बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों के पैदा होने की ज़मीन की शिनाख़्त करनी होगी!

स्त्री मुक्ति लीग

कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल से 9 अगस्त को एक दिल दहलाने वाली घटना सामने आयी। अस्पताल के सेमिनार हॉल में एक महिला डॉक्टर के साथ पहले बलात्कार किया गया और उसके बाद उसकी बर्बरता से हत्या कर दी गई। 31 साल की ट्रेनी डॉक्टर चेस्ट मेडिसिन डिपार्टमेण्ट में पी.जी. सेकेण्ड ईयर की स्टूडेण्ट थी। घटना के सामने आने के बाद पश्चिम बंगाल के अलग-अलग अस्पतालों के डॉक्टर और देश के कई राज्यों में डॉक्टर्स और आम नागरिक इस घटना के विरोध में सड़कों पर है और इस घटना के मुख्य आरोपी पर कार्रवाई की माँग कर रहे हैं।

कलकत्ता में हुई बर्बरता को लेकर लोग न्याय के लिए संघर्ष ही कर रहे थे कि तब तक देश के अलग-अलग कोनों से ऐसी घटनाओं के ख़बरों की बाढ़ आ जाती है। उत्तराखण्ड में एक 31 वर्षीय नर्स के साथ दुष्कर्म का मामला सामने आता है, बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में एक दलित नाबालिग लड़की के साथ बर्बरता को अंजाम दिया जाता है तो वही दिल्ली के करावल नगर में एक 11 साल की छोटी बच्ची के साथ उसके मकान मालिक का बेटा रेप के जुर्म में पकड़ा जाता है और शाहबाद डेरी में 4 साल की छोटी बच्ची के साथ बलात्कार होता है। महाराष्ट्र के बदलापुर में सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े एक नेता द्वारा संचालित स्कूल में बच्चों के साथ दुष्कर्म के दोषियों को सज़ा दिलाने के लिए आन्दोलन कर रहे लोगों को ही पुलिसिया दमन का शिकार बनाया जाता है।

कोलकाता में आन्दोलन के व्यापक रूप ले लेने का बाद लोगों के ग़ुस्से को शान्त करने के लिये आनन-फ़ानन में एक आरोपी  संजय रॉय  की  गिरफ़्तारी हुई है मगर अब भी मुख्य अपराधियों को गिरफ़्त में नहीं लिया गया है। घटना के सामने आने के बाद से ही भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच बयानबाज़ी का दौर शुरू हो गया है। राज्य के मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी द्वारा इस मसले की जाँच के लिए एक एसआईटी गठित की गयी है, जो कोई नयी बात नहीं है! जब भी इस तरीके की घटनाएँ होती हैं तो मामले को शान्त करने के लिए या तो एसआईटी गठित की जाती है या मामले को सीबीआई को सौंप उसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया जाता है।

घटना के हफ़्ते भर बाद भी इस मामले में उचित कार्रवाई  न होने पर जब देशभर के डॉक्टरों ने पूर्ण हड़ताल की घोषणा की तब मजबूरन कोर्ट को इस मामले का तत्काल संज्ञान लेना पड़ा। कोर्ट ने हर बार की ही तरह इस मामले में भी खानापूर्ति करते हुए  CISF को आरजी कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल और हॉस्टल को सुरक्षा प्रदान करने का निर्देश दिया और मेडिकल स्टाफ़ व डॉक्टर्स के लिए सुरक्षा सम्बन्धी मसलों को देखने के लिए नेशनल टास्क फोर्स के गठन का आदेश दिया ।

मगर इस घटना ने पुलिस से लेकर प्रशासन तक का रवैया एक बार फिर उजागर कर दिया। चौंकाने वाली बात है कि इस बर्बर घटना में पीड़िता का शवदाह हो जाने के बाद पुलिस ने एफ़आईआर दर्ज़ की। मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल की इस घटना पर चुप्पी और इस्तीफ़ा देने के तत्काल बाद दूसरे मेडिकल कॉलेज का प्रिंसिपल बना दिये जाने से कई सवाल खड़े होते हैं! कितनी ही जाँच कमिटियाँ पहले भी बनी हैं, नये-नये नियम, क़ानून हर बार ऐसी घटनाओं के बाद बनाये जाते हैं मगर स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ती जा रही है।

हमारे देश में स्त्री-सुरक्षा सम्बन्धी क़ानूनों की कमी नहीं है। 2012 में निर्भया की घटना के बाद जब आम जनता का ग़ुस्सा सड़कों पर फूटा था तब भी कई नियम-क़ानून बनाये गये थे परन्तु इस घटना के 12 साल बाद अगर हम देखे तो स्त्री-विरोधी अपराध कम होने की जगह बढ़ते ही गये हैं। इसलिए, यह प्रश्न हमारे सामने हर बार उपस्थित होता है कि क्या महज़ दोषियों को सज़ा दे देने से और सख़्त क़ानून बना देने से ऐसी घटनाएँ बन्द हो जायेंगी? इसका जवाब है बिल्कुल नहीं!

स्त्री-विरोधी अपराधों के समूल नाश के लिए हमें इन अपराधों के पैदा होने की ज़मीन को पहचानना होगा, इस बात पर सोचना होगा कि क्यों पैदा होते हैं ऐसे बलात्कारी और बर्बर मानसिकता के लोग? जब तक इन सवालों पर हम नहीं सोचेंगे तब तक ऐसी घटनाएँ घटती रहेंगी। ये तो वे घटनाएँ हैं जो सामने आ गयीं लेकिन हर रोज़ न जाने कितनी ही घटनाओं को सामने आने से पहले ही दबा दिया जाता है। ख़ासतौर पर गरीब बस्तियों और निम्न मध्यवर्ग के इलाकों में होने वाले ऐसे अपराधों को ताक़त और पैसे दम पर सामने नहीं आने दिया जाता।

हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि इन अपराधों के दोषियों को पकड़ने और सज़ा देने के बजाय उन्हें खुली छूट मिल रही है। पुलिस प्रशासन से लेकर न्यायालय तक ऐसे अपराधियों को बरी करने और संरक्षण देने का काम खुलेआम कर रहा है।

कोई दिन नहीं जाता जब देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई बच्ची हवस का शिकार न होती हो। कहीं शिक्षक छात्राओं के उत्पीड़न में शामिल दिखते हैं, कहीं बालिका गृहों में बच्चियों पर यौन हिंसा होती है, कहीं झूठी शान के लिए लड़कियों को मार दिया जाता है, कहीं सत्ता में बैठे लोग स्त्रियों को नोचते हैं, कहीं जातीय या धार्मिक दंगों में औरतों पर ज़ुल्म होता है तो कहीं पर पुलिस और फ़ौज तक की वर्दी में छिपे भेड़िये यौन हिंसा में लिप्त पाये जाते हैं! ऐसा कोई क्षण नहीं बीतता जब बलात्कार या छेड़छाड़ की कोई घटना न होती हो! कोई भी पार्टी सत्ता में आ जाये किन्तु स्त्री विरोधी अपराध कम होने के बजाय लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं मगर फ़ासीवादी भाजपा के शासनकाल में बर्बर स्त्री-विरोधी अपराधों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का डेटा बताता है कि भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों में भयानक वृद्धि हुई है। अकेले 2022 में 4,45,256 मामले दर्ज किये गये, जो हर घण्टे लगभग 51 एफ़आईआर के बराबर है।

फ़ासीवादी मोदी सरकार के शासनकाल में घृणित मानसिकता वाले लोगों को फलने-फूलने का बख़ूबी मौका मिल रहा है। स्वयं मोदी सरकार बलात्कारियों को पनाह दे रही है। बृजभूषण शरण सिंह, कुलदीप सिंह सेंगर, चिन्मयानन्द और कठुआ के बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगा यात्रा निकालने के उदाहरण हम सबके सामने हैं। बिल्किस बानो के आरोपियों को भाजपा सरकार द्वारा “संस्कारी” क़रार देकर उन्हें बरी कर दिया जाता है। रामरहीम और आसाराम जैसे सज़ायाफ़्ता बलात्कारियों को बार-बार पेरोल देकर जेल से बाहर घूमने का मौक़ा दिया जाता है ताकि वे भाजपा के लिए वोट जुटा सकें।

संसद तक में बलात्कारियों और महिला अपराध में संलग्न नेताओं की भरमार है। अभी हाल ही में जारी एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में जीते 543 सांसदों में से 46 प्रतिशत (251) के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसके अलावा सांसदों में 31 प्रतिशत (170) ऐसे हैं जिनके ख़िलाफ़ बलात्कार, हत्या, अपहरण जैसे गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।

भाजपा के 240 सांसदों में से 39 प्रतिशत (94), कांग्रेस के 99 सांसदों में से 49 प्रतिशत (49), सपा के 37 में से 57 प्रतिशत (21), तृणमूल कांग्रेस के 29 में से 45 प्रतिशत (13), डीएमके के 22 में से 59 प्रतिशत (13), टीडीपी के 16 में से 50 प्रतिशत (आठ) और शिवसेना (शिंदे) के सात में से 71 प्रतिशत (पांच) सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। आरजेडी के 100 प्रतिशत (चारों) सांसदों के ख़िलाफ़ गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।

बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगा लेकर जुलूस निकालना, दुष्कर्मियों को समय से पहले जेल से रिहा करके उनका फूल मालाओं से स्वागत करना ― ऐसे फ़ासीवादी दौर में ही सम्भव है। सत्ता में बैठे फ़ासीवादी आज घोर स्त्री विरोधी मानसिकता के हैं जो स्त्रियों को पुरुषों के अधीन रखने और उनके दोयम दर्जे को न्यायोचित ठहराते हैं।

बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों की जड़ में एक तरफ तो फ़ासीवादी ताकतें हैं जो पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताओं को बढ़ावा देने का काम करती हैं, दूसरी तरफ़ यह मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था है जिसने हर चीज़ की तरह स्त्रियों को भी ख़रीदी-बेचे जा सकने वाली वस्तु में तब्दील कर दिया है। विज्ञापनों व फ़िल्मी दुनिया की ज़्यादातर जगहों पर औरतों के जिस्म को भी एक वस्तु या कमोडिटी के रूप में ही पेश किया जाता है। मोबाइल फ़ोन के माध्यम से पोर्नोग्राफ़ी, अश्लील वीडियो व फिल्मों तक बच्चे-बच्चे की पहुँच है। सिनेमा-टीवी-सोशल मीडिया अश्लीलता और भोंडी संस्कृति के सबसे बड़े पोषक बने हुए हैं। पूरे समाज पर सांस्कृतिक पतनशीलता का घटाटोप छाया हुआ है। नेताशाही से लेकर नौकरशाही तक में बैठे लोग इस सांस्कृतिक पतन में सराबोर हैं। मुनाफ़े पर टिकी कोई समाज व्यवस्था जिस तरह की बीमार संस्कृति लोगों को दे सकती है वही हमें भी नसीब हो रही है। इसमें भी चाल-चेहरा-चरित्र-संस्कार-संस्कृति का रामनामी दुपट्टा ओढ़ने वाले साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों के राज में हमारा समाज हर मामले में गर्त में समा गया है। इसी वजह से इस दौरान स्त्री विरोधी अपराधों में भी भयंकर उछाल देखने को मिला है।

 इसलिए ही इस फ़ासीवाद के दौर में हमारा प्रतिरोध का तरीका भी महज़ जेण्डर सेंसटाइजेशन या कैंडल मार्च तक सीमित नहीं रह सकता। हमें इन बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों के ख़िलाफ़ चुप्पी तोड़कर सामने आना होगा और इसके विरुद्ध लड़ाई को संगठित करना होगा। किसी भी स्त्री विरोधी घटना का यथासम्भव एकजुटता के साथ विरोध करें, दोषियों को न केवल कड़ी से कड़ी सज़ा दिलाने का प्रयास करें बल्कि उनका सामाजिक बहिष्कार भी करें। स्वस्थ संस्कृति और सही जीवन मूल्यों का प्रचार-प्रसार करें। नशे, बेरोज़गारी, अश्लीलता, अशिक्षा, ग़रीबी की पोषक सरकारों का जिस भी रूप में विरोध कर सकते हैं विरोध करें तथा मूल्ययुक्त शिक्षा और रोज़गार के मुद्दों पर आन्दोलन संगठित करें।

आज हम इन सरकारों और न्याय व्यवस्था के भरोसे बैठे नहीं रह सकते हैं। ऐसा करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान होगा! स्त्री-विरोधी मूल्य-मान्यताओं को पैदा करने वाली और बलात्कार की मानसिकता की पोषक पितृसत्तात्मक पूँजीवादी व्यवस्था और फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ एक लम्बी लड़ाई की शुरुआत करनी होगी।

 

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2024


 

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