Category Archives: क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 28 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त – खण्ड-2 : अध्याय – 2 पूँजी के परिपथ – II

चूँकि पूँजीपति का अस्तित्व इस बेशी मूल्य के आंशिक या पूर्ण रूप से अपने व्यक्तिगत उपभोग पर निर्भर करता है, चूँकि बेशी मूल्य पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया में ही पैदा होता है और चूँकि पूँजी और पूँजीवादी उत्पादन का अस्तित्व स्वयं पूँजीपति के अस्तित्व पर आधारित होता है, इसलिए साधारण पुनरुत्पादन का पूँजीवादी चरित्र आरम्भ से ही स्पष्ट होता है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 27 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त – खण्ड-2 : अध्याय – 1 (जारी) पूँजी के परिपथ (सर्किट)

दूसरी बात यह है कि औद्योगिक पूँजी (उद्यमी पूँजी) के प्रभुत्व के स्थापित होने के बाद उससे पहले अस्तित्व में आये पूँजी के रूप, मसलन व्यापारिक पूँजी और सूदखोर पूँजी, उसके ही मातहत हो जाते हैं और उनकी कार्य-प्रणाली में भी उसके अनुसार बदलाव हो जाते हैं। वास्तव में, अब व्यवसाय की अलग शाखा के तौर पर व्यापारिक पूँजी व सूदखोर पूँजी स्वायत्त नहीं रह जाते बल्कि वे औद्योगिक पूँजी द्वारा संचरण के क्षेत्र में अपनाये जाने वाले विभिन्न रूपों की नुमाइन्दगी मात्र करते हैं। ये महज़ पूँजीपति वर्ग के अन्दरूनी श्रम विभाजन को दिखलाते हैं। व्यापारिक पूँजी का काम होता है औद्योगिक पूँजी द्वारा उत्पादित मालों के विपणन की प्रक्रिया को केन्द्रीकृत करना, सुचारू बनाना और उसकी लागत को कम करना और बदले में औद्योगिक पूँजीपति द्वारा विनियोजित बेशी मूल्य के एक हिस्से को व्यापारिक मुनाफ़े के रूप में प्राप्त करना। दूसरी ओर, मुद्रा-पूँजी में व्यवसाय करने वाले वित्तीय पूँजीपति का अस्तित्व भी औद्योगिक पूँजी द्वारा किये जाने वाले पूँजी संचय पर ही निर्भर करता है, हालाँकि पूँजी के संघनन और संकेन्द्रण के साथ वित्तीय पूँजी की भूमिका पूँजीवादी उत्पादन में बढ़ती जाती है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 26 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त – खण्ड-2 : अध्याय – 1 (जारी) पूँजी के परिपथ (सर्किट)

पूँजीपति का माल उसकी पूँजी का एक विशिष्ट रूप यानी माल-पूँजी इसलिए है क्योंकि वह बेशी मूल्य से लैस है। दूसरे शब्दों में, वह पूँजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया से गुज़र चुका है, जिसके दौरान उसमें उत्पादन में ख़र्च हुए उत्पादन के साधनों का मूल्य तो स्थानान्तरित हुआ है, साथ ही मज़दूरों ने अपने जीवित श्रम के ज़रिये उसमें नया मूल्य भी पैदा किया है, जो स्वयं मज़दूरों की श्रमशक्ति के कुल मूल्य से ज़्यादा है। यह माल भौतिक तौर पर किसी भी अन्य साधारण माल के समान होने के बावजूद सारभूत रूप में उनसे अलग है क्योंकि उसके मूल्य में बेशी मूल्य शामिल है और वह बेशी मूल्य के उत्पादन यानी पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़र चुका है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 25 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त – खण्ड-2 : अध्याय – 1 (जारी) पूँजी के परिपथ (सर्किट)

उत्पादक पूँजी के चरण का बुनियादी प्रकार्य यही है कि इस चरण में बेशी मूल्‍य का उत्पादन होता है। पहले चरण, यानी संचरण की पहली कार्रवाई M – C, का बुनियादी प्रकार्य यह है कि इसके ज़रिये ही पूँजीपति के हाथों में वे माल आते हैं, जो अपने नैसर्गिक रूप में उत्पादक उपभोग के लिए अनिवार्य होते हैं और उत्पादक उपभोग में ही जा सकते हैं, वैयक्तिक उपभोग में नहीं। यह उत्पादक पूँजी के चरण की पूर्वपीठिका है और इसके बिना उत्पादक पूँजी का चरण सम्‍भव नहीं हो सकता। इसीलिए मार्क्स ने कहा था कि पूँजी संचरण के क्षेत्र में पूँजी बनती है (मूलत: और मुख्‍यत: श्रमशक्ति को ख़रीदकर) लेकिन वह संचरण के क्षेत्र से पूँजी नहीं बनती है (क्‍योंकि बेशी मूल्‍य का उत्पादन, यानी पूँजी का मूल औचित्‍य, उत्पादन की प्रक्रिया में ही पूर्ण होता है, संचरण के क्षेत्र में नहीं)। मार्क्स उत्पादक पूँजी के प्रकार्य पर चर्चा को पूँजी के दूसरे खण्‍ड में संक्षिप्‍त रखते हैं क्‍योंकि पहले खण्‍ड में इस पर बेहद विस्‍तार और गहराई से चर्चा हो चुकी है। इसके बाद, वह मुद्रा-पूँजी के परिपथ के तीसरे चरण पर आते हैं, जो पैदा हुए मूल्‍य और बेशी मूल्‍य के वास्‍तवीकरण के प्रश्‍न को उठाता है। इस चरण के पूर्ण हुए बिना भी पूँजी के परिपथ कुण्‍डलाकार पथ पर निरन्‍तर सुगमता से जारी नहीं रह सकता है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 24 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त – खण्ड-2 : अध्याय – 1 पूँजी के परिपथ (सर्किट)

पूँजीपति पूँजी लगाता है, माल ख़रीदता है, और फिर माल को उससे ज़्यादा क़ीमत पर बेचता है, जितनी क़ीमत पर उसने उसे ख़रीदा था। यानी, सस्ता ख़रीदना और महँगा बेचना। यह आम तौर पर पूँजी का सूत्र है। महज़ इस सूत्र से ही अभी हम बेशी मूल्य के स्रोत को और इस प्रकार मुनाफ़े के स्रोत को नहीं जान पाते हैं। यह सूत्र केवल संचरण के क्षेत्र में होने वाले औपचारिक रूपान्तरणों को ही अभिव्यक्त करता है। यानी, मुद्रा द्वारा माल का रूप लेना और फिर माल द्वारा मुद्रा का रूप लेना। यहाँ अभी हमें बेशी मूल्य के पैदा होने की पूरी प्रक्रिया के बारे में कुछ भी पता नहीं चलता है क्योंकि इस सूत्र में उत्पादन के क्षेत्र में होने वाले सारभूत परिवर्तनों के बारे में हमें अभी कुछ नहीं बताया जाता है, यानी बेशी मूल्य के उत्पादन के बारे में, मूल्य-संवर्धन के बारे में कुछ नहीं बताया जाता है। वह हमें केवल औद्योगिक पूँजी के समूचे परिपथ को देखकर ही पता चलता है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 23 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त : खण्ड-2

अधिकांश भोंड़े अर्थशास्त्री (जिनमें कुछ “मार्क्सवादी” अर्थशास्त्री भी शामिल हैं) ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड के महत्व को नहीं समझ पाते हैं। उसकी वजह यह है कि मार्क्सवादी अर्थशास्त्र के विषय में उनका ज्ञान अक्सर गौण स्रोतों, मसलन, कुछ ख़राब पाठ्यपुस्तकों पर आधारित होता है। साथ ही, वे लोग भी इस खण्ड का मूल्य नहीं समझ पाते, जो इसमें कोई उद्वेलनात्मक सामग्री नहीं ढूँढ पाते हैं। वे मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सम्पूर्ण वैज्ञानिक चरित्र को नहीं समझ पाते। नतीजतन, वे यह समझने में असफल रहते हैं कि मार्क्स का राजनीतिक अर्थशास्त्र समूची पूँजीवादी व्यवस्था के पूरे काम करने के तरीक़े और उसकी गति के नियमों को उजागर करता है, जिसमें महज़ पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के सम्बन्धों की पड़ताल ही शामिल नहीं है, बल्कि आधुनिक पूँजीवादी समाज के सभी बुनियादी वर्गों के बीच के सम्बन्धों की पड़ताल शामिल है। अन्तत:, ऐसे लोग पूँजी के उत्पादन की प्रक्रिया और पूँजी के संचरण की प्रक्रिया की बुनियादी एकता को नहीं समझ पाते हैं, जिसमें बुनियादी निर्धारक भूमिका निश्चित तौर पर उत्पादन की प्रक्रिया ही निभाती है। यह एक अन्तरविरोधी एकता होती है और इस अन्तरविरोध का स्रोत और कुछ नहीं बल्कि स्वयं माल के भीतर मौजूद अन्तरविरोध ही है। यानी, उपयोग-मूल्य और विनिमय-मूल्य के बीच का अन्तरविरोध। ऐसे लोगों के विपरीत आजकल कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो उत्पादन की प्रक्रिया के निर्धारक महत्व को नहीं समझते और पूँजीवादी शोषण का मूल, आय के विभिन्न रूपों के समाज के विभिन्न वर्गों में बँटवारे के मूल को संचरण की प्रक्रिया में ढूँढते हैं और ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड को ठीक वह स्थान देते हैं, जो उसका स्थान हो ही नहीं सकता है। वे भी वास्तव में इस दूसरे खण्ड को समझने में असफल रहते हैं। ऐसे लोग पूँजीवादी संकट का मूल भी उत्पादन की प्रक्रिया में देखने के बजाय संचरण की प्रकिया में, बाज़ार में और मूल्य का वास्तवीकरण न होने के संकट में ढूँढते हैं। ये दोनों ही छोर ग़लत हैं और इन पर खड़े लोग मार्क्स की ‘पूँजी’ की परियोजना को समझने में असफल रहते हैं।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला के विषय में एक आवश्यक सम्पादकीय सूचना

इस शिक्षणमाला का लक्ष्य है वैज्ञानिक मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों को जितना सम्भव हो सरल रूप में व्यापक मेहनतकश व छात्र-युवा आबादी के समक्ष पेश करना। मोटे तौर पर अब तक हम इस लक्ष्य में सफल रहे हैं। अब तक प्रकाशित श्रृँखला मार्क्स की महान युगान्तरकारी रचना पूँजी के पहले खण्ड तक की शिक्षाओं को समेटती है। यह माल व उसके बुनियादी गुणों, माल उत्पादन की विशिष्टताओं, मूल्य के नियम, बेशी मूल्य, पूँजी द्वारा बेशी मूल्य के पैदा होने और फिर बेशी मूल्य के पूँजी में तब्दील होने की प्रक्रिया को तार-तार करके आपके सामने रखती है। यह पूँजी संचय के आम नियम को व्याख्यायित करती है और साथ ही आदिम संचय के रूप में पूँजी-श्रम सम्बन्ध के पैदा होने के ऐतिहासिक आधार को स्पष्ट करती है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 22 : तथाकथित आदिम पूँजी संचय : पूँजीवादी उत्पादन के उद्भव की बुनियादी शर्त

ग़रीबी का पक्षपोषण करने के लिए हर रोज़ ऐसी नीरस बचकानी कहानियाँ हमें सुनायी जाती हैं…वास्तविक इतिहास को देखें तो यह एक कुख्यात तथ्य है कि इसमें विजय, ग़ुलामी, लूट, हत्या, संक्षेप में बल-प्रयोग ने सबसे प्रमुख भूमिका निभायी। राजनीतिक अर्थशास्त्र के कोमल पूर्ववृत्तान्तों में सबकुछ हमेशा से सुखद और शान्त ही रहा है…वास्तव में देखें तो आदिम संचय के तौर-तरीक़े सुखद और शान्त के अतिरिक्त सबकुछ थे।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 21 : पूँजीवादी संचय का आम नियम

मार्क्स बताते हैं कि यह पूँजीवादी संचय का आम नियम है कि समाज में एक छोर पर समृद्धि इकट्ठा होती जाती है और दूसरी ओर ग़रीबी, अभाव और दुख इकट्ठा होता जाता है। पूँजी संचय जितना तेज़ी से आगे बढ़ता है, सम्पदा का पूँजीवादी सृजन जितने बड़े पैमाने पर होता है, सर्वहारा वर्ग की संख्या भी उतनी ज़्यादा बढ़ती है और साथ ही श्रम की उत्पादकता भी उसी अनुपात में छलाँगें मारते हुए बढ़ती है; नतीजतन, बेरोज़गारों की विशाल सेना का निर्माण भी उसी त्वरित गति से होता रहता है। जो कारक पूँजीवादी समृद्धि को द्रुत गति से विकसित करते हैं, ठीक वही कारक पूँजी की सेवा में श्रमशक्ति के विशाल रिज़र्व भण्डार को भी विकसित करते हैं। जिस गति से धनी वर्गों के हाथों धन-सम्पदा का विकास होता है, उसी ऊर्जा से औद्योगिक रिज़र्व सेना भी बढ़ती जाती है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 20 : पूँजीवादी संचय का आम नियम

पूँजी के सान्‍द्रण की विपरीत गति भी पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में मौजूद होती है। यह गति होती है पूँजियों के टूटने की और एक-दूसरे को विकर्षित करने की। मिसाल के तौर पर, पूँजीवादी घरानों या कम्‍पनियों को टूट जाना। उत्‍तराधिकारियों के बीच पूँजीवादी घरानों की सम्‍पत्ति का बँट जाना इसमें एक अहम कारक होता है। मिसाल के तौर पर, धीरूभाई अम्‍बानी के पूँजीवादी साम्राज्‍य का उसके दोनों बेटों के बीच विभाजित हो जाना, या इसी प्रकार घनश्‍यामदास बिड़ला के उत्‍तराधिकारियों में उसकी सम्‍पत्ति का बँट जाना, इसी के उदाहरण हैं।