क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 22 : तथाकथित आदिम पूँजी संचय : पूँजीवादी उत्पादन के उद्भव की बुनियादी शर्त
अध्याय – 17

अभिनव

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हमने यह देखा कि किस प्रकार पूँजी बेशी मूल्य को पैदा करती है। हमने यह भी देखा कि बेशी मूल्य किस तरह से पूँजी को पैदा करता है। लेकिन पूँजी द्वारा बेशी मूल्य को पैदा करना और फिर बेशी मूल्य का पूँजी में तब्दील होकर और अधिक पूँजी को पैदा करना एक गोल चक्कर है। हमें यह समझना पडे़गा कि पूँजी और उजरती श्रम किस प्रकार अस्तित्व में आते हैं। इसके बिना हम पूँजीवादी उत्पादन के ‘मूल पाप’ को नहीं समझ सकते। इसके बिना हमारा विश्लेषण पूँजी और उजरती श्रम के मूल की व्याख्या करने के बजाय उसके अस्तित्व को मानकर शुरू होगा। नतीजतन, पूँजीवादी निजी सम्पत्ति के उद्गम को व्याख्यायित करने के बजाय हम उसे पहले से अस्तित्वमान मानकर चलेंगे। इसलिए इस प्रश्न का जवाब देना अनिवार्य है। मार्क्स पूँजी, खण्ड-1 के आख़िरी हिस्से में इसी प्रश्न का जवाब देते हैं।

मार्क्स बताते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन की शुरुआत के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादन के साधनों के मालिकों का वर्ग, बाज़ार में एक ऐसे वर्ग से मिले जो उत्पादन के साधनों के मालिकाने से वंचित हो और इसलिए उसके पास बेचने के लिए अपनी श्रमशक्ति के अलावा और कुछ भी न हो। पूँजीवाद से पहले मौजूद सामाजिक संरचनाओं में ऐसा कोई विचारणीय आकार का वर्ग मौजूद नहीं था। एक ओर सामन्ती भूस्वामियों पर निर्भर अधीनस्थ किसानों की आबादी थी और भूदासों की आबादी थी और दूसरी ओर शहरों में उद्योगों के सामन्ती संगठन, यानी गिल्ड व्यवस्था के मातहत उस्ताद व शागिर्द कारीगरों व दस्तकरों की आबादी थी जो आम तौर पर अपने श्रम के उपकरणों की मालिक थी, और गिल्ड के विनियमनों के बन्धनों में बँधी हुई थी। गाँवों में खेती के साथ ही ग्रामीण उत्पादक वर्ग विभिन्न प्रकार की दस्तकारी के कामों में भी लगा था जो उनके दैनिन्दिन उपयोग की तमाम वस्तुएँ पैदा करता था। इसके साथ ही, ग्रामीण क्षेत्रों में चरागाहों, जंगलों, जलस्रोतों समेत तमाम प्राकृतिक संसाधन भी मौजूद थे, जिनका इस्तेमाल साझी सम्पत्ति के तौर पर प्रत्यक्ष उत्पादक, यानी किसान, गड़ेरिये, आदि किया करते थे। नतीजतन, पूँजीवादी माल उत्पादन के लिए कोई घरेलू बाज़ार भी मौजूद नहीं था क्योंकि उपभोग की तमाम वस्तुएँ अभी माल में तब्दील नहीं हुई थीं और न ही उत्पादन के साधन पूँजी में तब्दील हुए थे। वे व्यक्तिगत साधारण माल उत्पादकों की निजी सम्पत्ति थे। दूसरे शब्दों में, वे पूँजीवादी निजी सम्पत्ति में तब्दील नहीं हुए थे, बल्कि प्रत्यक्ष उत्पादकों की ही निजी सम्पत्ति थे।

बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्री प्रत्यक्ष उत्पादकों की निजी सम्पत्ति और पूँजीवादी निजी सम्पत्ति का अन्तर नहीं समझते। वे यह नहीं समझते कि प्रत्यक्ष उत्पादकों की निजी सम्पत्ति के निषेध के रूप में ही पूँजीवादी निजी सम्पत्ति पैदा होती है, यानी उत्पादन के साधनों का ऐसा निजी मालिकाना पैदा होता है, जिसके आधार पर उनका निजी मालिक दूसरे लोगों के श्रम का शोषण करता है। इसलिए पूँजीवादी उत्पादन की बुनियादी पूर्वशर्त यह थी कि खेती और ग़ैर-खेती उत्पादन, दोनों में ही प्रत्यक्ष उत्पादकों को उनके उत्पादन के साधनों से वंचित किया जाय। केवल इसी के ज़रिये पूँजी और उजरती श्रम के वे दो ध्रुव, दो छोर पैदा हो सकते थे, जिसके आधार पर पूँजी-सम्बन्ध का विकास हो सके। प्रत्यक्ष उत्पादकों को उनके उत्पादन के साधनों से वंचित किये जाने की प्रक्रिया को ही आदिम संचय (primitive accumulation) कहा जाता है।

ग़ौरतलब है कि यह प्रक्रिया पूँजीवादी उत्पादन व संचय का परिणाम नहीं होती है, बल्कि स्वयं उन स्थितियों को जन्म देती है जिसमें कि पूँजीवादी उत्पादन व संचय होता है। यह प्रक्रिया जबरन किसानों व पशुपालकों को भूमि से बेदख़ल करके, अन्य प्रत्यक्ष उत्पादकों को उनके उत्पादन के साधनों से वंचित करके पूरी की गयी और इसके लिए ऐसे तमाम तौर-तरीक़े अपनाये गये जो हिंसा, दमन, ज़ोर-ज़बर्दस्ती और ख़ून-ख़राबे से भरे हुए थे। पूँजी और उजरती श्रम को जन्म देने वाला आर्थिक मूल पाप, जिसने पूँजीवादी उत्पादन को सुसंगत तौर पर शुरू किया, गन्दगी और ख़ून में लिथड़ा हुआ था।

लेकिन बुर्जुआ वर्ग के अर्थशास्त्रियों ने पूँजी और उजरती श्रम के मूल की व्याख्या करने के लिए एक मिथक की रचना की और उसे जनमानस में लम्बे समय में व्यवस्थित तरीक़े से बिठाया। यह मिथक क्या था? मार्क्स इस मिथक के बारे में बताते हुए लिखते हैं :

“बहुत-बहुत समय पहले दो प्रकार के लोग हुआ करते थे; एक, वे मेहनती, समझदार और सबसे महत्वपूर्ण, किफ़ायतसारी करने वाले कुलीन; दूसरे, आलसी बदमाश, जो अपनी धन-सम्पत्ति और अपना सबकुछ ऐय्याशी में उड़ा देते थे…इस प्रकार अन्तत: हुआ यह कि पहले किस्म के लोगों ने समृद्धि संचित कर ली, और बाद वाली किस्म के पास अन्त में स्वयं अपनी चमड़ी बेचने के अलावा कुछ नहीं बचा। और इसी मूल पाप से भारी बहुसंख्या की ग़रीबी की शुरुआत हुई जिनके पास, अपनी तमाम मेहनत के बावजूद, आज भी अपने आपको बेचने के अलावा कुछ भी नहीं है, जबकि इसी से उन लोगों की समृद्धि की कहानी भी शुरू होती है, जो समृद्धि लगातार बढ़ती जाती है, हालाँकि उन लोगों ने काम करना कभी का छोड़ दिया है। ग़रीबी का पक्षपोषण करने के लिए हर रोज़ ऐसी नीरस बचकानी कहानियाँ हमें सुनायी जाती हैं…वास्तविक इतिहास को देखें तो यह एक कुख्यात तथ्य है कि इसमें विजय, ग़ुलामी, लूट, हत्या, संक्षेप में बल-प्रयोग ने सबसे प्रमुख भूमिका निभायी। राजनीतिक अर्थशास्त्र के कोमल पूर्ववृत्तान्तों में सबकुछ हमेशा से सुखद और शान्त ही रहा है…वास्तव में देखें तो आदिम संचय के तौर-तरीक़े सुखद और शान्त के अतिरिक्त सबकुछ थे।” (मार्क्स, कार्ल. 1982. पूँजी, खण्ड-1, पेंगुइन बुक्स, पृ. 873-874, अनुवाद और ज़ोर हमारा)

अपने आप में उत्पादन के साधन व उपभोग की सामग्रियाँ न तो माल होती हैं और न ही पूँजी। वे माल बनती हैं, जब उनका उत्पादन केवल प्रत्यक्ष उपभोग के लिए नहीं बल्कि बेचने के लिए किया जाता है। उसी प्रकार, वे पूँजी भी तभी बनती हैं जब उनका उपयोग दूसरों की श्रमशक्ति के शोषण के ज़रिये उनका मूल्य-संवर्द्धन करने के लिए किया जाता है। यह तभी हो सकता है जब दो बेहद अलग प्रकार के मालों के स्वामी बाज़ार में एक-दूसरे से मिलें। एक वह जिसके पास उत्पादन के साधनों व उपभोग की वस्तुओं का इजारेदार मालिकाना हो जबकि दूसरा वह जिसके पास अपने माल श्रमशक्ति के अलावा और कुछ भी न हो। यानी, पूँजीपति जो उत्पादन के साधनों के इजारेदार मालिक हों और दूसरी ओर, स्वतन्त्र मज़दूर जो दोहरे अर्थ में स्वतन्त्र हो: पहला, उत्पादन के साधन के मालिकाने के “बोझ” से स्वतन्त्र हो और किसी भी पूँजीपति को अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए स्वतन्त्र हो। ऐसा स्वतन्त्र मज़दूर स्वयं उत्पादन का साधन भी नहीं हो सकता है, जैसा कि दास या भूदास हुआ करते थे, न ही वह स्वयं अन्य उत्पादन के साधन का मालिक हो सकता है, जैसा कि पहले के किसान व दस्तकार हुआ करते थे। जैसे ही यह अलगाव हो जाता है, वैसे ही पूँजीवादी उत्पादन की बुनियादी शर्तें पूरी हो जाती हैं। मार्क्स लिखते हैं:

“पूँजी-सम्बन्ध के लिए मज़दूरों और उनके श्रम के वास्तवीकरण की स्थितियों के मालिकाने के बीच पूर्ण विलगाव अनिवार्य है। जैसे ही पूँजीवादी उत्पादन अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, वैसे ही यह न सिर्फ इस विलगाव को कायम रखता है, बल्कि इसे लगातार बढ़ते पैमाने पर पुनरुत्पादित भी करता है। इसलिए वह प्रक्रिया जो पूँजी-सम्बन्ध को पैदा करती है, केवल वही प्रक्रिया हो सकती है जो मज़दूर को स्वयं उसके श्रम की स्थितियों के मालिकाने से अलग कर दे; यह वह प्रक्रिया होती है जो दो रूपान्तरणों को अंजाम देती है, जिसमें जीविका और उत्पादन के सामाजिक साधन पूँजी में तब्दील कर दिये जाते हैं, और दूसरी ओर प्रत्यक्ष उत्पादकों को उजरती-श्रमिकों में तब्दील कर दिया जाता है। इस प्रकार, तथाकथित आदिम संचय और कुछ नहीं बल्कि वह ऐतिहासिक प्रक्रिया है जिसके तहत उत्पादक को उत्पादन के साधनों से अलग कर दिया जाता है। यह ‘आदिम’ दिखायी देती है क्योंकि यह पूँजी और पूँजी के अनुरूप अस्तित्व में आने वाली उत्पादन प्रणाली के प्राक्-इतिहास को निर्मित करती है।” (वही, पृ. 874-875)

पूँजीवादी व्यवस्था से पहले के युग के प्रत्यक्ष उत्पादक, यानी सामन्ती व अन्य प्राक्-पूँजीवादी संरचनाओं में मौजूद प्रत्यक्ष उत्पादकों के वर्ग में मूलत: निर्भर किसान थे, जो सामन्ती या अन्य प्राक्-पूँजीवादी आर्थिकेतर बन्धनों में बँधे हुए थे। वे अपनी श्रमशक्ति का अपनी इच्छा से इस्तेमाल करने के लिए आज़ाद नहीं थे। मिसाल के तौर पर, भारत में गुप्त साम्राज्य के दौर में शुरू हुई सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्गत अधिकांशत: शूद्र वर्ण की जातियों से आने वाले निर्भर किसानों व आम तौर पर दलित आबादी के बीच से आने वाले अधीनस्थ दासवत कामगारों को सामन्ती भूस्वामियों को आर्थिकेतर उत्पीड़न के आधार पर अपना बेशी श्रम देना पडता था। वे अपनी श्रमशक्ति को अपनी इच्छा से इस्तेमाल करने के लिए स्वतन्त्र नहीं थे। एक अलग रूप में, सामन्ती उत्पादन पद्धति के दौर में भूदासत्व की व्यवस्था के तहत, सारत:, यही स्थिति यूरोप के कई देशों व चीन तथा जापान के निर्भर किसानों, भूदासों व अधीनस्थ खेतिहर श्रमिकों की भी थी।

उसी प्रकार ग़ैर-खेतिहर उत्पादन के क्षेत्र में गिल्डों व उत्पादक संघों की सामन्ती व्यवस्था थी, जिसके तहत शागिर्द कारीगरों व घुमन्तू कामगारों के श्रम की आपूर्ति, उनके मेहनताने, उनके द्वारा होने वाले माल उत्पादन की स्थितियाँ, कीमतें, आदि गिल्ड के सख़्त क़ानूनों के मातहत थीं और इन नियमों का उल्लंघन करना आम तौर पर सम्भव नहीं था। यानी, वहाँ भी प्रत्यक्ष उत्पादक अपनी श्रमशक्ति का अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल करने के लिए स्वतन्त्र नहीं था। इन श्रमिकों का इन सामन्ती बन्धनों से आज़ाद होना उनके उजरती मज़दूर बनने के लिए अनिवार्य था। लेकिन साथ ही इन श्रमिकों को एक दूसरी “आज़ादी” देना भी पूँजीवादी उत्पादन के लिए अनिवार्य था : किसानों को उनके उत्पादन के साधनों ज़मीन से बेदख़ल करना, जो सामन्ती कायदे के अनुसार उन्हें मिली हुई थी और अन्य गैर-खेतिहर दस्तकारों कारीगरों को भी उनके उत्पादन के साधनों से वंचित करना। यानी, सिर्फ उन्हें सामन्ती उत्पीड़न बन्धनों से मुक्त किया जाना था, बल्कि अस्तित्व की उन गारण्टियों से भी मुक्त किया जाना था, जो इस अधीनस्थता और बन्धन के बदले में सामन्ती दौर में प्रत्यक्ष उत्पादकों को एक हद तक मिलती थीं।

इसी प्रक्रिया का दूसरा पहलू यह था कि पूँजी के स्वामियों को (गौर करें, पूँजी के दो रूपों का इतिहास पूँजीवाद के इतिहास से काफी पहले शुरू हो गया था: व्यापारिक पूँजी और सूदखोर पूँजी) एक ओर सामन्ती भूस्वामियों की जगह लेनी थी जिनके आर्थिकेतर उत्पीड़न पर आधारित बन्धनों में किसान व भूदास बँधे थे। वहीं दूसरी ओर, उन्हें उन गिल्डों को भी अतीत की वस्तु बना देना था, जिनके नियमों की बेड़ियाँ दस्तकारों व कारीगरों के पैरों में पड़ी हुई थीं। पूँजीवादी इतिहासकारों व राजनीतिक अर्थशास्त्रों के लेखन में ऐसा प्रकट होता है मानो उभरते पूँजीपतियों ने बस किसी नायकत्वपूर्ण संघर्ष के जरिये इन निकृष्ट बन्धनों को तोड़ व्यापक मेहनतकश जनता को आज़ाद कर दिया। लेकिन जब हम उस दूसरी “आज़ादी” की बात करते हैं, जिसकी चर्चा हमने अभी ऊपर की, तो हमें दिखता है कि आदिम संचय और पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के उद्भव का इतिहास गन्दगी और ख़ून से सना हुआ है। वास्तव में, इस रूपान्तरण ने बस प्रत्यक्ष उत्पादक की अधीनस्थता और उसकी निर्भरता के रूप और चरित्र को बदल दिया, उसे समाप्त नहीं किया। सामन्ती शोषण और उत्पीड़न की जगह पूँजीवादी शोषण ने ले ली। भूदास व निर्भर किसान की जगह उजरती ग़ुलाम ने ले ली। जिस प्रकिया ने पूँजीपति और उजरती गुलाम दोनों को जन्म दिया, उसका आधार था कामगार को उत्पादन के साधनों से वंचित कर उसे पूर्णत: सामाजिक तौर पर पूँजी पर निर्भर बना देना।

इसकी शुरुआत हुई किसानों की ज़मीन से बेदख़ली से। यह प्रक्रिया दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग रूपों में घटित हुई। कहीं ये ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से और आमूलगामी तरीक़े से हुई, तो कहीं यह इतिहास में दीर्घकालिक रूप में फैली हुई क्रमिक प्रक्रिया से हुई। कहीं पर बाड़ेबन्दी के क़ानूनों द्वारा किसानों को उनकी ज़मीनों से जबरन बेदख़ल कर दिया गया, उनके द्वारा साझे तौर पर इस्तेमाल होने वाले साझे जल, जंगल, ज़मीन का क़ानून द्वारा निजीकरण कर उन्हें पूँजीवादी निजी सम्पत्ति में तब्दील कर दिया गया, इसी प्रक्रिया में सामन्ती भूस्वामी पूँजीवादी भूस्वामी में तब्दील हो गया और पूँजी रखने वाले उद्यमियों तथा अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक स्थिति रखने वाले काश्तकारों का एक हिस्सा पूँजीवादी फार्मर के रूप में उभरा; कुछ देशों में बुर्जुआ क्रान्तियों के दौरान सामन्ती भूस्वामियों व चर्च की ज़मीनों को ज़ब्त किया गया और उन्हें पूँजी रखने वाले वर्गों को सौंप दिया गया और उन्हीं के बीच से पूँजीवादी भूस्वामी, पूँजीवादी काश्तकार किसानों व पूँजीवादी मालिक किसानों का वर्ग पैदा हुआ; कहीं पर आंशिक भूमि सुधार हुए और क्रमिक प्रक्रिया में सामन्ती भूस्वामियों के एक हिस्से को पूँजीवादी भूस्वामियों में तब्दील होने का मौका दिया गया, धनी काश्तकारों के वर्ग को पूँजीवादी मालिक किसान व पूँजीवादी काश्तकार किसानों में तब्दील किया गया और बड़ी खेतिहर आबादी में भूमि का वितरण करने के बजाय उन्हें सामन्ती व्यवस्था के दौरान प्राप्त सीमित भोगाधिकार से भी वंचित कर सर्वहारा में तब्दील कर दिया गया। कुल मिलाकर, इतना स्पष्ट है कि किसानों की बड़ी आबादी को ज़मीन से अलग-अलग देशों में अलग-अलग प्रक्रिया में बेदख़ल किया गया और इस रूप में अलग-अलग रूप में आदिम संचय की प्रक्रिया को चलाया गया।

कई कठमुल्लावादी समझते हैं कि आदिम संचय की प्रक्रिया अगर ठीक उन्हीं रूपों में भारत में नहीं चली, जिन रूपों में वह ब्रिटेन में, या फ्रांस में चली, तो फिर यह प्रक्रिया भारत में चली ही नहीं है। उनका मक़सद यह साबित करना होता है कि भारत में पूँजीवाद का विकास ही नहीं हुआ है या पर्याप्त नहीं हुआ है। इस भ्रम का निवारण मार्क्स ने पूँजी, खण्ड-1 में ही कर दिया था :

“खेतिहर उत्पादक, यानी किसान का, ज़मीन से सम्पत्ति-हरण समूची प्रक्रिया का आधार है। इस सम्पत्ति-हरण के इतिहास ने अलग-अलग देशों में अलग-अलग आयाम अपनाये, और यह इतिहास अपने अलग-अलग चरणों से अलग-अलग प्रकार के क्रम में, और अलग-अलग ऐतिहासिक युगों में गुज़रता है। केवल इंग्लैण्ड में, यह एक क्लासिक रूप लेता है, जिसके कारण हम उसे अपने उदाहरण के रूप में लेते हैं।” (वही, पृ. 876)

इसके बाद, मार्क्स इंग्लैण्ड में चौदहवीं सदी के आख़िरी तृतीयांश और फिर सोलहवीं सदी में किसानों की ज़मीन से बेदख़ली का एक ऐतिहासिक वृत्तान्त पेश करते हैं। वह दिखलाते हैं कि चौदहवीं सदी में और फिर एक नये संवेग के साथ सोलहवीं सदी में इंग्लैण्ड के आन्तरिक आर्थिक परिवर्तनों और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के परिवर्तनों के चलते ऊन उत्पादन व व्यापार के बेहद महत्वपूर्ण बन जाने के कारण किसानों की ज़मीन से बेदख़ली की प्रक्रिया चली। वजह थी खेतों को चरागाहों में तब्दील किया जाना। इंग्लैण्ड में व्यवहारत: भूदासत्व की व्यवस्था चौदहवीं सदी के पहले ही समाप्त हो चुकी थी। खेतिहर आबादी के कई हिस्से थे जिसमें मुख्य तौर पर छोटे मालिक किसानों का हिस्सा था; इसके बाद, ऐसे अर्द्धसर्वहारा वर्ग का हिस्सा आता था जिसके पास एक छोटी भूमि थी, लेकिन वह अन्यों के खेतों पर भी काम करता था। इसके अलावा, एक मज़दूर आबादी भी थी, लेकिन उसे भी उसके घर के साथ एक छोटी-सी ज़मीन मिलती थी। ये तीनों ही वर्ग गाँव में मौजूद साझी प्राकृतिक सम्पदा का भी इस्तेमाल अपने जानवरों को चराने के लिए, जलावन लकडी के लिए, फलों व अन्य संसाधनों के लिए करते थे।

इनके ज़मीन से बेदख़ली की प्रक्रिया दो तरीक़े से चली। एक ओर ऊन उत्पादन व व्यापार के समृद्धि के प्रमुख स्रोत के रूप में उभरने के साथ स्वयं व्यापारिक व बुर्जुआ हितों से जुड़ते जा रहे राजतन्त्र ने बहुसंस्तरीय सामन्ती वर्ग के एक हिस्से को बेदख़ल करके ज़मीनों को अपने नियन्त्रण में लिया और इसके साथ ही स्वयं सामन्ती वर्ग ने किसानों को ज़मीन से बेदख़ल कर ज़मीनों को चरागाहों में तब्दील करना शुरू किया। जैसा कि हमने ऊपर जिक्र किया इंग्लैण्ड का निरंकुश राजतन्त्र स्वयं इस समय बुर्जुआ चरित्र ग्रहण करता जा रहा था। बहुसंस्तरीय सामन्ती ज़मीन्दारों के वर्ग से उसका अपना अन्तरविरोध था। सामन्ती ज़मीन्दारों के वर्ग द्वारा व्यापक पैमाने पर किसानों की ज़मीन से बेदख़ली के फलस्वरूप एक बहुत बड़ी आबादी खेती से बाहर धकेल दी गयी और अंग्रेजी मैन्युफैक्चर अभी विकास की उस मंज़िल में नहीं पहुँचा था कि इस भारी आबादी को समेट पाये। बढते सामाजिक असन्तोष के मद्देनज़र राजतन्त्र ने क्रमिक प्रक्रिया में पूँजीवादी भूस्वामियों में तब्दील हो रहे सामन्ती भूस्वामियों द्वारा किसानों की बेदख़ली और खेती योग्य भूमि को बड़े पैमाने पर चरागाहों में तब्दील किये जाने और गाँव की साझी प्राकृतिक सम्पदा को निजी सम्पत्ति में तब्दील किये जाने की रफ़्तार को रोकने के लिए कुछ विनियमनकारी क़ानून भी बनाये। लेकिन उभरते पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत थी कि किसान आबादी को और ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से ज़मीन से बेदख़ल करना ताकि इस नवोदित सर्वहारा वर्ग द्वारा श्रम की आपूर्ति इतनी ज़्यादा हो कि उनकी मज़दूरी न्यूनतम स्तर पर गिरायी जा सके। नतीजतन, ये क़ानून भी इस प्रक्रिया की गति को ज़्यादा धीमा नहीं कर सके।

सोलहवीं सदी में धार्मिक सुधार आन्दोलन के फलस्वरूप चर्च की सम्पत्ति की पूँजीपतियों द्वारा ज़बर्दस्त लूट हुई। इसके अलावा, चर्च से जुड़े ईसाई मठों की भिक्षु आबादी को भी बेदख़ल कर सर्वहाराओं की कतार में खड़ा कर दिया गया। चर्च की सम्पत्ति की लूट का सबसे ज़्यादा फ़ायदा राजतन्त्र के करीबी पूँजीपतियों व व्यापारियों को मिला और साथ ही उभरते पूँजीवादी फार्मरों के वर्ग ने भी इसका अच्छा-ख़ासा हिस्सा लूटा। इन्होंने इन ज़मीनों को हड़पते ही इस पर आनुवांशिक तौर पर अधिकारसम्पन्न रूप में रह रहे निर्भर किसानों व काश्तकारों को बेदख़ल किया। यह प्रक्रिया इतने दर्दनाक तरीक़े से चली कि उस समय की महारानी एलिजाबेथ के मुँह से भी यह निकल गया, “हर जगह ग़रीब आदमी ग़ुलामी में जी रहा है।”

किसानों के ज़मीन से बेदख़ली की प्रक्रिया ओलिवर क्रॉमवेल-नीत क्रान्ति, प्रोटेक्टोरेट के दौर, उसके बाद स्टुअर्ट राजतन्त्र की पुनर्स्थापना और फिर सत्रहवीं सदी के अन्त में अंग्रेजी गौरवशाली क्रान्ति के बाद भी जारी रही। अट्ठारहवीं सदी आते-आते इंग्लैण्ड में छोटे मालिक किसानों का वर्ग (योमैनरी), जो कि सत्रहवीं सदी की मध्य में, क्रॉमवेलीय क्रान्ति के समय तक पूँजीवादी फार्मरों से संख्या में ज़्यादा था और क्रॉमवेल के सामाजिक आधार में मौजूद वर्गों में से एक था, समाप्त हो चुका था। उन्नीसवीं सदी आते-आते साझी प्राकृतिक सम्पत्ति का निजीकरण और पूँजीवादी फार्मरों व भूस्वामियों की ज़मीनों पर बचे कुछ किसानों को हटाने की प्रक्रिया भी, मूलत: और मुख्यत:, पूरी हो चुकी थी।

इसके साथ, लाखों की संख्या में प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों से विलगाव कमोबेश पूरा हुआ। इस विशाल नवोदित सर्वहारा वर्ग के पास अपनी श्रमशक्ति के अलावा और कुछ भी नहीं था। शहरों में बेहद कम मज़दूरी पर काम करने को बाध्य होने का अवसर मिलना भी सौभाग्य की बात थी क्योंकि इस आबादी का एक विचारणीय हिस्सा भिखारी, घुमन्तू, अपराधी आदि में तब्दील हुआ, जिन्हें पकडे जाने पर भयंकर अमानवीय सज़ा झेलनी पडती थी। मज़दूरों की मज़दूरी बढने न पाये इसके लिए चौदहवीं से लेकर उन्नीसवीं सदी तक अंग्रेजी राज्यसत्ता ने अधिकतम मज़दूरी का क़ानून बनाया, जिससे ज़्यादा मज़दूरी देने पर पूँजीपति को और मजूदरी लेने पर मज़दूर को सजा का प्रावधान किया गया था। उन्नीसवीं सदी तक मज़दूरों को संगठित होने व अपने संघ या यूनियन बनाने का भी अधिकार नहीं था। मज़दूरों के वर्ग संघर्ष के बूते पर उन्नीसवीं सदी में न्यूनतम मज़दूरी, कार्यदिवस और यूनियन सम्बन्धी हक़ मज़दूरों को मिलने की शुरुआत हुई। इस तरह अधिकाधिक बुर्जुआ चरित्र ग्रहण करते अंग्रेज निरंकुश राजतन्त्र ने बुर्जुआ वर्ग के साथ मिलकर न सिर्फ़ सामन्तों के वर्ग (जिनके एक विचारणीय हिस्से ने स्वयं को पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग में भी तब्दील किया) की शक्ति को समाप्त किया, वहीं उसने प्रत्यक्ष उत्पादकों के वर्ग को ज़मीन व उत्पादन के साधनों से वंचित कर उसका सर्वहाराकरण किया, उसके अधिकतम सम्भव शोषण को सम्भव बनाने के लिए क़ानून तक बनाये और इस प्रकार आदिम संचय की प्रक्रिया के इस बुनियादी कार्यभार को पूरा किया।

आदिम संचय की इस विशिष्ट प्रक्रिया ने पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग और सर्वहारा वर्ग को पैदा किया, लेकिन पूँजीवादी फार्मरों का वर्ग किस रूप में पैदा हुआ? पूँजी, खण्ड-1 के उन्तीसवें अध्याय ‘पूँजीवादी फार्मर का जन्म’ में मार्क्स बताते हैं कि यह प्रक्रिया कई सदियों में सम्पन्न हुई। मूलत: और मुख्यत:, निर्भर किसानों व अतीत के भूदासों के वर्ग का एक हिस्सा पूँजीवादी फार्मर में तब्दील हुआ। भूदासों का ही एक हिस्सा बेलिफ़ (जो स्वयं अभी भूदास था, लेकिन उसकी स्थिति सामन्ती भूस्वामी के काश्तकार जैसी भी बन गयी थी और वह किसी हद तक उजरती श्रम का शोषण भी करने लगा था), से मेटायर (बँटाईदार से मिलता-जुलता वर्ग) की भूमिका में पहुँचा और अन्तत: एक पूँजीवादी काश्तकार किसान की भूमिका में पहुँच गया जो सामन्ती बन्धनों से मुक्त था, पूँजी निवेश कर उजरती श्रम का शोषण करता था, बेशी मूल्य का एक हिस्सा भूमि लगान के रूप में पूँजीवादी भूस्वामी के हवाले करता था और बाकी मुनाफा अपनी जेब के हवाले करता था। यह प्रक्रिया चौदहवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही जारी थी।

पन्द्रहवीं व सोलहवीं सदी के दौरान स्वतन्त्र छोटे किसानों व खेतिहर मज़दूरों का एक छोटा हिस्सा भी पूँजीवादी फार्मरों में तब्दील हुआ। धर्म सुधार आन्दोलन के दौरान चर्च व मठों की सम्पत्ति की लूट का एक हिस्सा इसके पास भी पहुँचा। बताने का आवश्यकता नहीं है कि इस वर्ग का बड़ा हिस्सा ज़मीन से बेदख़ल हो सर्वहारा वर्ग की कतारों में शामिल हुआ। सोलहवीं सदी में कीमती धातुओं की कीमत में नयी दुनिया की खोज के बाद गिरावट आयी और उसके कारण मुद्रा का मूल्य घटा। इसके कारण, खेतिहर मज़दूरों की वास्तविक आय में भी गिरावट आयी और दूसरी तरफ मुद्रा में तय लगान के वास्तविक मूल्य में भी गिरावट आयी। वहीं खाद्यान्न, ऊन, व अन्य खेती के उत्पादों की कीमतों में बढोत्तरी हुई। नतीजतन, पूँजीवादी फार्मरों को खेतिहर मज़दूरों, पूँजीवादी भूस्वामियों व समस्त उपभोक्ताओं की कीमत पर फायदा पहुँचा और उसके पूँजी संचय की दर में बढोत्तरी आयी।

मार्क्स कहते हैं कि आदिम संचय की उपरोक्त प्रक्रिया ने न सिर्फ विशाल सर्वहारा वर्ग को खड़ा किया, पूँजी-सम्बन्ध की ज़मीन तैयार की और पूँजीपतियों के वर्ग को खड़ा किया, बल्कि उसने इन पूँजीपतियों के लिए एक घरेलू बाज़ार भी पैदा किया। यानी, उसने इन औद्योगिक और खेतिहर पूँजीपतियों के माल के लिए एक बाज़ार भी तैयार किया। जब तक किसान स्वयं अपने खेत पर खेती करते थे, अपने लिए आवश्यक उपकरण, वस्त्र, आदि भी स्वयं बना लिया करते थे, तमाम प्रकार की अन्य वस्तुओं का उत्पादन भी इस आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में हो जाया करता था, तब तक पूँजीपतियों के माल के लिए कोई विचारणीय आकार का बाज़ार भी नहीं था। जैसे-जैसे प्रत्यक्ष उत्पादकों को उनके उत्पादन के साधनों से और साथ ही जीविका व उपभोग के साधनों से वंचित किया गया, वैसे-वैसे सर्वहारा वर्ग में तब्दील हो चुकी यह आबादी न सिर्फ पूँजीपतियों को अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए बाध्य हो गयी, बल्कि यह आबादी इन्हीं पूँजीपतियों से मज़दूरी प्राप्त कर इन्हीं पूँजीपतियों के वर्ग के मालों की ख़रीदार भी बनी। यह तब तक सम्भव नहीं था जब तक कि किसान ज़मीनों व उत्पादन के साधनों से अलग नहीं किये गये थे, जब तक वह साझी प्राकृतिक सम्पदा इन प्रत्यक्ष उत्पादकों द्वारा साझे उपयोग के लिए उपलब्ध थी जो हर जगह गाँवों में मौजूद थी। जैसे ही यह प्रक्रिया सम्पन्न हुई वैसे ही एक विशाल घरेलू बाज़ार भी तैयार हुआ। आदिम संचय के फलस्वरूप खेती में जितने श्रमिक बचे थे, वे पहले से ज़्यादा उत्पादन कर रहे थे क्योंकि बड़े पूँजीवादी फार्मों पर श्रम की सघनता कहीं ज़्यादा थी, उत्पादन की तकनीक कहीं उन्नत थी और उत्पादन का पैमाना भी कहीं व्यापक था। साथ ही, जैसे-जैसे वह ज़मीन न्यूनातिन्यून होती गयी, जिस पर किसान अपने लिए खेती करता था, वैसे-वैसे उस पर पैदा होने वाले सभी खाद्यान्न व श्रमिक की श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन में जाने वाले उत्पाद भी मज़दूरी-उत्पादों में तब्दील हो गये और परिवर्तनशील पूँजी के तत्व बन गये, यानी वे माल जिन्हें मज़दूर अपने लिए पूँजीपतियों से ख़रीदते हैं। उसी प्रकार, खेती के वे उत्पाद जो साधारण माल उत्पादन के करने वाले किसानों के वे माल जो उद्योग के लिए कच्चे माल थे, वे अब स्थिर पूँजी के तत्व बन गये, जिन्हें पूँजीपतियों द्वारा खेतिहर पूँजीपतियों से ख़रीदा जाना था। मार्क्स इस प्रक्रिया को एक उदाहरण से समझाते हैं :

“मिसाल के तौर पर, मान लें कि वेस्टफालिया के किसानों का एक हिस्सा, जो फ्रेडरिक द्वितीय के समय, पटसन कातता था, उसका सम्पत्ति-हरण कर लिया जाता है और उसे ज़मीन से खदेड़ दिया जाता है; और मान लें कि दूसरा हिस्सा, जो पीछे रह गया, उसे बड़े पैमाने के फार्मरों के दिहाडी मज़दूरों में तब्दील कर दिया गया। उसी समय, पटसन कातने और बुनने के बड़े कारखाने खडे हुए, और वे आदमी मज़दूरी के बदले काम करते हैं जिन्हें इसके लिए ‘मुक्त’ कर दिया गया है। पटसन अभी भी ठीक वैसा ही दिखता है, जैसा वह पहले दिखता था। उसका एक रेशा भी नहीं बदला है, लेकिन उसके शरीर में एक नयी सामाजिक आत्मा का प्रवेश हो चुका है। अब यह मालिक मैन्युफैक्चरर के स्थिर पूँजी का एक हिस्सा बन चुका है। पहले यह छोटे उत्पादकों की एक आबादी में बँट जाता था, जिन्होंने खुद ही उसकी खेती की थी और अपने परिवार के साथ छोटे-छोटे हिस्सों में उसे काता था। अब यह एक पूँजीपति के हाथों में सान्द्रित है, जो दूसरों से इससे अपने लिए कतवाता और बुनवाता है। पटसन की कताई में लगने वाला अतिरिक्त श्रम पहले कई किसान परिवारों में अतिरिक्त आय के रूप में बँट जाता था, या फ्रेडरिक द्वितीय के काल में प्रशिया के राजा के पास कर के रूप में चला जाता था। अब यह कुछ पूँजीपतियों के लिए मुनाफे के रूप में वास्तवीकृत होता है। तकले और करघे जो पहले समूचे ग्रामीण क्षेत्र के चेहरे पर बिखरे हुए थे, अब कुछ विशाल श्रम-बैरकों में मज़दूरों और कच्चे माल के साथ एकत्र कर दिये गये हैं। और तकले, करघे और कच्चे माल अब कातने व बुनने वाले मज़दूरों के स्वतन्त्र अस्तित्व के साधनों से उनपर नियन्त्रण करने के साधनों और उनसे अतिरिक्त श्रम निचोड़ने का साधन बन गये हैं, जिसका कोई मुआवजा उन्हें नहीं मिलता। आप इन विशाल कारखानों और विशाल फार्मों को देखकर बता ही नहीं सकते कि ये उत्पादन के बहुत-से छोटे-छोटे केन्द्रों को मिला दिये जाने के फलस्वरूप अस्तित्व में आये हैं और बहुत-से छोटे स्वतन्त्र उत्पादकों के सम्पत्ति-हरण के आधार पर बनाये गये हैं…खेतिहर आबादी के एक हिस्से का सम्पत्ति-हरण और उसकी बेदख़ली ने न सिर्फ औद्योगिक पूँजी के लिए मज़दूरों को खाली कर दिया, उनके जीविका के साधनों और उनके श्रम की सामग्रियों को मुक्त कर दिया; बल्कि इसने एक घरेलू बाज़ार का भी निर्माण किया।” (वही, पृ. 909-10)

आगे मार्क्स लिखते हैं :

“पहले, किसान परिवार जीविका के साधन और कच्चा माल पैदा करता था, जिसका अधिकांश हिस्सा स्वयं उनके ही उपभोग में जाता था। ये कच्चे माल और जीविका के साधन अब माल बन चुके हैं; बड़े पैमाने का फार्मर उन्हें बेचता है, उसे अपना बाज़ार मैन्युफैक्चर्स में मिलता है। धागे, लिनन, मोटे ऊन के सामान – वे वस्तुएँ जिनके लिए कच्चे माल पहले हर किसान परिवार की पहुँच में थे, परिवार द्वारा अपने इस्तेमाल के लिए काते और बुने जाते थे – अब मैन्युफैक्चर की वस्तुएँ बन गये हैं, जिसके बाज़ार ठीक इन्हीं ग्रामीण जिलों में मिलते हैं…इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों के सहायक धन्धों का विनाश, वह प्रक्रिया जिसके जरिये मैन्युफैक्चर खेती से अलग हो जाता है, अतीत के आत्मनिर्भर किसानों के सम्पत्ति-हरण व उनके अपने उत्पादन के साधनों से विलगाव के साथ-साथ जारी रहती है। और केवल ग्रामीण घरेलू उद्योग का विनाश ही किसी देश के घरेलू बाज़ार को वह विस्तार और स्थायित्व दे सकता है जिसकी पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को जरूरत होती है।” (वही, पृ. 910-11)

मार्क्स बताते हैं कि मैन्युफैक्चरिंग के दौर में यह प्रक्रिया पूर्ण नहीं होती है, क्योंकि बड़े पैमाने का उद्योग ही खेती में भी पूँजीवादी विकास को पूर्णता तक पहुँचा सकता है और उसके साथ ही खेतिहर आबादी का बड़ा हिस्सा भी खेती के क्षेत्र से बाहर धकेल दिया जाता है। कारण यह कि बड़े पैमाने की मशीनरी के साथ उन्नत फैक्टरी आधारित पूँजीवादी उद्योग ही खेती के पूँजीवादी रूपान्तरण को एक निर्णायक स्तर तक पहुँचा देता है। इस मशीनरी के आधार पर ही खेती का पूँजीवादी विकास भी गुणात्मक रूप से नयी मंज़िल में पहुँच जाता है। समूचे घरेलू बाज़ार का औद्योगिक पूँजी व खेतिहर पूँजी के लिए जीता जाना मशीनोफैक्चर के साथ ही पूरा होता है।

जहाँ तक औद्योगिक पूँजीपति के पैदा होने का सवाल है, तो मार्क्स बताते हैं कि एक ओर मध्ययुग के गिल्ड के तमाम उस्ताद कारीगर, कुछ शागिर्द कारीगर व मज़दूर भी कुछ पूँजी संचय कर छोटे पूँजीपतियों में तब्दील हुए और उनमें से कुछ आदिम पूँजी संचय के साथ पूँजीवादी उत्पादन के विस्तार के साथ बाक़ायदा पूँजीपतियों के रूप में विकसित हुए। लेकिन पन्द्रहवीं सदी में लम्बी दूरी के व्यापार, नयी दुनिया की खोज व कीमती धातुओं के नये स्रोतों के अस्तित्व में आने के साथ वाणिज्य की जो आवश्यकताएँ पैदा हुईं, उनकी पूर्ति इस लम्बी प्रक्रिया में धीरे-धीरे नहीं हो सकती थी, जिसमें कुछ कारीगर व मज़दूर पूँजीपतियों में तब्दील हुए। लेकिन पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के इतिहास के शुरू होने के सदियों पहले पूँजी का इतिहास शुरू हो चुका था। पूँजी के दो रूप दास व्यवस्था के समय ही अस्तित्व में आ चुके थे और उनका अस्तित्व सामन्ती व्यवस्था के दौर में भी जारी रहा था। ये दो रूप थे : व्यापारिक पूँजी और सूदखोर पूँजी।

सामन्ती दौर में, व्यापारिक पूँजी और सूदखोर पूँजी के स्वामी यानी व्यापारिक पूँजीपतियों और सूदखोर पूँजीपतियों के उद्योग में प्रवेश पर बहुत-सी बन्दिशें थीं। लेकिन सामन्ती व्यवस्था के विघटन और पूँजीवादी व्यवस्था के प्रादुर्भाव के दौर में ये बन्दिशें समाप्त होती गयीं और व्यापारिक पूँजी और सूदखोर पूँजी ने उद्योग के क्षेत्र में प्रवेश किया। मार्क्स लिखते हैं :

“सूदखोरी और वाणिज्य के जरिये बनी मुद्रा पूँजी को गाँव के सामन्ती संगठन और शहरों के गिल्ड संगठन द्वारा औद्योगिक पूँजी में तब्दील होने से रोका जाता था। ये बेड़ियाँ सामन्ती जागीरदारों की व्यवस्था के विघटन के साथ, और ग्रामीण आबादी के सम्पत्ति-हरण और आंशिक बेदख़ली के साथ समाप्त हो गयीं। नये मैन्युफैक्चर्स को समुद्र के किनारे गादियों पर, या ग्रामीण क्षेत्रों के उन बिन्दुओं पर स्थापित किया गया जो पुराने म्युनिसिपैलिटी संघों और उनके गिल्डों के नियन्त्रण के बाहर थे।” (वही, पृ. 915)

मार्क्स बताते हैं कि जैसे-जैसे यह प्रक्रिया आगे बढ़ी वैसे-वैसे आदिम संचय की जारी प्रक्रिया के नये और ताकतवर रूप सामने आते गये। इनमें से औपनिवेशिक लूट, राष्ट्रीय सरकारी ऋण, आधुनिक कराधान प्रणाली और संरक्षणवाद की नीतियाँ प्रमुख थीं। औपनिवेशिक लूट ने व्यापार की प्रक्रिया को ज़बर्दस्त बढ़ावा दिया, उभरते मैन्युफैक्चरर्स को विशाल बाज़ार मुहैया कराया, और भारी पैमाने पर पूँजी संचय करने का अवसर दिया। मार्क्स बताते हैं कि औद्योगिक पूँजीवाद के विकसित चरण में उद्योग वाणिज्यिक श्रेष्ठता की ज़मीन तैयार करते हैं; लेकिन मैन्युफैक्चरिंग के दौर में इसका उलटा होता है। यानी, व्यापारिक इजारेदारी और वाणिज्यिक श्रेष्ठता औद्योगिक विकास और श्रेष्ठता की ज़मीन तैयार करती है। इसी प्रकार, राष्ट्रीय ऋण ने भी आदिम संचय की प्रक्रिया को तेज़ी दी। इस ऋण की पूर्ति के लिए राज्यसत्ता ने करों का बोझ व्यापक मेहनतकश जनता पर लादा। मज़दूरों के लिए इसका अर्थ था बढ़ती महँगाई और मज़दूरी में कटौती, लेकिन छोटे माल उत्पादकों के लिए इसका अर्थ था तबाह होकर मज़दूरों की जमात में शामिल होना। दूसरी ओर, इसका प्रभाव यह होता है कि यह बैंक पूँजी की ताकत को तेज़ी से बढ़ाता है, जो भविष्य में पूँजीवादी उत्पादन के एक प्रमुख विनियामक के रूप में उभरता है।

मार्क्स बताते हैं कि आदिम संचय की प्रक्रिया बिखरे हुए उत्पादन व जीविका के साधनों को, जो छोटे-छोटे उत्पादकों के मातहत होते हैं, कुछ पूँजीपतियों के हाथों में संकेन्द्रित कर देता है जबकि छोटे उत्पादकों की आबादी के बड़े हिस्से को सर्वहारा वर्ग की कतारों में शामिल कर देता है। इसके साथ, छोटे उत्पादकों की छोटी-छोटी निजी सम्पत्तियों का नाश होता है और उसकी जगह कुछ पूँजीपतियों की बड़ी पूँजीवादी निजी सम्पत्ति का विकास होता है। लेकिन यह प्रक्रिया यहाँ रुकती नहीं है। इसके बाद, पूँजी संचय की उन्नत पूँजीवादी प्रक्रिया के ज़रिये कुछ पूँजीपति बाकी पूँजीपतियों को प्रतिस्पर्द्धा में निगलते जाते हैं। पहले मसला था बहुत-से छोटे माल उत्पादकों व किसानों की निजी सम्पत्ति का पूँजीपतियों द्वारा निगल लिये जाने का। अब मसला होता है तमाम छोटे-बड़े पूँजीपतियों की पूँजीवादी निजी सम्पत्ति का मुट्ठी-भर बड़े पूँजीपतियों द्वारा निगल लिया जाना। मार्क्स लिखते हैं :

“जैसे ही इस रूपान्तरण ने पुराने समाज गहराई और व्यापकता के साथ पर्याप्त रूप से विघटित कर दिया होता है, जैसे ही कामगारों को सर्वहाराओं में तब्दील कर दिया गया होता है, और उनके श्रम के साधनों को पूँजी में, जैसे ही पूँजीवादी उत्पादन पद्धति अपने पैरों पर खड़ी होती है, वैसे ही श्रम का और ज़्यादा समाजीकरण और ज़मीन व अन्य उत्पादन के साधनों को सामाजिक रूप से उपयोग और इस प्रकार सामुदायिक उत्पादन के साधनों में उनका और ज़्यादा रूपान्तरण एक नया रूप ले लेता है। अब जिसका सम्पत्ति-हरण होना होता है वे स्वरोज़गार प्राप्त कामगार नहीं हैं, बल्कि वह पूँजीपति है जो बड़ी संख्या में मज़दूरों का शोषण करता है।” (वही, पृ. 928)

यह प्रक्रिया उन्नत पूँजी संचय की प्रक्रिया है जो राजकीय बल प्रयोग या ज़ोर-ज़बर्दस्ती द्वारा नहीं घटित होती है, जैसा कि आदिम पूँजी संचय के साथ होता है। यह प्रक्रिया पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की आन्तरिक गति और तर्क के द्वारा घटित होती है, जिसमें बाज़ार की प्रतिस्पर्द्धा में बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। पूँजी का सान्द्रण तथा संकेन्द्रण होता है, जो अन्तत: इजारेदारी के उदय और उत्पादन के समाजीकरण के उस हद तक जाता है, जहाँ निजी विनियोजन के साथ उसका अन्तरविरोध असमाधेय हो जाता है। अब पूँजी ही पूँजीवादी उत्पादन के रास्ते में बाधा बनने लगती है। मार्क्स लिखते हैं:

“उत्पादन के साधनों का संकेन्द्रण और श्रम का समाजीकरण एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच जाता है कि वे पूँजीवादी आवरण के साथ असंगत हो जाते हैं। यह आवरण फट जाता है। पूँजीवादी निजी सम्पत्ति की मौत की घण्टी बज जाती है। सम्पत्ति-हरण करने वालों का सम्पत्ति-हरण हो जाता है।” (वही, पृ. 929)

मार्क्स बताते हैं कि बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र लम्बे समय तक छोटे माल उत्पादकों की निजी सम्पत्ति और पूँजीवादी निजी सम्पत्ति के अन्तर को नहीं समझ पाया। निजी सम्पत्ति के दिव्य अधिकार की रक्षा करते हुए उसे कभी यह याद नहीं आया कि पूँजीवादी निजी सम्पत्ति न सिर्फ छोटे माल उत्पादकों की निजी सम्पत्ति के विनाश के आधार पर पैदा हुई, बल्कि वह सीधे तौर पर उसके निषेध के आधार पर ही पैदा हो सकती थी। यह बात अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के महाद्वीपों के औपनिवेशीकरण के साथ कई बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों के समझ में आयी। इन महाद्वीपों में जो औपनिवेशिक सेटलर गये, उन्हें अपनी पूँजी का विस्तार करने के लिए शोषण के वास्ते लम्बे समय तक उजरती श्रमिक ही नहीं मिले। जो पूँजीपति इन महाद्वीपों में अपने साथ हजारों मज़दूर लेकर गये, वे भी वहाँ जाकर मज़दूर नहीं रहे। क्योंकि वहाँ पर ज़मीन, संसाधन और उत्पादन के साधनों का ऐसा अम्बार मौजूद था, जिस पर अभी किसी का भी क़ब्ज़ा नहीं था। उनमें से अधिकांश स्वयं छोटे-छोटे भूस्वामी व उद्यमी बन गये। कोई काम करने को राज़ी होता भी था, तो इतनी ऊँची मज़दूरी पर कि वह पूँजी के मूल्य संवर्द्धन को ही असम्भव बना देता था। वहाँ पर जाकर यह सच्चाई राजनीतिक अर्थशास्त्र के समक्ष सामने आयी कि छोटी-छोटी निजी सम्पत्तियों का बलपूर्वक विनाश करके ही पूँजीवादी उत्पादन सम्भव होता है। अन्तत:, इन उपनिवेशों में यूरोपीय सेटलरों ने यही किया। क़ानूनन ज़मीन का निजीकरण कर दिया गया और उसकी ऊँची कीमतें रखी गयीं। इसने वहाँ जाने वाले कामगारों को छोटे माल उत्पादकों व भूस्वामियों में तब्दील होने की प्रक्रिया पर लगाम लगा दी। इसके साथ ही वहाँ पूँजीवादी उत्पादन का उपयुक्त रूप में विकास शुरू हुआ। छोटे माल उत्पादकों की निजी सम्पत्ति के विनाश के बिना पूँजीवादी निजी सम्पत्ति नहीं पैदा हो सकती, यह सच्चाई औपनिवेशीकरण के आधुनिक सिद्धान्त और अनुभव ने पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के समक्ष साफ़ कर दी। मार्क्स पूँजी के पहले खण्ड के अन्त में लिखते हैं:

“यहाँ पर जिस चीज़ में हमें दिलचस्पी है, वह है वह रहस्य जिसका पर्दाफ़ाश नयी दुनिया में पुरानी दुनिया के राजनीतिक अर्थशास्त्र के समक्ष हुआ, और जिसकी उसने पुरज़ोर तरीक़े से घोषणा की: कि पूँजीवादी उत्पादन और संचय, और इसलिए पूँजीवादी निजी सम्पत्ति की भी बुनियादी पूर्वशर्त यह है कि उस निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा हो जाए जो व्यक्ति के श्रम पर निर्भर करती थी; दूसरे शब्दों में, उसकी बुनियादी पूर्वशर्त थी कामगार का सम्पत्ति-हरण।” (वही, पृ. 940)

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2024


 

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