Category Archives: Slider

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की जीत का मतलब क्या है?

जनता को अगर भविष्य का विकल्प नहीं मिलेगा तो वह उसे अतीत में तलाशेगी और ट्रम्प ने इसी का इस्तेमाल किया। उसने “महान” अमेरिकी राष्ट्र के पुराने दिनों को वापस लाने का नारा दिया। उसने बेरोज़गारी से तंगहाल जनता को यह समझाया कि उसकी इस हालात के ज़िम्मेदार वे प्रवासी हैं जो मेक्सिको और एशिया-अफ्रीका के देशों से आकर उनकी नौकरियाँ खा जाते हैं। इसलिए वह इन प्रवासियों को देश से बाहर कर देगा और उनके आने पर रोक लगा देगा। उसने कहा कि हमारी कम्पनियाँ और पूँजीवादी घराने इसलिए मुनाफ़ा नहीं कमा पाते क्योंकि पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर उन्हें ज़्यादा खर्च करना पड़ता है। इसलिए पर्यावरण सुरक्षा के नियमों को किनारे लगाकर, वह कोयला जैसे उन ऊर्जा स्रोतों का और दोहन करेगा जो बहुत ज़्यादा प्रदूषण करते हैं। पूँजीपतियों को ज्यादा मुनाफ़ा मतलब जनता की बेहतरी!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देश के स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान की असलियत

विभिन्न पूँजीवादी प्रसार माध्यमों के द्वारा किये जा रहे लुभावने प्रचार के पीछे छुपे ज़हरीले सत्य को पहचानने के लिए, जनता को ग़रीबी की ओर ढकेलने वाली व जनता के बीच फूट डालने वाली संघी राजनीति को उखाड़ फेंकने के लिए संघ का इतिहास जनता के सामने आना बहुत ज़रूरी है। आज संघ देशप्रेम की कितनी ही बातें कर ले पर उनका सच्चा काला इतिहास संघ के ही साहित्य में सुरक्षित रखा हुआ है। हाफ़ पैण्ट छोड़कर फुल पैण्ट पहनने पर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नंगापन छुपेगा नहीं।

फ़ासिस्ट ट्रम्प की जीत ने उतारा साम्राज्यवाद के चौधरी के मुँह से उदारवादी मुखौटा

डोनाल्ड ट्रम्प जैसे धुर दक्षिणपंथी और फ़ासिस्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति के विश्व-पूँजीवाद की चोटी पर विराजमान होने से निश्‍चय ही अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया भर के मज़दूरों की मुश्किलें और चुनौतियाँ आने वाले दिनों में बढ़ने वाली हैं। मज़दूर वर्ग को नस्लीय और धार्मिक आधार पर बाँटने की साज़‍िशें आने वाले दिनों में और परवान चढ़ने वाली हैं। लेकिन ट्रम्प की इस जीत से मज़दूर वर्ग को यह भी संकेत साफ़ मिलता है कि आज के दौर में बुर्जुआ लोकतंत्र से कोई उम्मीद करना अपने आपको झाँसा देना है। बुर्जुआ लोकतंत्र के दायरे के भीतर अपनी चेतना को क़ैद करने का नतीजा मोदी और ट्रम्प जैसे दानवों के रूप में ही सामने आयेगा। आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में परिस्थितियाँ चिल्ला-चिल्लाकर पूँजीवाद के विकल्प की माँग कर रही हैं। इसलिए वोट के ज़रिये लुटेरों के चेहरों को बदलने की चुनावी नौटंकी पर भरोसा करने की बजाय दुनिया के हर हिस्से में मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद को कचरे की पेटी में डालकर उसका विकल्प खड़ा करने की अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को निभाने के लिए आगे आना ही होगा।

अक्टूबर क्रान्ति के शताब्दी वर्ष की शुरुआत के अवसर पर ‘लेनिन कथा’ से कुछ अंश

व्लादीमिर इल्यीच ने अख़बार का नाम ‘ईस्क्रा’ (चिनगारी) ही रखने का फ़ैसला किया। शूशेन्स्कोये में रहते हुए ही उन्होंने उसकी पूरी योजना तैयार कर ली थी। अब उसे कार्यरूप देना था। साइबेरिया से लौटकर व्लादीमिर इल्यीच प्स्कोव में रहने लगे। अकेले ही। नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्‍ना (लेनिन की जीवनसाथी) की निर्वासन अवधि अभी ख़त्म नहीं हुई थी, इसलिए वह बाक़ी समय के लिए उफ़ा में ही रुक गयीं। व्लादीमिर इल्यीच को प्स्कोव में रहने की इजाज़त थी। वहाँ उन्होंने ‘ईस्क्रा’ निकालने के लिए तैयारियाँ शुरू कीं। वह विभिन्न शहरों की यात्रा करते। ‘ईस्क्रा’ में काम करने के लिए साथियों को ढूँढ़ते। अख़बार के लिए लेख लिखने वालों को ढूँढ़ना था। फि‍र ऐसे आदमियों की तलाश भी ज़रूरी थी, जो अख़बार का गुप्त रूप से वितरण करते। ‘ईस्क्रा’ को आम तरीक़े से दूकानों और स्टॉलों पर बेचा नहीं जा सकता था। और अगर कोई ऐसा करता, तो उसे तुरन्त जेल हो सकती थी। अख़बार निकालने के लिए पैसों की भी ज़रूरत थी।

अक्टूबर क्रान्ति की स्मृतियों से संकल्प लो – नयी सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियों की तैयारी करो

जिस मज़दूर आबादी को अनपढ़, गँवार, पिछड़ा हुआ माना जाना है वह एक विशाल देश में न सिर्फ़ अपनी सत्ता को स्थापित कर सकती है, बल्कि उसे चला सकती है और एक बेहतर समाज की रचना कर सकती है। इस तौर पर, अक्टूबर क्रान्ति ने मानव इतिहास में एक निर्णायक विच्छेद का प्रदर्शन किया और एक नये युग का आरम्भ कियाः समाजवादी संक्रमण का युग। इस युग की आरम्भ के बाद मज़दूर वर्ग ने कई अन्य देशों में समाजवादी प्रयोग करके, विशेष तौर पर चीन में, नये मानक स्थापित किये और नये चमत्कार किये। लेकिन ये सभी प्रयोग पहले दौर के समाजवादी प्रयोग थे।

विकास के शोर के बीच भूख से दम तोड़ता मेहनतकश

भारत में कुल पैदावार का चालीस प्रतिशत गेहूँ हर साल बर्बाद हो जाता है। लेकिन गाय की पूजा से देशभक्ति को जोड़ने वाली सरकार को देश के भूखे मरते लोगों की चिन्ता क्यों होने लगी? बहरहाल सरकार का कहना है कि यह अनाज ख़राब भण्डारण और परिवहन की वजह से ख़राब होता है। लेकिन सवाल ये है कि भण्डारण और परिवहन की ज़ि‍म्मेवारी किसकी है? इस सम्बन्ध में 2001 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी जिसमें कहा गया था कि देश की बड़ी आबादी भूखों मरती है और अनाज गोदामों में सड़ता है।

समाज सेवा के नाम पर बच्चियों की तस्करी – आर.एस.एस. का साम्प्रदायिक, स्त्री विरोधी चरित्र हुआ और नंगा

आर.एस.एस. अपने साम्प्रदायिक फासीवादी नापाक इरादों के लिए बड़े स्तर पर बच्चियों की तस्करी कर रहा है। अधिक से अधिक हिन्‍दुत्ववादी स्त्री प्रचारक व कार्यकर्ता तैयार करने के लिए असम से छोटी-छोटी आदिवासी बच्चियों को समाज सेवा के नाम पर आर.एस.एस. संचालित प्रशिक्षिण शिविरों में भेजा रहा है। इन रिपोर्टों से जो सच सामने आया है वह तो बस एक झलक ही है। दशकों से जिस बड़े स्तर पर आर.एस.एस. ऐसी कार्रवाइयों को अंजाम दे रहा है उसका तो अंदाज़ा तक नहीं लगाया जा सकता।

पूँजीवादी मुनाफे का चक्का जाम करने के लिए मज़दूरों को अपनी एकता को मज़बूत कर लम्बी लड़ाई लड़नी होगी!

असल में एकदिनी हड़तालें करना इन तमाम यूनियनों के अस्तित्व का प्रश्न है। ऐसा करने से उनके बारे में मज़दूरों का भ्रम भी थोड़ा बना रहता है और पूँजीपतियों की सेवा करने का काम भी ये यूनियनें आसानी से कर लेती हैं। यह एकदिनी हड़ताल कितनी कारगर है यह इसी बात से पता चलता है कि ऐसी हड़तालों के दिन आम तौर पर तमाम पूँजीपति और कई बार कुछ सरकारी विभाग तक खुद ही छुट्टी घोषित कर देते हैं। और कई इलाकों में मालिकों से इनकी यह सेटिंग हो चुकी होती है कि दोपहर तक ही हड़ताल रहेगी और उसके बाद फैक्ट्री चलेगी। गुड़गाँव में इस हड़ताल की “छुट्टी” के बदले इससे पहले वाले हफ्ते में ओवरटाइम काम करवा लिया जाता है। इसे रस्म नहीं कहा जाये तो क्या कहें?

पूँजीवाद और स्वास्थ्य सेवाओं की बीमारी

अगर डॉक्टरों की बात की जाये तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टरों की भारी कमी का आलम ये है कि भारत में दस हजार की आबादी पर सरकारी और प्राइवेट मिलाकर कुल डॉक्टर ही 7 हैं और अगर अस्पतालों में बिस्तरों की बात करें तो दस हजार की आबादी पर सिर्फ 9 बिस्तर मौजूद हैं। इस पर भी उदारीकरण और निजीकरण के चलते इन सीमित डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवाओं का केन्द्रीकरण भी शहरों में ही सीमित हो कर रह गया है. एक अध्ययन के अनुसार भारत में 75 प्रतिशत डिस्पेंसरियां, 60 प्रतिशत अस्पताल और 80 प्रतिशत डॉक्टर शहरों में हैं जहाँ भारत की केवल 28 आबादी निवास करती है।

हमारी लाशों पर मालिकों के आलीशान बंगले और गाड़ियां खड़ी हैं!

अगर एक फैक्ट्री के मज़दूर चाहें भी तो मिलकर मालिक-पुलिस-दलाल-लेबरकोर्ट-सरकार की शक्ति से नहीं लड़ सकते हैं। वज़ीरपुर की एक फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या औसतन 30 होती है और मालिक किसी भी बात पर पूरी फैक्ट्री के मज़दूरों की जगह दूसरे मज़दूरों को ला सकता है लेकिन अगर स्टील का पूरा सेक्टर जाम हो जाये या पूरे इलाके में हड़ताल हो जाये तो मालिक हमारी बात सुनाने को मजबूर होगा।