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भारतीय रेल : वर्ग-समाज का चलता-फिरता आर्इना

ये जनरल डिब्बों में भेड़-बकरियों की तरह चलने वाले 92 प्रतिशत लोग कौन हैं? असल में भारत में लगभग 93 प्रतिशत लोगों के यहाँ उनके परिवार के कुल सदस्यों के द्वारा कमाई जाने वाली राशि 10000 रुपये से भी कम है, जबकि हर परिवार में औसतन 5 लोग रहते हैं। ये 93 प्रतिशत लोग छोटे-मँझोले किसान, खेतिहर मज़दूर, रिक्शेवाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले शहरी मज़दूर इत्यादि हैं जिनके दम पर आज भारत तथाकथित विकास की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, जिनके दम पर ट्रेनों के वातानुकूलित डिब्बों के शीशों को चमकाया जा रहा है, मगर जो ख़ुद शौचालय जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की निहायत ही घटिया हालतों वाले डिब्बों में चलने के लिए मजबूर हैं। यहाँ तक कि लम्बी दूरी वाली ट्रेनों में तो शौचालय में ही 5 से 7 लोग भरे होते हैं, इस पूरे समाज का अपने ख़ून-पसीने से निर्माण करने वाली मेहनतकश अवाम के आत्मसम्मान पर भला इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है?

बेरोज़गारी ख़त्म करने के दावों के बीच बढ़ती बेरोज़गारी!

अधिकांश प्रतिष्ठानों ने अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए मज़दूरियों पर होने वाले ख़र्चों में बड़ी कटौतियाँ करने की योजनाएँ बनायी हैं और उत्पादन की आधुनिक तकनीकों का विकास उनके मनसूबों को पूरा करने में मदद पहुँचा रहा है। पूँजीवाद के आरम्भ से ही पूँजीपति वर्ग ने विज्ञान और तकनीकी पर अपनी इज़ारेदारी क़ायम कर ली थी। तब से लेकर आज तक उत्पादन की तकनीकों में होने वाले हर विकास ने पूँजीपतियों को पहले से अधिक ताक़तवर बनाया है और मज़दूरों का शोषण करने की उनकी ताक़त को कई गुना बढ़ा दिया है।

यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर शक्तिशाली व्यक्तियों का एकाधिकार रहेगा…

एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों की इस बढ़ती समाजवादी चेतना के कारण वे विदेशी और देशी पूँजीवाद के रिश्तों को समझ सकते थे। वे विदेशी पूँजीपतियों के साथ भारतीय पूँजीपति वर्ग के समझौतावादी, दलाली के सम्बन्ध को साफ़ तौर पर देख रहे थे, जो दोनों मिलकर जनता से उसका हक़ छीन रहे थे। वे मानते थे कि हिन्दुस्तान को एक वर्ग ने गुलाम बनाया है – जिसमें भारतीय और विदेशी दोनों शोषक शामिल हैं। यह समझदारी अनेक नारों और पर्चों में झलकती है जिनमें कहा गया है कि आज़ादी और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के ख़ात्मे के बीच सीधा रिश्ता है। देशी शोषकों से भी उनका सामना हुआ और उन्होंने साफ़ कहा कि जनता के हितों के लिए वे भी उतने ही ख़तरनाक हैं जितने कि विदेशी पूँजीवादी शासक।

बन्द होती सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनियाँ : सरकार की मजबूरी या साजिश?

किसी समय यह कम्पनी भी पूरे देश के लिए दवाएँ बनाती थी। कई बार तो यह एकमात्र कम्पनी होती थी जो किसी महामारी के समय दवाएँ उपलब्ध करवाती थी। लेकिन अब सरकार ने इसको भी ऑर्डर्स देने बन्द कर दिये हैं। इसके अलावा हिन्दुस्तान एण्टीबायोटिक्स लिमिटेड (HAL) भी ऐसी ही एक सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनी है। इसकी नींव 1954 में पहली एण्टीबायोटिक दवा पेनिसिलिन का आविष्कार करने वाले महान वैज्ञानिक अलेग्जेंडर फ़्लेमिंग ने रखी थी। तब से ही यह कम्पनी सस्ती दरों पर एण्टीबायोटिक दवाएँ बना रही है। एक प्राइवेट कम्पनी ने सिप्रोफ्लोक्सासिन नाम की एक एण्टीबायोटिक 35 रुपये प्रति टेबलेट की दर से लांच की थी तो इस कम्पनी ने यही दवा 7 रुपये की दर से उपलब्ध करवाई थी।

कम बुरा विकल्प नहीं, सच्चे क्रान्तिकारी विकल्प को चुनो!

यह सच है कि पूँजीवादी चुनाव ही अपने आप में मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक कार्यभारों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। समूची आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में आमूलगामी व क्रान्तिकारी बदलाव के बिना हमें बेरोज़गारी, भूख, महँगाई से स्थायी तौर पर निजात नहीं मिल सकती है। लेकिन पूँजीवादी चुनावों में मज़दूर वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष अनुपस्थित रहने के कारण समाज में जारी वर्ग संघर्ष में मज़दूर वर्ग कमज़ोर पड़ता है, वह पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बनता है और साथ ही वह अपने उन अधिकारों को भी नहीं हासिल कर पाता है जिन्हें पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर हासिल किया जा सकता है जैसे कि आठ घण्टे का कार्यदिवस, न्यूनतम मज़दूरी, आवास का अधिकार आदि। इन हक़ों को सुनिश्चित करने के लिए ‘क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा’ की ओर से मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र पक्ष को पेश करने की एक शुरुआत की जा रही है।

ऑटोमोबाइल सेक्टर में एक और आन्दोलन चढ़ा कुत्सित ग़द्दारी और मौक़ापरस्ती की भेंट

आन्दोलन का नेतृत्व इस हार के लिए उतना ज़िम्मेदार नहीं है, जितना कि ये दलाल और मौक़ापरस्त ताक़तें हैं। हीरो संघर्ष का नेतृत्व करने वाली समिति में स्वतन्त्र विवेक से निर्णय लेने और मज़दूरों की सामूहिक ताक़त में यक़ीन करने का बेहद अभाव तो था ही। साथ ही, ‘बड़े भैय्या’ (ये ‘बड़े भैय्या’ कोई भी ट्रेड यूनियन संघ हो सकता था) की पूँछ पकड़कर चलने की प्रवृत्ति और मानसिकता भी मौजूद थी। लेकिन इन तमाम प्रवृत्तियों को प्रश्रय देने का काम ऐसी ही अवसरवादी ताक़तें करती हैं, जैसी कि इस आन्दोलन में मौजूद थीं।

मारुति मज़दूरों के केस का फ़ैसला : पूँजीवादी व्यवस्था की न्याय व्यवस्था का बेपर्द नंगा चेहरा

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह तब है जब हाल ही में अपने जुर्म कबूलने वाले असीमानन्द और अन्य संघी आतंकवादियों को ठोस सबूत होने और असीमानन्द द्वारा जुर्म कबूलने के बाद भी बरी कर दिया जाता है। ये दोनों मुक़दमे बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाते हैं। यह राज्य व्यवस्था और इसलिए यह न्याय व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा जेल में बन्द रखा जाना इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नकाब पूरे तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तंत्र को नुक्सान पहुँचाने का जुर्म करेगा उसे बख़्शा नहीं जायेगा।

अर्थव्यवस्था की विकास दर बढ़ने के आँकड़े : जुमला सरकार का एक और झूठ

पि‍छले दिनों, चुनावों से ठीक पहले जुमला सरकार ने एक और फर्जी आँकड़ा जारी किया कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था की विकास दर और तेज हो गई! कॉर्पोरेट कारोबारी मीडिया में भी कोई इसको स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि दिसम्बर तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 7% की बढ़ोत्‍तरी हो गयी। सच तो यह है कि हर कंपनी के इस तिमाही के नतीजे बता रहे हैं बिक्री में कमी आयी, चाहे साबुन-तेल-चाय पत्ती हो या स्कूटर-मोटर साइकिल या पेंट – मगर सरकार कहती है निजी खपत 10% बढ़ गई है! शायद लोगों ने नोटबंदी के वक्त बैंकों की लाइनों में लगकर भारी खरीदारी की, पर बिक्री हुई नहीं। खेतों में खड़ी फसल आयी भी नहीं थी मगर आँकड़ों में खेती में पिछले महीने से वृद्धि और भी बढ़ गई, रिकॉर्ड उत्पादन होने वाला है। अगर ऐसा है तो फिर सरकार 25 लाख टन गेहूँ आयात क्यों कर रही है, वह भी महँगे दामों पर?

फासीवादियों का प्रचार तन्त्र

फासीवादी तकनोलोजी का इस्तेमाल करने में भी अव्वल होते हैं, गोएबल्स से सीख लेते हुए आज ये लोग टेलीविजन पर मीडिया के बड़े हिस्से में अपना प्रभुत्व क़ायम करे बैठे हैं। अख़बारों के ज़रिये लगातार मोदी का चेहरा, पेट्रोल पम्पों और बस स्टॉप से लेकर तमाम बसों पर मोदी और भाजपा के नारे सबसे अधिक चमकते हैं। फि़ल्मों में संघ की विचारधारा को घोल कर पेश किया जाता है, ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘ज़ोर लगाकर हईसा’ व तमाम फि़ल्मों में सीधे संघ की तारीफ़ आ जाती है। रेडियो पर ‘मन की बात’ के ज़रिये व्यवस्थित प्रचार करने में भी ये अव्वल हैं। सोशल मीडिया के हर रूप में यानी फे़सबुक, ट्विटर और व्हाट्सप्प के विराट तन्त्र का भी ये इस समय अधिकतम इस्तेमाल कर रहे हैं। अफ़वाह फैलाने में और अपने प्रचार को लगातार इन माध्यमों से लोगों तक  संघ के तमाम हिस्सों द्वारा पहुँचाया जा रहा है।

विधानसभा चुनाव परिणाम : फासिस्ट शक्तियों की सत्ता पर बढ़ती पकड़

आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। रास्ता सिपर्फ एक है। हमें ज़मीनी स्तर पर ग़रीबों और मज़दूरों के बीच अपना आधार मज़बूत बनाना होगा। बिखरी हुई मज़दूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके विभिन्न प्रकार के जनसंगठन, मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चैकसी दस्ते आदि तैयार करने होंगे। आज जो भी वाम जनवादी शक्तियाँ वास्तव में फासीवादी चुनौती से जूझने का जज़्बा और दमख़म रखती हैं, उन्हें छोटे-छोटे मतभेद भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में मज़दूर वर्ग की फौलादी मुट्ठी ने हमेशा ही फासीवाद को चकनाचूर किया है, आने वाला समय भी इसका अपवाद नहीं होगा। हमें अपनी भरपूर ताकत के साथ इसकी तैयारी में जुट जाना चाहिए।