दहला देने वाली हैं। मेट्रो के दूसरे चरण में 125 कि.मी. लाइन के निर्माण के दौरान 20 हज़ार से 30 हज़ार मज़दूर दिन-रात काम करते हैं। श्रम कानूनों को ताक पर रखकर मज़दूरों से 12 से 15 घण्टे काम करवाया जा रहा है। इन्हें न्यूनतम मज़दूरी नहीं दी जाती है और कई बार साप्ताहिक छुट्टी तक नहीं दी जाती है, ई.एस.आई. और पी.एफ. तो बहुत दूर की बात है। सरकार और मेट्रो प्रशासन ने कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले दिल्ली का चेहरा चमकाने और निर्माण-कार्य को पूरा करने के लिए कम्पनियों के मज़दूरों को जानवरों की तरह काम में झोंक देने की पूरी छूट दे दी है। मज़दूरों से अमानवीय स्थितियों में हाड़तोड़ काम कराया जा रहा है। उनके लिए आवश्यक सुरक्षा उपाय लागू करने पर कोई ध्‍यान नहीं दिया जाता है। इन्हें जो सेफ्टी हेलमेट दिया गया है वह पत्थर तक की चोट नहीं रोक सकता। इतना ख़तरनाक काम करने के बावजूद एक हेलमेट के अतिरिक्त उन्हें और कोई सुरक्षा सम्बन्‍धी उपकरण नहीं दिया जाता है। मज़दूर ठेकेदारों के रहमोकरम पर हद से ज्यादा निर्भर हैं।

भटिण्डा में पंजाब पुलिस द्वारा मज़दूरों का बर्बर दमन

तीन घण्टे तक कारखाने की एम्बुलेंस का इन्तजार करने के बाद भानु की हालत और बिगड़ती देखकर उसके साथी ट्रैक्टर-ट्रॉली पर उसे नजदीक के अस्पताल ले गये, जहाँ से उसे भटिण्डा सिविल अस्पताल भेज दिया गया। लेकिन वहाँ पहुँचने से पहले रास्ते में ही भानु की मौत ही गयी। कम्पनी की लापरवाही से भड़के भानु के परिवार के सदस्य और अन्य साथी उसकी लाश को कारखाना गेट पर ले आये। उन्होंने मुआवजे और लाश को बिहार में स्थित गाँव पहुँचाने के इन्तजाम की माँग की। मौके पर पहुँचे पुलिस उच्चाधिकारियों की मौजूदगी में कारखाना प्रबन्धन ने मुआवजा देना माना। लेकिन अगली सुबह तक प्रबन्धन ने फिर कोई चिन्ता न दिखायी तो परिवारवाले लाश को फिर कारखाना गेट पर ले आये, लेकिन गेट पर पहले से ही पुलिस तैनात थी। पुलिस सुबह से ही किसी भी मजदूर को कारखाने के भीतर नहीं जाने दे रही थी। कारखाना प्रबन्धन जब पुलिस का साथ देखकर मजदूरों के साथ हाथापाई पर आ गया, तो मजदूरों को ही कसूरवार ठहराते हुए पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया। कारखाना प्रबन्धन और पुलिस का रवैया देखकर मजदूरों का ग़ुस्सा फूट पड़ा। उन्होंने पुलिस को कड़ा जवाब दिया। प्रशासन ने अपनी ग़लती मानने की बजाय मजदूरों को सबक सिखाने के मकसद से चार जिलों की पुलिस और कमाण्डो फोर्स को बुला लिया।

लुधियाना के टेक्सटाइल मज़दूरों का संघर्ष रंग लाया

स्पष्ट देखा जा सकता है कि यह हड़ताल कोई लम्बी-चौड़ी योजनाबन्दी का हिस्सा नहीं थी। अपनी माँगें मनवाने के लिए इसे फैक्टरी के मज़दूरों की बिलकुल शुरुआती और अल्पकालिक एकता कहा जा सकता है। इस फैक्टरी के समझदार मज़दूर साथियों से आशा की जानी चाहिए कि वे अपनी इस अल्पकालिक एकता से आगे बढ़कर बाकायदा सांगठनिक एकता कायम करने के लिए कोशिश करेंगे। एक माँगपत्र के इर्दगिर्द मज़दूरों को एकता कायम करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। ख़राब पीस के पैसे काटना बन्द किया जाये (क्योंकि पीस सस्ते वाला घटिया धागा चलाने के कारण ख़राब होता है), पहचान पत्र और इ.एस.आई. कार्ड बने, प्रॉविडेण्ट फण्ड की सुविधा हासिल हो आदि माँगें इस माँगपत्र में शामिल की जा सकती हैं। हमारी यह ज़ोरदार गुजारिश है कि मज़दूरों को पीस रेट सिस्टम का विरोध करना चाहिए क्योंकि मालिक वेतन सिस्टम के मुकाबले पीस रेट सिस्टम के ज़रिये मज़दूरों का अधिक शोषण करने में कामयाब होता है। इसलिए पीस रेट सिस्टम का विरोध करते हुए आठ घण्टे का दिहाड़ी कानून लागू करवाने और आठ घण्टे के पर्याप्त वेतन के लिए माँगें भी माँगपत्र में शामिल होनी चाहिए और इनके लिए ज़ोरदार संघर्ष करना चाहिए। इसके अलावा सुरक्षा इन्तज़ामों के लिए माँग उठानी चाहिए जोकि बहुत ही महत्‍वपूर्ण माँग बनती है। साफ-सफाई से सम्बन्धित माँग भी शामिल की जानी चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि सभी माँगें एक बार में ही पूरी हो जायेंगी। मज़दूरों में एकता और लड़ने की भावना का स्तर, माल की माँग में तेज़ी या मन्दी आदि परिस्थितियों के हिसाब से कम से कम कुछ माँगें मनवाकर बाकी के लिए लड़ाई जारी रखनी चाहिए।

बच्चों के खून-पसीने से बन रही है बेंगलोर मेट्रो

बेंगलोर मेट्रो के निर्माण कार्य के लिए झारखण्ड और पश्चिम बंगाल से बच्चों को मज़दूरी के लिए लाया गया है। यहाँ पर 18 वर्ष से भी कम उम्र के बच्चे धातु की भारी चादरें और खम्भे उठा रहे हैं तथा खुदाई और ड्रिलिंग का काम भी कर रहे हैं। उन्हें मज़दूरी भी कम दी जाती है और बात-बात पर झिड़की और गालियों का सामना करना तो रोज़ की बात है।
लेकिन, श्रम कानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाने वाले दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन की ही दिखायी राह पर चलते हुए बेंगलोर मेट्रो रेल कारपोरेशन भी सारी ज़िम्मेदारी ठेका कम्पनियों पर डालकर अपने को पाक-साफ बता रहा है। बाल मज़दूरों से काम लेने की खबर पफैली तो बेंगलोर मेट्रो रेल कारपोरेशन ने आनन-फानन में प्रेस कांफेंस करके इस बात का खण्डन किया और उसपर सवाल उठाने वालों को ही गलत बता दिया, जबकि वह बच्चा अब भी चाइल्ड हेल्पलाइन के पास मौजूद है।