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मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (छठी किस्त)

जिस हद तक मशीन का कोई मूल्य है, और इसलिए वह उत्पाद को मूल्य हस्तान्तरित करती है, उस हद तक वह उस उत्पाद के मूल्य का अंग बन जाती है। उत्पाद को सस्ता करने की बजाय वह स्वयं के मूल्य के अनुपात में उत्पाद को महँगा कर देती है। यह स्पष्ट है कि मशीनें और मशीनरी के तंत्र, बड़े पैमाने के उद्योग द्वारा उपयोग किये जाने वाले अभिलाक्षणिक श्रम के साधन, दस्तकारी और मैन्युफैक्चरिंग में उपयोग किये जाने वाली श्रम के साधनों से अतुलनीय रूप से अधिक मूल्यवान हैं।

अरब देशों में भारतीय मज़दूरों की दिल दहला देने वाली दास्तान

काफ़ला प्रणाली के तहत खाड़ी के देशों में पहुँचे प्रवासी मज़दूरों का भयंकर शोषण किया जाता है, उनसे जमकर मेहनत भी करवायी जाती है और बदले में न तो नियमित मज़दूरी मिलती है और न ही कोई सुविधाएँ। ये मज़दूर नरक जैसे हालात में काम करते हैं और ऐसे श्रम शिविरों में रहने को मजबूर होते हैं जहाँ शायद कोई जानवर भी रहना न पसंद करे। अरब की तपती गर्मी में ऐसे हालात में ये मज़दूर किस तरह से रहते होंगे यह सोचने मात्र से रूह कांप उठती है।

होंडा मज़दूरों का संघर्ष जारी है!

गुडगाँव, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल, भिवाड़ी तक फैली ऑटोमोबाइल सेक्टर की औद्योगिक पट्टी में मजदूरों के गुस्से का लावा उबल रहा है जो समय समय पर फूट कर ज़मीन फाड़कर बाहर निकलता है. ऐसे गुस्से को हमें एक ऐसी यूनियन में बांधना होगा जो पूरे सेक्टर के तौर पर मजदूरों को संगठित कर सकती हो। हमें होंडा के आन्दोलन को भी पूरे औद्योगिक सेक्टर में फैलाना होगा। इस संघर्ष को हमें जंतर मंतर पर खूंटा बाँधकर चलाना होगा तो दूसरी और हमें टप्पूकड़ा से लेकर गुडगाँव-मानेसर-बावल-भिवाड़ी के मजदूरों में अपने संघर्ष का प्रचार करना चाहिए जिससे कि उन्हें भी इस संघर्ष से जोड़ा जा सके. यह इस आन्दोलन के जीते जाने की सबसे ज़रूरी कड़ी है।

गुड़गाँव में मज़दूरों के एक रिहायशी लॉज की चिट्ठी, मज़दूर बिगुल के नाम!

मैं एक लॉज हूँ। आप भी सोच रहे होंगे की कोई लॉज कब से बात करने लगा, और आपके अख़बार में चिट्ठी भेजने लगा। अरे भाई मैंने भी पढ़ा है आपका यह अख़बार ‘मज़दूर  बिगुल’, मेरे कई कमरों में पढ़ा जाता है यह, तो भला में क्यों नहीं पढूँगा? इसीलिए मैंने सोचा कि क्यूँ न मैं भी अपनी कहानी लिख भेजूं।

मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (पाँचवी किस्त)

सबसे पहले तो मज़दूर अपना काम उस पूँजीपति के नियंत्रण में करता है जो उसके श्रम का मालिक होता है। पूँजीपति इसका पूरा ध्यान रखता है कि काम ठीक ढंग से किया जाए, और उत्पादन के साधनों का उचित उपयोग हो सके। वह इसका ध्यान रखता है कि कोई भी कच्चा माल बेकार न जाए, और श्रम के किसी औजार में कोई ख़राबी न आए। इनमें से बाद वालों का इस्तेमाल उसी हद तक करना होता है जिस हद तक वे श्रम की प्रक्रिया में आवश्यक होते हैं।

भाजपा और आरएसएस के दलित प्रेम और स्त्री सम्मान का सच

आज भारत का कोई भी नागरिक, व्यक्ति जिसके पास थोड़ा भी विवेक होगा वह जात-पाँत और स्त्रियों के प्रति दोयम व्यवहार को किसी भी रूप में समाज के लिए ख़तरनाक कहेगा। आज़ादी की जिस लड़ाई में भारत के पुरुषों के साथ महिलाएँ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ी, हर एक जाति धर्म से लोग उठ खड़े हुए। बराबरी और समानता के विचारों के नए अंकुर इसी आज़ादी के दौरान फूटे। देश के क्रान्तिकारियों ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ सभी को बराबरी और अधिकार प्राप्त हों, वहीं आरएसएस और मुस्लिम लीग ने लोगों को सदियों पुरानी रूढ़ियों और बेड़ियों में जकड़ने के लिए अपनी आवाज़ उठायी। और अपने इस गंदे मंसूबों के लिए बहाना बनाया प्राचीनता का, संस्कृति का और लोगों के आँख पर पट्टी चढ़ाने की कोशिश की धर्म की।

लुभावने जुमलों से कुछ न मिलेगा, हक़ पाने हैं तो लड़ना होगा!

अपने देश में एक ओर छात्रों-युवाओं, मज़दूरों, दलितों, अल्पसंख्यकों का जिस तरह दमन किया जा रहा है और दूसरी ओर गोरक्षा से लेकर लव जिहाद तक जिस तरह से उन्माद भड़काया जा रहा है वह भी इसी तस्वीर का एक हिस्सा है। पूँजीवादी व्यदवस्था का संकट दिनोंदिन गहरा रहा है और जनता की उम्मीदों को पूरा करने में दुनियाभर की पूँजीवादी सरकारें नाकाम हो रही हैं। पूँजीपतियों के घटते मुनाफ़े और बढ़ते घाटे को पूरा करने के लिए मेहनतकशों की रोटी छीनी जा रही है, उनके बच्चों से स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार छीने जा रहे हैं, लड़कर हासिल की गयी सु‍विधाओं में एक-एक कर कटौती की जा रही है।

फासीवादी नारों की हक़ीक़त – हिटलर से मोदी तक

अगर हम आज अपने देश में उछाले जा रहे फ़ासीवादी नारों पर एक नज़र दौड़ाएँ तो हिटलर की इन नाजायज़ औलादों के मंसूबे भी हम अच्छी तरह समझ पाएंगे। ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है’ सड़क पर, चौराहे पर बड़े-बड़े होर्डिंग पर यह नारे आँखों के सामने आ जाते है, रेडियो पर, अखबारों में, टीवी पर, बमबारी की तरह यह नारे हमारी चेतना पर हमला करते हैं। लेकिन जैसा ब्रेष्ट ने पहले ही चेता दिया है और जैसा हम अपनी ज़िन्दगी के हालात से भी समझ सकते है कि आखिर यह ‘सब’ कौन है जिनका विकास हो रहा है और यह कौनसा ‘देश’ है जो आगे बढ़ रहा है।

लाखों खाली पड़े घर और करोड़ों बेघर लोग – पूँजीवादी विकास की क्रूर सच्चाई

खाये-पीये-अघाये लोग ज़ि‍न्दगी की हक़ीक़त से इतना कटे रहते हैं कि महानगरों के भूदृश्य में उन्हें बस गगनचुंबी इमारतें ही नज़र आती हैं और चारों ओर विकास का गुलाबी नज़ारा ही दिखायी देता है। लेकिन एक आम मेहनतकश की नज़र से महानगरों के भूदृश्य पर नज़र डालने पर हमें झुग्गी-झोपड़ि‍यों और नरक जैसे रिहायशी इलाकों के समुद्र के बीच कुछ गगनचुंबी इमारतें विलासिता के टापुओं के समान नज़र आती हैं। विलासिता के इन टापुओं पर थोड़ा और क़रीबी से नज़र दौड़ाने पर हमें इस अजीबोगरीब सच्चाई का भी एहसास होता है कि झुग्गियों के समुद्र के बीच के इन तमाम टापुओं में ऐसे टापुओं की कमी नहीं है जो वीरान पड़े रहते हैं, यानी उनमें कोई रहने वाला ही नहीं होता।

मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (चौथी किस्त)

किसी चीज़ की उपयोगिता उसे उपयोग-मूल्य प्रदान करती है। परन्तु यह उपयोगिता अपने आप में उससे कोई अलग चीज़ नहीं है। माल के गुणों से निर्धारित होने के नाते उनके बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिए माल अपने आप में, जैसे लोहा, गेहूँ, हीरा आदि, उपयोग-मूल्य या वस्तु है…