भगतसिंह जनअधिकार यात्रा के तहत ईवीएम के ख़िलाफ़ देशभर में अभियान!
केशव
भगतसिंह जनअधिकार यात्रा के तहत ईवीएम पर रोक लगाकर बैलट पेपर के माध्यम से चुनाव कराने को लेकर पिछले 15 मार्च से देश के अलग-अलग इलाक़ों में सघन अभियान चलाया जा रहा है। इस दौरान मुख्यतः उत्तर प्रदेश, बिहार, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तराखण्ड, राजस्थान, महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा व चण्डीगढ़ में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी, दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा समेत अन्य क्रान्तिकारी संगठनों द्वारा यह अभियान चलाया गया। अभियान के दौरान यह बात समझ आयी कि एक बड़ी आबादी ईवीएम में होने वाली गड़बड़ी से वाक़िफ़ है और उनमें ईवीएम के इस्तेमाल को लेकर गहरा असन्तोष है। और हो भी क्यों न, ईवीएम के इस्तेमाल पर पहले भी कई सवाल उठ चुके हैं। ज़ाहिरा तौर पर इस अभियान के दौरान भाजपा की पोलपट्टी खुलते देख संघ के स्थानीय गुण्डों ने कई जगहों पर अवरोध डालने की भी कोशिश की। आन्ध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में इन गुण्डों ने ऐसे ही एक अभियान के दौरान दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के सदस्यों पर एक कायराना हमला कर दिया। हालाँकि इन संघी लम्पटों को भी दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के सदस्यों द्वारा माकूल जवाब दिया गया।
यह पहली बार नहीं है जब ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया जा रहा है। पहले भी कई बार ईवीएम के इस्तेमाल पर सवाल खड़े हो चुके हैं। हाल में हुए विधान सभा के चुनावों के नतीजों के बाद जब सीधे-सीधे इसका इस्तेमाल सन्देह के घेरे में आ गया है तो सर्वोच्च न्यायालय से लेकर चुनाव आयोग तक चुप्पी साधे बैठा है। यह एक तरफ़ जहाँ ईवीएम पर सन्देह को और भी अधिक गहरा करता है, वहीं दूसरी तरफ़ यह भी दिखाता है कि न्यायपालिका और चुनाव आयोग दोनों ही आज संघ की गोद में जा बैठे हैं। अभी हाल में ही सर्वोच्च न्यायालय ने वीवीपैट से वोटों की सौ प्रतिशत मिलान की अपील को सिरे से ख़ारिज कर दिया। क्यों? इसके लिए बस यह तर्क दिया गया कि जनता को ज़्यादा शक़ नहीं करना चाहिए और यह चुनाव आयोग के लिए काफ़ी भारी-भरकम काम बन जायेगा! यह किस प्रकार का तर्क है? पहली बात तो यह है कि जनता को शक़ करने का पूरा अधिकार है और जनता द्वारा इस प्रकार सवाल किया जाना ही पूँजीवादी व्यवस्था में उसके सीमित जनवादी अधिकारों को बचा सकता है। दूसरी बात यह कि अगर इसमें ज़्यादा वक़्त भी लगे तो भी एक बुनियादी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता को बरक़रार रखने के लिए यह किया जाना चाहिए। जब साल भर में नेताओं–नौकरशाहों के ऐशो–आराम, ऐय्याशी और सुरक्षा पर सरकारें अरबों रुपये ख़र्च कर सकती है, तो जनता के इस बुनियादी जनवादी अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए कुछ करोड़ रुपये क्यों नहीं ख़र्च किये जा सकते? आज ईवीएम के ज़रिये आम नागरिकों के सबसे बुनियादी जनवादी अधिकारों में से एक पर, यानी एक पारदर्शी चुनाव में वोट डालकर अपने प्रतिनिधि को चुनने के जनवादी अधिकार पर, एक अन्धेरगर्दी भरी डाकाज़नी की जा रही है।
देश के कई जाने-माने वकील, अवकाशप्राप्त न्यायाधीश, विधिवेत्ता, चुनाव विशेषज्ञ और विपक्षी पार्टियाँ ईवीएम की विश्वसनीयता पर लगातार सवाल उठाती रही हैं, लेकिन गोदी मीडिया की कृपा से उनकी बातें आम लोगों तक नहीं पहुँच पातीं। दूसरी ओर, चुनाव आयोग की बेहद कमज़ोर व अविश्वसनीय सफ़ाइयों का जमकर प्रचार किया जाता है। बुनियादी सवालों को नज़रों से ओझल कर दिया जाता है। ग़ौरतलब है कि ईवीएम पर सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी ने ही सवाल उठाया था। पार्टी के एक नेता जी वी एल नरसिंहा राव ने 2010 में ‘डेमोक्रेसी ऐट रिस्क, कैन वी ट्रस्ट अवर इलेक्ट्रॉनिक मशीन’ शीर्षक एक पुस्तक लिखी थी जिसकी प्रस्तावना लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी। इस पुस्तक में भी यही बात लिखी थी कि ईवीएम का इस्तेमाल सुरक्षित और चूकरहित क़तई नहीं हो सकता। हाल में ही यह ख़बर आयी कि ईवीएम बनाने वाली कम्पनी ‘भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड’ के निदेशक के रूप में भाजपा के चार पदाधिकारी और नामांकित व्यक्ति काम कर रहे हैं। ऐसे में ईवीएम का प्रयोग सीधे ही शक़ के घेरे में आ जाता है। लेकिन इस सवाल पर चुनाव आयोग और मोदी सरकार बिल्कुल चुप हैं।
इसी से जुड़ा एक सनसनीखेज़ मुद्दा यह है कि निर्माण स्थल से चुनाव आयोग तक पहुँचने के बीच कुछ उन्नीस लाख ईवीएम मशीनें “ग़ायब” हो गयीं! ऐसा भला कैसे हो सकता है? बिना सरकारी मशीनरी की मिलीभगत के यह असम्भव है। इनके दुरुपयोग का सन्देह इस तथ्य से और भी पक्का हो जाता है कि विगत चुनावों के दौरान ईवीएम मशीनों से लदी भाजपाइयों या सरकारी अधिकारियों की कई गाड़ियाँ आम लोगों और विभिन्न विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं द्वारा पकड़ी जा चुकी हैं। इन तथ्यों के आधार पर हम कैसे ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल न खड़ा करें? और क्यों आज आम मेहनतकश आबादी को ईवीएम को हटाकर बैलट पेपर से चुनाव कराने के लिए संघर्ष नहीं करना चाहिए? आज मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए यह ज़रूरी है कि वे अपनी एकजुटता दिखाते हुए ईवीएम के विरोध में जनआन्दोलन खड़ा करें।
यह सच है कि मात्र ईवीएम के हटने से ही यह व्यवस्था आम जनता के सच्चे प्रतिनिधियों के हाथों में नहीं आ जायेगी और जनता का वास्तविक जनतन्त्र बहाल नहीं हो जायेगा। पूँजी की सत्ता के समूल नाश के साथ ही यह सम्भव है और यह लड़ाई यक़ीनन एक लम्बी लड़ाई है। लेकिन फिर भी मौजूदा व्यवस्था में एक पारदर्शी जनवादी चुनाव हमारा बुनियादी अधिकार है। इतिहास बताता है कि जनवादी अधिकारों की ज़मीन पर खड़े होकर ही जनता अपने तमाम आर्थिक व सामाजिक अधिकारों और अन्तत: व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई ज़्यादा बेहतर तरीक़े से लड़ सकती है। इसीलिए ईवीएम हटाकर एक पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया को सुनिश्चित करना हमारे लिए बेहद ज़रूरी है।
ईवीएम के ख़िलाफ़ चलाये जा रहे अभियानों के बाद एक चीज़ जो साफ़ तौर पर दिखायी दी, वह यह है कि इस सरकार ने अपनी नीतियों के ज़रिये अपने पूँजीपरस्त और जनविरोधी चरित्र को जितना बेपर्द किया है उससे कहीं ज़्यादा इन्होंने अपने तानाशाहाना राज को ईवीएम में धाँधली कर उजागर कर दिया है। आम जनता का एक हिस्सा मोदी सरकार के इस खेल को समझ चुका है लेकिन गोदी मीडिया की गोदी में सिर रखकर सोने वाली आबादी और अन्धभक्तों की ज़मात को छोड़ भी दिया जाये तो अब भी एक बड़ी आबादी ऐसी है जो मोदी सरकार के द्वारा ईवीएम में धाँधली से या तो अनभिज्ञ है या फिर वे ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करने में अब भी सन्देह के घेरे में ही हैं। इसलिए आज क्रान्तिकारी ताक़तों को इस अतिसीमित जनवादी अधिकर के हनन के ख़िलाफ़ आम जनता को एकजुट, गोलबन्द और संगठित करना होगा। साथ ही यह माँग उठानी होगी कि तत्काल ईवीएम को पूर्ण रूप से ख़ारिज कर बैलट पेपर से चुनाव कराये जायें।
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