राष्ट्रीय परीक्षा एनईईटी की वेदी पर एक मज़दूर की बेटी की बलि!
पूँजीवादी व्यवस्था में सभी विद्यार्थियों के लिए समान अवसर की बात एक छलावा है
पराग वर्मा
मौजूदा पूँजीवादी समाज में अधिकांश लोगों की ये धारणा होती है कि किसी को जीवन में जो कुछ हासिल होता है चाहे वो उच्च पढ़ाई के लिए किसी कॉलेज में दािख़ला हो, नौकरी हो या फिर पदोन्नति हो, वह पूरी तरह योग्यता/मेरिट के आधार पर न्यायोचित तरीक़े से होता है। मगर तथाकथित योग्यता/मेरिट पर आधारित समाज के वर्गीकरण की इस व्यवस्था की सच्चाई क्या है, इसका अहसास यह व्यवस्था हमें बार-बार कराती रहती है। ऐसी ही एक घटना पिछले दिनों फिर हुई।
तमिलनाडु के अरियालुर जि़ले की 17 वर्षीय अनीता एक दलित दिहाड़ी मज़दूर की बेटी थी, जिसकी माँ का देहान्त आज से लगभग 10 साल पहले ही हो गया था। अनीता की दसवीं तक की पढ़ाई एक सहायता प्राप्त स्कूल से हुई थी और 12वीं की पढ़ाई के लिए उसे फ़ीस में कुछ छूट देकर पढ़ने की इजाज़त मिली थी। पढ़ाई में काफ़ी रुचि रखने वाली अनीता की इच्छा थी कि वो डॉक्टर बने और समाज की सेवा करे। इसके लिए उसने जीतोड़ मेहनत करके 12वीं की परीक्षा में 1200 में से 1176 अंक लेकर तमिलनाडु में पहला स्थान हासिल किया। उसने मेडिसिन के लिए कट ऑफ़ 196.75 अंक भी स्कोर किये। अनीता को पूरी उम्मीद थी कि इन अंकों से उसे किसी मेडिकल कॉलेज में दािख़ला ज़रूर मिल जायेगा। लेकिन वर्ष 2016 में अचानक नियमों में बदलाव कर दिये गये और मेडिकल की पढ़ाई में देशव्यापी समानता लाने के लिए, सभी दािख़ले केवल एनईईटी (नीट) परीक्षा के माध्यम से ही होंगे, ऐसा नियम बना दिया गया। इस अचानक बदलाव के कारण अनीता नीट की परीक्षा में 700 में से केवल 86 अंक ही अर्जित कर पायी और एक ही झटके में उसका डॉक्टर बनने का सपना टूट गया। इस सदमे को वह बर्दाश्त नहीं कर सकी और पिछले एक सितम्बर को उसने आत्महत्या कर ली।
इस तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं की ढेरों कोचिंग कक्षाएँ चलती हैं और अमीर घरों के बच्चे उनमें से परीक्षा की पूरी ट्रेनिंग लेकर निकलते हैं, जिससे उनके लिए परीक्षा में हुए बदलाव के हिसाब से तैयारी कर लेना ज़्यादा मुश्किल नहीं होता, लेकिन अनीता जैसे मज़दूरों के बच्चे तो ऐसी महँगी कोचिंग नहीं कर सकते और उनके लिए इस तरह के बदलाव के बाद परीक्षा में पास होना बेहद कठिन हो जाता है। भारत के विभिन्न राज्यों में स्कूली शिक्षा के अलग-अलग पाठ्यक्रम अलग-अलग भाषाओं के माध्यम से विद्यार्थियों को उपलब्ध होते हैं। लेकिन नीट अभी केवल अंग्रेज़ी और हिन्दी भाषा में आयोजित की जाती है। जो छात्र/छात्रा अंग्रेज़ी या हिन्दी माध्यम के अलावा किसी अन्य भाषा में स्कूली पढ़ाई पूरी करते हैं, उनके लिए इस तरह प्रवेश परीक्षा में अचानक परिवर्तन बहुत मुश्किलें पैदा कर देता है। पाठ्यक्रमों में विविधता के कारण, जिन्होंने माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) के माध्यम से प्री-यूनिवर्सिटी शिक्षा पूरी की है, उनके मुकाबले प्रदेश पाठ्यक्रम से प्री-यूनिवर्सिटी शिक्षा पूरी करने वाले विद्यार्थी अपने ही समकक्षों की तुलना में परीक्षा के हिसाब से कमजोर रह जाते हैं। विशेष रूप से अनीता जैसे ग्रामीण ग़रीब छात्रों और उम्मीदवारों के लिए तो ये परीक्षाएँ और कठिन हो जाती हैं, जब भाषा के साथ-साथ पाठ्यक्रम में भी बदलाव होता है और परीक्षा की तैयारी के लिए समय और साधन दोनों ही उपलब्ध नहीं रहते।
राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित की जाने वाली किसी भी परीक्षा में देश के सभी छात्रों को समान अवसर मिलना चाहिए, परन्तु समान अवसर देने का हवाला देने वाली ये परीक्षाएँ इस ज़मीनी सच्चाई को ही नकार देती हैं कि अवसर तो तभी बराबर का हो सकता है जब हर छात्र के हालात में बराबरी हो। जब पूरे देश में शिक्षा का बाज़ार लगा हुआ हो, तब तो शिक्षा वही ख़रीद सकता है जिसके पास पैसे हो। जो छात्र अंग्रेज़ी माध्यम में नहीं पढ़ पाते और प्रवेश परीक्षाओं की महँगी कोचिंग से वंचित रहते हैं, उनके लिए ये राष्ट्रीय परीक्षाएँ समान अवसर वाली बिल्कुल नहीं होतीं। इन परीक्षाओं में शहरी अमीर तबक़े से आने वाले और अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा पाये एक ख़ास वर्ग को ही विशेष अवसर प्राप्त होता है। गाँव और शहरों में बसे करोड़ों ग़रीब मेहनतकश मज़दूरों के बहुत से बच्चे शिक्षा के इस बाज़ार में भी किसी तरह अपने सपनों को सँजोये रखते हैं, पर ना तो कोई नीति और ना ही कोई सरकार उनकी मदद को आती है और ना ही गै़र-बराबरी पर आधारित इस व्यवस्था में उनकी किसी अदालत में कोई सुनवाई होती है।
अनीता के साथ भी यही हुआ। उसने नीट के िख़लाफ़ आवाज़ उठायी और अपने जैसे कई छात्रों के साथ हो रही नाइंसाफ़ी को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी, पर इस न्यायव्यवस्था में उसका कुछ नतीजा नहीं निकला और अन्ततः अनीता ने हताश होकर आत्महत्या कर ली। नीट जैसी राष्ट्रीय परीक्षाएँ अवसरों को समान नहीं बनातीं, बल्कि अनीता जैसे अनेकों बच्चों को प्रताड़ित करती हैं। अख़बारों से पता चलता है कि इस तरह सैकड़ों बच्चे व्यवस्था के हाथों लाचार होकर आत्महत्या कर लेते हैं। परीक्षाएँ तनाव, अवसाद, आत्मविश्वासहीनता, नाकामी का भय और न जाने कैसी-कैसी मानसिक बीमारियों को अपने साथ लेकर आती हैं। हालात ऐसे हैं कि छात्र-छात्राओं को परीक्षा काल में गुरुजनों से ज़्यादा मनोचिकित्सकों की आवश्यकता पड़ रही है। हर साल परीक्षाओं व परिणाम के समय कितने ही छात्र-छात्राओं की आत्महत्या सामने आती हैं। निश्चय ही ऐसी परीक्षा प्रणाली जो छात्र-छात्राओं की जान ले ले, अमानवीय ही कही जायेगी। दरअसल, यह परीक्षा प्रणाली अपनी शिक्षा व्यवस्था के ही अनुरूप है।
शिक्षा एक बड़ा व्यापार बन गया है। बेहतर शिक्षा के लिए एडमिशन के नाम पर मोटी रक़म वसूली जा रही है। डोनेशन देकर सीट की ख़रीद-फ़रोख़्त का कारोबार भी ख़ूब फल-फूल रहा है। ग़रीब माँ-बाप चाहकर भी अपने बच्चों का दािख़ला अच्छे स्कूलों में नहीं करा सकते । समान अधिकार की बात हमारी सरकारें करती हैं और देश में शिक्षा अधिकार अधिनियम भी लागू किया है, परन्तु इन सबके बावजूद बेहतर शिक्षा का लाभ आम ग़रीब लोगों को नहीं मिल रहा है, क्योंकि देश में शिक्षा व्यवस्था का लगभग पूरी तरह निजीकरण हो गया है। शिक्षा हमारे यहाँ एक उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है जिस पर सरकारों का कोई नियन्त्रण नहीं है। शिक्षण संस्थानों में प्रबन्धकों की ही मनमानी चल रही है। निजी प्रबन्धकीय स्कूलों में फ़ीस के अलावा तमाम गै़र-ज़रूरी शुल्क लिये जाते हैं, जिसका शिक्षा से कोई ताल्लुक नहीं रहता है। तकनीकी और मेडिकल शिक्षा की हालत यह है कि कुछ ग़रीब परिवारों के बच्चे पैसे के अभाव में इस तरह की शिक्षा हासिल करने में नाकाम रहते हैं और कुछ इसे हासिल करने के लिए भारी क़र्ज़ में डूब जाते हैं, जिसकी भरपाई करना भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि रोज़गार के अवसर भी दिन-प्रतिदिन कम होते जा रहे हैं। राजनेताओं व नौकरशाहों द्वारा सरकारी स्तर पर संचालित प्राथमिक एवं कॉलेज की शिक्षा में गिरावट लायी गयी है जिसके चलते शिक्षा पैसेवालों के लिए एक बड़ा व्यापार साबित हो रही है। राजनेता और नौकरशाह अपने बच्चों को कभी सरकारी स्कूलों व कॉलेजों में नहीं पढ़ाते हैं और इनमें से बहुतों का निवेश भी प्राइवेट संस्थाओं में रहता है। स्कूल से लेकर कॉलेज की शिक्षा तक में सफ़ेशपोश और नौकरशाहों का जाल फैला है। सरकारी स्कूलों में बच्चों के बैठने की, किताबों की और यहाँ तक कि शौचालय की सुविधा तक का अभाव है। यह समय की माँग है जब शिक्षा के इस पूँजीवादी चरित्र को समझा जाये। क्यों यह शिक्षा व्यवस्था एक वर्ग के हित में है और दूसरे वर्ग के लिए ग़ुलामी का रास्ता है?
यह शिक्षा प्रणाली व्यक्ति की असीमित क्षमताओं के विकास के लिए नहीं बनी है बल्कि पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत के लिए कामगार तैयार करने के लिए निर्मित की गयी हैै। अकारण नहीं है कि शिक्षा मंत्रालय का नाम बदलकर ”मानव संसाधन” कर दिया गया है। पूँजीवाद में जिस तरह भौतिक प्राकृतिक संसाधनों पर पूँजीपति वर्ग का क़ब्ज़ा होता है, ठीक उसी तरह बौद्धिक संसाधनों जैसे शिक्षा पर भी पूँजीपति वर्ग का क़ब्ज़ा होता है। मौजूदा पूँजीवादी समाज में शिक्षा, मज़दूर-मेहनतकशों की लूट व शोषण को जारी रखने का एक साधन है। यह शिक्षा हर स्तर पर अच्छे निष्ठावान सेवक पैदा करने का काम करती है। इसी शिक्षा से शिक्षित हुए कुछ व्यक्ति अमीर वर्ग की नुमाइन्दगी करते हैं और इसी शिक्षा से दूर किये गये लोगों को ग़ुलामी करनी पड़ती है। यही शिक्षा शोषण-उत्पीड़न को न सिर्फ़ ढँकने का काम करती है, बल्कि इस सब को जायज़ भी ठहराती है। जब शिक्षा, पूँजीपति वर्ग के हाथ में मेहनतकशों के िख़लाफ़ एक अस्त्र हो तो उसकी परीक्षा प्रणाली का भी घोर उत्पीड़नकारी होना लाजि़मी है। परीक्षा प्रणाली के ज़रिये पूँजीपति वर्ग द्वारा मेहनतकशों व उनके बच्चों पर किये जाने वाले उत्पीड़न का व्यवहार तब साफ़तौर पर दिखायी देने लगता है, जब ग़रीब के बच्चों को पढ़ाई के अवसर तक प्राप्त नहीं होते और वो निराश होके आत्महत्या तक पहुँच जाते हैं। आमतौर पर ये परीक्षाएँ व्यवहार से इतनी कटी हुई होती हैं कि ये वास्तविक ज्ञान का मूल्यांकन करने की जगह लोगों के रटने की क्षमता का माप होती हैं। ऐसी ही परीक्षाओं को इतना ऊँचा स्तर दे दिया जाता है कि उसमें पास होने वाला व्यक्ति ही सबसे ज़्यादा योग्य है और ज्ञानी है। अवसरों में असमानता के कारण या किसी भी कारणवश यदि कोई बच्चा उसमें उत्तीर्ण नहीं हो पाता तो उसे इस तरह असफल, अयोग्य व नकारा मान लिया जाता है कि उस परीक्षा का परिणाम जीवन-भर के लिए उसकी दिशा तय कर देता है।
किसी छात्र की योग्यता व ज्ञान को आँकने में पूँजीवादी शिक्षा व परीक्षा प्रणाली बिल्कुल भी कारगर नहीं है। तीन घण्टों के भीतर एक लिखित परीक्षा द्वारा किसी की योग्यता की जाँच नहीं की जा सकती। मगर पूँजीपति वर्ग और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली सरकारों का यह लक्ष्य नहीं है कि वे सबको शिक्षित करें। उनको मौजूदा व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए भिन्न-भिन्न कौशल व योग्यता के लोग चाहिए होते हैं। उनको अपनी ज़रूरत के लिए सीमित संख्या में ही ऐसे लोग चाहिए होते हैं, इसलिए सबको शिक्षित करना, उच्च शिक्षा व तकनीकी तौर पर शिक्षित करना और वह भी व्यावहारिक व वैज्ञानिक सोच के साथ, यह पूँजीवादी व्यवस्था का लक्ष्य ही नहीं होता। आवश्यकतानुसार लोगों को परीक्षाओं में सफल कर पूँजीवादी व्यवस्था हेतु कलपुर्जों के रूप में इस्तेमाल में लाया जाता है और शेष आबादी को असफल कर उनको उनके नारकीय हालात पर छोड़ दिया जाता है। परीक्षाएँ इसी छँटनी को बेहद आसान तरीक़े से अंजाम देती हैं। आगे की शिक्षा से वंचित होने या रोज़गार न पा पाने से जो गुस्सा व क्षोभ व्यवस्था के िख़लाफ़ पैदा होता, परीक्षाएँ इससे पूँजीवादी व्यवस्था को बचाती हैं और परीक्षा में जब कोई असफल होता है, तो उसकी जि़म्मेदारी आसानी से उस पर ही डाल दी जाती है। असफल होने वाला इस बात से सहमत हो जाता है कि उसकी अपनी कमी से ही वह असफल हुआ है और अगर वह और अधिक मेहनत करता तो ज़रूर सफल हो जाता। वह मान लेता है कि वह इसके योग्य ही नहीं है, जैसे कि बाक़ी सफल व्यक्ति हैं। पूँजीवादी शिक्षा व परीक्षा प्रणाली मज़दूरों, किसानों-मेेहनतकशों के बच्चों के साथ क्रूरता के साथ पेश आती हैै। परीक्षा प्रणाली का सबसे ज़हरीला दंश इन्हीं वर्ग के बच्चों को सहना होता है। अपनी वर्गीय स्थिति के कारण परीक्षाओं में सबसे ज़्यादा यही बच्चे फेल कर दिये जाते हैं और कम उम्र में ही पूँजीवादी श्रम की लूट में अपने को खटाने पर मजबूर कर दिये जाते हैं। लेकिन पूँजीपति वर्ग और उसके लिए आवश्यक विशेषज्ञों का प्रशिक्षण अलग ढंग से और अलग स्कूल-संस्थानों में होता है जिन्हें हम प्रतिष्ठित स्कूल-संस्थानों के रूप में जानते हैं।
अनीता जैसी होनहार विद्यार्थी की आत्महत्या से आहत हर इंसाफ़पसन्द व्यक्ति को व्यवस्था में मौजूद इस भेदभाव को अच्छी तरह समझने की कोशिश करना चाहिए, क्योंकि यह हार उस बच्ची की नहीं है जो केवल एक परीक्षा को पार नहीं कर पायी, पर उन सबकी है जो इस व्यवस्था में मौजूद गै़र-बराबरी को ढँकते फिरते हैं। इस पूरे प्रकरण ने एक बार फिर पूरी व्यवस्था में व्याप्त वर्ग आधारित गै़र-बराबरी को उजागर कर दिया है। शिक्षा से ही समाज में बदलाव लाया जा सकता है, ऐसा कहने वाले ज्ञानियों के मुँह पर भी यह एक तमाचा है। जिस शिक्षा की वे वाहवाही करते हैं, वह तो प्राइवेट स्कूल/कॉलेज/कोचिंग इंस्टिट्यूट द्वारा बिकाऊ बन चुकी है और इस देश की अधिकांशतः मेहनतकश जनता की पहुँच से बहुत दूर जा चुकी है।
दूसरे, इस शिक्षा के चरित्र में भी प्रगतिशीलता और जनवाद के तत्व तक मौजूद नहीं हैं, जिनके अभाव में यह एकदम खोखली है। ऐसे में अनीता जैसी समाज के बारे में सोचने वाली उन्नीस साल की लड़की की मृत्यु से एक ही प्रेरणा ली जानी चाहिए कि इस गै़र-बराबरी की व्यवस्था को उखाड़ फेंका जाये, जिसमें समस्त सुविधाओं युक्त शहर में, आर्थिक-सामाजिक शक्ति युक्त, जाति-धर्म के साधन-सम्पन्न परिवार में, विशिष्ट लिंग में जन्म लेने के विशेषाधिकारी को ही मेरिटधारी/योग्य कहा जाता है। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर तो जहाँ अमीर और ग़रीब के बीच वर्ग आधारित खाई बढ़ती ही जानी है, वहाँ समान अवसरों की बात करना भी अपने आप में एक ढोंग है। पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर शिक्षा के उत्पीड़नकारी चरित्र से मुक्ति नहीं मिल सकती। पूँजीवादी व्यवस्था का ख़ात्मा कर शिक्षा को उससे मुक्त कराना ज़रूरी है। यह काम सामाजिक क्रान्ति के बिना नहीं हो सकता। सभी को शिक्षा में समान अवसर केवल एक न्यायसंगत व्यवस्था में ही मिल सकते हैं।
मज़दूर बिगुल,सितम्बर 2017
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