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पूँजीपतियों की हड़ताल

ये महज चन्द उदाहरण नहीं है बल्कि हर पूँजीवादी देश में चलने वाली एक आम रिवायत है। पूँजीपति लगातार निवेश, नौकरियाँ, कर्ज़, माल और सेवाएँ – यानी वे संसाधन जिन पर समाज की निर्भरता है – रोककर सरकारों पर दबाव बनाते रहते हैं और लोगों की कीमत पर अपने मुनाफे़ के लिए काम करवाते हैं। उनके हथकण्डों में छँटनी करना, नौकरियाँ और पैसे दूसरे देशों में भेजना, कर्ज़ देने से इंकार करना या फिर ऐसा करने की धमकी देना शामिल होता है। इसके साथ ही यह वादा भी होता है कि जब सरकार उनके मनमाफ़ि‍क नीतिगत बदलाव कर देगी तो वे अपना रुख बदल लेंगे।

स्वच्छता अभियान की देशव्यापी नौटंकी के बीच मुम्बई में सार्वजनिक शौचालय में गिरकर लोगों की मौत

मुम्बई के ज़्यादातर सार्वजनिक शौचालय बनाये तो म्हाडा या बीएमसी द्वारा जाते हैं पर उन्हें चलाने का ठेका एनजीओ या प्राइवेट कम्पनियों को दिया गया है। बेहद ग़रीब इलाक़े में एकदम जर्जर शौचालय के लिए भी ये ठेकेदार 2, 3 से 5 रुपया चार्ज लेते हैं। पूरी मुम्बई में सार्वजनिक शौचालयों से सालाना लगभग 400 करोड़ की कमाई होती है। जाहिर है कि ये इन कम्पनियों के लिए बेहद मुनाफ़़ेे का सौदा है जहाँ ख़र्च कुछ भी नहीं है और कमाई इतनी ज़्यादा है।

नरेन्द्र मोदी – यानी झूठ बोलने की मशीन के नये कारनामे

नरेन्द्र मोदी की मूर्खता का कारण उनका टटपुँजिया वर्ग चरित्र है और गली-कूचों में चलने वाली इस राजनीति में पारंगत प्रचारक, जिसे गुण्डई भी पढ़ सकते हैं, की बोली है जिसे वे प्रधानमन्त्री पद से बोलने लगते हैं। यह टटपुँजिया वर्ग चरित्र उनकी कई अभिव्यक्तियों में झलक जाता है, मसलन कैमरा देखते ही उनकी भाव-भंगिमा में ख़ास कि़स्म का बदलाव आता है, शायद शरीर में सिहरन भी होती हो जिस वजह से अक्सर अख़बारों में आये फ़ोटो में उनका चेहरा कैमरे की तरफ़ होता है।

बजट और आर्थिक सर्वेक्षण: अर्थव्यवस्था की ख़स्ता हालत को झूठों से छिपाने और ग़रीबों की क़ीमत पर थैलीशाहों को फ़ायदा पहुँचाने का खेल

अनौपचारिक क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में लगभग 45% है और औपचारिक क्षेत्र से अपनी कम लागत की वजह से प्रतियोगिता में बाज़ार के एक बड़े हिस्से पर छाया हुआ है। अभी इन सारे प्रावधानों-उपायों से इसे औपचारिक की ओर धकेला जा रहा है जहाँ कम लागत का फ़ायदा समाप्त हो जाने से यह बड़ी कॉर्पोरेट पूँजी के सामने नहीं टिक पायेगा। इससे बड़ी संख्या में श्रमिक बेरोज़गार होंगे, छोटे काम-धन्धों में लगे कारोबारी और छोटे किसान बरबाद हो जायेंगे। लेकिन अर्थव्यवस्था में ज़्यादा विकास-विस्तार न होने पर भी मौजूदा बाज़ार में ही इस बड़ी कॉर्पोरेट पूँजी और उसके कार्टेलों का एकाधिकार, और नतीजतन मुनाफ़ा बढ़ेगा। इसलिए इसके प्रवक्ता कॉर्पोरेट मीडिया और आर्थिक विशेषज्ञ बजट की तारीफ़ों के पुल बाँधने में लगे हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियाँ और जनता का प्रतिरोध

इन नीतियों की घोषणा दर्शाती है कि अमेरिकी जनता के लिए आने वाले दिन आसान नहीं होने जा रहे हैं। यह बात ट्रम्प पर भी लागू होती है। 45 प्रतिशत अमेरिकी जनता जिसका मोहभंग इस व्यवस्था से है और बाक़ी बची जनता इन नीतियों का समर्थन पूर्ण रूप से करेगी, ऐसा लगता नहीं है। इतनी घोर ग़ैरजनवादी, मुसलमान विरोधी, नस्लविरोधी और आप्रवासन विरोधी नीतियों को समर्थन मिलने की जो उम्मीद ट्रम्प को है, वैसा होने नहीं जा रहा है और यह अमेरिका की सड़कों पर दिख भी रहा है।

पाँच राज्यों में एक बार फिर विकल्पहीनता का चुनाव : मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र पक्ष के क्रान्तिकारी प्रतिनिधित्व का सवाल

फासीवादी ताक़तों का ख़तरा किसी उदार पूँजीवादी पार्टी के जरिये नहीं दूर हो सकता है, क्योंकि वह उदार पूँजीवादी पार्टियों के शासन के दौर में पैदा अनिश्चितता, अराजकता और असुरक्षा के कारण ही पैदा होता है। इसलिए हम इस या उस पूँजीवादी पार्टी के ज़रिये तात्कालिक राहत की भी बहुत ज़्यादा उम्मीद न ही करें तो बेहतर होगा। वास्तव में, अब तात्कालिक तौर पर भी मज़दूर वर्ग के लिए यह ज़रूरी बन गया है कि वह स्वतन्त्र तौर पर अपने राजनीतिक पक्ष को पूँजीवादी चुनावों के क्षेत्र में प्रस्तुत करे और अपने क्रान्तिकारी रूपान्तरण की लम्बी लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए इन चुनावों में रणकौशल के तौर पर भागीदारी करे। इसके बिना भारत में मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी आन्दोलन ज़्यादा आगे नहीं जा पायेगा।

नोटबन्दी को लेकर सारे सरकारी दावे झूठे: जनता की मेहनत की कमाई पर डाका

पहले से ही वंचित शोषित मेहनतकश जनता को ही नोटबन्दी के इस क़दम का सबसे ज़्यादा बोझ उठाना पड़ रहा है जबकि असली काले धन वाले अपनी कमाई को न सिर्फ़ खपाने में सफल हुए हैं बल्कि उनको अगर कहीं कुछ नुक़सान हो भी गया हो तो उसके मुआवज़े का भी इन्तज़ाम सरकार इस बजट में कर देगी – कॉर्पोरेट और इनकम टैक्स में कमी करके- जिसका फ़ायदा सिर्फ़ शीर्ष 5% लोगों को होगा जबकि उसकी भरपाई के लिए बढ़ाये जाने वाले अप्रत्यक्ष करों का बोझ बहुसंख्य मेहनतकश जनता को ही उठाना पड़ेगा। इसलिए ये लोग नोटबन्दी को ग़लत नहीं कहते, क्योंकि इन तबक़ों को तो असल में ही ‘थोड़ी असुविधा’ के बाद इससे फ़ायदा होने वाला है।

“अच्छे दिन” के कानफाड़ू शोर के बीच 2% बढ़ गयी किसानों और मज़दूरों की आत्महत्या दर!

हम इस लेख में इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि मुख्यत: कौन सा किसान आत्महत्या कर रहा है – धनी किसान या छोटे ग़रीब किसान और क्यूँ?! राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के अनुसार साल 2015 में कृषि सेक्टर से जुड़ी 12602 आत्महत्याओं में 8007 किसान थे और 4595 कृषि मज़दूर। साल 2014 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 5650 और कृषि मज़दूरों की 6710 थी यानी कुल मिलाकर 12360 आत्महत्याएँ। इन आँकड़ों के अनुसार किसानों की आत्महत्या के मामले में एक साल में जहाँ 42 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई वहीं कृषि मज़दूरों की आत्महत्या की दर में 31.5 फ़ीसदी की कमी आयी है व आत्महत्या करने वाले कुल किसान व कृषि मज़दूरों की संख्या 2014 के मुक़ाबलेे 2 फ़ीसदी बढ़ गयी है।

हिन्दुत्ववादी फासिस्टों और रंग-बिरंगे लुटेरे चुनावी मदारियों के बीच जनता के पास चुनने के लिए क्या है?

भाजपा सत्ता में रहे या न रहे, फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई की योजनाबद्ध, सांगोपांग, सर्वांगीण तैयारी क्रान्तिकारी एजेण्डे पर हमेशा प्रमुख बनी रहेगी, क्योंकि फासीवाद राजनीतिक परिदृश्य पर अपनी प्रभावी उपस्थिति तबतक बनाये रखेगा, जबतक राज, समाज और उत्पादन का पूँजीवादी ढाँचा बना रहेगा। इसलिए फासीवाद विरोधी संघर्ष को हमें पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष के एक अंग के रूप में ही देखना होगा। इसे अन्य किसी भी रूप में देखना भ्रामक होगा और आत्मघाती भी।

क्या आपको अपने मोबाइल फ़ोन में से किसी बच्चे की आहों की आवाज़ आ रही है

कौंगो की इन खदानों में 40,000 बच्चे काम करते हैं। इन बच्चों को दमघोटू खदानों में उच्च तापमान, वर्षा, तूफान में भी काम करना पड़ता है। इनमें 7-8 वर्ष के बच्चे भी हैं जिन्हें ख़ुद से अधिक भार उठाना पड़ता है। इन बच्चों में से अधिकतर की तेज़ी से काम न करने के लिए पिटाई भी होती है। एक 9 वर्ष के मज़दूर को अब से ही पीठ की समस्या शुरू हो गयी है। एक 14 वर्षीय बच्चा बताता है कि उसने 24 घण्टों की शिफ़्ट में भी खदान में काम किया है। एक 15 वर्ष का बच्चा बताता है कि इस काम की सारी कमाई सिर्फ़ खाने में ही ख़र्च हो जाती है। ये बच्चे मुश्किल से 2 डाॅलर प्रतिदिन कमाते हैं। तीन बच्चों की जुबानी कही यह कहानी हज़ारों बच्चों की दासताँ है।