लोकसभा चुनाव : बहुमत से पीछे रहने के बावजूद फ़ासीवादी भाजपा के  दाँत, नख और पंजे राज्यसत्ता में और अन्दर तक धँसे

अविनाश

लोकसभा चुनाव के नतीजे सामने आ चुके हैं। भाजपा भले ही अपने “400 पार” के नारे के बोझ तले धड़ाम से गिर चुकी हो, मगर जिस तरह पूरे चुनाव में गोदी मीडिया, ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग समेत पूँजीवादी राज्यसत्ता की समस्त मशीनरी ने भाजपा के पक्ष में सम्भावनाएँ पैदा करने का काम किया है, यह भाजपा-आरएसएस द्वारा राज्यसत्ता की मशीनरी में अन्दर तक की गयी घुसपैठ और उसके भीतर से किये गये ‘टेक ओवर’ के बारे में काफी कुछ बता देता है। इसके बावजूद एक तबका चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के 240 सीट पर सिमट जाने से ख़ुशी की लहर पर सवार है और वह “लोकतंत्र की जीत” व “संविधान की मज़बूती” की दुहाई देते थक नहीं रहा है। ऐसे में “लोकतंत्र के त्यौहार” यानी 18वें  लोकसभा चुनाव (जिसका कुल ख़र्च लगभग 1.35 ट्रिलियन रुपये बताया जा रहा है) को समग्रता में देखने की ज़रूरत है, ताकि चुनाव नतीजों के शोर में व्यवस्थित तरीक़े से, पूँजीवादी औपचारिक मानकों से भी, लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के हो रहे विघटन से दृष्टि ओझल न हो।

  1. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति

आम चुनाव की घोषणा से कुछ ही दिन पहले चुनाव आयुक्त अरुण गोयल ने इस्तीफ़ा दे दिया था। वहीं इसके पहले अशोक लवासा ने, जिन्हें 2018 में चुनाव आयोग में नियुक्त किया गया था, 2019 के चुनाव में पीएम मोदी और अमित शाह द्वारा प्रचार नियमों के कथित उल्लंघन के मुद्दे पर कई असहमतियाँ दर्ज करवायी थीं, जिसके बाद उन्होंने अगस्त 2020 में इस्तीफ़ा दे दिया था। अगर यह इस्तीफ़ा नहीं देते तो मुख्य चुनाव आयुक्त का पद संभाल सकते थे।

ऐसे में जब चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्त के पद ख़ाली पड़े थे, तब मोदी-अमित शाह के इशारों पर इनकी नियुक्ति हो इसके लिए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के नियमों में परिवर्तन किया गया। इन बदलावों के तहत  नियुक्ति करने वाले निकाय में तीन लोगों का प्रावधान किया गया: प्रधानमन्त्री, केन्द्रीय गृहमन्त्री और प्रमुख विपक्षी दल के नेता। ऐसे में बहुमत हमेशा सरकार के पक्ष में ही होगा और ऐसे में चुनाव आयुक्त वही चुने जायेंगे जो मोदी-शाह को पसंद हो। तब किसके पक्ष में निर्णय होंगे, यह तो अच्छे से समझा जा सकता है।

  1. ईवीएम की विश्वसनीयता

ईवीएम के इस्तेमाल और इसकी विश्वसनीयता पर सवाल तो बहुत लम्बे समय से उठ रहे है। इसके प्रमाण तो 2019 के लोकसभा चुनावों से लेकर उसके बाद हुए सभी विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिले थे, लेकिन इन सबको एक बार फिर से नज़रअंदाज कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने 26 अप्रैल को बैलट पेपर से चुनाव कराने को लेकर इनकार कर दिया व इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) मतदान प्रणाली को बरक़रार रखा। याचिकाकर्ताओं की उस माँग को भी अस्वीकार कर दिया जिसमें ईवीएम पर डाले गये वोटों के वोटर वेरिफायेबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) पेपर पर्चियों से सौ प्रतिशत मिलान करने का निर्देश देने की माँग की गयी थी। 2024 के चुनाव के नतीजों के बाद ईवीएम की विश्वसनीयता पर फिर गहरे सवाल खड़े हो चुके हैं। इस बार हुए चुनाव में 362 लोकसभा क्षेत्रों से कुल 5,54,598 मतों को ख़ारिज कर दिया गया, जिसके बारे में चुनाव आयोग पूरी तरह ख़ामोश है।

  1. भाजपा नेताओं के साम्प्रदायिक भाषणों-पोस्टरों पर चुनाव आयोग की चुप्पी

भाजपा नेताओं के साम्प्रदायिक भाषणों में, जिसमें नरेन्द्र मोदी का नाम प्रमुखता से शामिल था, कांग्रेस द्वारा चुनाव जीतने की सूरत में हिन्दू औरतों का मंगलसूत्र छीन लेने, हिन्दू आबादी की भैंस छीन कर मुसलमानों को दे देने की बात लगातार गूँजती रही। इसी प्रकार, मीट-मछली-मटन-मुजरा को लेकर साम्प्रदायिक बयान मोदी समेत अन्य भाजपा नेताओं द्वारा लगातार दिये जाते रहे। दिल्ली के कई हिस्सों में बैनर और तख्तियाँ थीं, जिनमें खुलेआम दावा किया गया था कि अयोध्या में राम लला को स्थापित करवाने के लिए मोदी सरकार को कैसे वापस लाया जायेगा। कर्नाटक में मुसलमानों को फण्ड देने के झूठे कार्टून और वीडियो निकाले जा रहे थे, जिन पर लगातार सवाल उठाये जाने के बावजूद इन्हें चुनाव ख़त्म होने के बाद ही हटाया गया।

इन तमाम मुद्दों पर केचुआ (केन्द्रीय चुनाव आयोग) एक रीढ़विहीन केंचुए की तरह बर्ताव करता रहा। इन तमाम साम्प्रदायिक बयानबाज़ियों और चुनावी भाषणों के बाद केचुआ ने मोदी को कोई चेतावनी नहीं दी और न ही नामांकन को रद्द नहीं किया। महज़ भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिखा गया! बाद में प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बोला जाता है कि हमने जानबूझकर दोनों पार्टी के स्टार प्रचारकों पर कोई कार्रवाई नहीं की। अब फ़ासीवादी मोदी-शाह जोड़ी के आगे केचुआ द्वारा इस तरह दण्डवत प्रणाम करने पर क्या ही कहा जाये।

  1. चुनावों में उम्मीदवारों की खरीद-फ़रोख्त, बाँह मरोड़ना व नामांकन रद्द किया जाना

इन्दौर, सूरत, गांधीनगर, वाराणसी और देश के अलग-अलग कोनों से चुनावों में उम्मीदवारों की खरीद-फ़रोख्त, उन्हें धमकाने व नामांकन रद्द करने की ख़बरें सामने आयी हैं। इन्दौर में कांग्रेस के उम्मीदवार अक्षय कान्ति बाम ने मतदान के कुछ रोज़ पहले अपना नामांकन वापस ले लिया। नामांकन वापस लेने के अगले दिन अक्षय कान्ति बाम भाजपा के बड़े नेता कैलाश विजयवर्गीय के साथ गले में भगवा पटका डाले हुए दिखे।

गाँधीनगर की सीट पर अमित शाह के खिलाफ़ खड़े अन्य प्रत्याशियों को डराने-धमने की बात सामने आ रही है। इस सीट के एक प्रत्याशी ने वीडियो सन्देश के ज़रिये बताया था कि उन्हें अपना नाम वापस लेने के लिए धमकियाँ दी जा रही हैं।

श्याम रंगीला, जो वाराणसी से मोदी के खिलाफ़ चुनाव लड़ने की कोशिश कर रहे थे, ने दावा किया कि आरओ ने उनका नामांकन ख़ारिज कर दिया क्योंकि उन्होंने शपथ नहीं ली, जैसा कि संविधान द्वारा अनिवार्य है। रंगीला के अनुसार, जब उन्होंने और अन्य उम्मीदवारों ने सोमवार को अपना नामांकन दाखिल करने की कोशिश की तो उन्हें ज़िला मजिस्ट्रेट के कार्यालय में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गयी थी। खजुराहो में इण्डिया गठबन्धन की तरफ़ से खड़े हुए सपा के उम्मीदवार का पर्चा रद्द कर दिया गया था। यह पर्चा बेहद मामूली तकनीकी आधार पर रद्द किया गया। मुंबई उत्तर पूर्व से भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) के उम्मीदवार बबन ठोके का नामांकन भी इसी तरह बेहद मामूली तकनीकी कारणों की वजह से ख़ारिज कर दिया गया था।

  1. वोटरों का लिस्ट से नाम काटना, डराना-धमकाना व धीमी वोटिंग की रपटें

पुलिस, सेना व अर्द्धसैनिक बलों के भीतर फ़ासीवादी घुसपैठ का इस्तेमाल कर तथा प्रशासनिक मशीनरी का दुरुपयोग कर कई इलाकों में लोगों को वोट डालने से रोकना, उसमें बाधा पैदा करना और फ़र्ज़ी जाँच के ज़रिये उन लोगों से वोटिंग का जनवादी अधिकार छीन लेने की ख़बरें कई जगहों से सामने आयी थीं। हैदराबाद में भाजपा प्रत्याशी व दंगाई भाषणों के लिए कुख्यात माधवी लता द्वारा लोगों के वोटर कार्ड देखने व उन्हें धमकाने के वीडियो सामने आये थे। 26 अप्रैल को मथुरा में अनेक मुसलमान वोटरों ने पाया कि उनका नाम वोटर लिस्ट से हटा दिया गया है। ऐसी ही कई ख़बर अन्य जगहों से भी आई हैं। वहीं एक भाजपा कार्यकर्त्ता के बेटे द्वारा एक मशीन से 8 वोट डालते हुए वीडियो वायरल हुआ।

 यह भी देखा गया कि चुनाव आयोग ने मतदाताओं के कुछ वर्गों व समुदायों को हतोत्साहित करने के लिए सुनियोजित तरीक़े से कुप्रबन्धन किया। जैतपुर, जामिया नगर और शाहीन बाग जैसे कुछ मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में, प्रति बूथ 1650-1700 मतदाताओं की संख्या थी। ऐसे बूथों पर इतना तंग आवण्टन करने के लिए सवाल चुनाव आयोग पर उठाया जाना चाहिए, जब प्रति वोट पड़ने में लगने वाला औसत समय 50 सेकण्ड से एक मिनट तक है। यह बात एकदम स्पष्ट है कि सबसे कुशल प्रबंधन प्रणालियों के तहत भी एक मतदान बूथ में 750-800 से अधिक वोट नहीं डाले जा सकते हैं।

मज़दूर वर्ग के बूथों पर, विशेषकर मुस्लिम और दलित इलाक़ों में, धीमी वोटिंग सबसे ज़रूरी मुद्दों में से एक थी। चुनाव आयोग में स्वतंत्र सामाजिक संगठनों द्वारा कई शिक़ायतें दर्ज होने के बावजूद धीमी गति से मतदान जारी रहा। कई बूथों पर मतदाताओं के समय पर बूथ पर पहुँचने के बावजूद शाम छह बजे मतदान बंद हो गया। दिल्ली के खजूरी खास और ओखला जैसे इलाक़ों में ऐसी शिक़ायतें मिलीं कि पुलिस ने बूथ पर इस तरह से बैरिकेडिंग कर दी कि शाम 5 बजे के बाद ही मतदाताओं को मतदान केन्द्र के गेट तक नहीं पहुँचने दिया गया। ऐसे में मौजूदा चुनावों को किसी भी रूप में निष्पक्ष, स्वतन्त्र या पारदर्शी नहीं माना जा सकता है।

  1. अपारदर्शी चुनावी प्रक्रिया

लोकसभा चुनाव के सात चरणों में से दो चरण पूरे हो चुकने के बावजूद आँकड़े 19 अप्रैल को पहले चरण के मतदान के 11 दिन बाद और 26 अप्रैल को दूसरे चरण के मतदान के चार दिन बाद आये। इन दो चरणों के लिए अन्तिम मतदान प्रतिशत की घोषणा में देरी को लेकर चुनाव आयोग पर सवालिया निशान  खड़ा होना लाज़िमी है।

ऐसे में 23 मई को, पांचवे चरण के मतदान के समाप्त होने के 48 घंटों के भीतर फॉर्म 17सी की प्रतियों को सार्वजनिक करने की माँग का विरोध करने वाले चुनाव आयोग पर पारदर्शिता-विरोधी रुख अपनाने को लेकर सवाल उठाए गये। चुनाव आयोग ने कहा था कि नागरिकों को फॉर्म 17-सी में प्रदान किए गये डेटा को जानने का दावा करने का कोई क़ानूनी अधिकार नहीं है! चुनाव आयोग का तर्क है कि इस डेटा को गुप्त रखा जाना है (!)-किससे गुप्त? और क्यों? इतने दिनों के बाद डेटा भी चमत्कारिक तरीक़े से बदल गया! वास्तविक समय के मतदान आँकड़ों और केन्द्रीय चुनाव आयोग (केचुआ) द्वारा जारी अन्तिम आँकड़ों के बीच 1.07 करोड़ का कुल अन्तर आमने आया है, जिसके चलते यह अन्तर प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में 28,000 का होगा। इन तमाम सवालों पर भी केचुआ ने बहुत गोलमाल उत्तर दिया।

  1. चुनाव परिणामों में घपले

चुनाव परिणामों में भी कई तरह के घपले सामने आये हैं। परिणाम के दिन काउण्टिंग एजेण्ट द्वारा कण्ट्रोल यूनिट में कई तरह की अनियमितताएँ देखने को मिलीं जैसे बैटरी फुल होना, सील पहले से टूटी होना, सीरियल मैच न करना आदि की ख़बरें सामने आयीं। जहाँ तमिलनाडु के तिरुवल्लूर में 17-सी फॉर्म के हिसाब से मशीन से 16,791 वोट कम पाये गये, वहीं असम के करीमगंज में 3,811 वोट ज़्यादा पाये गये। ये काफ़ी बड़े अन्तर हैं जिसके बारे में चुनाव आयोग की तरफ़ से कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया।

इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) पर डाले गये वोटों की गिनती के दौरान हारने के बावजूद दो उम्मीदवारों ने लोकसभा चुनाव जीत लिया। जिसमें वाइकर ने महाराष्ट्र में मुंबई उत्तर पश्चिम सीट से जीत हासिल की, उन्होंने शिवसेना (UBT) के उम्मीदवार अमोल गजानन कीर्तिकर को महज़ 48 वोटों से हराया है। हालाँकि वोटिंग सेंटर पर गड़बड़ी की आशंका जताते हुए इस मामले में FIR दर्ज कराने की माँग की गयी है। अब इस मामले में एक बड़ा अपडेट सामने आया है। पुलिस की तरफ से रिटर्निंग ऑफिसर (RO) पर आरोप लगाया गया है कि वह इस मामले में FIR नहीं दर्ज होने दे रहे हैं। ‘मिड डे’ अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार, RO पर आरोप लगा है कि उन्होंने वोटिंग हॉल के CCTV फुटेज उपलब्ध कराने में सहयोग नहीं किया है।

सबक़ लेने की कुछ बातें

18 वें लोकसभा चुनाव में काफ़ी तीखा राजनीतिक ध्रुवीकरण देखने को मिला है। बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी और बुनियादी समस्याओं से जूझ रही जनता में भाजपा-विरोधी लहर देखने को मिल रही थी। ऐसे में जहाँ भाजपा द्वारा राज्यसत्ता की मशीनरी का अन्दरूनी ‘टेक ओवर’ करके इसको अपने हितों के लिए इस्तेमाल करना ज़रूर जारी था, मगर इसके ख़िलाफ़ प्रशासन को जन-विरोध का सामना भी लगातार करना पड़ रहा था, जिसकी वजह से जहाँ चुनाव आयोग वोटर काउंट देने से मना कर रहा था, बढ़ते जन दबाव की वजह से उसे सारी संख्या बतानी पड़ी। जब चुनाव आयोग प्रेस कांफ्रेंस नहीं कर रहा था, तब दबाव की वजह से उसे प्रेस कांफ्रेंस करनी पड़ी। यही नहीं देश भर में 120 से ज़्यादा नागरिक समाज के संगठनों ने परिणाम के दिन काउंटिंग सेण्टर के बाहर खड़े होकर चुनावी प्रक्रिया ढंग से हो उसे सुनिश्चित करने का काम भी एक हद तक किया। मगर इन सबके बावजूद फ़ासीवाद को चुनाव के रास्ते हराने की भूल कर बैठना, मज़दूर वर्ग के लिए बेहद ख़तरनाक साबित होगा। मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी ने इतने सालों की मेहनत और संघर्ष के बाद अपने जनवादी अधिकार हासिल किये हैं, उसे बचाने के लिए संघर्ष करना भी मज़दूर वर्ग का फ़र्ज बनता है। ऐसे में जनवादी अधिकारों पर हमलों के ख़िलाफ़ तमाशबीन बन कर नहीं रहा जा सकता है और उनकी हिफ़ाज़त की लड़ाई भी मज़दूर वर्ग के कन्धों पर है। आज फ़ासीवाद की निर्णायक हार पूँजीवाद-विरोधी मज़दूर क्रान्ति से अंतरगुन्थित है। ऐसे में एक अखिल भारतीय क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण व उसे मज़बूत बनाने का कार्यभार मज़दूर वर्ग के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

मज़दूर बिगुल, जून 2024


 

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