नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) को रद्द करो!
इस जन विरोधी फ़ैसले को लागू करने के ख़िलाफ़ एक बार फिर जनता की लामबन्दी ज़रूरी!
वारुणी
चार साल पहले देशव्पापी विरोध के बावजूद संसद में पास हुए नागरिकता संशोधन क़ानून को केन्द्र सरकार ने नियमों सहित लागू करने की घोषणा कर दी है। नागरिकता संशोधन क़ानून 2019 (सीएए) के तहत अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश के हिन्दू, सिख, पारसी, जैन, ईसाई और बौद्ध धर्म को मानने वालों में से जो लोग 31 दिसम्बर, 2014 के पहले भारत में प्रवेश कर चुके हैं वे भारत की नागरिकता पाने के हक़दार हैं। इस संशोधन में इन तीन देशों के मुस्लिमों और भारत के अन्य पड़ोसी देशों के सभी लोगों को नागरिकता पाने के अधिकार से वंचित रखा गया है। सरकार की दलील यह है कि यह संशोधन धर्म के आधार पर प्रताड़ना के शिकार शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए किया गया है। हालाँकि अभी लागू हुए सीएए क़ानून के नियमों में कहीं भी इस बात के दस्तावेज़ प्रस्तुत करना अनिवार्य नहीं है जो कि यह साबित करे कि आवेदनकर्ता धार्मिक प्रताड़ना के शिकार हैं। सरकार का मक़सद यदि धार्मिक प्रताड़ना के शिकार शरणार्थियों को नागरिकता देना था तो सवाल उठता है कि म्याँमार के रोहिंग्या मुस्लिमों, श्रीलंका के तमिलों, चीन के उइगर व तिब्बती लोगों, पाकिस्तान के अहमदिया, बलूच और शिया लोगों एवं अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान से उत्पीड़ित हज़ारों लोगों को नागरिकता देने के प्रावधान इसमें क्यों नहीं किये गये हैं? असलियत यह है कि सरकार आर.एस.एस. के हिन्दुत्व के एजेण्डे पर काम करते हुए साम्प्रदायिक आधार पर नागरिकता देकर मुस्लिम आबादी में ख़ौफ़ का माहौल पैदा करना चाहती है। फ़ासीवादी सरकार द्वारा लगातार अल्पसंख्यक समुदाय को एक नकली दुश्मन के रूप में पेश किया जा रहा है। फ़ासीवादी प्रचार की यह विशिष्टता होती है कि वह हमेशा जनता के गुस्से को एक नकली दुश्मन प्रदान करता है। भारत में फ़ासीवादी संघ परिवार द्वारा दुश्मन की यह छवि मुसलमानों के रूप में पेश की जाती रही है। और नागरिकता क़ानून के ज़रिये मुसलमानों की यह छवि “घुसपैठियों” के रूप में स्थापित की जा रही है। 2019 में इस क़ानून के तहत उनपर निशाना साधा गया था। लेकिन 2019 में इस क़ानून के संसद में पारित होने के साथ ही पूरे देश भर में केन्द्र सरकार को एक मज़बूत जन आन्दोलन का सामना करना पड़ा था। दिल्ली के शाहीन बाग़ से शुरू हुए आन्दोलन ने जल्द ही देशभर की सैकड़ों जगहों पर नये शाहीन बाग़ पैदा कर दिये। यह एक ऐसा ताक़तवर आन्दोलन बन गया जिसने मोदी-शाह की रातों की नींद हराम कर दी। जिसके बाद सरकार ने इसपर चार साल तक कोई क़दम नहीं उठाया।
अब लोक सभा चुनावों की घोषणा होने से ठीक पहले मोदी सरकार द्वारा इसके नियमों की अधिसूचना जारी कर दी गयी है। असल में चुनावों से ठीक पहले सीएए क़ानून को लागू करना वोटों के ध्रुवीकरण करने का एक तरीक़ा है। देशभर में राम मन्दिर के नाम पर लोगों को धर्म की राजनीति में उलझाये रखने के लिए जब मोदी सरकार ने पूरी राज्य मशीनरी, नौकरशाही, मीडिया को और दूसरी तरफ संघ परिवार ने अपने कार्यकर्ताओं को झोंक दिया लेकिन फ़िर भी उससे उतनी बड़ी हवा बनती नहीं दिखी, तब हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करने के लिए सीएए क़ानून को फ़िर से सामने लाया गया। पिछली बार सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलन के दौरान दिल्ली में दंगे कराने में संघ परिवार कामयाब हुआ था और मोदी सरकार अब इसी प्रकार से साम्प्रदायिक तनाव पैदा करके चुनाव में वोटों की मोटी फ़सल काटने की योजना बनाये हुए है।
इसके साथ ही भाजपा द्वारा मीडिया, सोशल मीडिया और सभाओं के ज़रिये लोगों के बीच यह बात प्रचारित किया जा रहा है कि सीएए नागरिकता छीनने का नहीं बल्कि नागरिकता प्रदान करने का क़ानून है और इससे उन अल्पसंख्यक हिन्दुओं और अन्य धर्मों के लोगों को नागरिकता आसानी से मिलेगी जिन्हें इस्लाम बहुल देशों में धार्मिक प्रताड़ना झेलनी पड़ रही है, इस प्रकार मोदी की छवि एक हिन्दू हृदय सम्राट के रूप में बैठाने की कोशिश की जा रही है। इस प्रकार हिन्दू पहचान के आधार पर लोगों को वोट करने के लिए बहकाया जा रहा है और दूसरी तरफ़ मुसलमानों की छवि ‘घुसपैठिए’ के रूप में स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। यह मुद्दा ठीक ऐसे समय में उछाला गया जब लाखों की संख्या में नौजवान रोज़गार के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं, जब आम मेहनतकश जनता महँगाई से त्रस्त है और जब जनता के सामने मोदी सरकार के हवाई वायदों और दावों की कलई खुल चुकी है। सीधे तौर पर इस क़ानून की नियमावली अभी इसलिए लायी गयी ताकि जनता दूसरे मुद्दों में उलझकर रह जाये और बुनियादी सवाल कहीं ग़ायब हो जायें।
“क्रोनोलॉजी” समझिए!
2019 में जब सीएए क़ानून संसद में पारित हुआ तब देशभर में शाहीन बाग़ की तर्ज़ पर हज़ारों जगहों पर जन आन्दोलन खड़े हो गये थे। और इसी का नतीजा था कि मोदी सरकार ने अपने क़दम पीछे कर लिये और कुछ समय तक क़ानून के कार्यान्वयन की कोई कोशिश नहीं की गयी। लेकिन मोदी सरकार ने इस क़ानून को वापस नहीं लिया बल्कि बड़े शातिराना तरीक़े से लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले सीएए के नियमों की अधिसूचना जारी कर दी। साफ़ तौर पर यह धर्म के आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए लिया गया क़दम है। दूसरी तरफ़ अमित शाह अपने भाषणों में बार बार यह बात साफ़ कह रहे हैं कि “घुसपैठियों” को देश से बाहर खदेड़ा जायेगा। ज़ाहिर है, नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लाये बिना “घुसपैठियों” का पता लगाना मुश्किल होगा। अब हम जितनी जल्दी क्रोनोलॉजी समझ जायें, हमारे लिए उतना बेहतर होगा। सीधी बात है कि चुनावों के बाद सीएए का अगला क़दम एनआरसी रजिस्टर तैयार करना होगा। और इसका सीधा मतलब है एक बड़ी आबादी नागरिकता के दायरे से बाहर हो जायेगी, जिसमें करोड़ों की संख्या में हर धर्म के आम लोग होंगे।
सीएए–एनआरसी केवल मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि हर धर्म के ग़रीबों और मेहनतकशों के लिए ख़तरनाक है!
अभी सीएए के तहत नागरिकता हासिल करने की जो नियमावली प्रस्तुत की गयी है, उसमें कईं नियमों को ढीला कर दिया गया है। उक्त नियम के तहत पासपोर्ट या वीज़ा के कागज़ात दिखाना अनिवार्य नहीं है बल्कि उसके बदले किसी भी प्रकार के स्कूल सर्टिफ़िकेट या लाइसेंस या अन्य कागज़ात प्रस्तुत कर दिये जायें, जिससे यह साबित हो सके कि आप भारत में 5 साल से ज़्यादा समय से रह रहे हैं और आप पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान या बंगलादेश से आये प्रवासी हैं, तो आपको नागरिकता दी जा सकती है। सरकार यह प्रचारित कर रही है कि चूँकि अब कई अनिवार्य कागज़ात नहीं दिखाने पड़ेंगे, तो लोग आसानी से नागरिकता हासिल कर सकते हैं। इस आधार पर यह दावा किया जा रहा है कि यह नागरिकता छीनने का नहीं बल्कि नागरिकता देने का क़ानून है, लेकिन असल समस्या तब आयेगी जब सीएए का अगला क़दम यानी एनआरसी लागू किया जायेगा। एनआरसी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत भारत में प्रत्येक व्यक्ति की नागरिकता उनके द्वारा दिये गये दस्तावेज़ों के आधार पर दी जायेगी। एनआरसी रजिस्टर में नाम दर्ज कराने के लिए सभी को अपने कागज़ात से साबित करना होगा कि वे भारत के नागरिक हैं। इस प्रक्रिया में किन कागज़ातों को अनिवार्य की श्रेणी में रखा जायेगा इसकी अभी किसी को जानकारी नहीं हैं। वैसे तो संघ परिवार द्वारा यह प्रचारित किया जा रहा है कि इससे सिर्फ़ “मुस्लिम घुसपैठियों” को चिन्ता करने की ज़रूरत है लेकिन असलियत कुछ और है।
एनआरसी के भयावह परिणामों को असम में लागू हुए एनआरसी के अनुभव से देखा जा सकता है। असम में लोगों को दस्तावेज़ों की तलाश में दर-दर भटकना पड़ा रहा था और रिश्वत भी देनी पड़ रही थी। इसके बावजूद पहली सूची से 40 लाख लोगों के नाम ग़ायब रहे। वहीं दूसरी सूची जब निकली तो क़रीब 19 लाख लोगों को नागरिकता के दायरे से बाहर कर दिया गया। ये वे भारतीय थे जो आवश्यक दस्तावेज़ प्रस्तुत करने में असमर्थ थे। इनमें से बहुसंख्यक हिन्दू थे। कई लोगों के नाम तो लिस्ट से इसलिए हटा दिये गये क्योंकि उनके नाम में कुछ त्रुटियाँ रह गयी थीं। असम में एनआरसी से बाहर होने वाले 19 लाख लोगों में से लगभग 70 प्रतिशत महिलाएँ थीं। इसका सीधा मतलब था कि जिन महिलाओं के कागज़ात सही नहीं थे उन्हें नागरिकता से बाहर कर दिया गया। असल में महिलाओं के पास कागज़ात अक्सर नहीं होते है। ग़रीब और प्रवासी मज़दूर आबादी, एक बड़ी ख़ानाबदोश और आदिवासी आबादी के पास अक्सर कोई सरकारी काग़ज़ात नहीं होते हैं। करोड़ों की संख्या में ऐसी आबादी मौजूद है जिनके पास अपने माता-पिता तो क्या बल्कि खुद के जन्म प्रमाणपत्र मौजूद नहीं हैं और ना ही कोई ज़मीन-जायदाद के दस्तावेज़ ही होते हैं। ऐसे में इन तमाम लोगों का क्या होगा?
करोड़ों लोग सिर्फ़ इसलिए गै़र–नागरिक घोषित हो जायेंगे, क्योंकि उनके पास आवश्यक काग़ज़ नहीं होंगे। नागरिकता छीन लिये जाने का मतलब है कि या तो उन्हें डिटेंशन शिविरों में बन्द करके रखा जायेगा जिनके हालात बेहद अमानवीय होते हैं या फिर एक ऐसे ग़ैर-नागरिक के रूप में उन्हें रहने दिया जायेगा जिनके पास कोई मौलिक अधिकार नहीं होंगे यानी उन्हें वोट देने का, राशन पाने, मनरेगा जैसी योजनाओं का लाभ उठाने आदि का अधिकार नहीं होगा। वे गैस कनेक्शन, फ़ोन कनेक्शन नहीं ले पायेंगे, किसी सरकारी योजना का उनको लाभ नहीं मिलेगा, बैंक में खाता नहीं खुलेगा। वे पूरी तरह सरकारी एजेंसियों के रहमोकरम पर होंगे और उनकी ज़िन्दगी हमेशा डर के साये में गुज़रेगी। ऐसे में वे जीने के लिए कुछ भी करने को मजबूर हो जायेंगे और कौड़ियों के मोल पर उनसे मनमाना काम कराया जा सकेगा। अम्बानी-अडानी, टाटा-बिड़ला जैसे पूँजीपतियों को डिटेंशन सेंटरों में ग़ुलाम मज़दूर मुहैया कराये जायेंगे जिनमें हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को ही खटना होगा। बेशक सरकार सीएए और एनआरसी के ज़रिये मुस्लिम आबादी को निशाना बनाना चाहती है लेकिन इसके अगले क़दम में यानी देशव्यापी एनआरसी के बाद ग़रीबों की बड़ी आबादी को नागरिकता से वंचित करने का लाभ पूँजीपतियों को बेहद सस्ती श्रमशक्ति के रूप में भी मिलेगा।
भारतीय मुसलमान सीएए- एनआरसी से बुरी तरह प्रभावित होंगे, क्योंकि देशभर में लागू एनआरसी में अपनी नागरिकता साबित करने के लिए जिन मुसलमानों के पास आवश्यक दस्तावेज़ नहीं होंगे, उन्हें अवैध प्रवासी घोषित किया जा सकता है। नागरिकता प्राप्त करने के लिए वे सीएए का उस तरह उपयोग नहीं कर पायेंगे जैसाकि गै़र-मुस्लिम भारतीय झूठ बोलकर और यह दावा करके कर सकते हैं कि वे बंगलादेश, पाकिस्तान या अफ़ग़ानिस्तान से आने वाले अवैध प्रवासी हैं। एक बड़ी गै़र-मुस्लिम आबादी एनआरसी को लेकर इसलिए चिन्तित नहीं है, क्योंकि उन्हें लगता है कि आवश्यक दस्तावेज़ न होने के कारण यदि उन्हें गै़र-नागरिक घोषित कर दिया जाता है तो वे सीएए के माध्यम से नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं। संघ-गिरोह द्वारा भी ऐसे ही तमाम झूठ प्रचारित किये जा रहे हैं। लेकिन अभी सीएए के नियमों के तहत जिन दस्तावेज़ों को जमा करना है, उनमें से एक अनिवार्य दस्तावेज़ वह है जिससे आपको यह साबित करना है कि आप बंगलादेश, पाकिस्तान या अफ़ग़ानिस्तान के नागरिक थे। ऐसे में एक बड़ी आबादी नागरिकता से सीधे वंचित हो जायेगी। धोखाधड़ी करके सीएए के ज़रिये नागरिकता पाना भी आसान नहीं होगा। और इसकी मार हर धर्म के ग़रीबों पर पड़ेगी। करोड़ों लोग नागरिकता के दायरे से बाहर कर दिये जायेंगे! दूसरी ज़रूरी बात यह है कि सीएए के ज़रिये नागरिकता देने के लिए अब केन्द्रीय स्तर पर एक कमेटी का गठन किया गया है। ज्ञात हो कि पहले नागरिकता देने का अधिकार ज़िला अधिकारी के अन्तर्गत था लेकिन अब केन्द्रीय स्तर पर निर्मित इस कमिटी को यह फ़ैसला लेने का अधिकार होगा कि किस व्यक्ति को नागरिकता दी जायेगी और किसको नहीं दी जायेगी। वह चाहे तो किसी भी आधार पर नागरिकता को रद्द कर सकती है। बात साफ़ और सीधी है, केन्द्र सरकार अपने विरोध में उठाने वाली किसी भी आवाज़ को कुचलने के लिए इस कमेटी का अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकती है और करेगी। असल में नागरिकता छीनने का यह कानून हमारे वजूद पर, हमारी स्वतन्त्रता पर और हमारे जनवादी अधिकारों पर किया जा रहा हमला है।
जिस प्रकार तमाम मसलों पर आम जनता ने संघ परिवार के फ़ासीवादी एजेण्डे को समझा है, उसी प्रकार हमें समझने की ज़रूरत है कि यह क़ानून असल में पूँजीपतियों को मुफ़्त ग़ुलाम श्रम मुहैया कराने के लिए लाया जा रहा है। नागरिकता के दायरे से बाहर होने वाले तमाम लोगों को या तो देश से बाहर कर दिया जायेगा या डिटेंशन सेण्टरों में रखकर अम्बानी-अडानी के मुनाफ़े के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को ही खटाया जायेगा। बेरोज़गारी और महँगाई से ध्यान भटकाने के लिए और पूँजीपतियों को मुनाफे़ के संकट से राहत दिलाने के लिए मोदी-शाह की तानाशाह सरकार सीएए-एनआरसी को लागू कर रही है। यही इनके तथाकथित “हिन्दू राष्ट्र” की असलियत है। आज हमें इनकी असलियत को समझने की ज़रूरत हैं और हर धर्म और हर जाति के तमाम मेहनतकशों की एकजुटता के बूते इस फ़ासीवादी मंसूबे को नाकाम करने की ज़रूरत है। जिस प्रकार 2019 में दिल्ली के शाहीन बाग की बहादुर औरतों ने एक ऐसा आन्दोलन खड़ा किया जो देशभर में संघर्ष की मिसाल बन गया था और उसकी तर्ज़ पर सैकड़ों जगहों पर शाहीन बाग जैसे ही दिनो-रात चलने वाले धरने शुरू हो गये थे जिसमें ना सिर्फ़ मुसलमान बल्कि हर धर्म और तबके के लोग शामिल थे, हमें ऐसे ही जन आन्दोलन को खड़ा करने की ज़रूरत है। यह जुझारू जन आन्दोलन की ही ताक़त थी जिसने मोदी सरकार की चूलें हिलाकर रख दी थीं।
इस आन्दोलन ने यह साबित कर दिया था कि फ़ासीवादी हुक़ूमत को चुनौती देने के लिए सड़कों पर जनता की लामबन्दी ही एकमात्र रास्ता है। जब-जब जनता ने एकजुट होकर मोदी सरकार के ख़िलाफ़ आवाज उठायी है, तब-तब फ़ासीवादी ताक़तों को झुकना पड़ा है। हमें यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि यदि इस काले क़ानून को लागू होने से रोकना है, तो हमें नये सिरे से सड़कों पर जनता को लामबन्द करना होगा। अभी तक का इतिहास बताता है कि जनता की ताक़त ने ही फ़ासीवादी हुक़ूमत को परास्त करने का काम किया है। आज भी बिना सड़कों पर जनता को लामबन्द किये इस जन विरोधी क़ानून को लागू होने से नहीं रोका जा सकता। जैसा कि राहुल सांकृत्यायन ने कहा था “यदि जनबल पर विश्वास है तो हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जनता की दुर्दम्य शक्ति ने फ़ासीवाद की काली घटाओं में आशा के विद्युत का संचार किया है। वही अमोघ शक्ति हमारे भविष्य की भी गारण्टी है।“
मज़दूर बिगुल, मार्च 2024
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन